प्रश्न – 08
श्लोक – 8.1 एवं श्लोक - 8.2
अर्जुन पूछ रहे हैं
ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ?
अधिभूत क्या है ? अधिदैव क्या है ? अधियज्ञ क्या है ? वह देह में कैसे रहता है ? और मृत्यु के समय आप कैसे जानें जा सकते हैं ? निम्न दो बातें विशेष हैं , इन पर गहराई से सोचना ….
# यहां अर्जुन एक साथ 08 प्रश्न उठा रहे हैं !
# अधियज्ञ क्या है ? और वह देह में कैसे रहता है ?
यहां अर्जुन को ज्ञात है कि अधियज्ञ देह में रहता है लेकिन यह नहीं ज्ञात कि यह क्या है ! ऐसा कैसे संभव हो सकता है ?
# अर्जुन अपने प्रश्न 02 (गीता श्लोक : 3.1 - 3.2 ) में पूछते हैं , " हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर आप मुझे कर्म में क्यों लगाना चाह रहे हैं ? "
# और अपनें प्रश्न - 5 ( गीता श्लोक : 5.1 ) में पूछते हैं , " हे कृष्ण! आप कर्म संन्यास की बात करते हैं और फिर कर्मयोग की भी प्रशंसा करते हैं । इन दोनों में जो मेरे लिए कल्याणकारी हो उसे स्पष्ट रूप से बताएं "
अब जरा सोचें … बिना कर्म की परिभाषा जाने कर्म और कर्मयोग की बात अर्जुन अध्याय - 5 में कर चुके हैं जबकि कर्म की परिभाषा यहां अध्याय : 8 में प्रभु दे रहे हैं ! इतना सोचने के बाद ⤵️
अब प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर देखते हैं ⬇️
# श्लोक : 8.3 - 8.28 [26 श्लोक ]
# श्लोक : 9.1- 9.34 [34 श्लोक ]
# श्लोक :10.1 - 10.11 [ 11श्लोक ]
कुल 71श्लोक
अब ऊपर व्यक्त प्रभु के 71श्लोकों का सार ⤵️
> अक्षरं ब्रह्म परमं ( परम् ब्रह्म अविनाशी है )
> स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते
( स्वभाव ही अध्यात्म है , भागवत : 3.6.9 में 11 इंद्रियों को अध्यात्म कहा गया है )
> भूत भावः उद्भव करः विसर्ग : कर्म संज्ञित :
कर्म क्या है ?
भूत – भाव – उद्भव – कर : विसर्ग : कर्म संज्ञित :
~ गीता : 8.3 ~ S.Radhakrishanan गीता के इस सूत्र का अर्थ कुछ इस प्रकार करते हैं ------
Karma is the creative impulse out of which life`s forms issue . The whole cosmic evolution is called Karma .
गूगल आधारित हिंदी भाषान्तर
कर्म वह रचनात्मक प्रेणना है जिससे जीवों के रूपों का निर्गमन होता है । संपूर्ण ब्रह्मांडीय विकास को कर्म कहा जाता है ।
कुछ अन्य लोग इस गीता श्लोक : 8.3 का अर्थ कुछ इस प्रकार करता है -------
The primal resolve of God [visarga] ,which brings forth the existence of beings is called Karma .
गूगल आधारित हिंदी भाषान्तर
ईश्वर का मूल संकल्प ( विसर्ग ) जो प्राणियों के अस्तित्व को प्रकट करता है , कर्म कहलाता है।
> क्षर : भावः अधिभूतं
( जो अनित्य हैं उन्हें अधिभूत कहते हैं ,
भागवत : 3.5.29 में कार्य को अधिभूत और कारण को अधिदैव कहा गया है । जो उत्पन्न करनेवाला होता है उसे कारण कहते हैं और जो उत्पन्न होता है उसे कार्य कहते हैं )
> पुरुष : अधिदैवतं
(यहां पुरुष आत्मा का संबोधन है और अधिदैवको ऊपर अधिभूत के साथ दिए गए भागवत प्रसंग को देखें )
> अधियज्ञ : अहम्
{अधियज्ञ मैं ( कृष्ण ) हूं}
> अधियज्ञ देह में कैसे रहता है ? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर नहीं है ।
> अंत समय में जो मेरे भाव से भावित रहता है वह मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है /
मूल रूप में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर सूत्र :8.3 - 8.6 में समाप्त हो जाता है लेकिन अर्जुन के अगले प्रश्न से पहले जितने भी प्रभु श्री कृष्ण द्वारा श्लोक बोले गए हैं , उन्हें इस प्रश्न के उत्तर के साथ देखना चाहिए । अब देखते हैं प्रभु के शेष 64 श्लोकों के सार को जो निम्न प्रकार है ⬇️
श्लोक : 8.7 - 8.28
# हे अर्जुन ! चित्त को मुझ पर केंद्रित करके युद्ध कर
# ध्यान अभ्यास से परमेश्वर मिलते हैं
# परमेश्वर सर्वज्ञ , अनादि , अतिसूक्ष्म अचिंत्य हैं
# अंत काल में प्राण को अज्ञाचक्र पर केंद्रित करके प्रभु की स्मृति में रहने से वह मिलते हैं । इंद्रियों के सभी द्वारों को बंद करके मन को हृदय में स्थापित करके , प्राण को मस्तक में स्थापित करके ॐ का गुंजन करते हुए शरीर त्यागने वाला परम गति को प्राप्त होता है । अपने अनन्य भक्त के लिए मैं सुलभ हूं ।
# ब्रह्मलोक सहित सभी लोक पुनरावर्ती हैं ।
# ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युगका होता है और इतने ही समय की रात भी होती है। ब्रह्मा की रात्रि जब आती है तब सभी भूत ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में लीन हो जाते हैं । जब पुनः दिन का आगमन होता है तब सभी भूत पुनः प्रकट हो जाते हैं ।
श्लोक : 9.1 - 9.34 का सार ⤵️
प्रभु श्री कृष्ण के वचन
# अब मैं संसार से मुक्ति दिलाने वाले ज्ञान विज्ञान की चर्च करता हूँ ….
यहां ज्ञान -विज्ञान को समझने की आवश्यक हैं ।
गीता में ज्ञान की परिभाषा गीता श्लोक : 13.2 में इस प्रकार से मिलती है ….
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ ज्ञानं इति ज्ञानं
अर्थात क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का बोध जो कराए , वह ज्ञान है । क्षेत्र अर्थात प्रकृति और उसके विकृत से उत्पन्न 23 तत्त्व (सांख्य दर्शन के अनुसार ) और क्षेत्रज्ञ अर्थात पुरुष जिसे वेदान्त दर्शन में आत्मा - ब्रह्म - परमात्मा कहते हैं । विज्ञान की परिभाषा गीता में नहीं है , भागवत में है ।
श्रीमद्भागवत पुराण : 11.19 में बताया गया है ,
प्रकृति और उसके विकृत होने से उत्पन्न तत्त्वों का बोध ज्ञान है और सभी सूचनाओं को प्रभु से प्रभु में अनुभव करना विज्ञान है ।
तत्त्वों की संख्या के संबंध में वेदांती एक मत नहीं रखते , इस संबंध में निम्न टेबल को देखे ⬇️
श्रीमद्भागवत पुराण में तत्त्वों की संख्य
श्रीमद्भागवत पुराण : 2.4 - 2.6 , 3.5 , 3.26 , 11.19 , 11.22 और 11.25 आधारित तत्त्वों की संख्याओं को निम्न टेबल में दिया जा रहा है 👇
▶️ सांख्य एवं पतंजलि 25 तत्त्वों की बात करते हैं जिनमें पुरुष एवं मूल प्रकृति दो स्वतंत्र और सनातन तत्त्व हैं । प्रकृति विकृति से उत्पन्न 23 तत्त्व हैं जिनका लय होता है और इन्हें लिंग कहते हैं और पुरुष -प्रकृति अलिंग तत्त्व हैं । वेदांत अद्वैत्य दर्शन है और सांख्य एवं पतंजलि योग द्वैत्य बादी दर्शन हैं ।
श्लोक : 9.1 - 9.34 का सार क्रमशः ⤵️
प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ⤵️
# मुझ अव्यक्त से अव्यक्त में यह जगत और उसकी सभी सूचनाएं हैं । जैसे आकाश से उत्पन्न वायु आकाश में रहती है वैसे मुझसे सभी भूत मुझमें हैं । सभी व्यक्त सूचनाएं कल्पांत में मेरी प्रकृति में लीन हो जाती हैं और कल्प के आदि में पुनः उन्हें मैं रचता हूँ ।
# भूतों की बार - बार रचना उनके कर्मों के आधार पर मुझसे होती रहती है । आसक्ति रहित कर्म , बंधन नहीं ।
# जगत प्रकृति की रचना है ।
# आसुरी / मोहिनी / राक्षसी प्रकृति वाले व्यर्थ आशा , व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले होते हैं ( यहां दैवी और आसुरी प्रकृतियों के लिए गीता अध्याय 16 के 24 श्लोकों को समझना चाहिए ।
दैवी प्रकृति सात्त्विक गुणी और आसुरी प्रकृति राजस एवं तामस गुणी होती है ।
# प्रभु अध्याय : 09 में स्वयं के संबंध में 30 उदाहरण देते हैं जिससे निराकार कृष्ण को साकार रूपों से समझा जा सके जैसे ⬇️
^ यज्ञ में सबकुछ मैं हूँ , ॐ , ऋग्वेद , सामवेद और अथर्ववेद मैं हूँ , परमधाम , सूर्यकी तापस , वर्षा का आकर्षण , अमृत , मृत्यु आदि मैं हूँ । मेरा कोई प्रिय - अप्रिय नहीं ।
## प्रभु जोर दे रहे हैं कि तूं मेरा भक्त बन जा ।
श्लोक : 10.1 - 10.11का सार
मेरी उत्पत्ति के संबंध में न महर्षि और न देवता लोग जानते हैं। मैं अजन्मा , अनादि , ईश्वर हूँ ।
सभी भाव मुझसे हैं लेकिन उन भावों मे मैं नहीं ।
# बुद्धि ,ज्ञान ,असम्मोह ,सत्य , विषय निग्रह , सुख , दुःख , उत्पत्ति , प्रलय , अहिंसा , समता , तुष्टि , तप, दान , यश , अयश आदि सब मुझ से होते हैं ।
# 07 महर्षि , 04 पूर्व के महर्षि , 14 मनु आदि सभी मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं । मैं जगत के उत्पत्ति का कारण हूँ ।
# अनन्य भक्त तत्त्व ज्ञान माध्यम से मुझे प्राप्त करते हैं
● पूजाके प्रकार
देव पूजन , पितर पूजन , भूत पूजन , प्रभु पूजन
◆ जो जिसे पूजता है , वह उसे ही प्राप्त करता है ।
गीता श्लोक : 10.1 - 10.11 का सार श्लोक – 10.1
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वच : /
यत् ते अहम् प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हित – काम्यया //
गीता अध्याय : 10 का प्रारम्भ प्रभु के इस श्लोक से हो रहा है जिसमें प्रभु कह रहे हैं ---
हे महाबाहो ! अब तुम मेरे उन परम वचनों को सुनो जो तुम्हारे हित संबंधित हैं । मैं तुमको अपना प्रिय समझ कर सुना रहा हूँ /
श्लोक – 10.2 , 10.3
महर्षि एवं देवता लोग मेरी उत्पत्ति को नहीं जानते जबकि मैं उनके होनें का कारण भी हूँ । जो लोग मुझको अजन्मा अनादि समझते हैं वे मोह मुक्त होते हैं /
श्लोक – 10.4 , 10.5
बुद्धि , ज्ञान , संदेह , मोह - मुक्ति , क्षमा - भाव , सत्यता , इन्द्रिय निग्रह , मन निग्रह , सुख – दुःख , जन्म – मृत्यु , भय - अभय , अहिंसा , समता , तुष्टि , तप , दान , यश - अपयश एवं अन्य भाव सभीं मुझसे होते हैं /
यहाँ इस सन्दर्भ में गीता के कुछ और सूत्रों को देखते हैं ⬇️
श्लोक – 7.12
गुणों के भाव मुझसे हैं लेकिन इन भावों में मैं नहीं होता , मैं भावातीत – गुणातीत हूँ /
श्लोक : 13.8 से 13.12 तक
यहाँ ज्ञानी की पहचान के रूप में वे सभीं बातें बतायी गयी हैं जो गीता श्लोक : 10.4 – 10.5 में बतायी गयी है ।
श्लोक – 10.6
सप्त ऋषि गण उनके पहले के चार ऋषि [ सनक , सनंदन , सनातन , सनत्कुमार ] चौदह मनु ,एवं सभीं लोकों के जीव मुझसे हैं /
श्लोक – 10.7
एताम् विभूतिं योगं च मम वेत्ति तत्त्वत : /
स : अविकल्पेन योगेन युज्यते न् अत्र संशय : //
इस मेरे विभूति - योग को जो समझता है वह अविकल्प – योग में प्रवेश कर जाता है इसमें कोई संदेह नहीं /
यहाँ विभूति - योग एवं अविकल्प – योग दोनों को समझते हैं ⤵️
योग वह उर्जा उत्पन्न करता है जो मन – बुद्धि को परम सत्य से जोड़ देती है और योगी इस आयाम की अनुभूति को व्यक्त तो नहीं कर सकता पर यह अनुभूति उसे पूर्ण रूप से तृप्त कर देती है / अविकल्प - योग , मन – बुद्धि को उस आयाम में पहुंचाता है जहां मन – बुद्धि द्रष्टा हो जाते हैं /
श्लोक : 10.8 - 10.11
मैं अपने अनन्य भक्तों /योगियों को तत्त्व ज्ञान देता हूँ जिसके माध्यम से वे मुझे प्राप्त करते हैं ।
~~ ॐ ~~
No comments:
Post a Comment