Thursday, November 10, 2022
सांख्य दर्शन और पतंजलि दर्शन में चित्त का स्वरुप क्या है ?
" चित्त की 05 अवस्थाएँ हैं - क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु । सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्रता भूमि में होता है लेकिन ज्योंही चित्त निरु अवस्था में आता है असम्प्रज्ञात समाधि घटित हो जाती है । असम्प्रज्ञात समाधि में संस्कार बच रहते हैं । धर्ममेघ समाधि से संस्कारों का प्रतिप्रसव हो जाता है । यह अवस्था कैवल्य का द्वार खोलती है । "
👌 भोग , वैराग्य , समाधि और कैवल्य प्राप्ति का हेतु , चित्त है अतः चित्त को ठीक - ठीक समझना चाहिए ।
👌 पुरुष प्रकाश से त्रिगुणी प्रकृति की साम्यावस्था विकृत होने से सृष्टि उत्पत्ति के पहले तत्त्व महत् ( बुद्धि ) की उत्पत्ति होती है ।
👌 बुद्धि से सात्त्विक , राजस और तामस अहंकारों की उत्पत्ति होती है ।
👌 सात्त्विक अहंकार से मन सहित 05 कर्म और 05 ज्ञान इंद्रियों की उत्पत्ति होती है । तामस अहंकार से पञ्च तन्मात्र और तन्मात्रों से उनके अपने - अपने महाभूतों की उत्पत्ति होती हैं ।
👌 बुद्धि , अहंकार और मन को अंतःकरण तथा चित्त कहते हैं और 10 इन्द्रियाँ बाह्य करण कहलाती हैं ।
💐 इस प्रकार ब्रह्मांड की सभीं जड़ - चेतन सूचनाएं प्रकृति - पुरुष और प्रकृति के 23 तत्त्वों के योग से होती है ।
💐 चित्त अर्थात बुद्धि , अहंकार और मन माध्यम से अकर्ता पुरुष प्रकृति से जुड़ते ही कर्ता बन जाता है । चित्त , वह प्रकृति निर्मित पिजड़ा है जिसमें शुद्ध चेतन पुरुष अपने मूल स्वरूप से चित्त स्वरूपाकार हो जाता है । प्रकृति , पुरुष को देखने के बाद उसे मुक्त करना चाहती है और स्वयं भी अपने विकृत स्वरूप से मूल स्वरूप
(गुणों की साम्यावस्था ) में लौट आना चाहती है । पुरुष ऊर्जा मुक्त चित्त पूर्ण रूप से अचेतन ( जड़ ) होता है जिसके कारण वह स्वयं को भी नहीं जानता । जब पुरुष को बोध हो जाता है कि वह चित्त नहीं , अपितु शुद्ध चेतन है तब वह कैवल्य मुखी हो जाता है ।
💐 प्रकृति से जुड़ने से लेकर कैवल्य प्राप्ति तक की योगी के अंदर स्थित पुरुष की यात्रा योगी के एक जन्म में भी तय हो सकती है और अनेक जन्म भी लेने पड़ सकते हैं । प्रकृति के 23 तत्त्वों में पंच महाभूतों को छोड़ कर शेष 18 तत्त्वों को लिङ्ग या सूक्ष्म शरीर कहते हैं । यही लिङ्ग शरीर , पुरुष कैवल्यार्थ बार - बार शरीर धारण करता रहता है । बिना पंच महाभूत लिङ्ग शरीर सुक्षं और अस्थिर होता है ।
अब आगे ⤵️
1 - चित्त प्रकृति - पुरुष संयोग भूमि है ।
2 - चित्त प्रकृति के तीन तत्त्वों (बुद्धि अहंकार और मन ) से है ।
3 - प्रकृति त्रिगुणी और जड़ है अतः चित्त भी त्रिगुणी एवं जड़ है ।
4 - प्रकृति जड़ , अविद्या , त्रिगुणी , विकारों की जननी , जगत का आदि कारण , सक्रिय , पुरुष बंधन का कारण , देश - काल में सीमित , भोग्या , सनातन और एक है जबकि पुरुष प्रकृति के ठीक विपरीय है । अब आगे ⤵️
कारिका : 29 - 31
◆ चित्त के तत्त्व मन की असामान्य वृत्ति संकल्प है , बुद्धि की असामान्य वृत्ति ज्ञान है और अहंकार की असामान्य वृत्ति अभिमान है ।
◆ जो इन्द्रिय अंतःकरण (चित्त ) से जुड़ती है उसे चतुष्टय कहते हैं। दृश्य बिषयों में इन चारों की वृत्ति कभीं एक साथ तो कभीं क्रमशः भी होती है ।
◇ अदृश्य बिषयों में अंतःकरण ( चित्त ) की वृत्ति इंद्रिय आधारित होती है जैसे अदृश्य रूप के चितन में चक्षु आधारित वृत्ति होगी । अदृश्य गंध की अनुभूति घ्राण इन्द्रिय आधारित होती है ।
◆ मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी -अपनी वृत्तियों को जानते हैं ।
◆ इन सभीं वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है ।
सांख्य कारिका : 32 - 33 >
★ जैसा पहले बताया जा चुका है 13 करणों में 10 इन्द्रियाँ , बाह्य कारण हैं और मन , बुद्धि एवं अहँकार अंतःकरण हैं ।
● बाह्य करण (10 इन्द्रियाँ ) केवल वर्तमान काल के बिषयों को ग्रहण करते हैं ।
● अंतःकरण ( बुद्धि , अहँकार , मन ) तीनों कालों के बिषयों को ग्रहण करते हैं ।
सांख्य कारिका : 23 ( बुद्धि )
महत् ( बुद्धि ) के सात्त्विक और तामस रूप
◆ 04 सात्त्विक रूप >धर्म , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वर्य
◆ 04 तामस रूप >अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य , अनैश्वर
( बुद्धि के 04 सत्त्विक रूप और 04 तामस रूप भाव कहलाते हैं ।
प्रकृति इन 08 भावों में से 07 भावों से बधी होती है लेकिन जब उसे पुरुष ऊर्जा के प्रभाव में ज्ञान प्राप्ति होती है तब इन 07 भावों से मुख्य हो कर अपनें मूल स्वरूप में लौट जाती है ।
कारिका : 24 +25 (अहँकार )
● अभिमान ही अहँकार है । 11 इन्द्रियां और 05 तन्मात्र अहँकार के कार्य हैं । इनमें 11 इन्द्रियाँ सत्त्विक अहँकार के कार्य हैं और 05 तन्मात्र तामस अहँकार के कार्य हैं । राजस अहँकार कोई तत्त्व उत्पन्न नहीं करता अपितु शेष दो अहंकारों को तत्त्व उत्पत्ति में सहयोग करता है ।
◆ प्रकृति के 23 तत्त्वों में हर पल सात्त्विक , राजस और तामस गुण होते हैं । जब एक गुण प्रभावी होता है तब अन्य दो गुण कमजोर हो गए होते हैं , इस प्रकार हर पल इन तीन गुणों की मात्राएं घटती - बढ़ती रहती हैं ।
◆ मूलतः गुणों की साधना ही चित्त की साधना है । जब चित्त निर्गुणी होता है तब विवेक की लहर उठने लगती है और चित्ताकार पुरुष अपने मूल स्वरूप में आ जाता है ।
चित्त वृत्तियाँ ( पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 5 - 11 ) > वृत्ति उन हेतुओं को कहते हैं जो चित्त में सोच की लहर उत्पन्न करते हैं । चित्त की 05 वृत्तियां हैं जो क्लिष्ट - अक्लिष्ट दो रूपों में होती हैं । क्लिष्ट दुःख से जोड़ती हैं और अक्लिष्ट सुख से । सात्त्विक गुण की वृत्तियों से प्रभावित चित्त - वृत्तियाँ सुख की जननी हैं और इन्हें अक्लिष्ट कहते हैं । राजस - तामस गुणों से प्रभावित चित्त - वृत्तियाँ , दुःख की जननी हैं जिन्हें क्लिष्ट कहते हैं ।
चित्त की पहली वृत्ति प्रमाण तीन प्रकार की होती है ; प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम ( शब्द और आप्त वचन भी कहते हैं )।
पांच ज्ञान इंद्रियों से बिषय बोध का होना , चित्त की प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्ति कहलाती है । अनुमान में बिषय अनुपस्थित रहता है लेकिन उससे सम्बन्धित चिन्हों से उसे जानते हैं जैसे दूर कहीं धुआं देख कर वहां अग्नि होने का अनुमान लगाना । आगम को आप्त वचन और शब्द भी कहते हैं । जिस बिषय का बोध प्रत्यक्ष एवं अनुमान से संभव नहीं , उसके बारे में उपलब्ध सर्वमान्य ग्रंथों एवं संदर्भों के आधार पर उस बिषय पर सोचने से, आगम चित्त वृत्ति पैदा पैदा होती है ।
चित्त की दूसरी वृत्ति विपर्यय : विपर्यय का अर्थ है अज्ञान या अविद्या । जो बिषय जैसा है , उसे वैसा न समझ कर उसके विपरीत समझना , विपर्यय है अर्थात सत को असत , और असत्य को सत समझना , विपर्यय है ।
चित्त की तीसरी वृत्ति विकल्प : विकल्प के संबंध में समाधि पाद सूत्र : 09 को देखें - शब्द ज्ञान अनुपाती वस्तु शून्यो विकल्प:
अर्थात वस्तु की अनुपस्थित में उस बिषय के सम्बन्ध में शब्द ज्ञान के आधार पर सोचने से चित्त में विकल्प वृत्ति पैदा होती
है । देवता , भूत - प्रेत आदि के सम्बन्ध में जानना मात्र शब्द - ज्ञानसे संभव है । शब्द ज्ञान वह ज्ञान है जो शास्त्र आदि सर्वमान्य ग्रंथों से प्राप्त होता है ।
चित्त की चौथी और पांचवीं वृत्ति निद्रा और स्मृति के संबंध में निम्न समाधि पाद सूत्र : 10 +11को देखें👇
" अभाव प्रत्यय आलंबना वृत्ति : निद्रा "
निद्रा में बिषय आलंबन का अभाव होता है । कभीं - कभीं हम जब सो कर उठते हैं तब कहते हैं कि आज बहुत प्यारी नींद आयी , समय का पता तक न चला अर्थात उस नींद में भी चित्त की कोई वृत्ति सक्रिय थी जो मीठी नींद की स्मृति को जगने के बाद प्रकट कर रही होती है , वही चित्त की निद्रा वृत्ति है ।
स्मृति चित्त वृत्ति > पूर्व अनुभव किये हुए विषयों के सम्बन्ध की सोच का समय पर चित्त पटल पर प्रगट हो जाना , स्मृति है ।
चित्त की भूमियाँ > चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः अब चित्त की 05 भूमियों को समझते हैं ।
1- क्षिप्ति : चित्त की यह भूमि योगमें एक बड़ी रुकावट है । विचारों का तीव्र गति से बदलते रहना , चित्त की क्षिप्त अवस्था होती है ।
2 - मूढ़ :मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है । अज्ञान - अविद्या में डूबा हुआ चित्त , ज्ञान को अज्ञान , असत्य को सत्य समझने वाला चित्त मूढ़ अवस्था ( भूमि ) में होता है । इस अवस्था में चित्त तामस गुण से प्रभावित रहता है ।
3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है है । इस प्रकार रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चित्त की चंचलता अवरोध उत्पन्न करती रहती है लेकिन इस अवस्था में भी कभीं - कभीं समाधि लग जाती है ।
4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता है ।
एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना होता रहता है ।
5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है ।
जब सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है तब चित्त चित्त निरु भूमि में होता है । असम्प्रज्ञात समाधि आलंबन मुक्त समाधि होती है । यहां इस अवस्था तक संस्कार शेष रह जाते हैं जो धर्ममेघ समाधि मिलते ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा योगी कैवल्य में प्रवेश कर जाता है । यह अवस्था सिद्ध योगियों की होती हैं और इस अवस्था को चित्त की पूर्ण शून्यावस्था भी कहते हैं ।
चीत्त की 05 अवस्थाएँ हैं ; क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु । सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्रता भूमि में होता है लेकिन ज्योंही चित्त निरु अवस्था में आता है असम्प्रज्ञात समाधि घटित हो जाती है । असम्प्रज्ञात समाधी तब संस्कार रहते हैं जिनका प्रतिप्रसव होने रबधर्ममेघ समाधि लगती है जो कैवल्य का द्वार खोलती है ।
व्युत्थान और निरोध चित्त के 02 धर्म हैं : चित्त की 05 भूमियों
(क्षिप्ति + मूढ़ + विक्षिप्त + एकाग्रता और निरु ) में प्रारंभिक तीन नीचे की या भोग की भूमियाँ हैं और अंतिम दो उच्च (योग सिद्धि की ) भूमियाँ होती हैं ।
योग साधना में चित का ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की भूमियों में उतरना - चढ़ना या चढ़ना - उतरना चित्त का व्युत्थान धर्म है और चित्त का अंतिम दो भूमियों पर टिके रहना निरोध धर्म है ।
चाहे साधना का कोई मार्ग क्यों न हो सबका एक ही लक्ष्य होता है और वह है चित्त को व्युत्थान धर्म से निरोध धर्म पर स्थिर रखना ।
जब चित्त राजस - तामस गुणों की वृत्तियों से बधा रहता है तब वह अपने व्युत्थान धर्म में होता है और जब यह सात्त्विक गुण से बध जाता है तब निरोध धर्म में होता है । निरोध धर्म में स्थित चित्त में कुछ सात्त्विक आलंबन सम्बंधित वृत्तियां उठती रहती है और कुछ उठी हुई वृत्तियां समाप्त होती रहती हैं , इस प्रकार चित्त सात्त्विक गुण आलंबन में सक्रिय रहता है । यहाँ ध्यान में रखना होगा की तामस - राजस गुणों से मुक्त चित्त अब निरोध धर्म में स्थित रहता तो है लेकिन साधना जैसे - जैसे आगे चलती रहती है , यह सत्त्विक गुण रूपी बंधन से भी चित्त को मुक्त होना पड़ता है ।
धर्म के संबंध में विभूति पाद सूत्र - 14 में बताया गया है , " धर्म वह जो भूत , वर्तमान और भविष्य , तीनों कालों में रहता हो और तीन काल ही धर्म हैं । बिना धर्मी ,धर्म की कोई सत्ता नहीं और चित्त को धर्मी कहते हैं ।
विभूति पाद सूत्र - 11: जब चित्त एक आलंबन पर ऐसे स्थिर हो जाय कि उस पर देश - काल की पकड़ समाप्त हो जाय तब उस स्थिति को चित्तका समाधि परिणाम कहते हैं ।
चित्त के 03 परिणाम ; 1 - निरोध , 2 - समाधि 3 - एकाग्रता
1- निरोध : इसके संबंध में चित्त के धर्म में बताया जा चुका है ।
इस संदर्भ में अब देखते हैं विभूति पाद सूत्र :10 ⬇️
" तस्य प्रशांत वाहिता संस्कारात् "
अर्थात निरोध संस्कार में जब चित्त स्थिर हो जाता है तब चित्तमें प्रशांत ऊर्जा की धारा बहने लगती है ।
( निरोध , चित्त के 03 परिणामों में से एक परिणाम और 02 धर्मों में से 01 धर्म भी है )
2 - समाधि :विभूति पाद सूत्र : 3 में समाधि की परिभाध देखें
" तत् एव अर्थ मात्र निर्भासम् स्वरूप शून्यम् इव समाधि "
साधना में जब आलंबन का स्वरूप शून्य हो जाय और आलंबन अर्थमात्र रह जाय तब इस स्थिति को सम्प्रज्ञात समाधि कहते है ।
कैवल्य पाद सूत्र : 01 में महर्षि सिद्धि प्राप्ति के 05 कारण बताते हैं ; जन्म , औषधि , मंत्र , तप और समाधि ।
3 - एकाग्रता :एकाग्रता चित्त की 05 भूमियों में से एक भूमि और चित्त के 03 परिणाम में से एक परिणाम भी है ।
एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना लगा रहता है ।
चित्त जब किसी सात्त्विक आलंबन से बध कर समयातीत अवस्था में आ जाता है तब वह चित्त की स्थिति एकाग्रता परिणाम कहलाती है । चित्त की यह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि से आगे की है जिसमें असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है ।
पतंजलि समाधि पाद सूत्र 33 - 41 > चित्त शांत करने के उपाय
1 - भावनाओं पर नियंत्रण करना
2 - बाह्य कुम्भक का अभ्यास करना
3 - स्थूल सात्त्विक आलंबन पर ध्यान करने का अभ्यास
4 - ज्योति पर एकाग्रता का अभ्यास करना
5 - वीत रागियों की संगति में रहना या उनको सुनना
6 - सत्त्विक बिषय सम्बंधित स्वप्न पर चित को स्थिर रखने का अभ्यास
7 - स्वरूचि आधारित किसी सात्त्विक आलंबन पर ध्यान करना
पूर्णशान्त चित्त वाला सूक्ष्म वस्तु से अनंत तक पर स्व संकल्प से चित्त को एकाग्र कर सकता है । शांत निर्मल चित्त पारिजात मणि जैसा पारदर्शी होता है।
चित्त सम्बंधित साधन पाद के सूत्र
सूत्र : 1 - 14 तक > क्लेष , कर्माशय की जड़ हैं और समाधि भाव उठते ही क्लेश तनु ( क्षीण ) अवस्था में आ जाते हैं ।
👉कर्म आशय अर्थात कर्म जहाँ एकत्रित होते हैं अर्थात चित्त का अंग - मन ।
👉कर्म से संस्कार बनते हैं जो कर्माशय ( मन ) में एकत्रित होते रहते हैं ।
👉ध्यान से वर्तमान में तथा अगले जन्म में भोगे जानेवाले सभीं पाप - कर्म निर्मूल होते रहते हैं ।
● क्लेश के प्रकार : अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष , अभिनिवेश
◆ सत् को असत् समझना ,अविद्या है ।
◆ दृग - दृश्य का एक होना अस्मिता है
◆ सुख अनुशयी , राग है
◆ दुःख अनुशयी , द्वेष है
◆ मृत्यु भय को अभिनिवेश कहते हैं
● क्रियायोग से क्लेश नष्ट होते हैं
★ तप , स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधानि का अभ्यास , क्रियायोग है
● ध्यान से क्लेश नष्ट होते हैं
● जब तक क्लेशों की जड़े हैं ,आवागमन से मुक्त होना संभव नहीं
◆★ हृदय - संयम साधना से चित्त को जाना जाता है ।
संयम समाधि के बाद की स्थिति होती है । पतंजलि अष्टांग योग साधना में आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान , धारणा और सम्प्रज्ञात समाधि सिद्धि के बाद संयम की स्थिति मिलती है । जब धारणा , शयन और समाधि एक साथ घटित होती हैं तो उसे संयम कहते हैं । संयम सिद्धि से असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है जिसे निराकार समाधि ( निर्बीज समाधि ) कहते हैं । असम्प्रज्ञात समाधि के बाद कैवल्य और कैवल्य ही मोक्ष है । संयम सिद्धि से विभिन्न प्रकार की सिद्धियां मिलती हैं जिनको विभूति पाद में सूत्र : 16 - 49 में 45 सिद्धियों के सम्बन्ध में बताया गया है
◆ ऐसा योगी जिसे अपने चित्त का बोध हो चुका होता है , वह जब चाहे अपने चित्त को पर काया में प्रवेश करा सकता है।
◆ऐसा योगी जो अपनी इंद्रियों को जीत लिया है , वह अपने मन की गति से अपनी काया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज सकता है ।√√√££
कैवल्य पाद में चित्त ⬇️
कैवल्य पाद सूत्र : 4+ 5 > अस्मिता से निर्मित चित्त
संकल्प अर्थात अस्मिता से निर्मित चित्त ,निर्माण चित्त कहलाता है ।
सूत्र : 4 +5 का सीधा संबंध सूत्र : 2 से हैं जहाँ महर्षि कहते हैं , " सिद्धि प्राप्त योगी अपनें संकल्प मात्र से कोई भी रूप धारण कर सकता है । वह एक समय में कई रूपों में स्वयं को प्रकट भी कर सकता है " ऐसी स्थिति में उसके हर देह में अलग - अलग चित्त होते हैं जो उसके मूल चित्त से नियंत्रित होते रहते हैं ।
कैवल्य पाद सूत्र : 6
◆ ध्यान से निर्मित चित्त क्लेश - वासना मुक्त होता है ।
कैवल्य पाद सूत्र : 15
"चित्त भेद के कारण एक वस्तु अनेक रूपों में दिखती है "
इस बात को ऐसे समझते हैं । एक वस्तु को यदि एक से अधिक लोग देखते हैं तो उस वस्तु के सम्बन्ध में उनकी अपनीं - अपनीं राय अलग - अलग उनके चित्तों के भेद के कारण होती है ।
कैवल्य पाद सूत्र : 17 : संसार और चित्त
चित्त को संसार को समझने के लिए उसे संसार का प्रतिविम्ब चाहिए । बिना प्रतिविम्ब चित्त उसे समझ नहीं सकता । चित्त वस्तु को उसके प्रतिविम्ब से समझता है ।
कैवल्य पाद सूत्र : 18 > चित्त और पुरुष
पुरुष अपरिणामी ( अपरिवर्तनीय ) है और चित्त परिणामी
(परिवर्तनशील ) एवं वृत्तियों का स्वामी भी है ।
कैवल्य पाद सूत्र : 19+ 20 > चित्त जड़ है । चित्त को न स्वयं का और न अन्य किसी का बोध होता है । पुरुष के लिए चित्त एक दर्पण जैसा होता है । चित्त पर संसार की वस्तु / बिषय का प्रतिविम्ब बनता है जिसे देख कर पुरुष उन्हें समझता है ।
कैवल्य पाद सूत्र : 21:( इसे सूत्र : 4 - 5 के साथ देखें )
चित्त अनेक हैं । एक चित्त दूसरे चित्त का दृश्य होता है और अन्य का द्रष्टा भी होता है ।
【 कैवल्य पाद सूत्र : 4+ 5 > अस्मिता से निर्मित चित्त
संकल्प अर्थात अस्मिता से निर्मित चित्त ,निर्माण चित्त कहलाता है ।
सूत्र : 4 +5 का सीधा संबंध सूत्र : 2 से हैं जहाँ महर्षि कहते हैं , " सिद्धि प्राप्त योगी अपनें संकल्प मात्र से कोई भी रूप धारण कर सकता है । वह एक समय में कई रूपों में स्वयं को प्रकट भी कर सकता है " ऐसी स्थिति में उसके हर देह में अलग - अलग चित्त होते हैं जो उसके मूल चित्त से नियंत्रित होते रहते हैं ।】
कैवल्य पाद सूत्र : 24
अनेक वासनाओं से चित्त विचित्त होने के साथ संहत और परार्थ भी है ।
संहत अर्थात मिलजुल कर कार्य करनेवाला और परार्थ का अर्थ है , जो दूसरों के लिए कार्य करे ।
~~~~|ॐ | ~~
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment