प्रश्न – 14
श्लोक – 13.1
हे केशव ! आप मुझे क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ , प्रकृति - पुरुष एवं ज्ञान – ज्ञेय को स्पष्ट करें ।
प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर
1 : श्लोक – 13.2 से 13.35 (34)
2 : श्लोक – 14.1 से 14.20 (20)
[ कुल 54 सूत्र ]
प्रभु के 54 श्लोकों का सार
[ अर्जुन के प्रश्न का उत्तर - सार ⬇️
स्थूल शरीर क्षेत्र कहलाता है और इसका ज्ञाता स्वयं प्रभु श्री कृष्ण क्षेत्रज्ञ हैं । पुरुष स्वयं प्रभु हैं और त्रिगुणी प्रकृति प्रभु से है । प्रकृति - पुरुष का बोध ज्ञान है और प्रभु स्वयं ज्ञेय हैं । ]
आज आगे ⬇️
# जीव का देह विकारों से युक्त क्षेत्र कहलाता है और जो देह को जानता है , उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं । #;निर्विकार परमात्मा स्वयं क्षेत्रज्ञ है ।
# तीन गुणों से प्रभु जनित माया है , माया से माया में दो प्रकृतियाँ [ अपरा , परा ] हैं ; अपरा के आठ तत्त्व हैं [ पांच महाभूत , मन , बुद्धि , अहंकार ] और परा शुद्ध चेतना का नाम है /
# प्रकृति , पुरुष से है और पुरुष स्वय प्रभु हैं /
# क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ज्ञान है और प्रभु ज्ञेय हैं /
🌷 गीता अध्याय - 13 पूर्णरूपेण सांख्य – योग है लेकिन यहाँ सांख्य को कुछ बदला गया है / गीता अध्याय - वार में प्रकृति को पुरुष से होना बताया गया है जबकि सांख्य में प्रकृति एवं पुरुष दो स्वतंत्र और सनातन तत्त्व हैं ।
# सांख्य में प्रभु और आत्मा शब्द नहीं हैं ।
# सांख्य दर्शन में शुद्ध चेतन पुरुष और जड़ प्रकृति से यह जगत है और मूलतः दोनों निष्क्रिय हैं ।
# सांख्य का पुरुष एक नहीं अनेक है , प्रत्येक सृष्टि की प्रत्येक सूचना का अपना पुरुष है जो सुख - दुःख का भोक्ता है जबकि गीता का पुरुष आत्मा है ।
अब उतरते हैं प्रभु के 54 श्लोकों में ⤵️
श्लोक : 13.2 - 13.35
# शरीर को क्षेत्र और इसको जानने वाले को क्षेत्रज्ञ कहते हैं अर्थात प्रभु श्री कृष्ण क्षेत्रज्ञ हैं ।
# जिससे क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , उसे ज्ञान कहते हैं । क्षेत्र विकारयुक्त है ।
क्षेत्र की रचना
पांच महाभूत , बुद्धि , अहंकार , मन , 10 इंद्रियां , पांच इंद्रिय विषय , इच्छा , द्वेष , सुख - दुःख , स्थूल देह पिंड , चेतना , धृतिका , अन्य विकारों के समूह को क्षेत्र कहते हैं।
# ज्ञानी के लक्षण
अभिमान का अभाव , दम्भ का अभाव , अहिंसा , क्षमाभाव , मन - वाणी आदि की सरलता , श्रद्धा पूर्वक आचार्य सेवा करना , शौंच , अंतःकरण की स्थिरता , इंद्रिय निग्रह , वैराग्य , आसक्ति मुक्त रहना , अहंकार मुक्त , समभाव , निश्चयात्मिका बुद्धि का होना , अनन्य भक्ति भाव से परिपूर्ण , एकांत वासी , अध्यात्म ज्ञानी होना आदि ।
## ब्रह्म के लक्षण
सत् , असत् से परे ,अनादि , जिसकी इंद्रियां सर्वत्र हों ,जो सब इंद्रियों के रहित हो , संसार की सभीं सूचनाओं को व्याप्त करके जो स्थित हो , जो इंद्रिय रहित हो पर इंद्रिय विषयों का ज्ञाता हो । आसक्ति मुक्त , सब का धारण - पोषण करता , निर्गुण होते हुए भी गुणों का भोक्ता सबके बाहर , भीतर , दूर , समीप जो सदैव रहता है , जो विभाग रहित है लेकिन सभी चर - अचरो के रूपों में विभक्त सा दिखने वाला है ।
▶️ ब्रह्म ज्योतियों का ज्योति है , बोध स्वरूप हैं तथा ज्ञान से जाना जाता हैं ।
प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं । विकार प्रकृति मूलक हैं। कार्य और करण प्रकृति से हैं।
कार्य - करण को निम्न स्लाइड से समझते हैं ⏬
ऊपर दी गई स्लाइड में सांख्य दर्शन आधारित कारण , कार्य और करण को स्पष्ट किया गया है ।
# सांख्य दर्शन में 13 करण बताए गए हैं । बुद्धि , मन और अहंकार को अंतःकरण और 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते हैं।
# जो तत्त्व अन्य तत्त्व को पैदा करते हैं उन्हें कारण कहते हैं तथा जो तत्त्व उत्पन्न होते हैं उन्हें उस कारण का कार्य कहते हैं।
## ऊपर स्लाइड में 25 तत्त्व दिखाए गए हैं जिनमें प्रकृति , बुद्धि , अहंकार और तन्मात्र कारण और कार्य दोनों हैं पांच महाभूत केवल कार्य हैं और 11 इंद्रियों भी केवल कार्य हैं ।
अब गीता अध्याय : 13 के शेष श्लोकों को देखते हैं ⤵️
# पुरुष सुख - दुःख एवं त्रिगुणात्मक पदार्थों का भोक्ता हैं ( यह बात सांख्य भी कहता है ।
# देह में स्थित पुरुष परमात्मा ही है ।
# पुरुष उपद्रष्टा , अनुमंता, भर्ता और भोक्ता है ।
# पुरुष को ही महेश्वर कहते हैं ।
# पुरुष -प्रकृति को तत्त्व से जानने वाला आवागमन से मुक्त हो जाता है ।
# परमात्मा की अनुभूति ध्यान , ज्ञान और कर्म से संभव है । कुछ श्रोतापन प्राप्ति के साथ परमात्मा की अनुभूति कर लेते हैं ।
# सृष्टि में सभीं जड़ और चेतन , क्षेत्र - क्षेत्रग्य के संयोग से हैं और सांख्य कहता है की सभिन जड़ - चेतन प्रकृति -पुरुष संयोग से हैं ।
# जो आत्मा को अकर्ता और सभी कर्मों के करता रूप में प्रकृति को देखता है , वह यथार्थ देखता है ।
# अनादि , निर्गुण अविनाशी देह में स्थित परमात्मा न कुछ करता है और न लिप्त होता है ।
# जैसे सूर्य पूरे ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है ठीक वैसे आत्मा पूरे देह को प्रकाशित करता है।
श्लोक : 14.1 -14.20
प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ..
# मेरी महत ब्रह्म योनि में मेरे बीज से चेतन समुदाय गर्भ में आते हैं और सभी भूत उत्पन्न होते हैं। सभी की माता ब्रह्म है और पिता मैं हूं ।
<> तीन गुण अविनाशी आत्मा को देह से बाध कर रखते हैं (श्लोक : 14.5 )
# सात्त्विक गुण निर्मल ज्ञान और सुख देता है ।
# राजस गुण से राग , कामना और आसक्ति द्वारा मनुष्य करमो से बाधा जाता हैं।
# तमो गुण अज्ञान से है जो मोह से सम्मोहित करता है।
<>दो गुणों को दबा कर तीसरा गुण प्रभावी होता है।
# सात्त्विक गुण सभी 09 द्वारों में विवेक की ऊर्जा प्रवाहित करता हैं। सात्त्विक गुणी मृत्यु के बाद स्वर्ग जाता है ।
# राजस गुणी मृत्यु के बाद कर्म आसक्त परिवार में पैदा होता है और तामस गुण धारी कीट , पशु आदि योनियों में जन्म लेता है ।
#सात्विक गुण से ज्ञान , राजस गुण से लोभ और तामस गुण से मोह की उत्पत्ति होती है
# जब दृष्टा तीन गुणों को करता देखता है , गुणों से परे मुझ पर केंद्रित रहता है , तब वह मुझे प्राप्त करता है।
~~ॐ ~~
1 comment:
स्थिर प्रज्ञता गुणातीत योगी के लक्षण हैं
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