प्रश्न – 02
श्लोक : 3.1 + 3.2
भावार्थ
अर्जुन अपनें दो श्लोकों के माध्यम से अपना दूसरा प्रश्न कुछ निम्न प्रकार से उठा रहे हैं ⤵️
हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है फिर आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगा रहे हैं ?
आप की मिली जुली बातें मेरी बुद्धि को मोहित कर रही हैं अतः आप मुझे वह बताएं जिससे मेरा कल्याण हो ।
अर्जुन के इस प्रश्न का बीज प्रभु श्री कृष्ण के निम्न श्लोक : 2.49 में है जिसका अर्थ अर्जुन अपनें भ्रमित बुद्धि से अपने पक्ष में लगा कर यह प्रश्न उठा रहे हैं । अतः पहले श्लोक का शब्दार्थ देखते हैं फिर भावार्थ को भी देखेंगे
श्लोक के शब्दों को देखें
दूरेण+ हि + अवरम् + कर्म + बुद्धियोगात् + धनंजय
बुद्धौ + शरणम् + अनविच्छ + कृपणा: + फलहेतव :
श्लोक शब्दार्थ
बुद्धियोग से कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का है इसलिए हे धनंजय ! बुद्धि की शरण में आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले कृपण ( दीन ) होते हैं ।
प्रभु अपनें श्लोक : 2.49 में ज्ञानयोग को कर्म की अपेक्षा उत्तम कह रहे हैं और अर्जुन इसका अर्थ ज्ञान को कर्म से उत्तम समझ कर प्रश्न कर रहे हैं ।
अब हमें यहां पहले कर्म , ज्ञान और ज्ञानयोग को समझना होगा और इसके बाद प्रभु द्वारा दिए गए उत्तर रूप में 33 श्लोकों ( 3.3 से 3.35 तक ) को भी देखना होगा ।
वेद कर्म की दो श्रेणियां बताते है ; प्रवृत्ति परक और निवृत्ति परक । प्रवृत्ति परक कर्म वे कर्म हैं को कर्म बंधनों की ऊर्जा से होते हैं और भोग केंद्र होता है । दूसरा निवृत्ति परक कर्म हैं जो योगियों द्वारा किए जाते हैं और ऐसे कर्म प्रभु से जोड़ते हैं तथा कैवल्य मुखी बनाते हैं ।
कर्म संबंधित गीता के प्रमुख श्लोक
गीता में कर्म संबंधित निम्न श्लोक हैं जिनसे कर्म की परिभाषा स्पष्ट होती है ⤵️
कर्म क्या है ?
भूत – भाव – उद्भव – कर : विसर्ग : कर्म संज्ञित :
~ गीता : 8.3 ~ S.Radhakrishanan गीता के इस सूत्र का अर्थ कुछ इस प्रकार करते हैं ------
Karma is the creative impulse out of which life`s forms issue . The whole cosmic evolution is called Karma .
गूगल आधारित हिंदी भाषान्तर
कर्म वह रचनात्मक प्रेणना है जिससे जीवों के रूपों का निर्गमन होता है । संपूर्ण ब्रह्मांडीय विकास को कर्म कहा जाता है ।
कुछ अन्य लोग इस गीता श्लोक : 8.3 का अर्थ कुछ इस प्रकार करता है -------
The primal resolve of God [visarga] ,which brings forth the existence of beings is called Karma .
गूगल आधारित हिंदी भाषान्तर
ईश्वर का मूल संकल्प ( विसर्ग ) जो प्राणियों के अस्तित्व को प्रकट करता है , कर्म कहलाता है।
अब ज्ञान और ज्ञानी को समझते हैं ⤵️
ज्ञानी के लक्षण
तब , मन और बुद्धि का निर्विकार होना ,तन , मन और वाणी का नियंत्रण होना , समभाव में रहना ,
गुणातीत होना , कर्म में फल की सोच का अभाव
कामना -संकल्प मुक्त होना और मोहमुक्त होना , ज्ञानी के लक्षण हैं ।
ज्ञान कैसे मिलता है ?
कर्म योग सिद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है ,
गीता - 4.38
गीता कहता है , ज्ञान प्राप्ति के लिए कर्म एक सुलभ माध्यम है / ज्ञान किताबों से नहीं अनुभव से मिलता है / किताबों से मिला ज्ञान परोक्ष ज्ञान होता है और अनुभव से प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान होता है ।
ज्ञान क्या है ?
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो : ज्ञानं यत् तत् ज्ञानम् - गीता - 13.2
क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ज्ञान है
कर्म करता तो गुण हैं लेकिन मैं कर्म करता हूं - ऐसा भाव अहंकार की उपज है ( गीता श्लोक : 3.27 ) ।
भोग कर्म या प्रवृत्ति परक कर्म वे कर्म हैं जिनके होने में कर्म बंधनों को ऊर्जा होती है । आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य और अहंकार भोग तत्त्व या कर्म बंधन हैं । भोग कर्मों इन तत्त्वों के प्रति जागृत हो जाना इन कर्मों को भोग कर्म से योग कर्म में रूपांतरित कर देते हैं । जब भोग कर्म योग कर्म बन जाता है तब उसे कर्मयोग कहते हैं । कर्मयोग से नैष्यकर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है ( गीता : 18.50) । जब कर्म आसक्ति रहित हो रहे होते हैं तब उसे नैष्यकर्म्य की सिद्धि कहते हैं (गीता : 18.49) ।
अर्जुन कर्म , कर्म योग , ज्ञान और ज्ञान योग को नहीं समझ रहे अतः एक साधारण मनुष्य की तरह प्रश्न उठा रहे हैं ।
दो व्यक्तियों के मध्य जब वार्ता हो रही जो और दोनों की बुद्धियों का स्तर एक न हो तो वह वार्ता विवाद में बदल जाती है । जिसकी बुद्धि का लेवल नीचा होता है वह उच्च बुद्धि वाले को अपने लेवल पर ले आना चाहता है और उच्च बुद्धि वाला निम्न बुद्धि वाले।को अपनी बुद्धि के लेवल में ले आना चाहता है - यह दोनों के प्रयास विवाद में बदल जाते हैं । लेकिन गुरु और शिष्य के संबंध में ऐसी घटना नहीं घटती , विवाद तो नहीं उठता लेकिन प्रश्न उठते रहते हैं । प्रश्न संदेहयुक्य बुद्धि होने के संकेत होए हैं । भ्रमित बुद्धि प्रश्न उठाती है और इसे ऐसा करने में अहंकार उसका साथ देता है ।
अब प्रभु श्री कृष्ण के उन 33 श्लोकों को देखते हैं जो अर्जुन के प्रश्न के उत्तर रूप में हैं ⤵️
प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर
श्लोक – 3.3 – 3.35 तक ( 33 श्लोक )
# प्रभु कह रहे हैं ….
कुछ योगी सांख्य योग के माध्यम से और अन्य योगी कर्म माध्यम से मुझे तत्त्व से समझते हैं ।
# कर्म बिना किए या बिना कर्म त्याग से नैष्कर्म्य की सिद्धि प्राप्त करना संभव नहीं ।
इस संबंध में गीता श्लोक : 18.49 + 18.50 को एक साथ देखें जिनका भावार्थ निम्न प्रकार है ।
आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है।
# कर्म किए बिना कोई भी मनुष्य क्षण भर नहीं रह सकता क्योंकि कर्म गुणों में हो रहे बदलाव का परिणाम होता है और गुण हर पल बदल रहे हैं ।
# हथात् इंद्रियों को दबा कर रखने वाला मिथ्याचारी बनता है क्योंकि विषय पर उसका मन मनन करता ही रहता है अतः इंद्रिय निग्रह मन से होना चाहिए ।
# कर्म करता तीन गुण हैं , कर्ता भाव का होना अहंकार के कारण आता है ।
# तत्तवित्तु गुण विभाग और कर्म विभाग रहस्य को समझते हैं
# गुणों में हो रहे परिवर्तन से मनुष्य का स्वभाव निर्मित होता है और स्वभाव से कर्म होता है ।
# गुणों से मोहित गुणों और कर्मों में आसक्त मनुष्य अज्ञानी होते हैं । ऐसे अज्ञानियों को ज्ञानी विचलित न करें ।
#बतुम अपनें कर्मों को मुझे अर्पित करके ममता रहित , संताप रहित और आशारहित स्थिति में युद्ध करो ।
# अच्छी तरफ आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से अपना गुण रहित धकर्म अति उत्तम होता है । दीसरे क् धर्म भय में रखता है और अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारी होता है । इस संबंध में गीता श्लोक : 3.35 के साथ गीता श्लोक : 18.47 को भी देखें । ये दोनों श्लोक नीचे दिए जा रहें हैं ⬇️
दोनों श्लोकों का पहला भाग एक है , दूसरे भाग में शब्दों का अंतर है ।
श्लोक : 18.47 के दूसरे भाग का भावार्थ निम्न प्रकार है
स्वभाव से नियत किये हुए कर्म को करने वाला मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।
~~ ॐ ~~
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