Sunday, July 13, 2025

क्या आप काशी तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं


क्या आप काशी तीर्थ - यात्रा पर जा रहे हैं ? यदि हां …

तो इस तीर्थ यात्रा को तीर्थ समागम में बदलने की जिज्ञासा गहरी होनी चाहिए। तीर्थ यात्रा पर निकलने से पहले  तीर्थ यात्रा और तीर्थ समागम को समझ लें । तीर्थ शब्द संस्कृत धातु तॄ से बना है जिसका अर्थ होता है - तरना अर्थात संसार - सागर से पार ले जाना । इस प्रकार तीर्थ यात्रा का अर्थ हुआ मायामुक्त होने का मार्ग। अब तीर्थ समागम को समझ लेते हैं। तीर्थ यात्रा तीर्थ तक पहुंचा कर तीर्थ में लीन हो जाती है। तीर्थ में पहुंचने के साथ तीर्थ समागम प्रारंभ हो जाना चाहिए। समागम शब्द का अर्थ है मिलन, संयोग या जुड़ना। जैसे अंधेरे में पड़े वस्तु को देखने के लिए दीपक की रोशनी चाहिए वैसे त्रिगुणी माया के अंधेरे में स्थित निर्गुणी के दर्शन के लिए तीर्थ समागम से प्राप्त रोशनी की आवश्यकता पड़ती है।

 तीर्थ समागम निम्न तीन स्तरों पर घटित होता है…

   भौतिक स्तर पर तीर्थ स्थल में होने पर अपने सभी द्वारों को खोज देना चाहिए जिससे तीर्थ क्षेत्र की दिव्य ऊर्जा बाहर से अंदर भरने लगे , लेकिनयह कैसे संभव है ? इस प्रश्न के साथ दूसरा स्तर प्रारंभ होता है जिसे साधनात्मक स्तर कहते हैं । तीर्थ क्षेत्र में देव पूजन करना , संतो की संगति करना और शास्त्रों पर हो रही चर्चाओं में ऐसे डूब जाना जिससे आपका अतः कारण ( मन , बुद्धि और अहंकार ) पूर्ण रूप से शून्य होने लगे । जब ऐसा लक्षण दिखानेंलगे तब इस स्थिति के साथ तीसरा स्तर - आध्यात्मिक स्तर प्रारंभ होता है। भौतिक स्तर और साधनात्मक स्तर की सिद्धि प्राप्त हो जाने के बाद तीर्थ यात्री , यात्री नहीं रह जाता , वह तीर्थमुखी रहने लगता है और तीर्थ की दिव्य ऊर्जा में वैसे घुलने लगता है जैसे पानी में नमक का टुकड़ा घुलता है। 

जब उसका तीर्थ - आगमन हुआ था , उस समय वह  त्रिगुणी माया में डूबा हुआ एक यात्रा था लेकिन तीर्थ समागम से वह त्रिगुणी न रह कर केवल सत् गुणी रह जाता है । इस अवस्था में उनके चित्त में केवल और केवल सात्त्विक गुणों की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है । धीरे - धीरे वह भी स्थिति आती है जब वह इस सात्त्विक गुण की वृत्तियों से भी मुक्त हों जाता है। फिर क्या होता है ? रह - रह कर वह समाधि में उतरने लगता है । जैसे - जैसे समाधि सघन होती जाती है तब उसे उस काशी में मूल काशी दिखने लगती है । निराकार , उसके लिए साकार दिखने लगता है और वहां की दिव्य ऊर्जा सिद्धों के रूप में उसे साधना की उच्च भूमियों में पहुंचनें में मदद करने लगती है और इस प्रकार वह स्वयं तीर्थ बन जाता है । 

ध्यान रखना किसी तीर्थ में दो प्रकार से जाना होता है ; एक वह जाना होता है जैसे हम - आप साल में कई बार आते - जाते रहते हैं अर्थात काशी गए , गंगा नहाए , पूजा अर्चना की और लौट आए अपनें परिवार में । यह हमारा तीर्थ पर जाना वैसे ही होता है जैसे अन्य गृहस्थी की क्रियाएं होती रहती है । हम बार - बार जाते - आते रहेंगे और यह क्रम जीवन भर चलता रहता है ।

दूसरा जाना तब होता है तब तीर्थ स्वयं बुलाता है । घर - गृहस्थी के गहरे अनुभव से वैराग्य भाव भरने लगता है । जब यह वैराग्य भाव सघन हो जाता है तब उस व्यक्ति को तीर्थ बुलाता है और वह व्यक्ति अपनी बस्ती में फिर नहीं लौटता।

 ध्यान रखें ! तीर्थ यात्रा पर निकलना कोई मनोरंजन नहीं , यह कोई साधारण घटना भी नहीं , क्या पता आपको तीर्थ बुलाया हो ! 

~~ ॐ ~~

Friday, June 20, 2025

भारतीय मंदिरों में पशु बलि प्रथा


पहले इस विषय से संबंधित वर्तमान स्थिति पर नज़र डालते हैं ….

राज्य

वर्तमान की स्थिति

उत्तर प्रदेश , बिहार और

 मध्य प्रदेश

अधिकांश मंदिरों में पशु बलि प्रथा समाप्त हो चुकी है ।

बंगाल , असम और ओडिशा

ग्रामदेवी , शक्ति पीठों में पशु बलि प्रथा कहीं - कहीं चल रही है।

तमिल नाडु और आंध्र प्रदेश

ग्रामीण / तांत्रिक परम्पराओं में सीमित बलि प्रथा कायम है।

केरल

कुछ मंदिरों में अनौपचारिक बलि , सरकार की निगरानी में चल रही है ।

उत्तर भारत के प्रमुख मंदिरों की स्थिति

19 वी शताब्दी के उत्तरार्ध से काशी विश्वनाथ मंदिर एवं महाकालेश्वर मंदिर , उज्जैन जैसे बड़े मंदिरों में पशु बलि बंद है।


पूरे भारत देशके मंदिरों में पशु बलि प्रथा (Animal Sacrifice) पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हो पायी है। यह परंपरा आज भी कुछ राज्यों और विशेष रूप से शक्तिपीठों या

 ग्राम्य/तांत्रिक परंपराओं में सीमित रूप से प्रचलित है। 

 ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में धर्म, स्वास्थ्य, और सार्वजनिक शांति के नाम पर कई प्रकार की धार्मिक बलि प्रथाओं को अस्वीकार किया गया था । 1830s–1850s से, ब्रिटिश सरकार कई रियासतों के साथ मिलकर शहरी इलाकों में बलि पर नियंत्रण शुरू किया था । बंगाल, उड़ीसा, असम और तमिलनाडु जैसे क्षेत्रों में इस नियंत्रणका स्थानीय लोगों द्वारा विरोध भी किया गया क्योंकि वहां तांत्रिक परंपरा और देवी पूजा में बलि प्रचलित थी।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज), विवेकानंद, आदि ने पशु बलि की कड़ी आलोचना की जिसका शहरी और ब्राह्मणिक मंदिरों में बलि प्रथा पर नैतिक और धार्मिक दबाव पड़ा। 1950 के बाद संविधान के अनुच्छेद 48 में "गाय और बछड़ों के वध" पर प्रतिबंध की सिफारिश की गई। कई राज्यों ने अपने-अपने "पशु क्रूरता निवारण अधिनियम" (Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 के तहत) बनाए। कई मंदिरों में ट्रस्ट द्वारा औपचारिक रूप से बलिप्रथा समाप्त कर दी गई जैसे कामाख्या मंदिर (असम) लेकिन यहां अभी भी बकरे / मुर्गे तक सीमित बलिप्रथा है।

कालिका मंदिर कोलकाता में अनुमति के बिना बलि नहीं दी जाती। तमिलनाडु में कुछ ग्राम देवताओं के मंदिरों में अभी भी मुर्गा, बकरी आदि की बलि दी जाती है। अगले अंक में कड़ी विश्वनाथ मंदिर और दुर्गाकुंड मंदिर वाराणसी के संबंध में चर्चा होगी ।

~~ ॐ ~~

Thursday, May 22, 2025

पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र : 31 -34


पतंजलि 

कैवल्यपाद   सूत्र : 31 - 34 


पतंजलि योगसूत्र दर्शन साधना  सिद्धि का फल विवेक ज्ञान रूपी एक रस में  डूबे रहना है ……


बिना किसी रुकावट निरंतर नियमित पतंजलि योगसूत्र दर्शन की साधना अभ्यास से जब चित्त वृत्ति निरोध से संप्रज्ञात समाधि , संप्रज्ञात समाधि से संयम सिद्धि , संयम सिद्धि में असंप्रज्ञात समाधि की सिद्धि और असंप्रज्ञात समाधि अभ्यास से धर्ममेघ समाधि तक की योग साधना पूरी होती है, तब साधक उस स्थिति में होता है जिसके संबंध में कैवल्यपाद के अंतिम 04 सूत्र बता रहे हैं। पतंजलियोग सूत्र दर्शन , सांख्य दर्शन के तत्त्व ज्ञान की स्वानुभूति के लिए विकसित किया हुआ एक योग अनुशासन है । यह योग अनुशासन भोग से योग , योग से वैराग्य , वैराग्यवस्था में संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात  और धर्ममेघ समाधियों की अनुभूति से उत्पन्न साधना की दृढ़ भूमि पर बसेरा बनाए हुए योगी  विवेक ख्याति में डूबे रहता है। विवेकख्यति से प्राप्त परमानंद में स्थित यह विवेकख्यति युक्त योगी अंततः कैवल्य में पहुंचकर आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त करता है।


अब कैवल्यपाद सूत्र 31 - 34 को देखने से पूर्व कैवल्यपाद सूत्र 25 - 34 तक के सार को देख लेते हैं जिससे कैवल्य पाद की तत्त्व से समझा जा सके। 


कैवल्यपाद सूत्र - 25 

प्रकृति - पुरुष का बोधी  ,मैं कौन हूं ? मैं कहां से आया हूं ? क्यों आया हूं ? जैसी जिज्ञासाओं से मुक्त होता है ।

कैवल्यपादसूत्र - 26 

 सूत्र - 25 में व्यक्त योगी विवेक ज्ञानी होता है जिसका चित्त कैवल्यमुख होता है । यहां ध्यान रखें कि अविद्या की अनुपस्थिति , विवेक ज्ञानी बनाती है और अविद्या की अनुपस्थिति , दुःख निर्मूल की औषधि है ।

कैवल्यपाद सूत्र  - 27 

 विवेक ज्ञानी  की जब विवेक की धारा टूटती है तब उसके संस्कार प्रभावी हो उठते हैंचित्त में बीज रूप में संचित कर्मों के फलों को संस्कार कहते हैं।

कैवल्यपाद सूत्र - 28 

निरंतर धारणा , ध्यान , समाधि एवं संयम की साधना में डूबे रहने पर पूर्व संस्कारों की वृत्तियों का भी निरोध हो जाता है।

कैवल्यपाद  सूत्र - 29 

जब विवेक ज्ञान प्राप्ति से मिलने वाले ऐश्वर्यों से भी वैराग्य हो जाता है तब वह योगी सदैव विवेक ख्याति में डूबे हुए धर्ममेघ समाधि की सिद्धी प्राप्त करता है ।

कैवल्यपाद सूत्र - 30 

 धर्ममेघ समाधि प्राप्त योगी क्लेश और कर्म मुक्त होता है। क्लेश दुखों की जननी होते हैं ।

कैवल्यपाद सूत्र - 31 

 धर्ममेघ समाधि सिद्धि प्राप्त योगी के सभीं आवरण और मल नष्ट हो गए होते  हैं । उनका ज्ञान अनंत हो गया होता है और ज्ञेय अल्प हो गया होता है ।

कैवल्यपाद सूत्र - 32 

 धर्ममेघ समाधि सिद्ध योगी कृतार्थ होता है और उसके परिणाम क्रम (समय के साथ होने वाले बदलाव को परिणाम कर्म कहते हैं ) समाप्त हो गए होते हैं एवं वह गुणातीत होता है ।

कैवल्यपाद सूत्र - 33 

  जब किसी वस्तु के संबंध में सम्यक ज्ञान प्राप्त करना हो  तब उस वस्तु में हर पल हो रहे बदलाव के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। 

कैवल्यपाद सूत्र - 34 

पुरुषार्थ का शून्य होना एवं गुणों का प्रतिप्रसव होना , कैवल्य है या  चित्ति शक्ति ( पुरुष ) का अपनें मूल स्वरूप में स्थित होना, कैवल्य है । 

अब कैवल्यपाद के सूत्र : 31 - 34 के मूल स्वरूपों को देखते हैं ….

कैवल्यपाद सूत्र : 31 

तदा सर्व आवरण मलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम् धर्ममेघ समाधि में स्थित योगी के सभीं आवरण और मल नष्ट हो गए होते  हैं , उसका ज्ञान अनंत हो गया होता है और ज्ञेय अल्प हो गया होता है। निम्न कर्म तत्त्व ही आवरण हैं….



पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र : 32

 तत : कृतार्थानाम्  परिणामक्रम समाप्ति : गुणानाम् 

धर्ममेघ समाधि युक्त योगी  कृतार्थ होता है और कृतार्थ में गुणों का परिणाम क्रम समाप्त हो गया होता है । 

कैवल्यपाद सूत्र : 33

क्षण-प्रतियोगी परिणाम उपरांत निर्ग्राह्यः क्रमः

प्रत्येक वस्तु में हर क्षण परिवर्तन हो रहा है और यह परिवर्तन एक निश्चित क्रम में हो रहा है लेकिन जब योगी कैवल्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है तब वह इस परिणाम क्रम से अछूता रहता है। 

कैवल्य पाद सूत्र : 34

पुरुषार्थ शून्यानाम् गुणानाम् प्रतिप्रसव: कैवल्यम् ।

स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।।

<> सूत्र को निम्न प्रकार पढ़ें ….

पुरुषार्थ शून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव:

वा

चितिशक्तिरिति स्वरूपप्रतिष्ठा कैवल्यम् ।।

 पुरुषार्थ का शून्य होना एवं गुणों का प्रतिप्रसव होना , कैवल्य है या यह कहें , " चित्ति शक्ति ( पुरुष ) का अपनें मूल स्वरूप में आ जाना , कैवल्य है "। चित्त स्वरूपाकार पुरुष का अपनें मूल स्वरूप में स्थित होना कैवल्य है और जो यह योग सार महर्षि पतंजलि यहां कह रहे हैं , वहीं योग सार अपनें प्रारंभिक समाधिपाद के सूत्र 1,2,3 और सूत्र 4 के माध्यम से चित्त वृत्ति निरोध के संदर्भ में कह चुके हैं अतः यह कहा जा सकता है कि पतंजलि योग सूत्र जहां से प्रारंभ होता है उसका अंत भी वहीं होता है । अब समाधिपाद के प्रारंभिक 04 सूत्रों को भी देख लैं ⤵️

सूत्रों का भावार्थ …

  • अब योग अनुशासन प्रारंभ होता है ( सूत्र - 1 )। 

  • चित्त वृत्ति निरोध , योग है के सूत्र - 2 ) ।

  • चित्त स्वरूपाकार पुरुष (सूत्र - 4 ) अपनें मूल स्वरूप में स्थित हो जाता है (सूत्र - 3 ) ।

ऊपर  कैवल्यपाद सूत्र 31 - 34 में प्रयोग किए गए कुछ शब्दों को अलग से समझते हैं …

 🌹कृतार्थ > ( कृत + अर्थ अर्थात उद्देश्य का पूरा हो जाना ) और पुरुषार्थ  ( पुरुष + अर्थ अर्थात पुरुष का उद्देश्य ) । शुद्ध चेतन एवं निर्गुणी पुरुष का जड़ , त्रिगुणी प्रकृति से जुड़ने का उद्देश्य अर्थात पुरुषार्थ और जब उद्देश्य पूरा हो जाता है तब उसे कृतार्थ कहते हैं । अब यहां प्रकृति - पुरुष संयोग होने के कारण को भी समझना होगा जो पतंजलि योग दर्शन में तो उपलब्ध नहीं लेकिन सांख्य दर्शन में निम्न प्रकार है ⤵️

सांख्य कारिका : 21

💐 पुरुष , प्रकृति का दर्शन करना चाहता है और प्रकृति, पुरुष को कैवल्य दिलाना चाहती है और यही पुरुष - प्रकृति संयोग का कारण है । 

ज्ञानी पुरुष , अज्ञानी प्रकृति का दर्शन चाहता है और ज्ञानी पुरुष की ऊर्जा प्राप्त करने के बाद अज्ञानी प्रकृति एक ज्ञानी की भांति अज्ञानी बने पुरुष को पुनः उसके मूल स्वरूप में लौट जाने के लिए कार्य करती है अर्थात प्रकृति परोपकारिणी है ।

 इस प्रकार निर्गुणी को सगुणी तत्त्वों की अनुभूति होती है और सगुणी प्रकृति को ज्ञानप्राप्ति से स्व बोध होता है , जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति भी पुरुष की भांति अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाती है जो तीन गुणों की साम्यावस्था है ।

 👉 पुरुष - प्रकृति संयोग ऐसे होता है जैसे एक पंगु (लंगड़े )और एक अंधे का संयोग होता है । 

👉दोनों एक दूसरे को सहयोग करते हुए अपने - अपनें लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं ।

◆ प्रकृति - पुरुष के संयोगसे सृष्टि की उत्पत्ति होती है। 

<> प्रकृति सनातन , स्वतंत्र , त्रिगुणी , प्रसव धर्मी एवं जड़ तत्त्व है जबकि पुरुष सनातन , स्वतंत्र , निर्गुणी एवं शुद्ध चेतन तत्त्व है ।

 🌹 गुणों का परिणामक्रम क्या है ? इसे कैवल्यपाद सूत्र : 33 में स्पष्ट किया जा चुका है ।

🌹 गुणों का प्रतिप्रसव होना क्या है ? तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते हैं। जब मूल प्रकृति पर पुरुष की ऊर्जा पड़ती है तब यह विकृत हो उठती है और इसके कार्य रूप में 23 तत्त्वों की निष्पति होती है। ये 23 तत्त्व प्रकृति केंद्रित पुरुष को मुक्त होने में सहयोग करते हैं । जब इन तत्त्वों का अपने - अपने कारणों में लय हो जाता है तब अंततः विकृत प्रकृति अपने मूल स्वरूप में आ जाती है और इस स्थिति को गुणों का प्रति प्रसव कहते हैं । 

~~ ॐ ~~