पतंजलि योगसूत्र दर्शन आधारित साधना विवेक ज्ञान में पहुंचाती है
और विवेक ज्ञानी कैवल्य प्राप्त करता है
पतंजलि योगसूत्र में 195 सूत्र हैं जो समाधिपाद , साधनपाद , विभूतिपाद और कैवल्य पाद में विभक्त हैं। समाधिपाद में डी समाधि के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न की जाती हैं। साधनपाद में समाधि प्राप्ति के मार्ग के रूप में अष्टांगयोग से जोड़ा जाता है। विभूतिपाद में समाधि से सिद्धियों की प्राप्ति होती है। सिद्धियां योग साधना मार्ग की मजबूत रुकावटों के रूप में बताई गई है । ऐसा योगी जो सिद्धि प्राप्ति के बाद उनसे आकर्षित नहीं होता , वह निरंतर धारणा , ध्यान और समाधि का योगाभ्यास करते रहने से कैवल्य में प्रवेश करता है । कैवल्य में स्थित योगी , विवेक ज्ञानी होता है तथा पुरुषार्थ शून्य एवं गुणातीत होता है । अब आगे कैवल्यपाद के सूत्र 23 - 27 में यात्रा करते हैं जिसके लिए सांख्य कारिका :3 एवं 22 को भी स्मृति में रखना होगा ……
संदर्भ सूत्र
ईश्वरकृष्णरचित सांख्य कारिका > 3 + 22
पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र 23 - 27
सांख्य कारिका : 3
मूल प्रकृति : अविकृत महत् आदि प्रकृति विकृतयः सप्त ।
षोडकः अस्तु विकारो न प्रकृतिः न विकृतिः पुरुषः ।।
🌹पुरुष - प्रकाश के प्रभाव में अविकृति मूल प्रकृति से 07 कार्य - कारण ( बुद्धि , अहंकार , 05 तन्मात्र ) और 16 केवल कारण
(11 इन्द्रियाँ + 05 महाभूत ) उत्पन्न होते हैं 💐
सांख्य कारिका - 22
💐 प्रकृति - पुरुष संयोग से महत् की उत्पत्ति है । महत् से अहँकार , अहँकार से 11 इंद्रियों एवं 05 तन्मात्रों की उत्पत्ति है और तन्मात्रों से पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति हुई है ।
सांख्य कारिका 3 + 22 का सार तत्त्व
तीन गुणों की साम्यावस्था वाली मूल प्रकृति का जब निर्गुणी शुद्ध चेतन से संयोग होता है तब मूल प्रकृति विकृत होने से बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियों और 5 तन्मात्रो की उत्पत्ति होती हैंऔर तन्मात्रों से उनके अपने - अपनें महा भूतों की उत्पत्ति होती हैं । इनमें से बुद्धि , अहंकार और 5 तन्मात्र , कारण - कार्य दोनों हैं और 11 इंद्रियां एवं 5 महाभूत कारण हैं । कारण वह तत्त्व होता है जो किसी और तत्त्व को उत्पन्न करता है और उत्पन्न होने वाले तत्त्व को कार्य कहते हैं।
सभी दृश्य वर्ग जैसे योगी , साधक , हम , आप एवं अन्य , ऊपर व्यक्त 25 तत्त्वों के समूह से हैं । पतंजलि योग साधना करने वाला योगी भी मूलतः प्रकृति और पुरुष के संयोग से निर्मित है जिसमें पुरुष चेतन एवं निर्गुणी हैं और प्रकृति अपनें 23 तत्त्वों के साथ जड़ एवं त्रिगुणी हैं। जब प्रकृति एवं चेतन निर्गुणी पुरुष का संयोग होता है तब चेतन निर्गुणी पुरुष चित्त केंद्रित हो कर चित्त स्वरूपाकार बन जाता है और सगुण जैसा व्यवहार करता है । बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते है । सभी जीवों का स्थूल देह प्रकृति है और उस देखनका देही पुरुष है । चित्त और संसार का प्रतिबिंब उभड़ता रहता है। चित्त केंद्रित पुरुषभूष प्रतिबिंब को देख कर संसार को समझता है ।
प्रकृति केंद्रित पुरुष को प्रकृति के मुक्त कराने और मुक्त कराकर उसे अपने मूल स्वरूप में स्थित करने का उपाय पतंजलि योग सूत्र सिखाता है । योग सिद्धि से योगी विवेक ज्ञानी हो जाता है जिसे यथार्थ प्रकृति का एवं स्वयं का बोध हो जाता है जिसे कैवल्य कहते हैं।
अब इन बातों के साथ पतंजलि योग सूत्र के कैवल्यपाद के सूत्र : 23 - 27 को समझते हैं ….
<> दृष्टदृश्योपरक्तम् चित्तम् सर्व अर्थम्
~ पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र - 23 ~
पुरुष एवं प्रकृति से रंगा हुआ चित्त सभीं अर्थों वाला भाषता है।
बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं , जैसा पहले भी बताया जा चुका है । चित्त त्रिगुणी जड़ तत्त्व हैं , जिसे अपने बारे में भी कुछ पता नहीं होता लेकिन पुरुष प्रकाश के प्रभाव में यह चेतन जैसा व्यवहार करता भाषता है ।
<> तदसंख्येयवासनाभि: चित्रमपि परार्थ संहत्यकारित्वात्
~ पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र - 24 ~
असंख्य वासनाओं से विचित्त होने के साथ चित्त,परार्थ एवं
संहत भी होता है ।
इस सूत्र में विचित्त ,परार्थ और संहत शब्दों को समझते हैं ..
विचित्त > वासनाओं की संग्रहभूमि चित्त है जहां अनेक वासनाएं बीज रूप में रहती हैं । चित्त एक समय में एक वासना पर सक्रिय रहता है जबकि उस के पास अनेक वासनाएं निष्क्रिय अवस्था में रहती हैं। एक से अधिक वासनाओं के संग्रह भूमि होने के कारण उस सूत्र में चित्त को विचित्त कहा जा रहा है ।
परार्थ (पर + अर्थ ) > दूसरे के लिए जो कार्य करता हो , उसे परार्थ कहते हैं । चित्त परार्थ कैसे है ? चित्त जड़ तत्त्व है जिसे स्वयं का पता नहीं , फिर वह और को कैसे जानेगा ! चित्त स्वयं भोगी नहीं , चित्त पुरुष के लिए उसकी ऊर्जा के प्रभाव में कार्य करता है अतः उसे परार्थ कहा जा रहा है ।
संहत > संहत का अर्थ है - मिलजुल कर कार्य करने वाला ।
अब यहां यह देखना होगा कि चित्त किन से मिल - जुल कर और किसके लिए कार्य करता है ? चित्त ( बुद्धि , अहंकार , मन ) शेष 20 तत्त्वों ( 10 इंद्रियां , 5 तन्मात्र और 5 महाभूत ( से मिल कर पुरुष के लिए कार्य करता है अतः उसे संहत कहते हैं ।
<> विशेष , दर्शिन , आत्मभाव , भावना , विनिवृत्ति:
~ पतंजलि कैवल्य पास सूत्र - 25 ~
विशेष दर्शी आत्मभाव भावना से मुक्त होता है ।
इस सूत्र में विशेष दर्शी को समझना होगा । विशेष दर्शी अन्य जिज्ञासाओं के साथ आध्यात्मिक जिज्ञासाओं जैसे मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? क्यों आया हूं ? आदि से भी मुक्त रहता हैं और इस प्रकार वह समभाव होता है ।
<> तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम् <>
~ पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र - 26 ~
विशेष दर्शी का चित्त विवेक की गहराई में डूबा , कैवल्य मुखी होता है । इस सूत्र में तदा शब्द पिछले सूत्र -25 के लिए प्रयोग किया गया है ।
<> तत् छिद्रेषु प्रत्यय अंतराणि संस्कारेभ्य : <>
~ पतंजलि कैवल्यपाद सूत्र - 27 ~
विवेक की धारा टूटने पर संस्कार प्रभावी हो उठते हैं।
अब सूत्र : 25 , 26 और सूत्र - 27 का भावार्थ एक साथ देखते हैं …
विशेष दर्शी का चित्त आत्म भाव भावना से मुक्त रहता है , उसका चित्त विवेक ज्ञान में डूबे रहने के कारण कैवल्य मुखी रहता है लेकिन जब भी उस योगी के चित्त में विवेक की धारा टूटती है तब वह योगी पुनः संस्कारों के प्रभाव में होता है । समाधि टूटने पर परमहंस रामकृष्ण रो - रो कर क्यों कहा करते थे है मां , हे मां मैं वहीं खुश था , तीन मुझे क्यों यहां का दिया ! संभवतः अब आप उनके रोने के कारण को समझ गए होंगे !
संस्कार क्या है ?
शुक्ल , कृष्ण और शुक्ल - कृष्ण मिश्रित , ये तीन प्रकार के कर्म हम करते रहते हैं । इन कर्मों के फल बीज रूप में चित्त में एकत्रित होते रहते हैं जिन्हें संस्कार कहते हैं। चित्त को कर्माशय भी कहते हैं।
~~ ॐ ~~
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