Thursday, November 21, 2024

पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र 15,16,17 का सार


पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 15 , 16 ,17

महर्षि पतंजलि अपनें कैवल्य पाद सूत्र - 15 में कह रहे हैं , 

एक वस्तु चित्त भेद के कारण अलग - अलग दिखती है ” । अब इस सूत्र किन्समझते हैं - एक सेव को चार भागों में विभक्त करके चार लोगों खाने को दें और इस सेव के संबंध में उनकी राय जानने की कोशिश करें। सेव एक है लेकिन उसके बारे में लोगों के विचार एक से अधिक हो सकते हैं ; 

ऐसा क्यों ? क्योंकि उनके चित्त अलग - अलग हैं अतः चित्त भेद के कारण एक वस्तु अलग - अलग दिख रही होती है। 

पतंजलि के इस सूत्र ( सूत्र - 15 ) का सार यह निकला कि वस्तु चित्त के अनुसार दिखती है

आगे कैवल्य पाद सूत्र - 16 में महर्षि पतंजलि स्वयं से प्रश्न पूछ रहे है , “ वस्तु किसी एक चित्त के अधीन नहीं “

 यह सूत्र सूत्र - 15 के ठीक विपरीत दिख रहा है क्योंकि

 सूत्र - 15 में कहते हैं , वस्तु चित्त के अनुसार दिखती है और यहां सूत्र - 16 में कह रहे हैं , वस्तु किसी एक चित्त के अधीन नहीं । अब सूत्र - 16 को ऐसे समझते हैं - कल्पना करें कि एक कुर्सी सामने पड़ी है जिसे हम देख रहे हैं अर्थात जबतक कुर्सी को देखने वाली हमारी आँखें सक्रिय हैं तबतक वह कुर्सी है लेकिन जब हमारी आँखें सक्रिय नहीं होगी तब क्या वह कुर्सी वहां नहीं होगी ? यह प्रश्न महर्षि पतंजलि स्वयं से पूछ रहे हैं। वह कुर्सी तो वहां होगी ही चाहे उसका प्रमाण हमारी आँखें वहां हो या न हो । इस तर्क के आधार पर यह सिद्ध होता है कि वस्तु किसी एक चित्त के अधीन नहीं।

अब आगे कैवल्य पाद सूत्र - 17 में महर्षि संसार की वस्तुओं और चित्त के संबंध को स्पष्ट कर रहे हैं ….

यहां आगे बढ़ने से पहले यह समझ लेते हैं कि चित्त क्या है ? चित्त शक्ति ( पुरुष ) क्या है ? और वस्तु , चित्त और पुरुष का आपसी संबंध क्या है ? 

जड़ त्रिगुणी प्रकृति के तीन त्रिगुणी तत्त्व - बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं । चेतन एवं निर्गुणी पुरुष (चित्त शक्ति ) चित्त केंद्रित रहता है अर्थात चित्त त्रिगुणी प्रकृति और निर्गुणी पुरुष का संयोग भूमि है । निर्गुणी एवं चेतन पुरुष चित्त केंद्रित होते ही त्रिगुणी बन जाता है और संसार को चित्त के माध्यम से देखता एवं समझता है । ऐसा समझें कि ज्ञानी पुरुष अंधा है और चित जड़ है ; वह स्वयं को भी नहीं जानता फिर और किसी को क्या जानेगा ! लेकिन उसके पास देखने की इंद्रियां हैं , वह देख सकता है । चित्त जिस वस्तु को देखता है , उस वस्तु का प्रतिबिम्ब उस पर बनता है और उस प्रतिबिम्ब के माध्यम से चित्त केंद्रित पुरुष उस वस्तु को देखता और समझता है । चित्त केंद्रित पुरुष भोक्ता है और उसे इस कार्य में चित्त सहयोग करता रहता है, ऐसा भिनकह सकते हैं कि चित्त पुरुष के टूल्स की भांति है जिसेनपुरुष अपनें अनुभव के लिए प्रयोग करता रहता है । प्रकृति से उत्पन्न 23 तत्त्व ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 5 तन्मात्र और 5 महाभूत ) पुरुष के टूल्स हैं जिनका प्रयोग करके पुरुष संसार को भोग एवं समझ कर कैवल्य प्राप्त करता है।

अब ऊपर व्यक्त कैवल्य पाद के तीन सूत्रों को देखें 

वस्तु साम्ये चित्त भेदात्  तयोः विभक्तः पंथा: 

कैवल्यपाद - 15

न च एक चित्त तंत्रम् वस्तु  तत् प्रमाणकम् तदा किं स्यात् 

कैवल्यपाद - 16

तदुपरागा पेक्षित्वात्  चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम् 

कैवल्यपाद - 17

~~ॐ~~

Wednesday, November 13, 2024

ज्ञान, विवेक और विज्ञान


बहुत सीधा समीकरण है ; साधना का चाहे जो भी मार्ग हो , सबमें साधना की विधियों का अभ्यास निरंतर करते रहना होता है । अभ्यास से अपर वैराग्य के आयाम में प्रवेश मिलता है और अपर वैराग्य , पर वैराग्य में पहुंचाता है । पर वैराग्य तक पहुंचते - पहुंचते परोक्ष ज्ञान की सिद्धि मिल गई होती है और प्रत्यक्ष ज्ञान की यात्रा प्रारंभ हो गई होती है । परोक्ष ज्ञान उधार का ज्ञान होता है जो आगे चल कर प्रत्यक्ष ज्ञान में बदल जाता है। बुद्धि , सात्त्विक अहंकार , मन और इंद्रियों के माध्यम से चित्त केंद्रित पुरुष को विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है । विवेक ज्ञान की सिद्धि विवेक निपुणता लाती है जिससे चित्त केंद्रित पुरुष को स्व बोध हो जाता है । प्रकृति और पुरुष को पृथक - पृथक समझना , स्व बोध है । स्व बोध तक की यात्रा में चित्त ( बुद्धि , अहंकार और मन ) निर्मल 

पारदर्शी वस्तु जैसा हो चुका होता है , गुणों के प्रभाव से अछूता रहने लगता है और तब विज्ञान में प्रवेश मिलता है । बुद्धि , अहंकार ,11 इंद्रियों , पांच तन्मात्र और पांच महाभूतों की पकड़ से परे की अनुभूति समाधि में मिलती है जो समाधि टूटने के बाद अव्यक्तातीत होती है और वही अनुभूति विज्ञान है । विज्ञान को सांख्य एवं पतंजलि योग दर्शनों में प्रकृति - पुरुष के सूक्ष्म बोध को कहते है और वेदांत दर्शन के विभिन्न इकाईयों में आत्मा - ब्रह्म एकत्व को विज्ञान कहते हैं जिसमें माया , जीवात्मा , आत्मा और ब्रह्म के स्वरूपों के रहस्य से पर्दा उठ जाता है ।

ब्रह्म, प्रकृति - पुरुष में विभक्त सा प्रतीत होता है जिसमें प्रकृति , माया और पुरुष , स्वप्रकाशित ब्रह्म है ।

।। ॐ।।

Wednesday, November 6, 2024

भारतीय दर्शन के त्रिरत्न

भारतीय दर्शन और त्रितत्व रहस्य

01 - त्रिगुण 

01.1 श्रीमद्भगवद्गीता आधारित त्रिगुण संबंधित 27 श्लोक + भागवत पुराण का 01 श्लोक⤵️

3.5,3.27,3.28,3.33,+ 5.22+7.12,7.14 +

14.5-14.10,14.12-14.14,14.16,14.17,14.19,

14.23+18.20-18.22,18.38,18.40,

18.49,18.50, + श्रीमद्भागवत पुराण : 11.25


01.2 त्रिगुण और कर्म संबंध 

तीन गुणों में हर पल हो रहे बदलावसे स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है । कर्म करता तीन गुण हैं लेकिन अहंकार के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को करता समझता रहता है । गुण और कर्म संबंध को वेदों में गुण विभाग एवं कर्म विभाग के रूप में स्पष्ट किया गया है । घड़ी भर के लिए भी कर्म मुक्त होना संभव नहीं क्योंकि कर्म तो गुणों में चल रहे बदलाव के कारण होता है । कोइ ऐसा कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो लेकिन सहज कर्मों का त्याग भी उचित नहीं । इंद्रिय विषय संयोग से हो रहा कर्म ,भोग है । भोग - सुख ,भोग के समय अमृत सा भाषता है लेकिन उस सुख का परिणाम विष जैसा होता है। आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परानिष्ठा है । भोग कर्म में कर्म बंधनों की पकड़ से मुक्त हो जाना कर्मयोग है जिससे वैराग्य में प्रवेश मिलता है । वैराग्य में ज्ञान प्राप्त होता है जो कैवल्य में पहुंचाता है ।

01.3 तीन गुणों की वृत्तियाँ 

सात्त्विक गुण > ज्ञान , समाधिमुखी भाव , पराभक्ति , स्थिर बुद्धि।

राजस गुण > आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , अनेक शाखाओं वाली अस्थिर बुद्धि ।

तामस गुण > मोह , आलस्य , भय , प्रमाद , प्रवृत्ति , जड़ता , भ्रमित बुद्धि ।

 गुणों के आधार पर अहंकार के 03 भेद हैं । सात्त्विक अहंकार सूक्ष्म होता है , राजस अहंकार परिधि पर उग्र रूप में दूर से दिखता है और तामसी अहंकार सिकुड़ा हुआ केंद्र में छिपा हुआ होता है जो वक्त का इंतजार करता होता है और अनुकूल परिस्थिति मिलते ही राजस अहंकार में बदल जाता है ।

02- त्रिदेव 

02.1ब्रह्मा - ब्रह्मा जन्म , जीवन और मृत्यु चक्र से बाहर नहीं। ब्रह्मा को सृष्टि रचनाकार  कहा गया है । ब्रह्मा की उम्र 100 वर्ष की होती है जो दो भागों में विभक्त होती है जिन्हें परार्ध कहते हैं। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार वर्तमान ब्रह्मा की आधी उम्र पूरी हो चुकी है । ब्रह्मा का वर्ष 360 दिन का होता है और दिन 1000 ( चार युगों की अवधि ) के बराबर होता है । ब्रह्मा का एक दिन 4,320,000,000 वर्ष का होता है जिसे कल्प भी कहते हैं । जब ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है तब नैमित्तिक प्रलय होती है और ब्रह्मा की जब उम्र दो परार्ध पूरी होती है तब प्राकृति प्रलय या तत्त्व प्रलय होती है  (भागवत स्कंध 3,8,12 तथा गीता 8.16 - 8.20 )। प्राकृतिक प्रलय में ब्रह्मा लीन हो जाते हैं और प्रलय के बाद नए ब्रह्मा का जन्म होता है । ब्रह्मा के एक दिन में 14 मनु होते हैं और एक मनु की अवधि लगभग 0.308 million years का होता है। 

 02.2 विष्णु - पुराणों में ब्रह्मा को जन्म दाता और  विष्णुको पालनहार माना गया है। विष्णु  समय - समय पर सत पुरुषों एवं एवं धर्म की रक्षा हेतु अवतरित होते रहते हैं । विष्णु के अवतारों में वाराह , वामन , श्री राम , बलराम , श्री कृष्ण और परशुराम आदि प्रमुख हैं ।

 02.3शिव - शिवको संहार करता के रूप में देखा जाता है । शिव पर कालका कोई प्रभाव नहीं, शिव कालातीत और सनातन हैं । अलिंग शिव की अनुभूति के लिए शिव - लिंग की पूजा की जाती है । लिंग उसे कहते हैं जिसका लय होता है । सांख्य दर्शन में त्रिगुणी एवं जड़ मूल प्रकृति ( तीन गुणों की साम्यावस्था ) और निर्गुणी चेतन पुरुष को अलिंग या अव्यक्त कहते हैं और प्रकृति के विकृत होने से उत्पन्न 23 तत्त्वों ( बुद्धि , अहंकार , मन, 10 इंद्रियां , 05 तन्मात्र एवं तन्मात्रो से उत्पन्न 05 महाभूत ) को लिंग या व्यक्त कहते हैं। लिंग उन तत्त्वों को कहते हैं जिनका लय होता है और अलिंग तत्त्व वे तत्त्व हैं जिनका लय नहीं होता । शिव पुराण एवं अन्य शिव संबंधित शास्त्रों में शिव को आदि देव रूप में माना गया है और ब्रह्मा एवं विष्णु को शिव से उत्पन्न बताया गया है । इस प्रकार शिव जन्म दाता , पालनहार और संहारक भी हैं । शिव से लिंग तत्त्वों की निष्पति हुई और लिंग तत्त्वों से नाना प्रकार की सृष्टियों की निष्पति हुई । शिव लिंग पूजन वस्तुतः शिव से उत्पन्न सभी लिंग तत्त्वों के प्रति बोध जागृत करना है जिसके फलस्वरूप अलिंग शिव की अनुभूति होती है ।

03 - त्रिकालपहले श्रीमद्भागवत पुराण आधारित काल को समझते हैं 🔽

भूत काल , वर्तमान काल और भविष्य काल को त्रिकाल कहते हैं । त्रिकाल की अनुभूति कैसे हो ?

काल तो एक है लेकिन इसके तीन आयाम ( dimensions ) हैं ; भूत , वर्तमान और भविष्य । जैसे आकाश और पृथ्वींके मध्य हमारी स्थिति है वैसे वर्तमानकी स्थिति , भूत और भविष्य के मध्य है । भूत के गर्भ से निकला वर्तमान भविष्य की जिज्ञासा में तैरता हुआ , भला कैसे शांत और स्थिर हो सकता है ! भूत की स्मृति और भविष्य की जिज्ञासा हमसे हमारा वर्तमान छीन लेती हैं और  हम सब कुछ होते हुए भी तनहाई में जी रहे होते हैं  । क्या कभी किसी पल एकांत में बैठ कर आप अपनी स्थिति को देखते भी हैं ! जिस दिन , जिस पल आपको - हमको अपनी इस स्थिति के प्रति बोध होगा , हमें अपने प्राण से भी वैराग्य हो जायेगा और तब हम होंगे वैराग्य भाव में डूबे परमानंद की गोद में । क्या है , परमानंद , जिसकी खोज हर मनुष्य की है ? आज तक एक नहीं अनेकों को परमानंद की अनुभूति हुई जैसे महावीर, बुद्ध और बोधि धर्मा आदि लेकिन उन में से एक भी अपनी इस अनुभूति को शब्दों में न ढाल सके , ऐसा क्यों ? क्योंकि परमानंद की अनुभूति समाधि में होती है और समाधि की अनुभूति को व्यक्त किया नहीं जा सकता क्योंकि समाधि से बाहर निकलते ही समाधि की स्मृति रूपांतरित हो कर अपने पूर्व रूप में आ जाती है और समाधि में जो अनुभूति होती है वह इंद्रियातीत अनुभूति होती है । 

04 त्रिलोक रहस्य  

पृथ्वी सहित पृथ्वी के 07 लोक , भूः , भुवः , स्वः , मह:  जनः  तपः , सत्यम् ( ध्रुव लोक ) और इनमें भूः ( पृथ्वी ) , भुवः ( अंतरिक्ष ) स्वः (स्वर्ग लोक ) प्रलय प्रभावित लोक हैं । इसी तरह अतल, वितल, सुतल , तलातल, महातल, रसातल और पाताल , पृथ्वीं के नीचे के लोक हैं जहां दानव और सर्प रहते हैं। 

05- त्रिदुःख


भारतीय दर्शन के छह प्रमुख दर्शन  हैं - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त और इन छह दर्शनों को 'षड्दर्शन' कहते हैं । इन भारतीय दर्शनों का आधार दुःख है और दुःख से परमानंद की यात्रा कराते हैं , ये 'षड्दर्शन'। अब सांख्य दर्शन आधारित 03 प्रकार के दुःख को समझते हैं  ⤵️

ईश्वरकृष्ण रचित सांख्य कारिका : 1 और 2 का भावार्थ 

तीन प्रकारके दुःख हैं , इन दुःखों से अछूता रहने की जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है । उपलब्ध उपायों से इन दुःखों से पूर्ण रूप से मुक्त होना संभव नहीं क्योंकि  उपलब्ध उपाय अस्थाई रूप में दुःखों से मुक्ति दिलाते हैं। पूर्ण मुक्ति केवल और केवल तत्त्व ज्ञान से संभव है। प्रकृति , पुरुष और विकृत हुईं प्रकृति से उत्पन्न 23 तत्त्वों का बोध , तत्त्व ज्ञान है । अब तीन प्रकार के दुखों को देखते हैं ….

1 - आध्यात्मिक दुःख (दैहिक ताप )

जिस दुःख का कारण हम स्वयं  होते हैं , वह आध्यात्मिक दुःख है । कर्म फल  के रूप में मिलने वाले दुःख , आध्यात्मिक दुःख होते हैं । यह दुःख मानसिक एवं शारीरिक दो प्रकार का होता है । इस दुःख से मनुष्य एवं देवता सभीं त्रस्त हैं ।  

2 - आधिदैविक दुःख (दैविक ताप )

जिस दुःखका कारण प्रकृति ( दैव )होती है , उस दुःख को आधि दैविक दुःख कहते हैं जैसे भूकंप , अति वृष्टि आदि जैसी घटनाओं से मिलने वाले दुःख ।

3 - आधिभौतिक दुःख (भौतिक ताप )

◆ वह दुःख जो अन्य जीवो से मिलता है , आधिभौतिक कहलाता है

श्रीमद्भागवत पुराण 1.5 में कहा गया है -  प्रभु समर्पित कर्म संसार में व्याप्त तीन प्रकार के तापों ( दुख ) की औषधि होते हैं ।

पतंजलि योग दर्शन और सांख्य दर्शन कहते हैं , जबतक कैवल्य नहीं मिलता , चित्त केंद्रित पुरुष सुख - दुःख को भोगता रहता है और पुरुष को कैवल्य दिलाने हेतु लिंग शरीर आवागमन करता रहता है । मन , बुद्धि , अहंकार , 10 इंद्रियां और 05 तन्मात्रो के समूह को सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर कहते हैं जो त्रिगुणी प्रकृति के त्रिगुणी तत्त्व हैं ।

ऊपर दिए गए पतंजलि एवं सांख्य सूत्र सारांश को समझने के लिए देखें सांख्य कारिका 3 , 20 , 22 , 31 , 38 , 40 , 41 , 42 ।

06 त्रिदोष…

वात , पित्त और कफ़ को आयुर्वेद में त्रिदोष कहा गया है शरीर में पञ्च महाभूतों के असंतुलन के कारण त्रिदोषों की निष्पति होती है।  शरीर में आकाश एवं वायु के असंतुलन के कारण वात दोष की निष्पति होती है । शरीर में अग्नि एवं पानी ( जल ) की मात्राओं के असंतुलन के कारण पित्त दोष की निष्पति होती है और इसी तरह पानी (जल ) एवं पृथ्वी तत्त्वों के असंतुलन के कारण कफ़ दोष की निष्पति होती है। ऊपर स्लाइड में त्रिदोषों के लक्षणों को भी दिखाया गया है । सांख्य दर्शन में पांच तन्मात्रो से उनके अपने - अपनें महाभूतों की उत्पत्ति होती है , देखे निम्न स्लाइड में ..

पतंजलि विभूति पाद सूत्र - 44 में पञ्च महाभूतों की सिद्धि प्राप्ति के संबंध में कुछ इस प्रकार बताया गया है - महाभूतों के  05 अंगों पर अलग - अलग संयम सिद्धि प्राप्त करने से उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है । स्थूल स्वरूप , पांच महाभूतों के गुण , उनके तन्मात्र , सात्त्विक , राजस और तामस गुणों पर और पांच महाभूतों की उपयोगिता , ये वे पांच अंग हैं जिन पर संयम सिद्धि करने से पञ्च महाभूतों पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है । पांच महाभूतों पर प्राप्त नियंत्रण वाला योगी का प्रकृति पर नियंत्रण हो जाता है , वह जो चाहे वह कर सकता है । काशी  के स्वामी विशुद्धानंद जी प्रकाश की तेज से नाना प्रकार के फूलों की सुगंध पैदा करने में सक्षम थे और यह सिद्धि उन्हें तिब्बत में प्राप्त हुई थी । स्वामी विशुद्ध नंद के संबंधमें स्वामी योगानंद जी अपनी पुस्तक Autobiography of a Yogi में लिखे हैं । पञ्च महाभूत लिंग शरीर के आश्रय हैं , इनके बिना लिंग शरीर अस्थिर रहता है । बुद्धि , अहंकार , 5 तन्मात्र और 11 इंद्रियों के समूह को लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर कहते हैं जो चित्त केंद्रित पुरुष के कैवल्य दिलाने के लिए तबतक आवागमन करता रहता है जबतक पुरुष को कैवल्य नहीं मिल जाता । कैवल्य प्राप्ति में पुरुष को स्वबोध के साथ प्रकृति बोध भी हो जाता है।

Wednesday, October 30, 2024

पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र 15 चित्त भेद के कारण वस्तु दिखती है

पतंजलिवकैवल्य पाद सूत्र : 15 


चित्तानुसार वस्तु दिखती हैं 


“ वस्तु साम्ये चित्त भेदात्  तयोः विभक्तः पंथा: “


वस्तु एक होती है पर चित्त भेद के कारण अलग - अलग दिखती है 

अर्थात वस्तु चित्तानुसार दिखती है ।


सूत्र की गंभीरता को विस्तार से समझते हैं ..

एक विषय पर लोगों की सोच अलग - अलग होती है , ऐसा क्यों ? क्योंकि सबके चित्त अलग - अलग होते हैं और चित्त भेद के कारण वस्तु एक होते हुए भी अलग - अलग दिखती है । 

अपने दैनिक सांसारिक जीवन में पतंजलि के इस सूत्र की झलक मिलती तो रहती है लेकिन हम  समझने की कोशिश नहीं करते । दो लोग जब एक विषय पर विचारों का आदान - प्रदान कर रहे होते हैं तब उनमें मत भेद स्पष्ट दिखता  है ; कुछ के मत एक से होते हैं और कुछ के भिन्न होते हैं।

मूलतः चित्त ( बुद्धि , अहंकार और मन का समूह ) जड़ और त्रिगुणी हैं अतः उसे स्वयं का पता नहीं होता के वह कौन है, फिर विषय के बारे में क्या जान सकता हैं । लेकिन शक्छ चेतन पुरुष की संगति चित्त विषय धारण करता है । चित्त त्रिगुणी प्रकृति का कार्य है और हर पल बदलते रहना गुणोंका धर्म है ।  गुणों में हो रहे बदलाव , कर्म होने का  कारण है । गुण और कर्म के इस संबंध को वेद गुण विभाग एवं कर्म विभाग कहते हैं ।

 जब दो लोग एक विषय पर विचार कर रहे होते हैं तब उस काल में उन दोनों के चित्तो के गुण समीकरण अगर एक जैसा हुआ , तो दोनों में मत भेद नहीं होगा अन्यथा , मत भेद होगा ही । ऐसी परिस्थिति में तत्त्व ज्ञानी विषय पर बहस नहीं करता ।

महर्षि पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र - 15 में कह रहे हैं …

मत भेद चित्त भेद के कारण होता है अतः इस सत्य को समझते हुए तत्त्व ज्ञानी समभाव में रहते हैं । मूढ़ की बातों से तत्त्व ज्ञानी विचलित नहीं होते और अपनी सोच को मनवाना भी नहीं चाहते।

बुद्ध पुरुषों में मत भेद नहीं होता ।

~~ ॐ ~~