श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 02 के विषय
श्लोक : 1 - 12 का सार ⬇️
श्लोक 1 - 3 संज्जय के श्लोक हैं जिनमें अर्जुन की मनोदशा बतायी गयी है । श्लोक 4 - 8 > यहां अर्जुन युद्ध न करने को उचित सिद्ध करना चाह रहे हैं । श्लोक 9 - 10 > यहां संजय धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि की स्थिति को व्यक्त करते हुए कह रहे हैं , अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते और रथ के पिछले भाग में आ कर बैठ गए हैं।
श्लोक 11 - 12 में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ,
तूँ शोक करनेयोग्य मनुष्यों के लिए शोक नहीं कर रहा और प्रज्ञावानों की भांति रहा है । क्या तुम जानते हो कि प्रज्ञावान ( पण्डित ) वह है जो जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके प्राण अभीं नहीं गए हैं दोनों के लिए शोक नहीं करते अर्थात प्रज्ञावाद शोक मुक्त समभाव होता है। हम , तुम और यहाँ युद्ध में आये सभीं लोग हर काल में रहते हैं ; पहले भी थे , अब भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे
श्लोक : 2.13 - 2.30 ( 18 श्लोक ) आत्मा से संबंधित हैं
जीवात्मा का देह त्याग और देह धारण करना ,धीर पुरुष को मोहित नहीं करता । जीवात्मा अविनाशी , अप्रमेय और नित्य है जबकि देह नाशवान है। नायं हन्ति न हन्यते ( 2.19 ) अर्थात आत्मा न मारता है और न मारा जाता है । न हन्यते हन्यमाने शरीरे ( 2.20 ) अर्थात शरीर के मारे जाने पर भी आत्मा नहीं मारा जाता ।आत्मा जन्म - मरण से अप्रभावित , अजन्मा , नित्य , सनातन और पुरातन है ।
◆ आत्मा - बोधी न मारता है , न मरवाता है । आत्मा पुराने देह को त्याग कर नया देह धारण करता है । आत्माको काटा नहीं जा सकता ,जलाया नहीं जा सकता , घुलाया नहीं जा सकता और सुखाया नहीं जा सकता ।
◆ आत्मा अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्य , सर्वव्यापी , अचल , सनातन ,अव्यक्त , अचिन्त्य और निर्विकार है।
◆ आत्माको कोई आश्चर्य से देखता - सुनता है तो कोई तत्त्व से जानता है और कोई सुनकर भी नहीं जानता ।
★ सभीं भूत जन्म पूर्व अव्यक्त थे , मरने के बाद भी अव्यक्त हो जाते हैं , इन दो के मध्य की उनकी स्थिति केवल व्यक्त की है फिर शोक क्या करना !
श्लोक : 31 - 52 सार ⬇️
श्लोक 31 - 37 > इन श्लोकों के माध्यम से प्रभु अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हुए कह रहे हैं , तुम क्षत्रिय हो ,युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म है । श्लोक : 38 - 46 > प्रभु आगे कहते हैं , तुम समभाव में रहते हुए युद्ध करो ।
➡दो प्रकार की बुद्धि होती है ; व्यवसायात्मिका और अव्यवसायित्मिका अर्थात निश्चयात्मिका और निश्चयात्मिका । पहली बुद्धि उनकी होती है जो स्थिर चीत्त वाले विवेकी होते हैं और दूसरी बुद्धि भोग आसक्त लोगों की होती है जो संदेह से भरी होती है ।
➡ वेद , कर्मफल और स्वर्ग प्राप्ति की प्रशंसा करते हैं , तुम वेद की ऐसी वाणी से ऊपर उठो जो कर्म फल , स्वर्ग प्राप्ति , ऐश्वर्य प्राप्ति आदि के समर्थन में हैं क्योंकि इनसे प्रभावित बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती तथा वेद त्रिगुणी भोग प्राप्ति के साधनों का वर्णन करते हैं । ऐसा समझो जैसे किसी एक बड़े जलाशय की प्राप्ति के बाद किसी का पहले उपलब्ध छोटे जलाशय से जो सम्बन्ध रह जाता है वैसा ही सम्बन्ध ब्राह्मण का समस्त वेदों से रहता है ।
➡ श्लोक : 47 - 52 :
कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतु : भू : मा ते सङ्ग अस्तु अकर्मणि ।।
कर्म करना तुम्हारे बश में है लेकिन कर्मफल तुम्हारे बश में नहीं । तुम कर्मफल की सोच मत रखो और कर्म न करने की भी सोच न रखो ।
अनासक्त भावदशा में समभाव अंतःकरण के साथ कर्म करो और इसी को समत्वयोग भी कहते हैं ।
श्लोक : 49 > बुद्धियोग की दृष्टि में कर्म निम्न श्रेणी का माना जाता है अतः हे धनंजय ! तूँ बुद्धियोग का आश्रय लो ।
बुद्धियुक्त , पुण्य - पाप से मुक्त रहता है अतः तूँ समत्वयोग में स्थिर रहो जिससे कर्म - कुशलता शिखर पर आ जाती है ।
बुद्धियुक्त मनीषी कर्मफल त्यागी होते हैं और जन्म बंधन से मुक्त हो कर परमपद प्राप्त करते हैं ।
श्लोक : 2.52
यदा ते मोह कलिलं बुद्धि : व्यतीतरिष्यति ।
यदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।
जब तेरी बुद्धि मोहमुक्त हो जायेगी , तब तुम्हें इस लोक और परलोक में मिलने वाले सभीं भोगों से वैराग्य हो जाएगा ।
स्थिरप्रज्ञ योगी की पहचान ⬇️
(श्लोक : 2.53 - 2.72 # 20 श्लोक )
श्लोक - 2.53 >भाँति - भाँति के वचनों के सुननें से विचलित तेरी बुद्धि जब समाधि केंद्रित स्थिर हो जायेगी तब तुम योग में स्थित जो जाओगे ।
श्लोक - 2.54 > अर्जुनका श्रीमद्भगवद्गीता में पहला प्रश्न ⤵️
➡️ समाधि में स्थित , स्थिर बुद्धि वाले स्थिरप्रज्ञकी भाषा कैसी होती है ? कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?
यह प्रश्न प्रभु के श्लोक : 2.53 के कारण उठ रहा है जिसमें प्रभु कह रहे हैं , " मेरे भाँति - भाँति के वचनों को सुनने के कारण विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चल - अचल समाधि में ठहर जाएगी तब योगारूढ़ स्थिति में तुम्हारा परम् से एकत्व स्थापित हो जाएगा ।
💐 श्लोक : 2.54 - 2.61तक ( 08 ) श्लोकों का सार देखिये जो स्थिर प्रज्ञ की पहचान बता रहे हैं 👇
● कामना मुक्त आत्मा से आत्मा में स्थित ,पूर्ण रूपेण संतुष्ट , दुःख - सुख में समभाव , राग , भय और क्रोध मुक्त , स्थिर प्रज्ञ होता है । कछुए की भांति जिसका नियंत्रण अपनें इन्द्रियों पर हो , वह स्थिर प्रज्ञ होता है ।( यहाँ ध्यान रखें कि इन्द्रियों को बिषयों से दूर रखनें से केवल बिषय निवृत्त होते हैं लेकिन मन में बिषय - आसक्ति बनी रहती है । आसक्ति निर्मूल तब होती है जब मन प्रभु पर केंद्रित हो जाता है ।आसक्ति बिना निर्मूल हुए इंद्रियाँ , मन को बलात् हर लेती हैं । जिसकी इंद्रियाँ वश में हैं , वह स्थिर प्रज्ञ है ।
💐 श्लोक : 2.62 - 2.72 तक , 11 श्लोकों का सार देखिये जो स्थिर प्रज्ञ की पहचान सन्दर्भ से सम्बंधित हैं 👇
श्लोक : 2.62 +2.63
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामत् क्रोधः अभिजायते ।।
क्रोधत् भवति सम्मोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।।
➡️ बिषय - मनन , आसक्ति की जननी है , आसक्ति कामना की जननी है और कामना टूटने पर क्रोध पैदा होता है । क्रोध से स्मृति खण्डित होती है एवं मूढ़भाव आता है जो बुद्धि का नाश करता है और वह ब्यक्ति अपनीं स्थिति से नीचे गिर जाता है।
➡️ नियोजित अंतःकरण वाले कि इंद्रियाँ अपनें - अपनें विषयों में भ्रमण तो करती रहती हैं लेकिन इससे वह प्रभावित नहीं होती ।
➡️ जिसकी इंद्रियाँ और मन आसक्ति मुक्त नहीं , उसकी बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।
➡️ जैसे वायु नाव को हर लेती है वैसे आसक्त इंद्रियाँ मन माध्यम से बुद्धि को हर लेती हैं ।
श्लोक : 2.69 ⬇️
या निशा सर्वभूतानं तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यते संयमी ।।
➡️ सम्पूर्ण भूतों के लिए जो रात्रि समान है,वह स्थिरप्रज्ञ के लिए दिन जैसा है और जो भूतों के लिए दिन समान है , वह स्थिरप्रज्ञ के लिए रात्रि जैसा होता है।
➡️ जैसे शांत समुद्र को नदियों का जल अशांत नहीं कर पाता वैसे नाना प्रकार के भोग , स्थिर प्रज्ञ को अशांत नहीं कर पाते ।
➡️ कामना , ममता , अहंकार और स्पृहा रहित शांत , ब्रह्म से एकत्व स्थापित किया हुआ स्थिरप्रज्ञ योगी अंतकाल में ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करता है ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~