Monday, January 15, 2024

सकाम एवं निष्काम कर्म का स्वरूप


सकाम एवं निष्काम कर्मों के स्वरूप 

श्रीमद्भगवद्गीता , श्रीमद्भागवत पुराण और पतंजलि कैवल्य पाद के आधार पर 

 तीन गुणों की वृत्तियों एवं कर्म बंधन के तत्त्वों के प्रभाव में शरीर , इंद्रिय , मन और बुद्धि से जो कुछ भी होता है , वह सकाम कर्म होता है और जिस कर्म में इन तत्त्वों की अनुपस्थिति होंगे निष्काम कर्म कहते हैं । कर्म के संबंध में निम्न श्लोकों एवं सूत्रों को समझना चाहिए ⬇️

1 - गीता श्लोक : 2.47 - 2.48 , 2.62 - 2.63

3.4 - 3.5 , 3.27 - 3.29 , 5.11 - 5.12 , 8.3 , 

18.18 - 18.23 ,18. 26 - 18.28 , 18.49 - 18.50 

( कुल 25 श्लोक ) 

2 - भागवत श्लोक : 8.1.14 , 7.15.47 , 12.21.35

(कुल 03 श्लोक ) 

3 - पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र : 7 , 8 , 10 , 11

(कुल 04 सूत्र ) 

हमारे शरीर में जीवात्मा को छोड़ शेष सब त्रिगुणी माया है 

(वेदांत दर्शन ) और इस बात को सांख्य एवं पतंजलि योग दर्शन कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं - प्रकृति और पुरुष दो सनातन स्वतंत्र तत्त्वों के संयोग से हम हैं । पुरुष शुद्ध सनातन चेतन तत्त्व है और प्रकृति सनातन त्रिगुणी ,  जड़ एवं प्रसवधर्मी तत्त्व है ।

कर्म करता हम नहीं , हमारे अंदर उपस्थित तीन गुण हैं , हम स्वयं को करता अहंकार के प्रभाव में समझते हैं । तीन गुणों में एक गुण शेष दो को दबा कर प्रभावी होता है । इस प्रकार तीन गुणों में हर एक गुण शेष दो को दबाने की कोशिश करता रहता है। हम सब के अंदर तीन गुणों का समीकरण हर पल बदल रहा है अतः इनके बदलाव के कारण कोई भी जीवधारी पल भर के लिए भी कर्म मुक्त नहीं रह सकता।

वेद आधारित कर्म दो प्रकार के हैं ; प्रवृत्ति परक और निवृत्ति परक । कर्म बंधनों के सम्मोहन में जो रहे  कर्म प्रवृत्ति परक कर्म कहलाते हैं और कर्म बंधन मुक्त होने के लिए किए जाने वाले कर्म या निवृत्ति अवस्था में हो रहे कर्म निवृत्ति परक कर्म कहलाते हैं । 

प्रवृत्ति परक कर्म से कर्मयोग की यात्रा प्रारंभ होती है । इस यात्रा में जब कर्म बंधन जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहंकार निर्मूल हो जाते हैं तब यही प्रवृत्ति परक कर्म , निवृत्ति परक कर्म में रूपांतरित हो जाता है । इस प्रकार कर्म बंधनों से मुक्ति पाने की साधना से ज्ञान की प्राप्ति होती है जो कैवल्य में पहुंचाती है । 

आसक्ति रहित प्रवृत्ति परक कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है । 

अब पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 7 - 8 और सूत्र : 10 - 11 के आधार पर कर्म को देखते हैं । सामान्य लोगों के कर्म तीन प्रकार के हैं - शुक्ल , कृष्ण और शुक्ल - कृष्ण मिश्रित जबकि योगी के कर्म न शुक्ल होते हैं और न कृष्ण ।

सामान्य लोगों के तीन प्रकार के कर्मों को सकाम कर्म कहते हैं और योगी के कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं। योगी अर्थात वह साधक जिसके अंदर के राजस और तामस गुणों का प्रतिप्रसव हो गया होता है और सात्त्विक गुण की वृत्तियां भी कमजोर हो गई होती हैं । ऐसे साधक के अंतःकरण में विवेक ज्ञान की ऊर्जा प्रवाहित हो रही होती है और वह कैवल्यमुखी होता है । 

शुक्ल , कृष्ण और शुक्ल - कृष्ण मिश्रित कर्मों से चित्त में उनकी कर्म वासनाएं बनती हैं । वासना चित्त की वह ऊर्जा होती है जो एक कर्म को बार - बार करने के लिए प्रेरित करती रहती है । तीन प्रकार के कर्मों के फलों के बीज चित्त में एकत्रित होते रहते हैं जिनसे संस्कार बनता है । चित्त को कर्माशय भी कहते हैं । 

कर्म की 04 संग्रह भूमिया हैं - हेतु , फल , आश्रय और आलंबन । वासनाओं के उठने के कारण को हेतु कहते हैं। कर्म फल की सोच , वासनाओं की संग्रह भूमि है । वासनाओं का आश्रय चित्त है और तन्मात्र वासनाओं के आलंबन हैं

वेद के 03 कांड हैं ; कर्म , उपासना और ज्ञान । कर्म बंधन - साधना में जब राजस और तामस गुण अप्रभावी हो जाते हैं तब चित्त सात्त्विक गुण पर एकाग्र हो जाता है । इस अवस्था में चित्त में केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियां उठती - बैठती रहती हैं अर्थात चित्त में सात्त्विक प्रवृत्ति का जागरण हो जाता है । यहां से उपासना का प्रारंभ होता है । उपासना - उप +आसन से बना हुआ है जिसका अर्थ होता है सत्य के समीप बैठना अर्थात उपासक एवं उपास्य के बिच की दूरी न के बराबर होती है । उपासना की सिद्धि में  उपासक का उपास्य के साथ एकत्व स्थापित हो जाता है । इस अवस्था में ज्ञान की प्राप्ति होती है । ज्ञान दो प्रकार के हैं ; परोक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष ज्ञान । परोक्ष ज्ञान उधार की ज्ञान होता है जो गुरु या शास्त्रों से अर्जित होता है । परोक्ष ज्ञान आधारित उपासना होती है जिसकी सिद्धि से प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति होती है। बस्तूतः प्रत्यक्ष ज्ञान समाधि का फल होता है अर्थात जब अंतःकरण पूर्ण रूप से गुणातीत अवस्था में होता है तब विवेक की ऊर्जा उठती है जो पांच ज्ञान इंद्रियों को शुद्ध ज्ञान की प्रत्यक्ष अनुभूति कराती है। ऐसा साधक ज्ञानी अवस्था में कैवल्यमुखी हो जाता है। 

अब गीता आधारित कर्म योग की यात्रा करते हैं …

इंद्रिय - विषय संयोग होने पर चित्त उस विषय के प्रति मनन करता है , मनन से आसक्ति और आसक्ति से उस विषय को प्राप्त करने की कामना उठती है । 

कामना में विघ्न आने पर क्रोध पैदा होता है जो स्मृति को भ्रमित करके पाप कर्म करा देता है । 

आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा होती है । जब कर्म , कर्मयोग बन जाता है तब वह योगी ज्ञानयोग में होता है जहां उसे तत्त्व बोध होता है और वह कैवल्य माध्यम से आवागमन से मुक्त हो जाता है।

~~ ॐ ~~

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