Friday, January 10, 2025

पतंजलि योग सूत्र कैवल्य पाद सूत्र - 24

पतंजलि योग सूत्र कैवल्य पाद सूत्र  - 24

( प्रकृति भोग का अनुभव , पुरुष को कैवल्य दिलाता है )


तदसंख्येयवासनाभि: चित्रमपि परार्थ संहत्यकारित्वात् 


" चित्त असंख्य वासनाओं से विचित्त होने के साथ संहत और परार्थ भी है "


इस सूत्र में विचित्त , संगत और परार्थ शब्दों को ठीक से समझना होगा ….


विचित्त > वासनाओं की संग्रहभूमि चित्त है जहां अनेक वासनाएं बीज रूप में रहती हैं । चित्त एक समय में एक वासना पर सक्रिय रहता है जबकि उस के पास अनेक वासनाएं निष्क्रिय अवस्था में रहती हैं। 

एक से अधिक वासनाओं के संग्रह भूमि होने के कारण चित्त को विचित्त कहा जा रहा है ।


संहत > संगत का अर्थ है , मिलजुल कर कार्य करने वाला ।


परार्थ (पर + अर्थ ) > दूसरे के लिए जो कार्य करता हो ।


चित्त स्वयं भोगी नहीं , चित्त माध्यमसे पुरुष भोगी होता है ।


अब यहां यह देखना होगा कि चित्त किनसे मिल - जुल कर और किसके लिए कार्य करता होगा ?


पुरुष और प्रकृति संयोग से बुद्धि की निष्पति होती है , बुद्धि से अहंकार , अहंकार से मन एवं 10 इंद्रियों एवं 05 तन्मात्रों की निष्पति होती है और तन्मात्रों से उनके अपने - अपने महाभूतों की निष्पति होती है । इस प्रकार मूल प्रकृति के विकृत होने से ऊपर व्यक्त 23 तत्त्वों की निष्पति है और इनमें प्रथम तीन अर्थात बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं । चित्त प्रकृति और पुरुष की संयोग भूमि है । चित्त केंद्रित पुरुष प्रकृति के 23 तत्त्वों को प्रयोग करते हुए संसार में व्याप्त त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता होता है और भोग के फलस्वरूप मिलने वाले भोग सुख और दुःख को भी भोगता है । 

ऊपर सूत्र में संगत का अर्थ है , चित्त ( बुद्धि , अहंकार और मन )  शेष 20 तत्त्वों ( 10 इंद्रियों , 05 तन्मात्र , 05 महाभूत )  से मिलजुल कर पुरुष के लिए कार्य करता है जिसे परार्थ 

(पर + अर्थ ) कहते हैं । 

अब कैवल्य पाद सूत्र - 24 को ठीक से समझा जा सकता हैचित्त नाना प्रकार की वासनाओं की संग्रह भूमि होते हुए भी विकृत प्रकृति के शेष 20 तत्त्वों के सहयोग से पुरुष के लिए कार्य करता है ।

 पुरुष चित्त केंद्रित रहते हुए चित्त स्वरूपाकार रहता है। जब त्रिगुणी पदार्थों के भोग के प्रति उसे यथार्थ अनुभव हो जाता है तब उसे भोग के प्रति वैराग्य हो जाता है । वैराग्य अवस्था में उसे अपने मूल स्वरूप का बोध होता है और वह त्रिगुणी प्रकृति से मुक्त हो जाता है जिसे कैवल्य कहते हैं

 एक तरफ पुरुष को कैवल्य मिलता है , वह अपने मूल स्वरूप में आजाता है और दूसरी तरफ विकृत प्रकृति को ज्ञान हो जाता है कि पुरुष उसे देख लिया है और उसके 23 तत्व अपने - अपने कारणों में लीन हो जाते हैं । उस प्रकार  विकृत प्रकृति अपने मूल स्वरूप ( तीन गुणों की साम्यावस्था ) में लौट आती है । 

प्रकृति और पुरुष दो सनातन एवं स्वतंत्र तत्त्वों से यह संसार और इसमें व्याप्त सारी सूचनाएं हैं जिसे सृष्टि कहते हैं । चित्त केंद्रित पुरुष प्रकृति माध्यम से उसे , उसके 23 तत्त्वों एवं त्रिगुणी पदार्थों को भोग कर उन्हें समझ लेता है और उसके उस भोग अनुभव से भोग के प्रति वैराग्य हो जाता है । 

पतंजलि के इस सूत्र में हमारी , आपकी और सबके जीवन रहस्य - सार दिया गया है ।


।। ॐ। । 



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