Thursday, January 31, 2013

सब बदल रहा है ----

घर का नक्शा .....
घर ....
गाँव ....
घर - गाँव के लोग ....
शहर , शहर के लोग ....
देश , देश के लोग , देश के लोगों का रहन सहन ....
पढ़ाई और पढ़ाई का तरीका   ....
रहन - सहन , खान - पान .....
रीति - रिवाज ....
तीज - त्यौहार मनानें के तरीके ....
सब कुछ बदल रहा है लेकिन इस बदलाव में जो ऊर्जा काम कर रही है क्या वह भी बदल रही है ?

आज का युग विज्ञान का युग है , विज्ञान अर्थात वह जिसका आधार  गहरी सोच हो  और गहरी सोच से जो निकलता है उसे कहते हैं विज्ञान / सोच की मूल है संदेह और संदेह में सत्य असत्य की तरह और असत्य सत्य की तरह दिख सकता है / विज्ञान के नियमों की उम्र बहुत लंबी नही , और लंबी हो भी कैसे सकती है क्योंकि वह जिसका जन्म संदेह से हो रहा हो उसकी उम्र लंबी कैसे हो सकती है ? 

आज मंगल ग्रह के ऊपर वैज्ञानिकों की नजर टिकी हुयी है और उनको वहाँ जो भी दिख रहा है उसमें पानी दिख रहा है क्योंकि  बिना पानी जीव का होना संभव नहीं और वैज्ञानिकों की पूरी उम्मीद है कि मंगल पर कभीं जीव रहा करते थे / वैज्ञानिक सपना देखता है और उसका जीवन उस सपनें को सत्य का रूप देनें में गुजर जाता है / आइन्स्टाइन , मैक्स प्लैंक , श्रोडिंगर एवं अन्य सभीं नोबल पुरष्कार विजेताओं के जीवन को देखिये , वे सभी जो स्वप्न देखा उसकी गणित बनाते -  बनाते उनका जीवन गुजर गया और पूर्ण तनहाई में उनके  जीवन का अंत हुआ / 
एक हैं वैज्ञानिक जो दिन  में भी स्वप्न देखते हैं और उनको पता नहीं चल पाता की कब दिन हुआ और कब रात आयी और दूसरे हैं उपनिषद के ऋषि जिनका केंद्र वह बेला होती है जहाँ न रात होती है और न दिन जिसे कहते है संध्या या अमृत बेला / एक ऋषि अमृत बेला में योगयुक्त स्थिति में जो देखता है उसकी गणित नहीं बनाता क्योंकि उसे अपनी अनुभूति पर कोई संदेह नही और वह अपनी अनुभूति को किसी और पर लादना भी नहीं चाहता , जो चाहे उसकी बात को मानें और जो न चाहे न मानें लेकिन वह स्वयं अपनी अलमस्ती में रहता है / 


  • बदलाव में बदलाव की प्रक्रिया के माध्यम से उसे समझना जो सनातन है ....
  • बदल रही साकार सूचनाओं में उसे देखना जो निराकार है .....
  • बदलाव में उसे देखना जो साकार से इराकार में और निराकार से साकार में रूपांतरित हो रहा है ,,,,
  • इस देखनें को कहते हैं ज्ञान ...
  • ज्ञान प्रकृति और पुरुष [ अर्थात बदल रही सूचनाओं एवं उनके मूल ऊर्जा जिससे वे हैं]  का बोध है ...
  • प्रकृति बदलाव का नाम है ....

इस बदलाव में जो निराकार ऊर्जा काम कर रही है उसका नाम है परमात्मा ,ब्रह्म ,
 महेश्वर , ईश्वर आदि - आदि /

रूपांतरण में उसे देखना जो रूपांतरण का मूल है , योग है ....

=== ओम् ====

Saturday, January 19, 2013

संसार में आना एक अवसर है , उसे यों ही न जानें दें

कबतक और क्यों किसी की उंगली पकड़ कर चलते रहोगे ?
कबतक और क्यों स्वयं से दूर भागते रहोगे ?
कबतक और क्यों स्वयं को भी धोखा देते रहोगे ?
कबतक और क्यों दूसरों को सुनाते रहोगे ?
कबतक और क्यों अपनें कद को खीच - खीच कर लंबा दिखाते रहोगे ?
कबतक और क्यों अपनी असलियत को छिपा कर रखना चाहते हो ?
कबतक और क्यों स्वयं को सर्वोपरि दिखाते रहोगे ?
कबतक और क्यों स्वयं से भागते रहोगे ?


जीवन जो मिला है वह प्रभु का प्रसाद है .....
जीवन जो मिला है वह एक अवसर है ....
जीवन जो मिला हुआ है वह हर पल घट रहा है ....
जीवन जो मिला हुआ है वह मात्र आप का नहीं है .....
जीवन को गंगा धारा की तरह बहनें दो , वह स्वयं सागर से मिल जाएगा ...
जीवन को प्रश्न रहित बनाओ .....
..


और 

जीवन को प्रभु को समर्पित करो

और 

स्वयं को कर्ता नहीं द्रष्टा रूप में देखो ....

और 

तब जीवन का वह परम रस मिलेगा जिसकी  ही तलाश हमें आवागमन में बनाए   हुए है //


===== ओम् =======

Sunday, January 13, 2013

स्वयं से पूछो

आप अपनें जीवन - यात्रा का रुख किधर को रखा है ?
आप दिल से किसे चाहते हैं ; भोग को या भगवान को या दोनों को ?
भोग और भागवान एक साथ एक बुद्धि में नहीं रहते , ऎसी बात गीता कहता है , फिर ?
क्या यह संभव नहीं कि भोग के आइनें में भगवान को देखा जाए ?



  • हमारा  अधिकाँश समय दूसरों के सम्बन्ध में सोचनें में गुजर जा  रहा है , क्य हम  इसे समझते हैं ?
  • जितना समय हम दूसरों में बुराई को खोजनें में लगाते हैं यदि उसका एक चौथाई भी अपनें में बुराइयों को देखनें में लगाएं तो संभव है आप परम सत्य को देखनें में सफल हो सकें 
  • ऐसा क्यों है  कि हमें दूसरों में मात्र बुराइयां दिखती  हैं और अपनें में अच्छाइयां ही अच्छाइयां ?
  • क्या हम  राम को इस लिए चाहते हैं कि  सारी सोचें कामयाब हो सकें ?
  • क्या राम मात्रा  कामनाओं को पूरा करनें की मशीन बन कर रह गया है ?
  • क्या हम राम के अधीन हैं या राम हमारे अधीन ?
  • हम क्यों चाहते हैं कि सभीं हमारे इशारे पर चलें चाहे वह भगवान ही क्यों न हो ?
  • पिता , माता , पत्नी , पुरुष , पुत्र / पुत्री , सगे - संबंधी सभीं को हम अपना गुलाम क्यों बनाना चाहते हैं ?



  • बहुत हो चुका , मालिक बनें लेकिन मात्र अतृप्तता ही मिली , फिर क्या करें ?
  • चलो , अभीं तक जिनको हम अपना गुलाम बनाना चाहते रहे उनमें से किसी एक का ही सही , गुलाम बन कर देखते हैं 
  • क्या हम समझते हैं कि प्रभु संदेहों से भरी बुद्धि - क्षेत्र में नहीं रहता , वह तो बसेरा बनाता है उनके हृदयों में जिनके ह्रदय ......

मीरा , कबीर , नानक , परम हंस रामकृष्ण जैसे हों ......
ऐसे दिल जिनसे श्रद्धा छलकती हो 
ह्रदय में श्रद्धा की लहर उठाई नहीं जा सकती यह तो प्रभु का प्रसाद है जो किसी - किसी को कभीं - कभीं मिलता है
अब सोचिये नहीं -----
क्योंकि ....

नानकजी साहिब कहते हैं ....

सोचे सोचि न होवहीं ----
ज्यों सोची लख बार .....

जहाँ सोच है , वहाँ संदेह भी होगा , क्योंकि सोच संदेह की पहचान है 

==== ओम् ======


Tuesday, January 8, 2013

यह क्या हो सकता है ?


  • जहाँ न दुःख हो और जहाँ न सुख हो , वहाँ क्या हो सकता है ?
  • जहाँ न दिन हो न रात हो , वहाँ क्या  हो सकता है ?
  • जहाँ न अपना हो , न पराया हो , वहाँ कौन हो सकता है ?
  • जहाँ न भोग हो , न योग हो , वहाँ क्या हो सकता है ?
  • जहाँ न कुछ अच्छा हो न बुरा , वहाँ क्या हो सकता है ?
  • वह जिसे  न तन से , न मन से पकड़ा जा सके , वह कौन हो सकता है ?
  • जिसे न गाया जा सके , न लिखा जा सके , वह कौन हो सकता है ?

जीवन प्रश्नों से भरा  है , जबतक मन - बुद्धि में संदेह है , तबतक प्रश्न का होना भी संभव है
 जिस घडी मन - बुद्धि संदेह रहित होते हैं उस घड़ी मन -बुद्धि प्रश्न रहित हो उठते हैं

और 


  • प्रश्न रहित मन - बुद्धि का आयाम  प्रभु का आयाम होता है 
  • प्रभु निर्भाव मन - बुद्धि पटल पर प्रतिबिंबित होते हैं और उनकी अनुभूति चेतना को होती है 

मनुष्य एक खोजी जीव है और सब में उसे जो मिलता है वह उसे और अतृप्त बना जाता है और अतृप्तता की    तिब्रता हर पल ऊपर ही उठती जा रही है /
जो उसे पा लेता है , उस घडी तो शांत हो उठता  है लेकिन ज्योंही उसके उसका सम्बन्ध टूटता है , पुनः वह ब्याकुल हो उठता है और यह क्रम तबतक चलता रहता है जबतक तन में प्राण हैं /

  • जिसनें उसे मनमोहन नाम दिया होगा ,  वह उसके कितनें गहरे प्यार में रहा होगा ?
=== ओम् ======


Thursday, January 3, 2013

जीवन को देखो ----

जीवन जो मिला है उसे प्रभु का प्रसाद समझो
प्रभु के इस प्रसाद को ऐसे प्रयोग करो कि यह प्रभु तक पहुंचा सके
प्रभु के प्रसाद को न खीच - खीच कर लंबा करो न इसे सिकोड़ कर रखो
जीवन की पीछली तस्बीरों  को न तो भूलो और न ही  उनका गुलाम बनो
अपनें अगले कदम को जहाँ रखो उसे ठीक से समझो
जीवन में हर कदम एक मोड है , जहाँ से स्वर्ग - नर्क की राहे निकलती हैं
जीवन का हर पल प्रभु मय है , अगर कोई प्रभु समर्पित जीवन जी रहा हो , तो
प्रभु आप को सबकुछ तो दे दिया है , अब और की  मांग क्या उचित है ?
औरों को देख कर अपनें जीवन के रुख को न बदलो
संसार में सबका अपना - अपना जीवन है
संसार में सबके जीवन का अपना - अपना रंग है
संसार में सबके जीनें का अपना - अपना ढंग है
एक संसार प्रभु निर्मित है और उस में हम सब अपना - अपना संसार बनानें में लगे हैं
संसार में सबको एक निश्चित अवधि का जीवन मिला हुआ है ....
इस अवधि को कौन कैसे गुजारता है , यह सबकी अपनी -अपनी सोच है