गीता तत्त्वम् - 12
गीता में मोह को समझते हैं
युद्ध क्षेत्र धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य अपने गुरुजनों के सामने खड़े होते ही न अर्जुन को मोह होता , न गीता का जन्म होता ।
प्रभु श्री कृष्ण युद्ध प्रारंभ होने से पहले अर्जुन को मोह मुक्त कराना चाहते हैं क्योनि वे सोचते हैं यदि अर्जुन वर्तमान मानसिक स्थिति के साथ युद्ध करता है तो उसकी पराजय सुनिश्चित है । अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि तामस गुण के मूल तत्त्व मोह से मुक्ति दिलाने की औषधि , श्रीमद्भगवद्गीता है ।
अब आगे ⬇️
यहां देखें गीता के निम्न श्लोकों को ⤵️
गीता :1.28 – 1.30
गीता के ये सूत्र अर्जुन के हैं जिनमें मोह के लक्षण छिपे हैं जैसे रोंगटों का खडा होना , त्वचा में जलन का होना , शरीर में कंपन होना और गला का सूखना आदि । अर्जुन की इन बातों को सुनने के बाद प्रभु श्री कृष्ण पूछते हैं , हे अर्जुन ! यह असमय में तुझे मोह कैसे हो गया ( गीता श्लोक : 2.2 ) !
अब गीता से मोह संबंधित कुछ श्लोकों को भी देख लेते हैं ⤵️
गीता – 2.52
यदा ते मोह कलिलं बुद्धिः ब्यतीतरिष्यते
तदा गन्तासि निः वेदं श्रोतब्यस्य श्रुतस्य च
मोह और वैराग्य एक साथ नहीं रहते
गीता – 4.38
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते
तत् स्वयं योग संदिद्ध : कालेन् आत्मनि विन्दति
योग सिद्धि का फल ज्ञान प्राप्ति है
गीता : 18.72 - 73
संदेह होना , भ्रम होना और स्मृति का खंडित होना , मोह के लक्षण हैं
गीता – 4.35
मोह की दवा ज्ञान है
गीता – 10.3
मोह ग्रसित ब्यक्ति प्रभु से दूर रहता है
गीता – 14.8
मोह तामस गुण का तत्त्व है
गीता – 14.10
गुण समीकरण ; जब एक गुण ऊपर उठता है तब अन्य दो नीचे दबे रहते हैं । एक गुण अन्य दो को दबा कर प्रभावी होता है ।
अब गीता के कुछ ऐसे श्लोकों को समझते हैं जिन पर ध्यान करने से रूपांतरण होना संभव है लेकिन बहुत कम लोग ऐसे मिलेंगे जो गीता - ज्ञान को अपनें जीवन में उतारने का यत्न करते हों । गीता लोग पढ़ते तो हैं , लेकिन गीता ज्ञान को जीवन में उतारना नहीं चाहते क्योंकि ऐसा करने से उनसे वह सब छूट सकता है जिसे वे किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं ।
गीता में मोह को समझने के बाद गीता के निम्न 07 ध्यान श्लोकों को देखते हैं जिनका संबंध तीन गुणों की वृत्तियों से है ।
गीता श्लोक : 3.37 , 2.60 , 2.67 , 3.7
2.59 , 3.6 , 4.39
गीता - 3.37
काम एष : क्रोध एष : रजो गुण समुद्भव :
राजस गुण से उत्पन्न काम का रूपांतरण ही क्रोध है
गीता - 2.60
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मम :
मन , विषय आसक्त इंद्रिय का गुलाम बन जाता है
गीता - 2.67
इन्द्रियाणाम् हि चरतां यत् मन : अनुविधीयते
इन्द्रिय का गुलाम मन , प्रज्ञा को भी हर लेता है ।
गीता - 3.7
यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन
कर्म इन्द्रियै : कर्म योगं असक्त : सः विशिष्यते // मन से नियोजित इंद्रियों वाला आसक्ति रहित कर्म करनें वाला कर्म योगी होता है ।
गीता - 2.59
विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन :
रसवर्जं रस : अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते
इंद्रियों को बिषयों से दूर रख कर भोग से बचना आसान है लेकिन मन तो उस बिषय पर मनन करता रहता है ।
गीता - 3.6
कर्म इन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा समरन्
कर्म – इंद्रियों को हठात् नियोजित करनें से क्या होगा , मन तो उस बिषय पर ही केंद्रित रहता है ।
गीता - 4.39
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत् परं संयत् इन्द्रियः
ज्ञानं लब्ध्वा पराम् शांतिम् अचिरेण अधिगच्छति ज्ञानी की इन्द्रियाँ नियोजित रहती हैं ।
अब गीता के निम्न 13 श्लोकों पर ध्यान करते हैं ⤵️
कर्म फल की चाह को जानें
यहां गीता के निम्न श्लोकों को देखें ⤵️
गीता – 2.47
कर्म में कर्म - फल की चाह यदि न हो तो वह कर्म कर्मयोग होता है ।
गीता – 2.51
फल की चाह रहित कर्म मुक्ति का द्वार है ।
गीता – 4.41
कर्म फल त्यागी ज्ञानी होता है ।
गीता – 5.3
फल रहित कर्म , कर्म संन्यास है ।
गीता – 5.10
फल रहित कर्म से पाप नहीं हो सकता।
गीता – 6.1
फल रहित कर्म , योग एवं संन्यास है ।
गीता – 18.2
कामना रहित कर्म कर्म संन्यास है ।
गीता – 18.4
त्याग गुणों के आधार पर तीन प्रकार का होता है ।
गीता - 18.7 – 18.11
मोह के प्रभाव में कर्म त्याग , शरीर कष्ट के कारण कर्म त्याग और कर्म करने में कर्म करने में आसक्ति और कर्मफल का त्याग क्रमश : तामस , राजस एवं सात्त्विक त्याग हैं ।
भागवत : 11.12 सत्संग से बिषय आसक्ति निर्मूल होती है।
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