[03] गीता प्रसाद
गीता ज्ञान सूत्र
# कर्ता - भाव अहंकार की छाया है
# अहंकार सत् से दूर रखता है
# कर्मयोग ज्ञानयोग का द्वार है
# ज्ञानी सबके अंदर - बाहर प्रभु को निहारता रहता है
# अज्ञान में उठा होश ज्ञान का द्वार खोलता है
# क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ज्ञान है
# कर्म - योग कर्म संन्यास एक दूसरे के संबोधन हैं
# कर्म - संन्यास ही ज्ञानयोग है
# कर्म में कर्म - बंधनों का न होना कर्म को कर्म संन्यास बनाता है
# कर्म संन्यास भावातीत स्थिति में मिला प्रभु का प्रसाद है
# आसक्ति रहित कर्म , नैष्कर्म्य – सिद्धि में पहुंचाते हैं
# नैष्कर्म्य सिद्धि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है
# मन से मैत्री का होना ही ध्यान है
# भोग -भगवान की यात्रा मन से होती है
# मन माध्यम से निर्वाण की यात्रा का नाम गीता - ध्यान है
# सब में स्वयं को देखना और अपनें में सब को देखना ध्यान का परिणाम है
# ज्ञान से माया रहस्य खुलता है
# ज्ञान से सत् दिखता है
# ज्ञान द्वैत्य – द्वन्द को अपनें में नहीं बसाता
# कर्म स्वभाव से होता है
# स्वभाव गुण समीकरण से बनाता है
# गुणों से निर्मित स्वभाव में अहंकार की छाया होती है
# चाह रहित एवं अहंकार रहित स्वभाव मनुष्य का मूल स्वभाव है
# भावातीत में हुआ कर्म मुक्ति का द्वार खोलता है
# भावातीत में ब्रह्म बसता है
# कामना दुस्पुर होती है
# काम की ऊर्जा से कामना , क्रोध एवं लोभ हैं
# काम ऊर्जा का सम्मोहन पाप में पहुंचाता है
# योगी कामना - संकल्प रहित होता है
# योगी , सन्यासी वैरागी , ज्ञानी सब
एक दूसरे के संबोधन हैं
# भोग से योग , योग से संन्यास , संन्यास
में वैराग्य और वैराग्य में ज्ञान मिलता है
# मोह और वैराग्य एक साथ नहीं रहते
# वैरागी कभी मोहित नहीं होता
# वैरागी भोग संसार को समझता है
# भोग का द्रष्टा वैरागी होता है
# राजस गुण प्रभु मार्ग का सबसे मजबूर रुकावट है
# तामस गुण सिकोड़ता है
# राजस गुण अहंकार को फैलाता है
# संदेह अज्ञान की पहचान है
# गुण तत्त्वों का प्रभाव अज्ञान की जननी है
# वैरागी प्रभु में बसता है
# भोगी भोग को प्रभु समझता है
# प्रकृति - पुरुष संयोग से सृष्टि है
# अपरा प्रकृति से जीव का स्थूल शरीर बनता है और परा प्रकृति जीव धारण करती है
# योग सिद्धि से आत्मा में परमात्मा
की झलक मिलती है
# आत्मा / ईश्वर का स्थान हृदय है
# परम प्यार हृदय की निर्गुण ऊर्जा है
# देह में नौ द्वार हैं
# नौ द्वारों का प्रकाशित होना कैवल्य का द्वार खोलता है
# कर्म में कर्म बंधनों के प्रति होश का उठना कर्म को कर्म – योग बनाता है
# मन – बुद्धि का निर्विकार होना ही ब्रह्ममय होना है
# सत् की अनुभूति का नाम ब्रह्ममय होना है
# परा भक्त प्रभु को समझता है
# प्रभु को पाना अति आसान पर प्रभु को व्यक्त करना असंभव है
# गुण विभाग – कर्म विभाग की होश परम ज्ञान है
# गुण विभाग एवं कर्म विभाग का मध्य सम भाव है
# गुण तत्त्वों की पकड़ का ढीला होना योग में उतारता है
# जो है वह प्रभु का प्रसाद है , ऎसी सोच प्रभु चिंतन से मिलती है
# ज्ञानी के ऊर्जा क्षेत्र में रहनेवाला एक दिन स्वयं ज्ञानी बन जाता है
# जहां मैं और तूं का अंत होता है वह प्रभु का स्थान है
# बिना कर्म किये कर्म संन्यास संभव नही
# संन्यास स्व का कृत्य नहीं प्रभु का प्रसाद है
# कर्म का पूर्ण रूप से त्याग करना अहंकारी बनाता है और अहंकार का न होना प्रभुमय बनाता है
# कामना रहित कर्म संन्यास की पहचान है
# अहंकार रहित केवल गुणातीत हो सकता है
# प्रभु के अव्यक्त स्वरुप की जिसको अनुभूति हो वह सात्त्विक गुण धारी होता है
# ब्रह्माण्ड में कोई ऎसी सूचना नहीं जो गुण प्रभावित न हो
# कोई कर्म ऐसा नहीं जो दोष रहित हो
# भक्त में प्रभु बसते हैं और भक्त माया का दृष्टा होता है
# सब के आदि - अंत का श्रोत अब्यक्त है
# समत्वयोगी ज्ञानी होता है
# समत्वयोगी सब में ब्रह्म को देखता है
# श्री कृष्ण कहते हैं , सम भाव – योगी मुझे प्रिय हैं
# राग , भय एवं क्रोध रहित समत्व योगी होता है
# ब्रह्म न सत् है न असत्
# श्री कृष्ण कहते हैं , सभीं गुणों के भाव मुझ से हैं पर मैं भावातीत - गुणातीत हूँ
# गुणों से मोहित मोहन को नहीं समझता
# त्रिगुणी माया को प्रभु में श्रद्धा रखनें वाले समझते हैं
# ब्रह्म सर्वत्र है ब्रह्म से ब्रह्म में सब हैं
# नियोजित इन्द्रियों वाला ज्ञान - विज्ञान से परिपूर्ण होता है
# ब्रह्म की अनुभूति ध्यान में होती है
# श्रोतापन से ब्रह्म की अनुभूति संभव है
~~ ॐ ~~
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