गीता तत्त्वम्
भाग - 04
प्रकृति - पुरुष , ब्रह्म - माया , आत्मा एवं परमात्मा
गीता , वेदांत अद्वैत्य दर्शन केंद्रित महाभारत का एक अंश है । बेडांटेल ब्रह्म ऊर्जा के फैलाव स्वरूप संसार को देखता है । सांख्य दर्शन द्वैत्य बादी दर्शन है जिसमें प्रकृति - पुरुष दो सनातन स्वतंत्र ऊर्जाओं से जगत की रचना को मानता है । प्रकृति जड़ ऊर्जा है और पुरुष शुद्ध चेतन ऊर्जा । प्रकृति - पुरुष संयोग से सृष्टि है ।
सांख्य दर्शन एवं पतंजलि योग दर्शन के कुछ प्रकृति -पुरुष संबंधित सूत्र गीता में भी देखे जा सकते हैं जिनमें से 42 को यहां दिया जा रहा है । ये सूत्र मूलतः हैं तो सांख्य दर्शन के लेकिन इन्हें वेदांत दर्शन का रंगे दिया गया है ।
अब गीता के लगभग 42श्लोकों के सार के साथ एक श्रीमद्भागवत पुराण के सूत्र के आधार पर ब्रह्म - माया , प्रकृति - पुरुष तथा आत्मा आदि के रहस्यों को समझते हैं ⬇️
गीता -13.20
प्रकृति पुरुष अनादि हैं ; यहां प्रकृति को माया और पुरुष को ब्रह्म , परमात्मा एवं आत्मा आदि नाम देखने को मिलते हैं । सांख्य में प्रकृति त्रिगुणी है और वेदांत की माया भी त्रिगुणी है।
गीत – 15.16
क्षर – अक्षर दो पुरुष हैं ; देह को क्षर और जीवात्मा को अक्षर कहा गया है ।
गीता – 7.4 – 7.6
अपरा प्रकृति एवं परा प्रकृति से सभीं भूत हैं ; पांच महाभुत , मन , बुद्धि एवं अहंकार अपरा के 08 भेद हैं जबकि परा शुद्ध चेतन को कहते हैं ।
गीता – 13.6 – 13.7
अपरा - परा प्रकृतियों के संयोग से सभी भूतों की उत्पत्ति होती है जबकि सांख्य में प्रकृति - पुरुष संयोग से भूतोंकी उत्पत्ति बताई गई है ।
गीता – 14.3 – 14.4
ब्रह्म जीव धारण करता है और गीता सूत्र – 7. 5 में प्रभु कहते हैं , परा प्रकृति जीव धारण करती है
गीता – 14.27 :में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं - ब्रह्म का आश्रय मैं हूँ
गीता – 13.12
ब्रह्म न सत् है और न असत् है
गीता – 15.18
श्री कृष्ण कहते हैं , क्षर – अक्षर से परे मैं हूँ
गीता – 13.21 , 13.22
प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति निर्मित त्रिगुणात्मक पदार्थों का भोक्ता है । गुणों का संग जीवात्मा के अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है । भागवत : 11.18 में कहा गया है , देह में देही को छोड़ शेष सब माया है । सांख्य योग में बताया गया है , त्रिगुणी प्रकृति और निर्गुणी पुरुष के संयोग से पूरे ब्रह्मांड की सूचनाएं हैं । कार्य - कारण सिद्धांत के अनुसार प्रकृति से उत्पन्न 23 तत्त्व ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , पांच तन्मात्र और पञ्च महाभूत ) त्रिगुणी हैं और इनसे निर्मित सृष्टि भी त्रिगुणी है ।
सामान्य स्थिति में जीवात्मा को गुणों के बंधन से मुक्त होने में 10 लाख वर्ष लगते हैं और तबतक जीवात्मा को अनेक योनियों से गुजरना पड़ता है ।
सांख्य दर्शन के विचार इस संबंध निम्न बात करता है ⤵️
पुरुष एक नहीं अनेक हैं ; जितनी सृष्टि की सूचनाएं हैं , उनके अपने - अपने पुरुष हैं । प्रकृति पुरुष को कैवल्य दिला कर स्वयं को जानकर अपनें मूल अवस्था में लौट आती है जो तीन गुणों की साम्यावस्था होती है । जबतक पुरुष स्वबोध से अपने मूल स्वरूप में स्थिर नहीं हो जाता , प्रकृति बार - बार आवागमन चक्र में आती रहती है ।
प्रकृति पुरुष को मुक्त कराने हेतु विकृत हो कर उसे 23 tools ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत ) देती है जिनके सहयोग से वा प्रकृति को समझ सके । पुरुष का प्रकृति को समझना उसे अपने मूल स्वरूप में पहुंचा देता है जिसे कैवल्य कहते हैं ।
परमहंस रामकृष्ण जी कहते हैं , गुणातीय योगी 21 दिनों से अधिक समय तक देह में नहीं रह सकता , उसकी आत्मा देह को त्याग कर कैवल्य प्राप्त कर लेती है ।
गीता – 13.23
प्रकृति - पुरुष से परे एक और है जिसको ईश्वर कहते हैं जबकि सांख्य में ईश्वर या परमात्मा कोई शब्द नहीं लेकिन पतंजलि योग दर्शन को मूलतः सांख्य केंद्रित है , चित्त शांत रखने के 09 उपायों में ईश्वर प्राणिधानि भी एक उपाय बताया गया है । पतंजलि ॐ ( प्रणव ) को ईश्वर कहते हैं ।
गीता – 14.5
देह में आत्मा को तीन गुण रोक कर रखते हैं । आत्मा जब देह में आता है तब तीन गुण उसके बंधन बन जाते हैं और तब उसे जीवात्मा कहा जाता है ।
गीता – 7.12
तीन गुणों के भाव श्री कृष्ण से हैं लेकिन ये भाव श्री कृष्ण में नहीं
गीता – 7.13
गुणाधीन गुणातीत को नहीं समझता
गीता – 7.14
माया त्रिगुणी है और सांख्य में प्रकृति त्रिगुणी है ।
गीता – 7.15
माया का गुलाम आसुरी प्रकृति का होता है और मायामुक्त होना ही कैवल्य है ।
गीता – 15.7
प्रभु कहते हैं , सभी जीव मेरे अंश हैं
गीता सूत्र – 10.20
सब के हृदय में आत्मा नाम से मैं हूँ
गीता – 18.61
ईश्वर सब के हृदय में स्थित है
गीता – 15.15
मैं सब के हृदय में स्थित हूँ , मुझ से सभीं भाव उठते हैं
गीता - 9.4
सभीं जीव मुझ अब्यक्त से हैं और मुझमें हैं
गीता - 9.5
मैं संसार का अंश नहीं और मुझमें कोई नहीं है
गीता – 9.6
सब मुझ में ठीक वैसे हैं जैसे वायु आकाश में है
गीत – 7.7
जैसे एक माला का सूत्र मणियों का सहारा होता है वैसे मैं संसार का सूत्र हूँ
गीता – 9.19
अमृत , मृत्यु , सत् , असत् सब मुझ से है
गीता – 13.24
प्रकृति - पुरुष का बोधी मुक्ति पाता है
गीता - 13.30
प्रकृति को कर्ता स्वयं को अकर्ता देखनें वाला यथार्थ देखत है
गीता – 3.5
गुण कर्म कर्ता हैं अतः कोई पल भर के लिये भी कर्म रहित हो नहीं सकता
गीता – 3.27
कर्म कर्ता तीन गुण हैं कर्ता भाव अहंकार की छाया है गीता – 3.33
गुणों से स्वभाव बनाता है , स्वभाव से कर्म होता है
गीता – 18.59
प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , तुमको स्वभावतः युद्ध करना ही पडेगा
गीता – 18.60
है कुंतीपुत्र ! मोह के कारण जिस कर्म को तुम नहीं करना चाह रहा , उस कर्म को करने के लिए तुम्हारा स्वभाव बाध्य कर देगा ।
गीता – 5.13
देह में नौ द्वार हैं
गीता – 14.11
सात्त्विक गुण से सभीं द्वार प्रकाशित होते हैं
गीता – 2.15
समभाव मुक्ति पाता है
गीता – 5.18
समभाव ज्ञानी होता है
गीता – 4.19
कामना - संकल्प रहित ज्ञानी होता है
गीता – 5.16
ज्ञान , बोध की ऊर्जा रखता है
गीता – 4.38
योग का फल ज्ञान है
गीता – 13.3
क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ज्ञान है
गीता – 5.19
समभाव ब्रह्म का दर्पण है
~~ ॐ ~~
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