Saturday, February 1, 2025

पतंजलि अष्टांगयोग में प्राणायाम अभ्यास


पतंजलि  योगदर्शन में अष्टांगयोग 

भाग - 04 . 2 > 


अष्टांगयोग का चौथा अंग प्राणायाम

निरंतर प्राणायाम अभ्यास से वितृष्णा का भाव भर जाता है जो चित्त को समाधिमुखी बनाता है …

संदर्भ सूत्र : पतंजलि साधनपाद सूत्र 49 - 53 (05 )

प्राणायाम दो शब्दों का योग है - प्राण एवं आयाम अर्थात जिस क्रिया का आलंबन प्राण हो ; प्राण अर्थात वायु , वह प्राणायाम है।

पतंजलि के अष्टांगयोग साधना के अंतर्गत अभी तक यम , नियम और आसान के साथ प्राणायाम संदर्भ में श्वास - प्रश्वास साधना रहस्य से संबंधित कुछ बातों को भी देखा गया है । 

आसन की साधना के साथ अन्दर आ रही श्वास (श्वास ) एवं देह के अंदर से बाहर निकल रही श्वास (प्रश्वास) पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उनका दृष्टा बनने का अभ्यास भी करते रहना चाहिए । जब यह अभ्यास गहराने लगता है तब प्राणायाम स्वतः घटित होता है जिसके संबंध में हम आगे चल कर विस्तार से देखने वाले हैं।

प्रमाण , विपर्यय, विकल्प , एकाग्रता और निरु, चित्त की 05 वृत्तियां हैं । व्युत्थान एवं निरोध , चित्त के 02 धर्म हैं ।  क्षिप्ति, मूढ़ , विक्षिप्त, एकाग्रता एवं निरू, चित्त की 05 भूमियां हैं । 

चित्त ( मन , बुद्धि , अहंकार का समूह ) त्रिगुणी एवं जड़ प्रकृति का तत्त्व है अतः कारण - कार्य सिद्धांत के आधार पर यह भी त्रिगुणी एवं जड़ तत्त्व है । चित्त का जड़ होने के कारण उसे स्वयं का भी पता नहीं होता लेकिन चित्त केंद्रित पुरुष की ऊर्जा के प्रभाव में यह चेतन जैसा व्यवहार करने लगता है क्योंकि पुरुष शुद्ध चेतन एवं निर्गुणी होता है । 

धीरे - धीरे अष्टांगयोग साधना के फलस्वरूप चित्त का व्युत्थान धर्म (अस्थिरता) अप्रभावी होने लगता है और निरोध धर्म (निर्गुण स्थिरता )  प्रभावी होने लगता है जिसके फलस्वरूप चित्त की प्रारंभिक तीन वृत्तियां ( प्रमाण , विपर्यय , विकल्प ) शांत होने लगती हैं और इसी के साथ चित्त प्रारंभिक तीन भूमियों से उठ कर चौथी उच्च भूमि पर केंद्रित रहने लगता है जो एकाग्रता भूमि है। चित्त एकाग्रता चित्त की चौथी वृत्ति एवं चौथी भूमि दोनों है।

 एकाग्रता वृत्ति केंद्रित चित्त में केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का आवागमन बना रहता है , राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियां शांत रहती हैं । धीरे - धीरे अष्टांगयोग के निरंतर अभ्यास से चित्त की एकाग्रता वृत्ति भी शांत होने लगती है और तब चित्त निरू वृत्ति पर केंद्रित रहने लगता है ।

 निरू चित्त की उच्चतम भूमि है। साधना की इस अवस्था में योगी किसी भी समय संप्रज्ञात समाधि में उतर सकता 

है।

 अब प्रारंभ के दिए गए पतंजलि के साधनपद के 05 एवं समाधिपाद का 01 सूत्रों को समझते हैं ….

पतंजलि साधनपाद सूत्र - 49

तस्मिन् सति श्वास प्रश्वास गति विच्छेद प्राणायाम:

सूत्र भावार्थ 

आसन सिद्धि में श्वास - प्रश्वास का रुक जाना , प्राणायाम है

पतंजलि साधन पाद सूत्र - 50

स तु बाह्य आभ्यंतर स्तंभ वृत्ति देश काल संख्या परिदृष्टो दीर्घ सूक्ष्म:

बाह्य > बाहर , आभ्यंतर > अंदर , स्तम्भ वृत्ति > दोनों की अनुपस्थिति , देश - काल >  स्थान और समय , संख्या 

सूत्र भावार्थ

यहां महर्षि पतंजलि तीन प्रकार के प्राणायाम बता रहे हैं रेचक , पूरक और कुम्भक और साथ यह भी बता रहे हैं कि ये तीनों प्राणायाम देश , काल एवं संख्या की दृष्टि में दीर्घ एवं सूक्ष्म होने चाहिए अर्थात  प्राणायाम अभ्यास में धीरे - धीरे श्वास - प्रश्वास पतली होती जानी चाहिए एवं  लंबाई बढ़ती जानी चाहिए । 

जो श्वास अंदर लेते हैं उसे पूरक  , जो श्वास बाहर निकालते हैं उसे रेचक कहते हैं और जब दोनों अनुपस्थित होते हैं तब कुंभक की स्थिति होती है । कुंभक दो प्रकार का होता है । पूरक के अंत में निःश्वास की स्थिति आंतरिक कुंभक और रेचक के एंड में निःश्वास की स्थिति बाह्य कुंभक की होती  है।

साधन पाद सूत्र : 51

" बाह्य आभ्यंतर बिषय आक्षेपी चतुर्थः “

इस सूत्र में महर्षि पतंजलि बाह्य कुंभक को चौथा प्राणायाम बता रहे हैं ।

पतंजलि साधनपाद सूत्र - 51 में कह रहे हैं …

जब पूरक , रेचक और कुंभक प्राणायामों का अभ्यास गहरा जाता है तब वह योगी पूरक एवं रेचक किए बिना सीधे कुंभक में पहुंच जाया करता है । यह रेचक - पूरक को छोड़ आगे बढ़ जाने वाला प्राणायाम को हठ प्रदीपिका में केवली प्राणायाम कहते हैं ।

बिना रेचक , बिना पूरक किये सीधे सूक्ष्म कुम्भक स्थिति में योगी पहुंच जाता है और देर तक श्वास रुक जाती हैं । यह अवस्था समाधि की अवस्था जैसी ही होती है ।

बाह्य कुम्भक में स्थित योगी को यदि डॉक्टर निरिक्षण करें तो मृत घोषित कर देंगे । यह अवस्था धर्ममेघ समाधि सिद्धि में भी आती है जिसे पतंजलि कैवल्य पाद में बताया गया है ।

साधन पाद सूत्र : 52 

" तत : क्षीयते प्रकाश आवरणम् "

प्राणायामके चारो अंगों ( पूरक , रेचक ,कुम्भक और बाह्य कुम्भक )  की सिद्धि से प्रकाश के ऊपर पड़ा आवरण क्षीण हो जाता है अर्थात अविद्या निर्मूल हो जाती है । 

अविद्या का लय दुःख का लय है और दुःख का लय ही कैवल्य है ( साधन पाद सूत्र : 25 )।

साधन पाद सूत्र : 53

धारणासु च योग्यता मनसः 

प्राणायाम सिद्धि से मनमें धारणाकी योग्यता आती है । धारणा अष्टांगयोग का छठवां अंग है । प्राणायाम और धारणा के बीच में पांचवां अंग प्रत्याहार है जिसे अगले अंक में देखा जा सकता है ।

 ।।। ॐ ।।।