Friday, March 28, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का आठवां अंग समाधि


पतंजलि अष्टांग योगका 

आठवां अंग समाधि 

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में अष्टांगयोग का आठवां अंग समाधि है और तीन प्रकार की समाधियों ( संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात और धर्ममेघ ) की भी चर्चा की गई है । इन टी8न प्रकार की समाधियों में संप्रज्ञात समाधि आलंबन आधारित समाधि  है जिसे सविकल्प समाधि या सालंबन समाधि या साकार समाधि भी कहते हैं । दूसरी समाधि असंप्रज्ञात समाधि है जिसे निर्विकल्प समाधि या निराकार समाधि भी कहते हैं। वितर्क , विचार , आनंद और अस्मिता , ये चार चरण संप्रज्ञात समाधि के हैं , दूसरे शब्दों में संप्रज्ञात समाधि की अनुभूति इन चार चरणों में होती है। यहां ध्यान रखना होगा कि अष्टांगयोग की समाधि संप्रज्ञात समाधि है , जिसकी अनुभूति किसी सात्त्विक आलंबन के माध्यम से होती है । धर्ममेघ समाधि कैवल्य का द्वार खोलती है । अब अष्टांगयोग की समाधि की परिभाषा को देखते हैं …

तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुप शून्यम् इव समाधि 

 ( पतंजलि योग दर्शन विभूतिपाद सूत्र  - 3 )

अब सूत्र शब्दार्थ को देखते हैं …

तदेव > तत् एव > ध्यान की सिद्धि में स्थित योगी …

अर्थमात्र > नाम मात्र अर्थात अति सूक्ष्म रूप में ….

निर्भाषम् > प्रकाशित होता रहता है …..

स्वरूप > ध्यान आरूढ़ योगी का स्थूल स्वरूप ( देह ) 

शून्यम् > शून्य …

इव > इसे…..

समाधि > अष्टांगयोग की समाधि कहते हैं 

अब ऊपर दिए गए शब्दार्थ के आधार पर सूत्र भावार्थ को समझते हैं …..

“ ध्यान में डूबे योगी के लिए जैसे - जैसे ध्यान की गहराई बढ़ती जाती है ध्यान आलंबन वैसे - वैसे सूक्ष्म होता चला जाता और इसके साथ - साथ योगी का स्थूल शरीर शून्य होता चला जाता है । जब ध्यान में योगी का स्वरूप शून्य हो जाता है उस अवस्था में उसके लिए ध्यान आलंबन सुक्ष्म होते - होते एक प्रकाश कण के रूप में प्रकाशित होता हुआ भासने लगता है । जब ऐसी स्थिति आती है तब वह योगी अष्टांगयोग समाधि में स्थित होता है “ ।

इस सूत्र भावार्थ को ठीक से समझने के लिए  निम्न बातों को भी ठीक - ठीक समझ होगा ….

1- धारणा , ध्यान और समाधि , अष्टांगयोग के आखिरी तीन अंग हैं जिन्हें अंतरंग कहते हैं और प्रारंभिक पांच अंगों -  यम , नियम ,आसन ,प्राणायाम और प्रत्याहार को बाह्य अंग कहते हैं ।

2- अष्टांगयोग साधना आलंबन आधारित साधना है । यम साधना में अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आलंबन होते हैं । नियम साधना में शौच , संतोष , तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आलंबन होते हैं । आसन में समग्र स्थूल शरीर आलंबन होता है। प्राणायाम में श्वास , प्रश्वास एवं श्वास की अनुपस्थिति आलंबन होता है और प्रत्याहार में इंद्रिय विषय आलंबन होते हैं । 

धारणा , ध्यान और समाधि अर्थात अष्टांगयोग के अंतरंगों की साधना में योगी को साधना प्रारंभ करने से पूर्व किसी एक सात्त्विक आलंबन का चयन करना पड़ता है जो कोई स्थूल या सूक्ष्म आलम्बनों में से कोई  एक हो सकता है । 

3- अष्टांगयोग के अंतरंगों की साधना अभ्यास में धारणा सिद्धि के बाद योगी ध्यान में स्वतः पहुंच जाता है और ध्यान सिद्धि के बाद वह समाधि में प्रवेश करता है। समाधि की सिद्धि जब मिल जाती है तब एक आसान में आसीन रहते हुए योगी के अंदर धारणा , ध्यान एवं समाधि की सिद्धियां एक साथ घटित होने लगती है जिसे संयम कहते हैं। संयम सिद्धि का निरंतर अभ्यास करते रहने से योगी चाहे तो पतंजलि योगसूत्र में वर्णित 45 प्रकार की सिद्धियों में से कुछ सिद्धियों की प्राप्ति कर सकता है जैसा पतंजलि विभूति पाद 

सूत्र  : 16  - 49 में स्पष्ट किया गया है ।

पतंजलि आगे कहते हैं - इन सिद्धियों से आकर्षित योगी की आगे की योग यात्रा रुक जाती है और उसकी साधना का रुख आगे की ओर न हो कर पीछे की ओर हो जाता है और ऐश्वर्य के सम्मोहन में यह पतित होता चला जाता है । जो योगी कैवल्य के जिज्ञासु होते हैं वे सिद्धियों से अप्रभावित रहते हुए अपनी संयम सिद्धि साधना को आगे बढ़ाते हुए कैवल्य तक की यात्रा करने में सफल होते हैं ।

4- आलंबन के तीन तत्त्व होते हैं ; शब्द , अर्थ और ज्ञान। आलंबन का स्थूल स्वरूप शब्द कहलाता है जो कोई शब्द , कोई मंत्र या कोई स्थूल मूर्ति आदि हो सकता है और यह ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से पकड़ा जाता है । आलंबन का अर्थ सूक्ष्म आलंबन है जो मन से पकड़ा जाता है । इसी तरह आलंबन का ज्ञान अंग  बुद्धि माध्यम से पकड़ा जाता है । 

4- धारणा , ध्यान और समाधि योगाभ्यास में ग्राह्य, ग्रहण और ग्रहीता को भी समझना चाहिए । आलंबन को ग्राह्य कहते हैं । पांच ज्ञान इंद्रियों से चित्त केंद्रित पुरुष इंद्रिय विषय से जुड़ता है अतः पांच ज्ञान इंद्रियों को ग्रहण कहते हैं और चित्त स्वरूपाकार पुरुष को ग्रहीता कहते हैं जो ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से ग्राह्य से जुड़ा होता हैं।

5- अब पुनः अष्टांगयोग समाधि की परिभाषा पर लौटते हैं … ,

जब ध्यान साधना में डूबे योगी का स्वरूप शून्य हो जाता है और ध्यान आलंबन सूक्ष्म होते - होते केवल एक प्रकाश कण के रूप में प्रकाशित होता हुआ आभासित हो रहा होता है तब वह योगी समाधिस्थ होता है । 

यहां समझना होगा कि जब योगी का स्वरूप शून्य हो गया है तब प्रकाश कण के रूप में आलंबन के होने की अनुभूति करनेवाला कौन होता है ! जितने भी भाष्यकार हैं , सभी इस विषय पर चुप हैं लेकिन यह एक बुनियादी विषय अवश्य है । इस विषय की स्पष्टता के लिए सांख्य दर्शन में झांकना होगा । सांख्य दर्शन पतंजलि योग दर्शन का तत्त्व मीमांसा  है जो मैं कौन हूं ? का उत्तर देता है जो कुछ निम्न प्रकार है …

 त्रिगुणी , प्रसवधर्मी , सनातन जड़ प्रकृति एवं निर्गुणी , सनातन  शुद्ध चेतन पुरुष के संयोग से हमारा अस्तित्व है। प्रकृति के 23 त्रिगुणी एवं जड़ तत्त्व ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र एवं 05 महाभूत ) चित्त स्वरूकापार पुरुष को उसके अपनें मूल स्वरूप में लौट आने में मदद करने के हेतु हैं । जब पुरुष अपनें मूल स्वरूप में लौट आता है तब प्रकृति के 23 तत्त्व अपने - अपनें कारणों में लीन हो जाते हैं और अंततः विकृत हुई प्रकृति भी ज्ञान प्राप्ति से 07 प्रकार के बंधनों ( धर्म , अधर्म , राग , वैराग्य , 

ऐश्वर्य - अनैश्वर्य एवं अज्ञान ) से मुक्त हो कर अपने मूल स्वरूप में लौट आती है जो निष्क्रिय तीन गुणों की साम्यावस्था होती है । पुरुष का अपने मूल स्वरूप ने लौटना ही कैवल्य है । 

अष्टांगयोग समाधि की परिभाषा में कहा गया है कि योगी का स्वरूप शून्य हो जाता है अर्थात योगी प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वों से है जिनमें उसका स्थूल देह प्रकृति है और देही शुद्ध चेतन पुरुष है । समाधि अवस्था में प्रकृति के ऊपर बताए गए 23 जड़ एवं त्रिगुणी तत्त्व शून्य हो जाते हैं और समाधि की अनुभूति पुरुष को होती है। 

इस संदर्भ में समाधि पाद सूत्र - 19 को देखें ⤵️

भव प्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्

ऐसा योगी जिसे वितर्क , विचार और आनंद माध्यमों से संप्रज्ञात समाधि की अनुभूति हुई होती है उसे प्रकृतिलय योगी कहते हैं और यही स्वरूप शून्य की अवस्था होती है जिसे ऊपर विभूतिपाद सूत्र - 3 के माध्यम से अष्टांगयोग की समाधि की परिभाषा में कहा गया है । इसी तरह जब अस्मिता का लय योगी की विदेहलय योगी बना देता है । इस संदर्भ में पतंजलि योगसूत्र समाधिपाद सूत्र - 17 को देखे जो निम्न प्रकट है …

अर्थात संप्रज्ञात समाधि की अनुभूति चार चरणों में घटित होती है और वे चरण है - वितर्क , विचार , आनंद और अस्मिता । 

🌹 आज पतंजलियोग सूत्र दर्शन के अष्टांगयोग साधना के आठवें अंग , समाधि के साथ अष्टांगयोग की साधना पूरी होती हैं 🌹

।।। O ।।। 

Thursday, February 27, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का सातवां अंग ध्यान

पतंजलि अष्टांगयोग का सातवां अंग विभूतिपाद सूत्र - 2

“ तत्र प्रत्यय एकतांता , ध्यानं “ 

सूत्र भावार्थ देखने से पहले अष्टांगयोग के पिछले 06 अंगों के सार की पुनरावृत्ति करते हैं। ऐसा करने से अष्टांगयोग के अंतरंग अंग ध्यान और ध्यान के साथ संप्रज्ञात समाधि को समझना आसान हो जायेगा।

पतंजलि अष्टांगयोग के 08 अंगों में यम , नियम , आसन , प्राणायाम और प्रत्याहार को बाह्य अंग और धारणा , ध्यान और समाधि को अंतरंग कहते हैं  (विभूति पाद सूत्र :  7+ 8) ।

यम के 05 अंगों के अभ्यास की सिद्धि एवं नियम के 05 अंगों के पालन करने की सिद्धि के फलस्वरूप चित्त पर राजद एवं तामस गुणों की वृत्तियों का प्रभाव मंद पड़ जाता है और सात्त्विक गुण की वृत्तियों का प्रभाव देर तक रहने लगता है । जब यम - नियम की साधना दैनिक जीवन का अंश बन जाती है तब आसन ,  प्राणायाम एवं प्रत्याहार की साधनाओं का मार्ग सरल हो जाता है। प्रत्याहार साधना सिद्धि के साथ इंद्रियों का रुख बाहर से अंदर की ओर हो जाता है जिसके फलस्वरूप अष्टांगयोग के अंतरंग धारणा , ध्यान और समाधि की यात्रा प्रारंभ होती है। 

धारणा अभ्यास में जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबन से जुड़ जाता है तब उसी आलंबन पर ध्यान घटित होने लगता है । ध्यान रहे , धारणा की गहराई मिलते ही ,  ध्यान का आयाम शुरू होता है । अब  ध्यान की परिभाषा को देखते हैं जो निम्न प्रकार है …

जब चित्त किसी एक सात्त्विक आलंबन पर केंद्रित रहने लगे तो उसे ध्यान कहते हैं अर्थात धारणा में चित्त का देर तक स्थित बने रहना, ध्यान है ।

आगे महर्षि पतंजलि साधनपाद  सूत्र : 11 में कहते हैं …

ध्यान हेयात् तत् वृत्तयः अर्थात ध्यान से क्लेशों की वृत्तियों का क्षय होता है । अब यहां इस सूत्र के संदर्भ में समझना होगा कि क्लेश क्या हैं ? क्लेश के लिए पतंजलि साधनपाद सूत्र > 3 - 14 ,  25 को देखना होगा जिनका सार निम्न प्रकार है ….

अविद्या ,अस्मिता , राग - द्वेष और अभिनिवेष , ये 05 क्लेश हैं ( साधनपाद -  3 )। अविद्या शेष चार क्लेशों की जननी है।

 सत् को असत् और असत् को सत् समझना अविद्या है।  

मैं और मेरा का अहं भाव , अस्मिता है । इंद्रिय सुख की लालसा , राग है । भोग के कड़वे अनुभव से द्वेष की ऊर्जा बनती है। मृत्यु भय को अभिनिवेश कहते हैं ।

पांच क्लेश मानसिक और आध्यात्मिक बाधाओं की उत्पत्ति के कारण हैं । क्लेश, कर्माशय ( चित्त ) की मूल हैं

 (साधनपाद सूत्र - 12) । क्लेश  त्रिगुणी बंधन तत्त्व हैं जो शुद्ध निर्गुणी चेतन पुरुष को त्रिगुणी जड़ प्रकृति से जुड़ने के बाद उसे अपने मूल स्वरूप में तबतक नहीं लौटने देते जबतक उसे कैवल्य नहीं मिल जाता । क्लेश दुखों की जननी हैं। जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , आवागमन से मुक्ति नहीं मिल पाती (साधनपाद सूत्र - 13) ।

क्रियायोग से पञ्च क्लेशों का नाश तो होता है 

(साधनपाद सूत्र -10 ) लेकिन उनके सूक्ष्म बीज बच रहते हैं जो अनुकूल परिस्थिति आने पर पुनः सक्रिय हो सकते हैं । यहां क्रियायोग को भी समझना है जिसको महर्षि पतंजलि निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं ….

 तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधान क्रियायोगः

(साधन पाद - 01) 

 अर्थात तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधानि , क्रियायोग के तीन अंग हैं । पतंजलि के ईश्वर को समझने के लिए देखें समाधिपाद सूत्र : 23 - 29 जिसका सार निम्न प्रकार है …

ईश्वर कर्म , कर्मफल और कर्माशय मुक्त है । वह सभीं ज्ञानों का बीज है । ईश्वर सभीं पूर्व में हुए गुरुओं का गुरु है , समायातीयत है और सनातन है। प्रणव उसका संबोधन है। ईश्वर समर्पण से 14 योग बाधाएँ दूर होती हैं और प्रज्ञा आलोकित होती है।


# समाधि भाव जागृत होने से क्लेश तनु (अप्रभावी ) अवस्था में आ जाते हैं ( साधनपाद सूत्र - 2 )।

# अविद्या का अभाव , दुःख का अभाव है और यही कैवल्य है (साधनपाद सूत्र - 25 )। 

# कैवल्य पाद सूत्र - 34 में कैवल्य की परिभाषा निम्न प्रकार दी गई है  ..

पुरुषार्थ शून्यानाम् गुणानाम् प्रतिप्रसव: कैवल्यम् ।

स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्ति : इति ।। 

अर्थात 

 पुरुषार्थ का शून्य हो जाना तथा त्रिगुणो का प्रतिप्रसव हो जाना , कैवल्य है। 

ध्यान सिद्धि से चित्त समाधिमुखी रहने लगता हैं ।

।।। ॐ ।।।

Friday, February 21, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का छठवां अंग धारणा


पतंजलि विभूति पाद सूत्र : 1 

अष्टांगयोग का छठवां अंग धारणा 

देश बंधश्चित्तस्य धारणा 

" देश (आलंबन ) से  चित्तका बधे रहना , धारणा है "

सूत्र - भावार्थ में उतरने से पहले अष्टांग योग के पिछले 05 अंगों के सार तत्त्व को एक बार पुनः देख लेते हैं । ऐसा करने से धारणा को समझना सरल हो जायेगा । धारणा के बाद अगला सातवां अंग ध्यान है और आखिरी आठवां अंग संप्रज्ञात समाधि है । धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि क्रमशः एक दूसरे के बाद घटित होते हैं । प्रत्याहार की सिद्धि के साथ धारणा में प्रवेश मिलता है , यहां देखे साधनपाद सूत्र - 53 । प्रत्याहार की सिद्धि के लिए इसके पहले के अंग प्राणायाम की सिद्धिभप्राप्त करना पड़ता है। साधनपाद सूत्र 49 - 55 में प्राणायाम एवं प्रत्याहार के संबंध में बताया जा चुका है । प्राणायाम में इसके अंग पूरक , रेचक, और कुंभक ( भयंतर एवं बाह्य कुंभक ) की सिद्धि से अज्ञान का नष्ट होना , ज्ञान की किरण का फूटना तथा वैराग्य भाव का जागृत होना एक साथ घटित होते हैं । जब प्राणायाम की सिद्धि मिल जाती है तब इंद्रियों का रुख विषय की ओर से चित्त की ओर हो जाता है  और धारणा में प्रवेश करने की योग्यता मिल जाती है , जैसा ऊपर साधनपाद सूत्र -53 में पहले बताया जा चुका है । प्रत्याहार सिद्धि अवस्था में चित्त में राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों का आवागमन रुक जाता है और राजस - तामस गुण मुक्त चित्त में केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । 

चित्त में सात्त्विक गुण की वृत्तियों का जब आवागमन प्रारंभ हो जाय तब उन वृत्तियों में से किसी एक के साथ चित्त को बांधने के अभ्यास को धारणा अभ्यास कहते हैं ।

धारणा का अभ्यास जब गहरा जाता है तब चित्त अष्टांग योग के सातवे अंग ध्यान में रहने लग जाता है । इसी तरह ध्यान की गहराई में चित्त स्वतः संप्रज्ञात समाधि में उतर जाता है ।

राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों से चित्त को मुक्त करने में  यम , नियम , आसन , प्राणायाम एवं प्रत्याहार की साधनाओं की सिद्धि पाना आवश्यक होता है । जब इन 05 तत्त्वों की सिद्धि मिल जाती है तब चित्त सात्त्विक गुण केंद्रित रहते हुए धारणा में धारणा से आगे की योग - यात्रा करता है ।

।।। ॐ ।।। 

Friday, February 14, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग का पांचवां अंग प्रत्याहार


पतंजलि अष्टांगयोग का पांचवां अंग प्रत्याहार 

महर्षि पतंजलि अपनें योगसूत्र दर्शन के अंतर्गत साधन पाद सूत्र - 54 के माध्यम से  प्रत्याहार को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं …

स्व + विषय  + असंप्रयोगे + चित्त स्वरूप + अनुकार 

 इव + इन्द्रियाणाम् +प्रत्याहारः 

अर्थात जब पांच ज्ञान इंद्रियों का रुख उनके अपनें - अपनें विषयों की ओर न हो कर चित्त की ओर हो जाता है अर्थात उल्टा हो जाता है तब उस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं ।

प्रत्याहार अर्थात प्रति + आहार  शब्द योग में प्रति का अर्थ है वापस या प्रतिकूल और आहार का अर्थ है लेना या ग्रहण करना । 

इंद्रियों का स्वभाव है , अपनें - अपनें विषयों में भ्रमण करना और जब इनमें विषय वैराग्य की ऊर्जा बहने लगती हैं तब ये विषयमुखी न रह कर चित्तमुखी हो जाती है । महर्षि पतंजलि इस अवस्था को प्रत्याहार की संज्ञा से संबोधित कर रहे हैं ।

महर्षि पतंजलि अष्टांगयोग के 08 अंगों में प्रत्याहार पांचवां अंग है अर्थात यम ,नियम , आसन और प्राणायाम की सिद्धियों के फलस्वरूप प्रत्याहार में प्रवेश मिलता है।

 जब योग में स्थित योगी का आसन और प्राणायाम (पूरक , रेचक, अभ्यांतर एवं बाह्य कुंभक ) की सिद्धि मिल जाती है तब ज्ञान की किरण फूटती है ,अज्ञात नष्ट हो जाता है और धारणा की योग्यता उत्पन्न होती हैं । यहां इस संदर्भ में साधन पाद के निम्न सूत्रों को देखें …

साधनपाद सूत्र - 52

" तत : क्षीयते प्रकाश आवरणम् "

साधनपाद सूत्र - 53

" धारणासु च योग्यता मनसः "

आंख का विषय रूप , कान का विषय शब्द , नाक का विषय गंध , रसना या जीभ का विषय रस और त्वचा का विषय स्पर्श है। सभी इंद्रिय विषयों में राग - द्वेष की ऊर्जा होती है ( गीता : 3.34 )

विषयों में स्थित राग - द्वेष के सम्मोहन के कारण इंद्रियां विषयों से आकर्षित होती हैं अन्यथा सांख्य दर्शन एवं पतंजलि योग दर्शन में इंद्रियों की निष्पति सात्त्विक गुण से है अतः इनका मूल स्वभाव सात्त्विक ही होता है । 

पांच ज्ञान इंद्रियां बाहरी जगत से सूचनाएं एकत्र करती हैं और चित्त को भेजती रहती हैं जिसके कारण चित्त  विषय स्वरूपाकार बना  रहता है ।

 पतंजलि योग सूत्र में जड़ - सनातन निष्क्रिय त्रिगुणी एवं प्रसवधर्मी प्रकृति एवं निष्क्रिय , सनातन निर्गुण एवं चेतन पुरुष के संयोग से प्रकृतिकी त्रिगुणी साम्यावस्था विकृत होती है जिसके फलस्वरूप प्रकृति के कार्य रूप में त्रिगुणी एवं जड़ बुद्धि , अहंकार ( सात्विक , राजद एवं तामस ) , मन , 10 इंद्रियां, 05 तन्मात्र एवं तन्मात्रों से उनके अपने - अपनें महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार तीन गुणों की साम्यावस्था वाली मूल प्रकृति के विकृत होने से उत्पन्न इन 23 तत्त्वों में प्रथम तीन तत्त्वो (बुद्धि , अहंकार एवं मन ) को चित्त कहते हैंपुरुष चित्त केंद्रित रहता है । चित्त केंद्रित पुरुष संसार के त्रिगुणी विषयों का अनुभव करता है जिसमें प्रकृति के त्रिगुणी 23 तत्त्व उसकी सहायता करते हैं।

 जब पुरुष को त्रिगुणी भोग के फलस्वरूप क्षणिक सुख और दुःख का अनुभव पूरा हो जाता है तब उसे अपने मूल स्वरूप का बोध होता है जिसके फलस्वरूप उसे वैराग्य हो जाता है।

 इस प्रकार पतंजलि के अष्टांग योग साधना के अंतर्गत यम , नियम , आसन और प्राणायाम सिद्धि के फलस्वरूप इंद्रिय निग्रह के साथ चित्त में वितृष्णा का भाव भरने लगता है जिसे वैराग्य कहते हैं।

वैराग्य (Vairagya) संस्कृत शब्द है, जो "वि" (बिना) और "राग" (आसक्ति/लगाव) से मिलकर बना है। यह आध्यात्मिक जीवन का एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसका अर्थ है चित्त की वह अवस्था जहाँ व्यक्ति भोग तत्त्वों (आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं आलस्य आदि ) के प्रभाव से मुक्त रहते हुए स्व बोध में डूबे रहने लगता है ।

वैराग्य योगी को अंतर्मुखी बनाए रखता है जिसके कारण वह एकांत के आनंद में मस्त रहने लगता है और आध्यात्मिक सत्य का दर्शन करता रहता है।

।।। ॐ ।।।