गीता तत्त्वम् - 13
योगी , संन्यासी , त्यागी , समभाव, वैरागी ,ज्ञानी , दैवी - आसुरी प्रकृतियां, साक्षी , दृष्टा आदि
1836 - 1886
योगी , संन्यासी , त्यागी , वैरागी और ज्ञानी योग साधना के फल हैं जो एक के बाद एक समयांतर पर योग साधना की विभिन्न गहराइयों में उतरने पर स्वतः मिलते रहते हैं ।
पतंजलि कहते हैं , योग अनुशासन है और चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है - यहां अनुशासन शब्द पर विचार अवश्य करे जो अनु + शासन शब्दों का योग है । अनु का अर्थ है पहले से प्रयोग किया जा रहा और शासन का अर्थ है पद्धति अर्थात पतंजलि योग दर्शन के निर्माण करता पतंजलि नहीं , यह योग दर्शन परंपरागत दर्शन है । जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब चित्ताकार पुरुष अपनें मूल स्वरूप में आ जाता है ।
(यहां देखें पतंजलि योग सूत्र समाधि पाद सूत्र :1 , 2 ,3 और 4 को एक साथ को नीचे दिए जा रहे हैं )
समाधि पाद : सूत्र :1 - 4 योग क्या है ?
सूत्र : 01 अथ + योग + अनु + शासन
अब + योग + पहले से चला आ रहा + पद्धति
अर्थात अब पहले से चले आ रहे योग - ज्ञान को मैं बताने जा रहा हूँ
सूत्र : 02: योग + चित्त + वृत्ति + निरोधः
अर्थात
चित्त - वृत्तियों का निरोध , योग है
सूत्र : 03 : तदा + द्रष्टु : स्वरुप : अवस्थानम्
अर्थात
योग से द्रष्टा ( पुरुष ) अपनें मूल स्वरूप में आ जाता है
सूत्र : 04
वृत्ति सारूप्यम् इतरत्र
वृत्ति के स्वरुप जैसा अन्य स्थितियों में
अर्थात
योग से अतिरिक्त अन्य स्थितियों में पुरुष चित्त वृत्ति स्वरुप के आकार का होता है ।
समाधि पाद : 1 - 4 तक का सार
यह योग अनुशासन है
चित्त - वृत्ति निरोध , योग है
जबतक चित्त की वृत्तियां निरुद्ध नहीं होती तबतक पुरुष चित्त स्वरूपाकार रहता है लेकिन वृत्तियों के शांत होते ही पुरुष अपनें मूल स्वरूप में लौट आता है ।
योग सिद्धि पर योगी कर्म बंधनों का त्यागी बन जाता है । कर्म बंधन त्यागी के कर्म में कोई चाह नहीं होती और इस अवस्था को कर्म संन्यास कहते हैं । साधना की इस अवस्था में चित्त में वितृष्णा का भाव भर गया होता है जिसके फलस्वरूप योगी के अंदर विवेक की धारा बहने लगती है जो उसे ज्ञानी बनाती है । योगी , संन्यासी , त्यागी , वैरागी और ज्ञानी स्थिर चित्त समभाव के संबोधन जैसे हैं अतः इनमें उलझना नहीं चाहिए । योग स्व बोध का एक मार्ग है जिसकी सिद्धि मिलने पर सत् और असत् ऐसे दिखने लगते हैं जैसे हथेली पर रखा आंवला दिखता है ।
अब गीता के निम्न श्लोकों को देखते हैं
गीता – 13.8
ज्ञानी के लक्षण
विनम्रता , दम्भ हीनता ,
अहिंसा और सहनशीलता
गीता – 13.9
सरलता , शुद्धता , दृढ़ता , वैराग्य , अहंकार का अभाव और समभाव
गीता – 13.10
जन्म , जीवन और मृत्यु से अप्रभावित , सभीं द्वैत्यों से अप्रभावित , स्थिर बुद्धि वाला , अनन्य भक्ति में बसा हुआ होना
गीता – 5.17 + 5.18
प्रभु केंद्रित योगी समय चक्र से परे हो जाता है और
प्रभु केंद्रित ज्ञानी होता है
गीता – 5.19
समभाव स्थिर प्रज्ञ ब्रह्म में बसता है
गीता – 5.20
समभाव ब्रह्मवित् होता है
गीता – 5.24
अंतर्मुखी निर्वाण प्राप्त करता है
गीता – 6.1
कर्म फल की सोच के बिना किया गया कर्म सन्यासी / योगी का कर्म होता है
गीता – 6.2
संकल्प धारी योगी नहीं हो सकता
गीता – 6.3
योगारूढ़ की स्थिति में कर्म स्वतः समाप्त हो जाते हैं
गीता – 6.7
शांत मन वाला समभाव में होता है
गीता – 6.8
इन्द्रिय निग्रह वाला ज्ञान – विज्ञान से परिपूर्ण होता है ; ज्ञान दो प्रकार का होता है - परोक्ष और प्रत्यक्ष । परोक्ष ज्ञान उधार का ज्ञान होता है और प्रत्यक्ष ज्ञान स्व अनुभव से मिलता है । संपूर्ण ब्रह्मांड की सभी सूचनाओं को एक ब्रह्म से होना देखना , विज्ञान है और इंद्रियों से मिले अनुभव को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं तथा शास्त्रों आदि के मध्यम से को ज्ञान मिलता है वह परोक्ष ज्ञान होता है ।
गीता – 2.61
नियोजित इन्द्रियों वाला स्थिर प्रज्ञ होता है
गीता – 6.10
शांत मन वाला एकान्त बासी योगी होता है
गीता – 6.29
सर्वत्र सबमें प्रभु जिसको दिखते हों वह प्रभु में होता है
गीता – 6.30
सब में कृष्ण को देखनेवाले और सबको कृष्ण में स्थित देखने वाले के लिए प्रभु श्री कृष्ण अदृश्य नहीं रहते ।
गीता – 13.27
चर – अचर सभीं क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ के योग से हैं
गीता – 13.28
समभाव में सब में प्रभुको देखना , मुक्ति में पहुंचाता है ।
गीता – 6.15
मन का निर्विकार होना निर्वाण में पहुंचाता है
समभाव – योगी
यहां गीता के निम्न श्लोकों को देखें ⤵️
गीता – 4.22
समभाव कर्मों का गुलाम नहीं
गीता – 4.23
अनासक्त , प्रभु केंद्रित , ज्ञानी जो मात्र यज्ञ कर्मों को करते हैं , उनके कर्म उन्हें बाधते नहीं ।
गीता – 5.19
समभाव ब्रह्म जैसा होता है
गीता – 5.20
स्थिर प्रज्ञ ब्रह्म में होता है
गीता – 2.15
समभाव मुक्ति पाता है
गीता – 2.57
समभाव स्थिर प्रज्ञ होता है
गीता : 12.18 - 12.19
समभाव मुझे प्रिय हैं ( प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं )
दैवी - आसुरी प्रकृतियाँ
गीता – 16.4
आसुरी प्रकृति में अज्ञान अहंकार की ऊर्जा होती है
गीता – 16.5
दैवी प्रकृति सत् के सहारे मुक्ति की ओर ले जाती है
गीता – 16.16
मोह में उलझे आसुरी स्वभाव के लोग आवागम चक्र से मुक्त नहीं होते
गीता – 16.20
आसुरी स्वभाव वाले हर जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते रहते हैं या घोर नरक को प्राप्त होते हैं
गीता – 5.24 , 6.15 , 6.19
# शांत मन वाला ध्यानारुढ होता है
# ध्यान निर्वाण का द्वार है
# अंतर्मुखी निर्वाण की यात्रा है
गीता – 6.46
योगी , तपस्वी , ज्ञानी सकाम कर्मी से बढ़ कर होता है
गीता – 7.19
ज्ञानी दुर्लभ होते हैं
गीता – 4.19
संकल्प रहित कर्म कर्ता ज्ञानी होता है
गीता – 2.57
समभाव गयी होता है
गीता – 4.38
योग सिद्धि का फल ज्ञान है
साक्षी / द्रष्टा
यहां देखें गीता के निम्न श्लोक ⤵️
5.10 , 14.19 , 14.23 , 5.8 , 5.9
गीता – 5.10
भगवान में बसा हुआ ज्ञानी भोग का द्रष्टा होता है
गीता – 14.19
गुणों को करता देखनें वाला साक्षी / द्रष्टा होता है
गीता – 14.23
उदासीन (साक्षी ) गुणों से अप्रभावित रहता है और जो हो रहा है उसे गुणों में हो रहे परिवर्तन का कार्य समझता है तथा प्रभु में स्थिर रहता है ।
गीता – 5.8
इन्द्रियों एवं मन का द्रष्टा तत्त्व – वित् होता है
गीता – 5.9
तत्त्व ज्ञानी / सांख्य ज्ञानी देखता हुआ , सुनता हुआ , स्पर्श मरता हुआ , सूँघता हुआ , भोजन करता हुआ , गमन करता हुआ , सोता हुआ ,श्वास लेता हुआ , बोलता हुआ , त्यागता हुआ , आंखों को खोलता हुआ , मूँदता हुआ , को ऐसा समझता है जैसे यू सब क्रियाएं इंद्रियों के कार्य हैं और स्वयं को करता नहीं समझता।
कुछ साधना संकेत ⤵️
कर्म , कर्म – योगी , कर्म संन्यास , कर्मसंन्यासी , राग - वैराज्ञ , मन , ध्यान द्रष्टा एवं साक्षी इन शब्दों को आप पकड़ कर साधना के विभिन्न चरणों को समझ सकते हैं / कर्म तन , मन बुद्धि एवं वाणी से होता है / कर्म होनें में जो ऊर्जा काम करती है उसकी पहचान ही कर्म योग है /
कामना एवं अहंकार की ऊर्जा से जो होता है वह कर्म राजस कर्म होता है । जो कर्म मोह की ऊर्जा से होता है उसे तामस कर्म कहते हैं । जो कर्म प्रभु को समझनें के लिए हो उसे सात्त्विक कर्म कहते हैं लेकिन इस कर्म में देह के सभीं नौ द्वारों में निर्विकार ऊर्जा का प्रवाह होना चाहिए /
गुण चाहे तामस हो , चाहे राजस हो या चाहे सात्त्विक हो सभीं बंधन हैं लेकिन सात्त्विक गुण प्रभु में उड़ने की ऊर्जा अवश्य भरता है / कर्म एवं साकार भक्ति जब बिना चाह के , बिना अहंकार के होने लगे तब समझना चाहिए कि यात्रा का रुख सही दिशा में है और प्रभु की हवा अब किसी भी समय मिल सकती है /
जब मनुष्य का कृत्य साधना बन जाता है तब उस कृत्य के होने के पीछे गुण तत्त्वों की ऊर्जा
नहीं होती और इस घटना को गुण – तत्त्वों के प्रति वैराज्ञ का होना कहते हैं / भोगी और योगी के कर्म।बाहर से एक जैसे दिख सकते हैं कर्म एक हो सकता है लेकिन दोनों कर्मों के होनें के पीछे जो ऊर्जा होंगी वह एक दूसरे से भिन्न होगी , भोगी अपने कर्म में स्वयं को कर्ता देखता है योगी उसी काम में गुणों को कर्ता देखता है ; इसे ऐसे समझते हैं ⤵️
गुणों को जो कर्ता देखता है वह योगी होता है और जो स्वयं को कर्ता देखता है वह भोगी होता है //
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