गीता तत्त्वम् - 14
इंद्रिय - विषय समीकरण
गीता तत्त्वम् - 07 में गुण विभाग और कर्म विभाग में गुण समीकरण को बताया गया और अब यहां इंद्रिय - विषय समीकरण की चर्चा हो रही है । इंद्रिय - विषय समीकरण पूर्ण रूपेण गुण समीकरण आधारित है , ऐसा समझें कि बिना गुण समीकरण , इंद्रिय - विषय समीकरण का कोई अस्तित्व नहीं । अतः इंद्रिय विषय समीकरण में उतरने से पूर्व गुण समीकरण का एक बार पुनः अवलोकन करते हैं ।
सारे ब्रह्मांड में जो भी पहले था , अभी है और आगे भविष्य में होने वाला है , वह सब माया से माया में था , है और आगे
होगा । सांख्य दर्शन में एक कारण -कार्य सिद्धांत है जिसे वेदांत दर्शन भी श्वीकारता है । इस सिद्धांत में वह जो पैदा करता है उसे कारण कहते हैं और जिसे वह पैदा करता है , उसे उसका कार्य कहते हैं । हर कार्य में कारण उपस्थित रहता है । इस सिद्धांत के अनुसार संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी था , जो भी है और आगे जो भी होने वाला है , उन सब का कारण त्रिगुणी माया है अतः उन सब में तीन गुणों की उपस्थिति भी होनी चाहिए । एक ब्रह्म को छोड़ संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसी कोई सूचना नहीं जो तीन गुणों से अप्रभावित हो । हमारे दिल की धड़कन , सोच की बदलती गति , श्वास - प्रश्वास के ही पल हो रहे चढ़ाव - उतराव जैसी सभी क्रियाएं गुण समीकरण में हर पल हो रहे बदलाव के परिणाम ही तो हैं ।
पांच ज्ञान इंद्रियां हैं और उनके अपने - अपने विषय हैं ।
देक्जें निम्न स्लॉइड को ⤵️
इसी तरह पांच कर्म इंद्रियां हैं जो मन , अहंकार और बुद्धि के निर्देशों का पालन करती हैं । ध्यान रहे निर्देश बुद्धि से मिलता है लेकिन बुद्धि अहंकार एवं मन के इशारों को समझ कर निर्देश देती है । हम जिस समय किस गुण से भावित रहते हैं , हमारी ज्ञान इंद्रियां अपनें - अपने विषयों में उस गुण की वृत्ति को ही देखती हैं । ज्ञान इंद्रियों से मिली सूचना के आधार पर मन , अहंकार और बुद्धि मिल कर संबंधित कर्म इंद्रिय को वैसा कर्म करने का आदेश देते हैं , और हम वैसा कर्म करते हैं । किए गए कर्म के फल स्वरूप सुख या दुःख को हमें भोगना पड़ता है । सुख - दुःख का भोक्ता वेदांत दर्शन में जीवात्मा है एयर सांख्य में पुरुष । यहां व्यक्त गुण समीकरण एवं इंद्रिय - विषय संबंध के आधार पर इस बिषय पर कुछ और बातों को समझते हैं ।
ज्ञान दो प्रकार के हैं ; प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष ज्ञान के श्रोत 05 ज्ञान इंद्रियों हैं और उनके अपने - अपने विषय हैं । परोक्ष ज्ञान उधर का ज्ञान है जो अन्य श्रोतों जैसे शास्त्र पढ़ने या सुनने आदि क्रियायों से । इंद्रियों का स्वभाव अपने - अपने विषयों में भ्रमण करना होता है । इंद्रियां अपनें - अपनें विषयों से संबंधित सूचनाओं को चित्त को भेजती रहती हैं । मन , बुद्धि और अहंकार के समूह को चित्त कहते हैं ( सांख्य दर्शन और पतंजलि योग दर्शन के अनुसार ) । मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी -अपनी वृत्तियों को जानते हैं ।
◆ इन सभीं वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है ।
# गुणों का प्रतिप्रसव हो जाना तथा पुरुषार्थ का शून्य हो जाना , कैवल्य है (पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 34 )।
मन 11 इंद्रियों में से एक है जिसे कर्माशय भी कहते हैं । मन आगे नहीं पीछे देखता है । मन पूर्व अनुभवों पर भौंरे की भांति चक्कर लगाता रहता है । मन और अहंकार बुद्धि से नियंत्रित होते हैं और बुद्धि गुण समीकरण से। मन के संबंध में पीछे गीता तत्त्वम् - 6 में विस्तार के बताया जा चुका है ।
अब यहां गीता ऊपर दिए गए सिद्धांत के आधार पर गीता के निम्न 09 श्लोकों को देखते हैं ⬇️
गीता – 3.34
सभीं बिषयों में राग – द्वेष की ऊर्जा होती है
इंद्रियों का स्वभाव है अपने - अपनें विषयों में भ्रमण करना और इनके संबंध में एकत्रित की गई सूचनाओं को मन को भेजते रहना। ऐसी स्थिति में जब विषयों में मात्र राग - द्वेष की ऊर्जा रहती है तब इंद्रियां इनसे परे की सूचनाएं कैसे इकट्ठी नहीं कर सकरी क्योंकी इंद्रियां गन समीकरण की गुलाम होती हैं । गीता अध्याय - 6 में प्रभु अर्जुन को मन नियंत्रण करने के संबंध में कहते हैं - जे अर्जुन ! मन का पीछा करते रहने का अभ्यास करते रहने से मन स्थिर हो जाता है । मन इंद्रियों द्वारा भेजी गई सूचनाओं पर मनन करता रहता है । जैसे एक गाय चारा को अंदर इकट्ठा कर लेती है और बाद में बैठ कर पगुरी करती रहती है । पगुरी में आमाशय में एकत्रित चारे को पुनः मुंह में ले आ कर उसे बारीक टुकड़ों में विभक्त करती रहती है जिससे उन्हें पचाने में मदद मिलती है । जब मन को पता चलता है बुद्धि उसकक पीछा कर रही है तब वह रुक जाता
है । पतंजलि चित्त वृत्तियों को शांत करने के 09 उपायों में अभ्यास - वैराग्य को एक प्रमुख उपाय बताए हैं और यही बात प्रभु श्री कृष्ण गीता : 6.35 में भी कहते हैं । मैन के पीछा करने का अभ्यास वैराग्य को आमंत्रित करता है और अंतःकरण का गुण समीकरण बदलने लगता है । जब सत्त्विक गुण की वृत्तियां ऊपर उठती है तब राजस एवंन्तामस गुणों की वृत्तियां कमजोर होने लगती हैं ।
गीता – 2.61
जिस घडी इन्द्रियाँ नियोजित हों और मन शांत हो उस घडी वह मनुष्य स्थिर प्रज्ञ होता है ।
गीता – 2.62
विषय मनन से कामना का जन्म होता है और कामना टूटने का भय क्रोध पैदा करता है
गीता – 2.63
क्रोध पाप की जड़ है
गीता – 2.58
जैसे कछुआ अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखता है वैसे ही मनुष्य को भी अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखना चाहिए
गीता – 2.59
इन्द्रियों को बिषयों से दूर रख कर इन्द्रिय नियोजन संभव नहीं क्योंकि मन तो बिषयों पर मनन करता ही रहता है
गीता – 2.60
इन्द्रियों का नियोजन मन से होना चाहिए
गीता – 3.7
मन से इन्द्रिय का नियोजित होना , कर्मयोग में उतारता है।
गीता – 2.67
इन्द्रियों से सम्मोहित मन , प्रज्ञा को हर लेता है
अब देखें निम्न गीता के श्लोकों को >
गीता – 2.56
राग , भय और क्रोध रहित ज्ञानी होता है
( गीता : 3.35 > सभीं विषयों में राग - द्वेष किनिर्जा होती है और यहां गीता : 2.56 में कह रहे हैं , राग - भय एवं क्रोध रहित ज्ञानी होता है )
गीता – 4.10 + गीता सूत्र – 2.56
ज्ञानी राग , भय और क्रोध मुक्त होते हैं
समभाव राग , भय और क्रोध मुक्त होते हैं
गीता – 4.19
संकल्प रहित ज्ञानी होता है
गीता – 4.37
ज्ञानी के कर्म में फल की सोच नहीं होती
गीता – 5.16
ज्ञान से सत् का बोध होता है
गीता – 5.17
ज्ञान तन , मन एवं बुद्धि को निर्विकार रखता है
गीता – 18.17
अहंकार में हुआ कर्म गुलाम बनाता है
गीता – 13.3
क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है
गीता– 4,38
योग सिद्धि से ज्ञान मिलता है
गीता – 3.38
अज्ञान ज्ञान को ढक लेता है
गीता – 2.55
प्रजाहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मन : गताम्
आत्मनि एव आत्मना तुष्टा : स्थिर – प्रज्ञ तदा उच्यते
कामना मुक्त मन वाला एवं आत्मासे आत्मा तृप्त रहना , स्थिर प्रज्ञ के लक्षण हैं
गीता – 5.23
काम – क्रोध से मुक्त , योगी होता है
गीता – 4.41
कर्मयोग की सिद्धि प्राप्त , कर्म बंधनों से मुक्त रहता है
गीता – 2.71
कामना , ममता , अहंकार रहित स्थिर – प्रज्ञ होता है
~~ ॐ ~~
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