पहले इस विषय से संबंधित वर्तमान स्थिति पर नज़र डालते हैं ….
पूरे भारत देशके मंदिरों में पशु बलि प्रथा (Animal Sacrifice) पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हो पायी है। यह परंपरा आज भी कुछ राज्यों और विशेष रूप से शक्तिपीठों या
ग्राम्य/तांत्रिक परंपराओं में सीमित रूप से प्रचलित है।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में धर्म, स्वास्थ्य, और सार्वजनिक शांति के नाम पर कई प्रकार की धार्मिक बलि प्रथाओं को अस्वीकार किया गया था । 1830s–1850s से, ब्रिटिश सरकार कई रियासतों के साथ मिलकर शहरी इलाकों में बलि पर नियंत्रण शुरू किया था । बंगाल, उड़ीसा, असम और तमिलनाडु जैसे क्षेत्रों में इस नियंत्रणका स्थानीय लोगों द्वारा विरोध भी किया गया क्योंकि वहां तांत्रिक परंपरा और देवी पूजा में बलि प्रचलित थी।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती (आर्य समाज), विवेकानंद, आदि ने पशु बलि की कड़ी आलोचना की जिसका शहरी और ब्राह्मणिक मंदिरों में बलि प्रथा पर नैतिक और धार्मिक दबाव पड़ा। 1950 के बाद संविधान के अनुच्छेद 48 में "गाय और बछड़ों के वध" पर प्रतिबंध की सिफारिश की गई। कई राज्यों ने अपने-अपने "पशु क्रूरता निवारण अधिनियम" (Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 के तहत) बनाए। कई मंदिरों में ट्रस्ट द्वारा औपचारिक रूप से बलिप्रथा समाप्त कर दी गई जैसे कामाख्या मंदिर (असम) लेकिन यहां अभी भी बकरे / मुर्गे तक सीमित बलिप्रथा है।
कालिका मंदिर कोलकाता में अनुमति के बिना बलि नहीं दी जाती। तमिलनाडु में कुछ ग्राम देवताओं के मंदिरों में अभी भी मुर्गा, बकरी आदि की बलि दी जाती है। अगले अंक में कड़ी विश्वनाथ मंदिर और दुर्गाकुंड मंदिर वाराणसी के संबंध में चर्चा होगी ।
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