Sunday, January 30, 2011

कौन सही कौन गलत




प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन का सारा लगभग साथ साल का जीवन उस
नियम को खोजनें में गुजर गया जिस नियम से
प्रकृति अपना काम पर रही है और विज्ञान को मुस्कुराते रहना
कह कर स्वयं मायूशी के साथ जाते - जाते यह कह गए की ...........
यदि अगला जन्म लेनें का अधिकार मुझे मिला तो मैं वैज्ञानिक न बनाकर
एक नलका ठीक करनें वाला मिस्त्री बनना ज्यादा पसंद करूंगा
क्यों की वह अपनें जीवन में खुश रहता है ।

अब आगे ------
जैन और हिन्दू
जैनी तीर्थ शुष्क स्थानों में पाए जाते हैं और हिदुओं के तीर्थ नदी के किनारे
जहां जल हो और हरियाली हो ऐसे स्थानों में स्थित हैं --- ऐसा क्यों है ?
जैन साधाना को तप कहते हैं जिसमें जैन मुनि अपनें शरीर को तपाता है ;
साधाना में जब शरीर की सम्पूर्ण ऊर्जा जब बाहर निकल आती है
और मुनि के चारों ओर एक आयाम बना कर हर पल उनके साथ
रहने लगती है तब वह मुनि परम में स्थित होता है और हिन्दू .......
साधक अति को नहीं साधता , वह सम्यक स्थिति में ब्रह्म मय होना चाहता है ।
सम्यक भोजन , सम्यक निद्रा , सम्यक जागरण के सहारे
वह धीरे - धीरे आगे की ओर सरकता हुआ आगे चलता है
और एक दिन ब्रह्म मय हो कर अब्यक्त में समा जाता है ।
जैन - साधना अति पर आधारित है और हिन्दू की साधनाएं समभाव - आधारित हैं ।
अब आप सोचो ------
इन दो परम्पराओं में कौन ठीक है
और कौन गलत है
इन दो परम्पराओं में रहनें पर आप को मिलेगा की -----
घड़ी की सुयीयाँ चल रहीं है सामनें से देखनें वाला कहता है .....
clockwise direction में चल रही है
और पीछे से जोदेख रहा है वह कहेगा ......
anticlockwise direction में चल रही हैं ....
आखिर ठीक कौन है ?
दोनों ठीक हैं और दोनों का गंतब्य एक है ॥
यह जो लोग कहते हैं की .....
मेरा मार्ग अति उत्तम है और अन्य के मार्ग गलत है ,
वह स्वयं तो अन्धकार में सोया ही हैइस उम्मीद से की सभी
मेरे जैसे अन्धकार में पड़े रहें ॥
==== ॐ ======

Saturday, January 29, 2011

कभी इसे भी सोचना




दो किनारे हैं एक वह जहां से हम आये और
दूसरा वह जहां जा रहे हैं ॥
जहां से आये , वह अब्यक्त है , और
जहां धीरे - धीरे सरकते हुए जा रहे हैं , वह भी अब्यक्त ही है ॥
जिस रस्सी के दोनों किनारे अब्यक्त हों उस रस्सी की क्या स्थिति होती होगी ,
आप इस बात पर सोचना ।

एक और बात ----
जन्म का हाल हमें लोगों से कभी - कभी मिल जाता है और
जीवन का दूसरा किनारा है मौत जिसको भी अब्यक्त ही कहा जा सकत है क्योंकि ....
आज तक कोई ऐसा न हुआ जिसको मौत का अनुभव हो
और वह अपनें अनुभव को लोगों को बताया हो ।
कौन बता सकता है अपनें मौत को ?
कौन देख सकता है अपनें मौत को ?
और कौन समझ सकता है अपनें मौत को ?
मौत उनके लिए भय नहीं जो ....
अपनें सभी बंधनों को एक - एक करके स्वयं काट दिया हो ....
जो संसार का द्रष्टा बन चुका हो .....
जिसके लिए यह संसार एक रंगमंच सा दिखता हो ....
जो हर पल प्रभु एन रहता हो ॥
==== ॐ =====

Sunday, January 23, 2011

कभीं सोचना -----

कौन है इनका .......
धर्म - गुरु
और
शिक्षक ?

संसार में मनुष्यों से अधिक अन्य जीव हैं जो एक कोशिकीय से हांथी तक के आकार के हैं लेकीन
मनुष्य समाज में क्यों इतनी हाय - तोबा - मची रहती है ? क्या कभी एकांत में बैठ कर हम सोचते भी हैं ?
जहां न कोई पाठशाला है .....
जहां न कोई हॉस्पिटल है ....
जहां न कोई जीनें की राह दिखानें वाला धर्म गुरु है ....
जहां न कोई गीता - उपनिषद् पर ब्लोक लिखनें वाला है .....
जहां न कोई विज्ञान है .....
जहां कोई आकाश की ओर देखनें वाला है ....
वहाँ ......
शान्ति ही शांति है लेकीन हम कहते हैं -----
जंगल राज्य ॥
जंगल राज्य - जंगल राज्य कर के प्रेस वाले लालू यादव - बिचारे लल्लू यादव को कुर्सी से उठा दिए
और उस जंगल में न कुछ होते हुए भी , सभी काम प्रकृति के नियम के अनुकूल चल रहे हैं ।
जंगल में भोजन और नियोजित काम के अलावा और कुछ नहीं दिखता
लेकीन मनुष्य के संसार में
सब के लिए विज्ञान के नियम हैं .....
जुखाम से लेकर कैंसर तक के नियम हैं .....
पैदल चलनें से ले कर आकाश में उद्नेंत्क के नियम हैं .....
बिद्यार्थी से उपकुलपति तक के लिए नियम हैं ....
राष्ट्रपति से गंगू तक के लिए नियम हैं और ....
नियमों से हटकर जो चलते हैं , उनके लिए .....
नीचे से सर्वोच्च न्यालय हैं , लेकीन क्या -----
यहाँ सब चीजें जंगल से ज्यादा ब्यवस्थित हैं ?

आप भी सोचना इन बातों पर
और मैं भी सोच रहा हूँ की
हम जंगली जीवों को
जानवर कहते हुए अपनी नाक को क्यों सिकोड़ते हैं ॥
वे बिचारे हमसे तो ठीक ही राह पर चलते हैं ॥

===== ॐ =====

Thursday, January 20, 2011

साधन और साध्य




दोनों शब्द जानें पहचानें से हैं और
दोनों में गहरा रिश्ता भी है ॥
साधन का सम्बन्ध है वर्तमान से और
साध्य भविष्य का संबोधन है ।
साधन शब्द के साथ दिशा , गति और साध्य [ गंतब्य ] तीन आयाम [ coordinates ] हैं
और
साध्य जब आ जाता है तब साधन समाप्त हो जाता है :
ऐसे समझते हैं , इस बात को ......
गंगा हिमालय से गंगा सागर की ओर चलती हैं और जब गंगा सागर आजाता है तब गंगा स्वयं को
गंगा सागर में मिला कर अपनें अस्तित्व को खो कर गंगा सागर बन जाती हैं ।
गंगा की तरह
साधन भी साध्य तक पहुंचा कर स्वयं को समाप्त कर देता है ।
हम जाते हैं वैष्णो देवी ; सब के अपनें - अपनें साधन होते हैं
लेकीन सभी बाण गंगा पर इक्कठे हो जाते हैं और चढ़ाई
प्रारम्भ कर देते हैं और ज्योंही हम पहुँचते हैं दरबार में
उस समय कौन धन्यबाद करता है उस साधन का
जो भुवन तक पहुंचा कर स्वयं को समाप्त कर देता है ?
दरबार पर दो तरह के लोग है ; एक ऐसे हैं जो साधन को छोड़ना नहीं चाहते , बैठे हैं राह पर ब्यापार
कर रहे हैं न उनको साधन की सोच हैं और न साध्य का , उनकी नज़र है सब की जेब पर
और
दुसरे हैं - हम जैसे जिनको जल्दी पड़ी है - भाग रहे हैं , सोच रहे हैं
कब पहुंचे और कब वापिस आयें और पुनः
पहुंचें वहाँ जहा से आये हैं ।
एक और श्रेणी के लोग हैं जो किसी - किसी को दीखते हैं वह भी उनको
जिनको माँ का प्रसाद मिला हुआ होता है पर ऐसे लोग दुर्लभ हैं ।
ऐसे संत वे हैं जो
निराकार माँ के साकार रूप हैं लेकीन उनको कौन देखता है ?
ऐसे संत वे हैं जो वहाँ पहुँच कर साधन का धन्यबाद करके अपनें को भी साध्य में हवन कर दिया और
अब अपनें के लिए वे नहीं हैं , जो कुछ भी है वह सब माँ है ॥
साधन को साधन की तरह इस्तेमाल करें .....
साध्य तक पहुँच कर साधन को प्यार से धन्यबाद करें ....
और फिर साध्य में अपनें को ऐसे घुला दें जैसे ....
पानी में नमक का पुतला घुल कर स्वयं पानी कहलानें लगता है ॥

===== ॐ ========

Thursday, January 13, 2011

हनुमान चालीसा




हमारे घर के पास एक सप्ताह से हनुमान चालीसा का लगातार पाठ चल रहा है ।
मैं इस समय खाली हूँ , मेरे ब्रेन का दो बार ओपरेसन हो चुका है , प्रभु के प्रसाद रूप में मुझे नया जीवन मिला है और अब मैं बैठ कर अपनें पिछले जीवन के पृष्ठों को देखता रहता हूँ । मैं आज ही खिडकी के पास बैठ कर सोच रहा था की ------
तुलसी दास जी हनुमान चालीसा की रचना किस तरह की होगी ........
क्या उनको भी कभी भय से गुजरना पडा होगा ....
तुलसी दास जी यह भी कहते हैं की ......
बिनु भय होय न प्रीति ----
और गीता कहता है [ श्लोक -2.52 ] की .....
भय के साथ वैराग्य का होना संभव नहीं , तो फिर क्या .....
तुलसी दास जी बिना बैरागी बनें राम चरित मानस की रचना की होगी ?
मैं भी सोच रहा हूँ , यहाँ खिडकी के पास बैठ कर
और
आप भी सोचो की ......
जब हनुमान चालीसा न था तब क्या -----
लोग डरते न थे ?
या
कोई और औजार रहा होगा हनुमान चालीसा की तरह , भय मिटानें का ?
कहते हैं .....
प्यार ही परमात्मा है , तो फिर क्या ....
प्यार में भी भय होता है , क्योंकि ....
बिनु भय होय न प्रीति .... ?
गीता में भय तामस गुण का एक मजबूत तत्त्व है और ....
तामस गुण में जो मरते हैं , उनको कीट - मकौडों की योनी मिलती है ।
फिर तुलसी दास जी की बातों को किस तरह से देखें ?

==== इस समय आप बुद्धि - योग में कदम रख रहे हैं =====

Wednesday, January 12, 2011

ऐसा ही हो रहा है क्या ?

रामू काका ......

बुढापे में बचपन के दोस्तों की याद खूब आती है -----
मैं भी चल पडा अपनें बचपन के दोस्त से मिलनें काशी के पास के एक गाँव में ।
गाँव क्या अब तो वह एक कस्बा हो गया है , जहां कभी झोपड़ियां हुआ करती थी आज वहाँ तीन - तीन मंजिली इमारतें खडी हैं । अपनें दोस्त को खोजनें में काफी परेसानी तो हुयी लेकीन गाँव के बाहर एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठ मिल गए मेरे बचपन के दोस्त जिनको आज गाँव के लोग रामू काका के नाम से बुलाते हैं ।

रामू काका काफी उदास दिख रहे थे , मैं तो उनके बचपन के संबोधन से बुलाया और वे चौक पड़े और खड़े हो कर देखनें लगे की यह कौन हो सकता है , लेकीन पहचान न पाए क्यों की लगभग तीस साल के बाद हम दोनों मिले थे , पहचानते भी कैसे ?
खैर मैं अपना परिचय दिया और वे गले लग कर रोने लगे । मैं भी बैठ गया उनके साथ और धीरे - धीरे बचपन से आज तक की बातें होने लगी । मैं पूछ बैठा -- कालू भाई क्या बात आप उदास काफी दिख रहे हो ?
पहले वे तो चुप रहे लेकीन देर तक चुप न रह सके और बोल उठे .......
क्या बताऊ यार ! एक मोबाइल हाँथ से गिर कर टूट गया और मेरे बेटे की बहू हजार बातें सूना डाली , अब तुम तो जानते ही हो ,मेरे स्वभाव को , मैं उठा और यहाँ आ कर बैठ गया हूँ । क्या कहूं और कैसे कहूं , अब समझ में आया की बुढापा क्या चीज होती है ? मैं पूछ बैठा - काफी कीमती रहा होगा ? वे बोले , क्या ख़ाक कीमती था , रहा होगा हजार रुपये का , वह भी पांच साल पुराना था ।
मैं कालू को अच्छी तरह से जानता हूँ ,
वह आज से लगभग तीस साल पहले मुल्क से बाहर काम करता था
और उस जबानें में अपनें बेटे के लिए दो - दो हजार रुपयों से भी कीमती
खिलौनों को ले आया करता था , उसी बेटे के लिए
जिसकी पत्नी आज मोबाइल खराब होने पर डाट मारी थी ।
वक़्त कहाँ से कहाँ तक की सैर कराता है ॥
क्या आज कल नयी पीढी के लोगों में
कुछ अलग किस्म की ऊर्जा बहनें लगी है या ,
क्या ? बुजुर्गों का स्वभाव बदल रहा है ?

===== ॐ =====

Sunday, January 9, 2011

कौन और कितना ----




सुनता होगा , इन आवाजों को -----

तन को आवाज को .....
मन की आवाज को ....
बुद्धि की आवाज को ....
भूख की आवाज को ....
दुःख की आवाज को ...
अपनों की आवाज को ....
परायों की आवाज को ....
पेड़ों की आवाज को .....
नभचरों की आवाज को ....
जल चरों की आवाज को ....
पशुओं की आवाज को ....
और ----
ग्रहों की आवाजों को ....
अपनी आवाज को :::::::::
वह ----
जो अपनी आवाज सुन लिया ॥
सबकी आवाज सुन लेगा
और ....
जो अपनी आवाज न सुन पाया वह ....
परम बहरा कहा जा सकता है ॥
छोटी - छोटी बातें हैं जिनको पकड़ कर यात्रा करनें का अपना मजा है ,
आप भी कभी - कभी ऎसी यात्रा किया करें ॥
मन की आँखे यदि अपनें को देखनें में सफल हैं तो .....
ऎसी आँखें एक न एक दिन .....
प्रभु को भी पहचान ही जायेंगी ॥

==== ॐ =====

Saturday, January 8, 2011

ऐसा भी होता है -----



यहाँ आप को दो बातों की आप की स्मृति को मैं ताजा करना चाहूँगा ...........
[क] सुकरात के सम्बन्ध में ----
और .....
[ख] आनंद के सम्बन्ध में ----

[क] सुकरात ----
कहते हैं ---
सुकरात की पत्नी जितनी कठोरे सुकरात के लिए थी उतनी कठोरे दिल की महिला का होना
कोई साधारण बात नहीं ।
सुकरात जी अपनें शिष्यों को उपदेश देते रहते थे और उनकी पत्नी उनके ऊपर
गरम चाय दाल कर चली जाती थी ।
कई बार सुकरात के कुछ शिष्य बोल भी पड़ते थे - गुरु जी आप एक बात
चुप रहें , हम इनको बताते हैं की .....
एक इंसान को दुसरे के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए
लेकीन सुकरात मुस्कुराकर बात को टाल दिया करते थे ।
एक दिन सुकरात को बोलना ही पडा , क्यों की उनके शिष्य कुछ ज्यादा ही भाउक हो उठे थे ।
सुकरा कहते हैं -----
आज सुकरात वहाँ न होता जहां है यदि यह मेरी पत्नी ऎसी न होती ,
इसका ब्योहार जितना कड़वा होता है ,
मेरी यात्रा उतनी ही और आगे मुझे पहुंचा देती है - ऐसा समझो की .....
मेरी पत्नी की कठोरता ही मेरी सत -यात्रा की ऊर्जा है ॥

[ख] आनद बुद्ध के परम शिष्य थे और उनके ही परिवार के भी थे ।
बुद्ध के साथ आनंद हर पल रहते थे , चाहे बुद्ध सो रहे हों या यात्रा पर हों ।
आनंद जब बुद्ध के शिष्य
बनें थे तब बुद्ध से एक वचन लिया था की बुद्ध उनको अपने से दूर कभी नहीं करेंगे और ऐसा हुआ भी ।
ऐसा कहा जाता है की .......
निर्वाण प्राप्त बुद्ध जहां होते हैं .....
बुद्ध की ऊर्जा को जहां की धरती कुछ दिनों तक पी हो वहाँ जो पहुंचता है उसे निर्वाण में पहुँचना
कठिन नहीं होता लेकीन ....
आनंद को बुद्धत्व बुद्ध के होते न मिल सका ॥
सुकरात की पत्नी की कठोरता .....
सुकरात को अमर कर दिया ....
तुलसी दास की पत्नी की कठोरता ....
तुलसी दास को अमर कर दिया ....
बुद्ध के मृत शरीर को देख कर आनंद आनंद बन गए .....
आदि शंकाराचार्य को काशी के एक अछूत की बात उनको ब्रह्ममय बना दिया .....
और न जानें कितनें दृष्टांत ऐसे मिलेंगे
जो असत में .......
जी रहे लोगों को सत की राह पर लानें के लिए कठोर से कठोर परिस्थितियों से सम्बंधित होंगे ॥
आखिर कठोरता करती क्या है ?
कठोरता ....
में वह ऊर्जा होती है ....
जो ....
अहंकार को ...
भष्म करती है और उस से ....
जो
शीतलता मिलती है ....
उसका नाम ही निर्वाण है ॥

==== सुनना ही पड़ेगा ====

Thursday, January 6, 2011

हम भ्रमित क्यों हैं ?



हम भ्रमित हैं , इसके पीछे कोई ठोस कारण तो होना ही चाहिए ।
जब बच्चा गर्भ में आता है तब से उसके जन्म के दिन तक

उसकी माँ जिस ऊर्जा क्षेत्र में रहती है ,
वह क्षेत्र
होता है , भ्रम का -

कैसे ? देखिये यहाँ ....
ज्योंहीं
पता चलता है की अमुक बहू गर्भ से है ,
गाँव की अन्य महिलायें समय गुजारनें का अपना अड्डा
उस घर को बना लेती हैं और .....
पूरे गाँव में झाडू मार कर झूठ को इकट्ठा करके उस घर में लाती है

और उसमें नमक मिला कर
प्यार से सुनाती हैं और वह बहू बिचारी उनकी बातों को सुनती रहती है

और धीरे - धीरे यह सब झूठ
उसके मन में सत नज़र आनें लगता है और यही भ्रम उस बन रही

माँ से उसके गर्भ में पल रहे बच्चे तक
पहुच जाता है ।
नौ महीनों तक गर्भवती महिला जिस वातावरण में रहती है ,

वह वातावरण झूठ , संदेह और भ्रमका
होता है फिर इस मोहाल में गर्भ में स्थित बच्चा इनसे कैसे बचा रह सकता है ?

कभी इस बात पर सोचना ----
चाहे आदमी नोबल पुरष्कार प्राप्त ही क्यों न हो लेकीन ....
उसकी पत्नी उसे एक यन्त्र की भाँती चलाना चाहती है ,

और ....
जहां यह संभव नहीं , वहाँ शांति का होना भीसंभव नही ।
और अशांति के वातावन में नोबल पुरष्कार प्राप्त करनें वाला

तो पैदा हो सकता है पर ....
शांति अन्तः कर्ण वाला , वह नहीं हो सकता ॥


गर्भवती महिला के आस - पास के माध्यम को -----
भ्रम से दूर रखें .....
संदेह रहित बनाएं .....
झूठ रहित रखनें की कोशिश करें .......
और ......
वहाँ सभी ई पहुँच न हो ,
इसकी ब्यवस्था होनी चाहिए , लेकीन .....
इस बात पर ध्यान होना चाहिए की .....
गर्भवती महिला कभी अकेलापन को महसूस न करे ॥

==== ॐ ======

Tuesday, January 4, 2011

बिचारे - आते तो हैं , लेकीन .....




हिन्दू परम्परा मेंकोई पराया शब्द नहीं है .....
हिन्दू शिव मंदिर में जल चढ़ाता है और ....
पीर बाबा के यहाँ जा कर लोबान भी जला आता है ॥

हिंदुस्तान में आये दिन कोई न कोई तीज - त्यौहार आये ही रहते हैं , चाहे वे ....
हिन्दू के हों ----
मुस्लिम के हों ---
ईसाईयों के हों ----
जैनियों के हों -----
बुद्ध से सम्बंधित हों ----
सिख परम्परा के हों ----
या कोई अन्य परम्परा के हों ॥

तीज - त्यौहार बिचारे आते तो रहते हैं लेकीन
क्या इनका हमारे अन्दर बह रही ऊर्जा पर
कोई असर पड़ता भी है ?
बिचारे आते ही क्यों हैं ?
ये क्या सोचते होंगे हम सब के बारे में ?
पुनः इनको कौन और क्यों भेजता है ?

विज्ञान को भनक पड़ी है की .......
अंतरिक्ष से न जानें किस अज्ञान आयाम से कोई ऐसे कण
हम सब तक पहुँचते हैं और लगातार
करोड़ों की संख्या में पहुच रहे हैं ।
वे हम में प्रवेश करते हैं और कोई सूचना किसी को अन्दर देते हैं
और डाकिये कीतरह पुनः प्रस्थान कर जाते हैं ।
ये कण हमारे देह में कोई प्रमाण तक नहीं छोड़ते जिनके आधार पर यह
पता लगाया जा सके की इनका मकसद क्या होता है ?
क्या हैं ये न्यूट्रिनो ?
देह में किस से मिलते हैं , ये ?
क्या संदेशा देते हैं , ये ?
किस से संदेशा लाते हैं , ये ?
यह सब आप के लिए , विज्ञान के लिए राज ही है अभी तक तो ।

आये दिन तीज - त्यौहार भी तो कहीं न्यूट्रिनो के तरह ही तो नहीं आते - जाते ?
ये बिचारे आते हैं ,
हम इनको तो देखते नहीं ,
पर ये पुरे समय रहते हैं , हमारे संग और फिर ....
कब और कैसे चले जाते हैं , किसी को कोई पता नहीं ॥
अब जब कोई त्यौहार आये तो आप उस से मिलना .....
उसके साथ रहना ....
क्या पता आप को उनके ....
आनें के राज का कुछ पता चल सके ॥

==== ॐ =====