गीता तत्त्वम् - 9
भोग – तत्त्व
भोग में उठा होश , वैराग्य है
इंद्रियों में वितृष्णा भाव का जागना , वैराग्य है
कांचीपुरम - मंदिर
आसक्ति [ attachment ]
आसक्ति दो प्रकार की है ; सत्संग की आसक्ति और भोग की आसक्ति । सत्संग आसक्ति से माया मुक्त का मार्ग दिखने लगता है लेकिन माया मुक्ति मिलती नहीं और भोग आसक्ति चुपके से नरक के द्वार पर ला छोड़ती है । सत्संग की आसक्ति निरंतर सत्संग में रहते रहने से स्वयं छूट जाती है और जब सत्संग की आसक्ति भी छूट जाती है तब उस साधक को कैवल्य की खुशबू मिलने लगती है । कैवल्य की खुशबू की मादकता उस साधक को कब और कैसे निर्विकल्प समाधि मध्यम से प्रभुमय बना देती है , योग साधक को भनक भी नहीं लगने देती ,और अब आगे ⤵️
देखें गीता के निम्न 15 श्लोकों को ⤵️
गीता – 2.48
आसक्ति रहित कर्म समत्व – योग है ।
गीता – 2.56
आसक्ति , क्रोध और भय रहित स्थिर प्रज्ञ होता है ।
गीता : 2.62 - 2 .63
विषय मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना , कामना से क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध में बुद्धि भ्रमित हो जाती है और क्रोधी पतित हो जाता है।
गीता – 3.19
अनासक्त कर्म प्रभु का द्वार बन जाता है ।
गीता – 3.20
राजा जनक भी आसक्ति मुक्त कर्म माध्यम से परमपद प्राप्त किए थे।
गीता – 3.25
बाहर से योगी - भोगी के कर्म एक से दिखते हैं ; योगी का कर्म चाह रहित होता है और भोगी के कर्म में चाह होती है ।
गीता – 3.34
बिषयों में राग – द्वेष की ऊर्जा होती है ।
गीता – 4.10
राग , भय , क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।
गीता – 4.22
समत्त्व – योगी कर्म – बंधन मुक्त होता है ।
गीता – 5.10
आसक्ति रहित ब्यक्ति संसार में कमलवत रहता है ।
गीता - 2.64
राग – द्वैष विमुक्तौ : तु बिषयान् इन्द्रियै : चरन
आत्म – वश्यै : विधेय आत्मा प्रसादं अधिगच्छति //
राग - द्वेष मुक्त इंद्रियों का दृष्टा होता है।
गीता - 4.10
वीत राग भय क्रोधा : यत् मया माम् उपाश्रिता : /
वहव : ज्ञान तपसा पूता : मत् भावं आगता : //
राग – भय रहित ज्ञानी होता है , मुझे प्राप्त करता है।
गीता - 2.14
मात्रा - स्पर्शा : तु कौन्तेय शीत – उष्ण सुख – दुःख दा :
आगम अपायिन : अनित्या : तान् तितिक्षस्व भारत //
इन्द्रिय सुख – दुःख क्षणिक होते हैं उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए ।
गीता - 18.38
विषय इन्द्रिय संयोगात् यत् अग्रे अमृत – उपमम् /
परिणामे विषं इव तत् सुखं राजसं स्मृतं //
इन्द्रिय सुख प्रारम्भ में अमृत सा लगता है पर उसका फल बिष मय होता है ।
गीता - 5.22
ये हि संस्पर्श – जा : भोगाः दुःख योनयः एव ते /
आदि अन्तवन्त : कौन्तेय न् तेषु रमते बुध : //
इन्द्रिय से जो होता है वह भोग है और इंद्रिय भोग आदि - अंत वाले होते हैं ।
गीता - 2.62
ध्यायत : विषयां पुंस : संग : तेषु उपजायते /
संगात् संज्जायते काम : कामः कामत् क्रोध : अभिजायते //
बिषय मनन से कामना उठती है कामना के टूटनें से क्रोध पैदा होता है
गीता तत्त्वम् - 9 क्रमशः
भोग – तत्त्व भाग : 2 ( काम )
भोग में उठा होश , परा वैराग्य है ….
परा वैराग्य कैवल्य मुखी बनाता है ……
काम संबंधित गीता के 13 श्लोक ⤵️
गीता – 2.56 + 4.10
राग ,भय ,क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।
गीता – 3.37
काम : एष : क्रोध : एष : रजो - गुण समुद्भवः /
महा - अशन : महा - पाप्मा विद्धि एनं इह वैरिनम् // काम उर्जा से क्रोध है और दोनों राजस गुण से हैं
गीता – 3.38
धूमेन आव्रियते वह्नि : यथा आदर्श : मलेन च /
यथा उल्बेन आबृत : गर्भः तथा तेन इदं आबृतम् //
जैसे अग्नि धुएं से , दर्पण धूल से और गर्भ जेर से ढका रहता है वैसे काम के अज्ञान से ज्ञान ढक जाता है ।
गीता – 3.39
आबृतम् ज्ञानं एतेन ज्ञानिनः नित्य वैरिणा /
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेण अनलेन च //
काम का अज्ञान ज्ञानी के लिए बैरी है और काम दुस्पूर है।
गीता – 3.40
इन्द्रियाणि मन : बुद्धि : अस्य अधिष्ठानम् उच्यते / एतै : विमोहयति एषः ज्ञानं आबृत्य देहिनं //
काम का सम्मोहन इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि पर होता है ।
गीता : 3.41 - 3.43
इन्द्रिय नियोजन काम साधना का पहला चरण है ।
इंद्रियां स्थूल शरीर से बलवान है , मन इंद्रियों से अधिक बलवान है और मन से भी परे बुद्धि है तथा बुद्धि से परे आत्मा है अतः आत्मा केंद्रित ब्यक्ति के ऊपर काम का सम्मोहन नहीं होता ।
गीता – 5.23
काम – क्रोध से अछूता सुखी ब्यक्ति होता है ।
गीता – 10.28
प्रजन : च अस्मि कन्धर्व :
प्रजनन की ऊर्जा पैदा करनें वाला काम देव , मैं हूँ।
गीता – 7.11
धर्म – अविरुद्ध : काम : अस्मि
धर्म के अनुकूल काम , मैं हूँ
~~ ॐ ~~
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