प्रश्न – 15
श्लोक – 14.21
अर्जुन जानना चाह रहे हैं ⬇️
1 - गुणातीत पुरुष के लक्षण कैसे होते हैं ?
2 - उसका आचरण कैसा होता है ?
3 - और गुणातीत बनने के उपाय क्या हैं ?
अर्जुन प्रश्न ही 16 ( गीता : 17.1 ) के मध्यम से जानना चाहते हैं , " जो लोग शास्त्रों द्वारा निहित विधियों से हट कर श्रद्धायुक्त पूजन करते हैं , उनकी श्रद्धा सात्त्विक , राजसी और तामसी में से कौन सी होती है ?
इस प्रकार गीता में अर्जुन के प्रश्न : 15 के संबंध में प्रभु श्री कृष्ण के निम्न श्लोकों में यात्रा करनी होगी ⬇️
# श्लोक – 14.22 से 14.27 ( 06 )
# श्लोक – 15.1 से 15.20 ( 20 )
# श्लोक – 16.1 से 16.24 ( 24 )
[ कुल श्लोक > 50 ]
उत्तर रूप में प्रभु के 50 श्लोकों में उतरने से पहले निम्न को देखते हैं ⤵️
गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न है ..
समाधि में स्थित स्थिर प्रज्ञ योगी की क्या पहचान है ? और यहाँ अपनी 15 वीं जिज्ञासा के माध्यम से गुणातीत योगी की पहचान जननाचाहते हैं । गीता में स्थिर प्रज्ञ और गुणातीत योगियों की पहचान एक जैसी बताए गई है लेकिन दोनों योगी अलग - अलग योग साधना की भूमियों पर होते हैं । स्थिर प्रज्ञत की सिद्धि मिलने के बाद वह योगी योग साधना की उच्च भूमियों को पार करके अंततः गुणातीत बनता है । गुणातीत की अवस्था योग की आखिरी अवस्था होती है और गुणातीत प्रभुके स्वभाववाला होता है। ध्यान रहे ! गीता गुणातीत योगी बनाना चाहता है और यह भी कहता है , सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मात्र प्रभु गुणातीत हैं / गीता यह भी कहता है , तीन गुण आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं ( गीता : 14.5 ) अर्थात यदि देह में गुण निष्क्रिय हो जायेंगे तो आत्मा देह में बंधन से मुक्त होगा और किसी भी समय देह को त्याग सकता है क्योंकि देह में उसे रोकने वाला कोई न होगा । गीता यह तो नहीं बताता कि गुणातीत योगी कब तक जीता है लेकिन परम हंस श्री रामकृष्ण कहते हैं , गुणातीत योगी तीन सप्ताह से अधिक समय तक देह के साथ नहीं रह सकता /
गीता अप्रत्यक्ष रूप में मौत का विज्ञान गुण रहस्य के रूप में देता है लेकिन कभीं मौत की बात नहीं करता और यही गीता का अपना आकर्षण भी है ।
अब देखते हैं प्रभु श्री के इस प्रश्न के उत्तर में दिए गए 50 श्लोकों के सार को ,⤵️
1 - श्लोक : 14.22 से 14.27 ( 06 ) का सार
◆ तीनों गुणों की वृत्तियां
# गुणातीत प्रभु केंद्रित गुणों की वृत्तियों का द्रष्टा बना रखता हैं, उनसे प्रभावित नहीं होता ।
# वह समभाव में स्थित रहता है ।
# वह अनन्य भक्ति योग में रहता है ।
2 - श्लोक :15.1 से 15.20 ( 20 ) श्लोकों का सार
संसार कैसा है ?
संसार एक पीपल बृक्ष की तरह है जिसकी जड़ें ऊपर परमात्मा में हैं , जिसकी शाखाएं ब्रह्मा हैं , यह अविनासी है , वेद इसके पत्ते हैं , इसको समझने वाले वेद को समझते हैं ।
तीन गुण जल की भांति इसमें प्रवाहित होते रहते हैं । बिषय - भोग रूपी कोपलें मनुष्य , देव और तिर्यक आदि योनियों में सर्वत्र फैली हैं। इसकी कर्मो से बाध कर रखने वाली वासना , अहंता और ममता रूपी जड़ें
नीचे - ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं ।
इस उर्ध्वमूल वाले सनातन संसार वृक्ष को केवल वैराग्य से जाना जा सकता है ।
# समभाव योगी परमपद को प्राप्त होते हैं । परमपद प्राप्त योगी आवागमन से मुक्त हो जाता है । परमपद स्वप्रकाशित है ।
# देह में जीवात्मा प्रभु का अंश है जो ज्ञान इंद्रियों को आकर्षित करता है । देह त्याग के समय जीवात्मा के साथ मन सहित इन्द्रियाँ भी होती हैं। जीवात्मा इंद्रियों के माध्यम से विषयों का सेवन करता है।
# यत्नशील योगी आत्मा की अनुभूति अपने हृदय में करते हैं।
# सूर्य , चंद्रमा और अग्नि का तेज मेरा ही तेज है । मैं पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं ।
# प्राण - अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि के रूप में मैं चार प्रकार के भोजनों को पचाता हूं । भक्ष्य , भोज्य , लेह्य और चोष्य -चार प्रकार के भोजन हैं । चबा - चबा कर जिसे खाते हैं वह भक्ष्य है , भोज्य वह है जिसे निगल कर खाते हैं , लेह्य चाट कर खाया जाता है और चोष्य को चूस कर खाते हैं।
# दो प्रकार के पुरुष हैं ;देह नाशवान पुरुष है और जीवात्मा अविनाशी पुरुष है ।
# उत्तम पुरुष परमेश्वर हैं । ज्ञानी प्रभु को समझता है ।
3 - श्लोक : 16.1 से 16.24 ( 24 ) श्लोकों का सार
अध्याय : 16 में दैवी और आसुरी दो प्रकार की प्रकृतियों या संपदाओं की चर्चा की गई है । इन दोनों संपदाओं से संबंधित गीता अध्याय : 16 के श्लोकों को यहां तालिका में दिया गया है ⤵️
<> आसुरी संपदा वाले मनुष्यों की पहचान
( गीता श्लोक 7.15 + 9.12 भी आसुरी संपदा से संबंधित हैं जिनको बाद में देखेंगे )
# ऊपर तालिका में 12 श्लोक आसुरी संपदा वालों की पहचान से संबंधित हैं और इनका सार यहां दिया जा रहा है
# श्लोक : 4 + 7 - 16 +21 का सार ⤵️
# दंभ , घमंड , अभिमान , क्रोध , कठोरता अज्ञान
प्रवृत्ति -निवृत्ति दोनों से अपरिचित , बाहर -भीतर की अशुद्धता का होना , श्रेष्ठ आचरण का अभाव , असत्य भाषण देना , इनका स्वभाव होता है ।
# आसुरी संपदा के लोग कहते हैं संसार आश्रय रहित है , अनैश्वर बादी होते हैं , उनका मानना है , बिना ईश्वर स्त्री -पुरुष संयोग से सृष्टि रचना होती है। आसुरी संपदा के लोग नास्तिक स्वभाव वाले होते हैं ।
# ये लोग अनंत कामनाओं वाले , असंख्य चिंताओं में डूबे हुए होते हैं ।
# आशा की सैकड़ों फासियों से बधे हुए काम - क्रोध आश्रित विषय - भोग केंद्रित रहना , झूठे ख्वाबों में रहने वाले , अपने को सर्वोपरि समझने वाले , मैं -मैं के मद में डूबे रहने वाले , आसुरी संपदा वाले लोग होते हैं
गीता श्लोक 7.15 + 9.12 - 9.14 को भी यहां देख लेते हैं जिनका संबंध भी आसुरी स्वभाव से है ⬇️
श्लोक : 7.15
माया में डूबे हुए आसुरी स्वभाव वाले मूढ़ लोक प्रभु को नहीं समझते ।
श्लोक : 9.12
राक्षसी - आसुरी - मोहिनी प्रकृति वाले व्यर्थ आशा , व्यर्थ कर्म , व्यर्थ ज्ञान , विक्षिप्त जैज़ की चित्त वाले होते हैं।
दैवी संपदा वाले लोग
ऊपर तालिका के 5 श्लोकों के साथ गीता श्लोक 9.13 और 9.14 को भीं देखना चाहिए
श्लोक : 16.1-16.3 + 16.5+16.22
श्लोक : 16.1 -16.3 में 27 लक्षण बताए गए हैं ।
भय मुक्त , ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति , सात्त्विक दान देना ,बिंद्रीय निग्रह , यज्ञ करना , स्वाध्याय अभ्यासी , तप करना , शरीर , इंद्रिय और मन की सरलता
# अहिंसक , सत्य पालन , अक्रोध , शांति , निंदा आदि से दूर रहना , दया भाव , अनासक्त , कोमलता , व्यर्थ चेष्टा न करना , तेज , क्षमा , धैर्य , बाहर की शुद्धता , अद्रोह , अभिमान का अभाव आदि
गीता श्लोक 9.13 और 9.14
दैवी संपदा वाले महात्मा ईश्वर केंद्रित रहते हैं । सृष्टि का कारण प्रभु को मानते हैं । प्रभु की भक्ति में डूबे रहते हैं और प्रभु को पाना चाहते हैं ।
अध्याय : 16 के शेष श्लोक
श्लोक : 16.23 +16.24: शास्त्र विधियों से हट आचरण करने से सिद्धि नहीं मिलती । शास्त्रानुकूल कर्म करना चाहिए ।
~~ ॐ ~~
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