अर्जुन का 17वाँ प्रश्न
लेकिन पहले ⤵️ इसे देखें
कई माह से हम गीता तत्त्वं माध्यम से गीता की यात्रा पर हैं । इस श्रृंखला के अंतर्गत अभीं तक हम धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र और सम्राट कुरु (दो कुरु सम्राट ) , ब्रह्म , माया , आत्मा , जीवात्मा , प्रकृति , पुरुष , इंद्रिय - विषय समीकरण , गुण - कर्म विभाग , मन रहस्य , भक्ति , समय की गणित जैसे विषयों को मूलतः गीता के आधार पर देख चुके हैं। गीता तत्त्वं का आखिरी सोपान के अंतर्गत गीता में अर्जुन के 17 जिज्ञासाओं में से 16 जिज्ञासाओं को भी देख चुके हैं । अब अर्जुन की आखिरी जिज्ञासा को समझने जा रहे हैं ।
गीताकी इस तीर्थ यात्रा में भाग लेने वाले सभी तीर्थ यात्रियों को मेरा प्रणाम ।
अब अर्जुन के 17 वें प्रश्न को देखते हैं ⤵️
श्लोक – 18.1
हे महाबाहो ! हे हृषीकेश! मैं पृथक - पृथक संन्यास और
त्यागके तत्त्वोंको जानना चाहता हूं ।
( गीता में 700 श्लोक हैं जिनमें से 625 श्लोक अभी तक पूरे हो चुके हैं मात्र 75 श्लोक और शेष बच रहे हैं जिनमें से 5 श्लोक संजय के हैं , 2 श्लोक अर्जुन के हैं और शेष 71 श्लोक प्रभु श्री कृष्ण के हैं ।
प्रश्न संदेह की छाया होता है और संदेह
अविद्या की पहचान है ।
गीता अध्याय : 2 में ज्ञानयोग के तत्त्व आत्मा तथा ज्ञानयोग के रूप में स्थिर प्रज्ञ के संबंध में प्रभु श्री कृष्ण बता चुके हैं जिनका सीधा संबंध गुणातीत योगी से है ।
अध्याय - 3 ,अध्याय - 5 , अध्याय - 6 तथा अध्याय - 8 में कर्म , कर्मयोग , कर्म संन्यास , ज्ञान योग , संन्यासी , योगी , त्यागी , कर्म बंधन और कर्म बंधनों से संन्यास तथा कर्म फल त्यागी आदि विषयों पर चर्चा की जा चुकी है । इस प्रकार गीता में अभीं तक वैराग्य प्राप्ति के सभीं तत्त्वों के संबंध में प्रभु श्री कृष्ण बता चुके हैं ।
ऐसी परिस्थिति में अब गीता के आखिरी चरण की यात्रा के प्रारंभ में संन्यास और त्याग के तत्त्वों को जानने की अर्जुन की जिज्ञासा उनकी संदेहयुक्त बुद्धि की ही उपज है अर्थात अभीं तक अर्जुन पर प्रभु श्री के उपदेशों का कोई असर नहीं दिखता।
अब आगे ⤵️
प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर
श्लोक : 18.2 से 18.72 (71 श्लोक )
प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ---
गुणों के आधार पर त्याग , ज्ञान , कर्म , कर्म - कर्ता , बुद्धि , धृतिका , सुख , सब तीन प्रकार के हैं ।
# आसक्ति रहित कर्म समत्व योगी बनाता है और समत्व भाव ज्ञान योग की परानिष्ठा है /
# कामना रहित कर्म सन्यासी बनाता हैं । संकल्प एवं अहंकार रहित कर्म , योगी एवं त्यागी के होते हैं ।
# कर्म में कर्म बंधनों का प्रभाव का न होना बंधनों का त्यागी बनाता है और ऐसे कर्म कर्म , योग होते हैं /
# कर्म योग का फल ज्ञान है जहां योगी संन्यासी होता है। # सन्यासी और भोग में बहुत दूरी होती है जबकि योगी और भोग के मध्य की दूरी बहुत अधिक नहीं होती ।
# भोग तत्त्वों को समझ कर उनका दृष्टा बन जाना ही तो कर्मयोग की सिद्धि है ।
# स्थिर प्रज्ञ , कर्म योगी , त्यागी , सन्यासी , वैरागी और ज्ञानी ये सब नाम उस ब्यक्ति के हैं जिसकी पीठ भोग की ओर हो और नज़र प्रभु पर टिकी हो , इन सब के संबंध में गीता के निम्न श्लोक को समझना चाहिए ⤵️
या निशा सर्व भूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने :
// गीता 2.69 //
अर्थात
सभी भूत जिसे रात्रि समझते हैं ( अर्थात योग साधना ) , संयमी के लिए वह दिन जैसा होता है इसमें संयमी जागता रहता है । जिसे सभी भूत दिन समझते है (भोग ) और जिसमें वे जागते रहते हैं , वह मुनियों के लिए रात्रि समान होता है , वे इसमें सोए रहते हैं ।
गीता श्लोक – 18.2
कामना रहित कर्म संन्यासी का होता है और कर्मों में फल प्राप्ति की सोच का न होना ही कर्म त्याग होता है ।
गीता श्लोक : 18.4 - 18.10
त्याग तीन प्रकार का होता है
यज्ञ , दान और तप रूपी कर्म त्याग करने योग्य नहीं इनमें आसक्ति और फल प्राप्ति की सोच का अभाव रहना चाहिए ।
# गुणों के आधार पर कर्म तीन प्रकार के हैं ।
# मोह वश कर्म का त्याग करना तामस त्याग है ।
# सभी कर्म दुख के हेतु हैं ऐसा समझनकर शारीरिक क्लेश के भय के कारण कर्म का त्याग करना राजस त्याग है ।
# कर्म में कर्म फल और आसक्ति का त्याग होना सात्त्विक त्याग है ।
गीता श्लोक – 18.11
कर्म – त्याग संभव नहीं , सहज कर्मों को करते रहना चाहिए ।
गीता श्लोक – 18.12 - 18.40
कर्म होने के 5 कारण है - अधिष्ठान , कर्ता , करण , चेष्ठा , दैव ।
जिसके आश्रय कर्म कर्म किए जाएं वह अधिष्ठान कहलाता है । कर्म करता तीन गुणों में से कोई एक होता है और इंद्रियां भी कर्म करता हैं ।
सांख्य में करण : करण का शब्दार्थ है , कर्ता अर्थात करनेवाला , क्रिया का आश्रय या माध्यम ।
बुद्धि ,अहंकार , मन और 10 इंद्रियां - 13 करण हैं ; इनमें मन , बुद्धि और अहँकार को अन्तः करण कहते हवीं और 10बिन्द्रियों को बाह्य करण कहते हैं ।
# मन , वाणी और शरीर से कर्म होता है ।
# अज्ञानी आत्मा को कर्म करता समझता है ।
# करता भाव का न होना और बुद्धि का भोग भाव से मुक्त होना , मनुष्य को पॉप से मुक्त रखता है ।
# ज्ञाता , ज्ञान और ज्ञेय , तीन प्रकार के कर्म प्रेणना हैं ।
# तीन प्रकार के ज्ञान ; सात्त्विक , राजस और तामस ।
सभी भूतों में अविनाशी परमात्मा को देखना , सात्त्विक ज्ञान है , सभीं भूतों को अलग -अलग देखना राजस ज्ञान है तथा जो शरीर में आसक्त रखे वह तामस ज्ञान होता है ।
# कर्म भी गुणों के आधार पर तीन प्रकार के हैं ⤵️
कर्तापन और कर्म फल के अभिमान से मुक्त शास्त्रों के आधार पर जो कर्म हों वे सात्त्विक कर्म होते हैं । भोग भाव से जो कर्म हो वह राजस कर्म होता है । परिणाम की सोच के बिना जो कर्म हो , वह तामस कर्म होता है ।
# गुणों के आधार पर कर्म करता तीन प्रकार के हैं
# गुण आधारित तीन - तीन प्रकार की बुद्धि और धृतिक होती हैं
# गुण आधारित तीन प्रकार के सुख हैं
गीता श्लोक : 18 . 41 - 18.46
# मेरे द्वारा मनुष्य कर्म और स्वभाव के आधार पर ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र -चार भागों बाटे गए हैं ।
# ब्राह्मण के कर्म > प्रभु केंद्रित स्वयं को रखना ।
# क्षत्रिय के कर्म > शूर , वीरता , तेज , धैर्य , दान देना।
#वैश्य के कर्म > खेती करना , गोपालन , क्रय -विक्रय और सत्य व्यवहार ।
गीता श्लोक – 18.47 ( साथ श्लोक : 3.35 भी देखें )
भावार्थ 🔼
▶️ अच्छी तरह आचरित दूसरे के धर्म से गुण रहित अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए कर्म करता हुआ पाप मुक्त रहता है ।
▶️ अच्छी तरह आचरित दूसरे के धर्म से अपना धर्म श्रेष्ठ है।अपने धर्म में मरना भी श्रेय है , दूसरे का धर्म भयावह है।
( श्लोक : 18.47 और श्लोक : 3.35 दोनों एक ही भाव को व्यक्त कर रहे हैं )
गीता श्लोक – 18.48
सभी कर्म दोष युक्त होते हैं ।
गीता श्लोक – 18.15
कर्म तन , मन एवं वाणी से होते हैं ।
गीता श्लोक – 18.49
आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है ।
गीता श्लोक - 18.50
नैष्कर्म – सिद्धि ज्ञान योग की परा निष्ठा है म
गीता श्लोक :18.51- 18.53
ब्रह्म से एकत्व प्राप्त योगी की पहचान को प्रभु व्यक्त कर रहे हैं ⤵️
विशुद्ध बुद्धि का होना , हल्का शुद्ध नियमित भोजन करना , एकांत वासी , विषय सम्मोहन मुक्त , नियोजित इंद्रियों और मन का होना , वैरागी होना , अहंकार मुक्त रहना , क्रोध मुक्त राहनब , अपरिग्रही होना , ध्यानयोग में निरंतर रमने वाला और शांत स्वभाव वाला होना ।
गीता श्लोक – 18.54 + 18.55
पराभक्त प्रभु को समझता हुआ प्रभु में समा जाता है ।
गीता श्लोक - 18.56 - 18.60
# मेरा परा भक्त सभी प्रकार के कार्य करता हुआ मुझ अव्यय को प्राप्त होता है ।
# मन को मुझ पर केंद्रित करके बुद्धियोग आलंबन से मेरे ऊपर केंद्रित रहो।
# अपने चित्त को मुझ कर केंद्रित करके मेरी कृपा से समस्त संकटों को पार कर जाएगा और यदि अहंकार में मस्त रहते हुए मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो तू परमार्थ मार्ग से भ्रष्ट हो जाएगा।
# तेरी युद्ध न करने की सोच तेरे अहंकार की उपज है जो मिथ्या है क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे युद्ध में उतार ही देगा ।
# किस कर्म को मोह के कारण नहीं करना चाह रहा , उसे तुम्हें अपने स्वभाव के कारण करना ही पड़ेगा।
गीता श्लोक - 18.61 - 18.71
# सभीं भूतों के हृदय में स्थित ईश्वर सभीं भूतों को अपनी माया माध्यम से यंत्रवत भ्रमण करा रहा है ।
# हे भारत ! तुम उस ईश्वर की शरण में जाओ , उसकी कृपा से परम शांति मिलेगी और शाश्वत परमधाम मिलेगा ।
# इस प्रकार मैं तुम्हें अति गोपनीय ज्ञान दे दिया है , अब रूम जैसा चाहो वैसा करो …
# एक बार फिर तुम मेरे परम वचन को सुनो …
> तुम अपना मन मुझ कर केंद्रित रखो , मेरा भक्त बनो , ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त होगा।
🌷
भावार्थ
सभीं धर्मो को त्याग कर एक मेरे शरण में आ जा , मैं तुमको संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा ।
# किसी भी समय , गीता की चर्चा किसी तप - भक्ति रहित , गीता सुनने के अनिक्षुकों के साथ तथा परमात्मा में श्रद्धा न रखने वालों के साथ नहीं करनी चाहिए।
#;जो में प्रेम में डूबे हैं , भक्ति भाव से भरे लोगों में गीता चर्चा करते हैं , वे मुझे ही प्राप्त होते हैं । ऐसा करने वाले से बड़ा मेरा और कोइ प्रेमी नहीं ।
# गीता पढ़ने वाला ज्ञान यज्ञ से मेरा पूजकहै।
# श्रद्धावान गीता श्रावक श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होता है ।
गीता श्लोक– 18.72
<> हे पार्थ ! क्या तुम एकाग्र चित्त से गीता को सुना ?
<> क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हुआ ?
गीता श्लोक– 18.73
अर्जुन कह रहे हैं …
हे अच्युत !
आप के प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया , में अपनी पूर्व स्मृति में लौट आया हूं , अब मैं संशयमुक्त हूं और आप के वचनों का पालन करूंगा।
गीता श्लोक : 18.74 - 18.78
संजय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं ⤵️
# इस प्रकार मैं श्रीवासुदेव और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रोमांचकारक संवाद को सुना ।
# श्री व्यास जी के प्रसाद रूप में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण एवं अर्जुन के मध्य हो रहे गीता ज्ञान को मैं प्रत्यक्ष सुना हूँ ।
# है राजन् ! केशव और अर्जुन के मध्य हुए इस संवाद को पुनः - पुनः स्मरण करके मैं हर्षित हो रहा हूं ।
# है राजन् ! श्री हरि के इस अद्भुत रूप को भी पुनः - पुनः स्मरण करने से मुझे आश्चर्य हो रहा है और मैं बार - बार हर्षित भी हो रहा हूं ।
# जहां योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर पार्थ हैं , वही पर श्री विजय भी है , ऐसा मेरा अचल मत है ।
~~ ॐ ~~
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