गीता तत्त्वम् - 16
ऊपर स्लॉइड में सांख्य में भाव और लिंग सृष्टि , भागवत में ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल , प्रभु श्री कृष्ण द्वारा व्यक्त सृष्टि रहस्य में तत्त्वों की संख्या क्रमशः 40 , 35 , 41 और 34 तत्त्व बताए गए हैं जबकि सांख्य में 25 तत्त्व हैं । भागवत में 43 प्रकार की सृष्टियाँ बताई गई हैं और सांख्य में 14 प्रकार की सृष्टि बताई गई है जैसा स्लॉइड - 6 नीचे दूसरी स्लॉइड में दिखाया गया है । सांख्य में सृष्टि के मूल 25 तत्त्व जिनसे भाव और लिंग सृष्टियों की उत्पत्ति है को नीचे तीन स्लाइड्स में देख सकते हैं ⤵
स्लॉइड - 1 > 25 तत्त्व
स्लॉइड - 2 > भाव - लिंग सृष्टियाँ
स्लॉइड - 3 पांच तन्मात्रों से पांच महाभूत और महाभूतों से 14 परकककर की भौतिक सृष्टियाँ
(सृष्टि उत्पत्ति के संबंध में गीता उपलब्ध ज्ञान बहुत सीमित है श्रीमद्भागवत और सांख्य की तुलना में )
प्रकृति - पुरुष संयोग , सृष्टि उत्पत्ति का कारण है ( सांख्य )। गीता में जीव की उत्पत्ति अपरा और परा प्रकृतियों के संयोग से है । जीव का स्थूल शरीर प्रकृति( अपरा ) से है और उसमें जीव तत्त्व पुरुष शुद्ध चेतन या परा प्रकृति है ।
गीता में मूलतः नैमित्तिक प्रलय और उसके बाद पुनः भूतों की उत्पत्ति तक सृष्टि ज्ञान सीमित है । इस बात को आगे विस्तार से देखा जा सकता है ।
श्रीमद्भागवत पुराण स्कंध : 2 , स्कंध : 3 और स्कंध : 11 में क्रमशः ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और प्रभु श्री कृष्ण द्वारा सृष्टि रहस्य संबंधित विस्तृत ज्ञान उपलब्ध है । भागवत पुराण वैसे तो वेदांत दर्शन आधारित है लेकिन वेदांत में एक विषय पर अनेक मत देखने को मिलते हैं अतः पाठक का भ्रमित होना स्वाभाविक है ।
भागवत में ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्ण द्वारा व्यक्त सृष्टि के तत्त्वों की उत्पत्ति यहां देखें
ब्रह्मा
मैत्रेय
कपिल
कृष्ण
सांख्य दर्शन में उपलब्ध सृष्टि रहस्य ज्ञान अपनें में पूर्ण दिखता है जहां कोई संदेह नहीं उठता ।
यहां हम गीता केंद्रित यात्रा पर हैं अतः सृष्टि रहस्य से संबंधित गीता आधारित सूचनाओं को ही देख सकते हैं।
गीता में अपरा प्रकृति और परा प्रकृति के संयोग से जीवों को उत्पत्ति बताई गई है जैसा ऊपर बताया गया है । अपरा प्रकृति के आठ तत्त्व हैं ( पांच महाभूत और मन , बुद्धि एवं अहंकार ) । परा प्रकृति चेतना को कहते हैं जो जीव धारण करती है ।
गीता में आगे बताया गया है कि ब्रह्मा का दिन जब पूरा होता है तब सभी भूत ब्रह्मा के अव्यक्त देह में लीन हो जाते हैं और पुनः जब दिन आता है तब सभी भूत ब्रह्मा के अव्यक्त रूप से अपनें - अपनें पूर्ववत शरीरों में उत्पन्न होते हैं ।
ब्रह्मा का 01 दिन 1000 × एक चतुर्युग की अवधि (4,320,000 मानव वर्ष ) का होता है और इतने ही समय की ब्रह्माकी रात्रि भी होती है ।
# ब्रह्मा का एक दिन = 4.32 billion years #
## इतने समय की एक रात भी होती है ##
### ब्रह्मा के एक दिन में 14 मनु होते हैं , एक मनु का समय = 308.571 million years अर्थात लगभग 71.43 चतुर्युग का होता है ।।
भूत समुदाय का व्यक्त से अव्यक्त होना और पुनः अव्यक्त से व्यक्त होना श्री मद्भागवत पुराण में नैमित्तिक प्रलय कहा गया है । भागवत में 04 प्रकार की प्रलय को प्रभु श्री कृष्ण उद्धव को बताए हैं ( नित्य , आत्यांतिक , नैमित्तीक और तत्त्वों की प्रलय या प्राकृतिक प्रलय ) । नित्य हो रहे जन्म - मृत्यु को नित्य प्रलय ,मायामुक्त होना आत्यांतिक प्रलय है , नैमित्तिक को अभी ऊपर व्यक्त किया गया है और बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियों , महाभुतों और तन्मात्रो का मूल प्रकृति में विलय होने को तत्त्वों की प्रलय कहते हैं । प्रलय विषय पर बाद में अलग से देखा जा सकता है।
अब गीतामें सृष्टि रहस्य को निम्न श्लोकों के आधार पर समझते हैं जैसा ऊपर व्यक्त किया जा चुका है ⤵️
( ऊपर के 26 श्लोकों के साथ श्लोक : 9.7 और श्लोक : 9.8 को भी देखें )
गीता श्लोक : 7.4 - 7.6
जीव धारियों की उत्पत्ति अपरा प्रकृति के 8 तत्त्वों
(पांच महाभूत , मन ,बुद्धि और अहंकार ) तथा परा प्रकृति के योग से है ।
गीता श्लोक : 8.5 - 8.6
अंत समय में मनुष्य जिस भाव में डूबा रहता है उसे उसी भाव के अनुसार अगली योनि मिलती है ।
गीता श्लोक : 8.16 - 8.22
गीता – 8.16
आब्रह्म भुवनात् लोकाः पुनः आवर्तिन : अर्जुन
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते
( ब्रह्म लोक सहित सभीं लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात समयाधीन हैं अर्थात जन्म , जीवन एवं मृत्यु के अधीन हैं )
गीता – 8.17
यहाँ एक समीकरण दिया जा रहा है
सहस्त्र युग पर्यंतम् अह : यत् ब्रह्मण : विदु :
रात्रिं युग सहस्त्रान्तं ते अह : - रात्र विदः जनाः
ब्रह्मा का दिन + ब्रह्मा की रात बराबर अवधि के होते हैं
ब्रह्मा का एक दिन = 1000 [ चार युगों की अवधि ]
= 4.32 billion years
और एक चतुर्युग = 4.32 million years
गीता : 8.18 - 8.19
ब्रह्मा के दिन में जीव अब्यक्त से ब्यक्त होते हैं
रात्रि आते ही पुनः सभीं जीव अब्यक्त में समा जाते हैं
यहां निम्न श्लोकों को भी देखें ⤵️
गीता – 9.7 + 9.8
कल्प के अंत समय में सभीं प्रभु की प्रकृति में समा जाते है और पुनः कल्प के प्रारम्भ में सभीं अपनें - अपनें पूर्वत रूपों में आ जाते हैं ।
गीता – 8.20
अव्यक्त से परे भी एक और अव्यक्त है जो अपरिवर्तनीय शाश्वत है ।
गीता – 8.21
यह अव्यक्त अक्षर परम गंतव्य है
गीता – 8.22
यह अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति की अनुभूति है
गीता श्लोक : 13.5 - 13.6
पांच महाभुत , अव्यक्त , 11 इंद्रियां , अहंकार पांच विषय , इच्छा , द्वेष , सुख , दुःख , स्थूल देह पिंड , चेतना , धृतिका , विकार आदि से क्षेत्र की रचना है।
गीता श्लोक : 13.19 - 13.24
# प्रकृति - पुरुष अनादि हैं , सभी विकार प्रकृति से हैं
#-कार्य और कारण प्रकृति से हैं , जीवात्मा सुख - दुखी का भोक्ता है।
# प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों का भोक्ता है ।
#-देह में स्थित पुरुष परमात्मा है
#-प्रकृति - पुरुष का ज्ञाता आवागमन से मुक्त रहता है
# ध्यान से प्रभु को हृदय देखा जाता है , कर्मयोग और #-ज्ञानयोग से भी प्रभु की अनुभूति होती है
गीता श्लोक : 14.3 - 14.5
जीव धारी प्राणियों की माता ब्रह्म है और मैं बीज स्थापन करता पिता हूं ।
गीता श्लोक : 15.8 , 15.16 , 15.17
# शरीर छोड़ते समय जीवात्मा के साथ मन सहित इंद्रियां भी होती हैं ।
# संसार में अविनाशी और विनाशी दो प्रकार के पुरुष हैं ; देह पुरुष का विनाश होता है और जीवात्मा पुरुष अविनाशी है
# परमात्मा उत्तम पुरुष है जो सर्वत्र है ।
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