गीता तत्त्वम् - 18
गीता में अर्जुन के प्रश्न
प्रश्न उठता है , संदेह से और
संदेह अविद्या का तत्त्व है
दो शब्द⬇️
गीता तत्त्वम् भाग : 18 , ' गीता में अर्जुन के प्रश्न ' में यात्रा प्रारंभ करने से पहले कुछ अहम विषयों को भी देख लेना चाहिए जिनका संबंध श्री कृष्ण एवं महाभारत से है । श्रीमद्भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता दोनो महाभारत के अंश हैं ।
शायद ही कोई हिंदू घर ऐसा मिले जिसमें गीता न हो और शायद ही कोई हिंदू ऐसा घर मिले जिसमें महाभारत ग्रंथ हो !ऐसा क्यों ! क्योंकि हिंदुओं की ऐसी मान्यता है कि आखिरी श्वास लेते हुए को यदि गीता सुना दिया जाय तो वह मोक्ष प्राप्त करता है और जिस घर में महाभारत ग्रंथ होता है इस घर में लड़ाई होती रहती है । अब जरा सोचिए कि हम कितने भ्रम में जी रहे हैं ! गीता महाभारत भीष्म पर्व अध्याय : 6.25 - 6.42 के रूप में है , बिना महाभारत ग्रंथ , गीता का कोई अस्तित्व ही नहीं बनता और हम महाभारत को घर में रखते हुए डरते हैं , है न हैरान करने वाली बात ? मनुष्य सभीं जीवों की चाल को समझता है लेकिन स्वयं अपनी चाल को नहीं समझता ।
महाभारत युद्ध कुरुक्षेत्र में घटित हुआ और 18 दिन चला जिसमें 18 अक्षौहिणी सेना युद्ध में भाग ली। एक अक्षौहिणी सेना में 2,18,700 सैनिक हुआ करते थे । इस प्रकार यदि सोचा जाए तो युद्ध में प्रतिदिन दो लाख , अट्ठारह हजार और सात सौ योद्धाओं का दाह संस्कार भी किया जाता रहा
होगा ! एक तरफ युद्ध चल रहा है और दूसरी तरफ इतनी बड़ी संख्या में मृतकों के दाह संस्कार भी हो रहे हैं , क्या ऐसा होना संभव भी है ! इतने सारे लोगों को सीमित समय में जलाने हेतु पर्याप्त मात्रा में लकड़ी की भी व्यवस्था करना कितना कठिन काम रहा होगा ! आप इस समस्या पर स्वयं सोचते रहना , हम आगे चलते हैं 🌷
प्रभु श्री कृष्ण से संबंधित अनेक घटनाओं में से दो घटनाओं को भी संक्षेप में देख लेते हैं ।
पहली घटना महाभारत युद्ध की है और दूसरी घटना यदुकुल संहार की है । ये दोनों घटनाएं जहां - जहां घटित हुई थी उन क्षेत्रों की यहां गूगल नक्शे के ऊपर दो धर्म क्षेत्रों के रूप में दिखाया जा रहा । इन दो में पहला कुरुक्षेत्र है और दूसरा प्रभास क्षेत्र है । प्रभास क्षेत्र भागवत पुराण में धर्म क्षेत्र नाम से संबोधित किया गया है और यह क्षेत्र वर्तमान का काठियावाड़ क्षेत्र है जो अरब सागर का तटीय क्षेत्र है । कुरुक्षेत्र को सभीं धर्म क्षेत्र रूप में जानते ही हैं क्योंकि गीता का जन्म स्थान धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे है । प्रभास क्षेत्र से नाव द्वारा द्वारका जाया जाता था । इसी क्षेत्र में सरस्वती सागर से मिलती भी थी ।
सरस्वती तट पर कुरुक्षेत्र में अर्जुन को श्री कृष्ण गीता ज्ञान का उपदेश दिए थे और सरस्वती के तट पर प्रभास क्षेत्र में श्री कृष्ण उद्धव को तत्त्व ज्ञान दिए थे । दोनों ज्ञानी में केवल एक अंतर है ; प्रभास क्षेत्र में जब प्रभु ज्ञान दे रहे थे उस समय उनके ही परिवार में महाभारत हो रहा था , संपूर्ण यदुकुल का संहार ही रहा था और गीता ज्ञान महाभारत युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले दिया गया था । प्रभास क्षेत्र में प्रभु का दिया गया ज्ञान उनका आखिरी ज्ञान था , ज्ञान देने के बाद प्रभु भू लोक छोड़ स्वधाम चले गए थे और द्वारका सागर - गर्भ में समा गई थी ।
अब हस्तिनापुर सम्राट शंतनु की बंशावली को भी समझते हैं ⬇️
ऊपर दिखाई गई बंशावली के स्पष्ट है कि दुष्यंत - शकुंतला पुत्र सम्राट भरत के बाद शंतनु 20वें हस्तिनापुर सम्राट थे । शंतनु के बाद 11वें सम्राट नेमिचक्र हुये । नेमिचक्र के समय गंगा जी हस्तिनापुर को बहा ले गयी थी और इस प्रकार हस्तिनापुर का अस्तित्व ही समाप्त हो गया था । नेमिचक्र प्रयाग के पास कौशाम्बी में जा बसे थे जो बाद में बुद्ध का तीर्थ स्थान बन गया । कौशाम्बी यमुना के तट पर स्थित है ।
सम्राट भरत अपनें पुत्रों में से किसी को अपना उत्तराधिकारी नही बनाया था क्योंकि उन्हें अपनें पुत्रों में से कोई भी योग्य नहीं दिख रहा था । अपनी प्रजा में से किसी एक सुयोग्य पुत्र को अपना पुत्र बना उसे हस्तिनापुर सम्राट घोषित किये थे । सम्राट भरत की सोच थी कि राजा बंश आधारित न हो कर कर्म एवं योग्यता आधारित होना चाहिए । इस प्रकार भरत भारत वर्ष में प्रजातंत्र की नीव डाली।
सम्राट भरत के बाद 20 वें सम्राट शंतनु हुए जो सम्राट भरत के आदर्श को किसी विवशता के कारण नहीं चला पाए ।
शंतनु को गंगा तट पर गंगा से प्यार हुआ और गंगा - शंतनु से भीष्म पैदा हुए । गंगा शंतनु को छोड़ गई और साथ पुत्र भीष्म को भी ले गई । एक दिन यमुना तट पर केवट पुत्री सत्यवती से मिलन हुआ और प्यार हो गया। सत्यवती के महारानी बनते ही हस्तिनापुर का भविष्य तेजी से पतन की ओर बढ़ने लगा और अंततः महाभारत युद्ध हुआ ।
सम्राट शंतनु का जीवन गंगा और यमुना के मध्य प्रेम प्रसंगों में उलझ कर रह गया था ।
महाभारत युद्ध के उत्पत्ति तत्त्व मोह था । पहला मोह सम्राट धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था और दूसरा अर्जुन का मोह था । अर्जुन को ऐसा दिख रहा था कि इस युद्ध से कुल धर्म और जाति धर्म का अंत हो जाने वाला है और ऐसा हुआ भी । प्रभु सब कुछ देखते हुए और जानते हुए भी अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे , क्योंकि युद्ध तो होना ही था , काल की गति को प्रभु को छोड़ और कौन जान सकता है ?
एक तरफ धृतराष्ट्र के पुत्र मोह के कारण कुरुक्षेत्र में एक ही परिवार , कुल , बंश के लोग ,उनके सगे - संबंधी युवा से बूढ़ों तक सभी एक दूसरे के शत्रु बन कर एक दूसरे को मारने और मरने के लिए आमने सामने खड़े हो कर युद्ध प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । दूसरी तरफ अर्जुन का मोह उन्हें युद्ध में न उतरने के लिए रोक रहा है । महाभारत युद्ध की जितनी तैयारी अर्जुन किये थे , उतनी तैयारी किसी और नें नहीं की थी । अर्जुन देवी - देवताओं जैसे इंद्र , शिव एवं दुर्गा आदि से दिव्यास्त्रों को प्राप्त करने के बाद पूरी तैयारी और इच्छा शक्ति के साथ युद्ध में उतरे थे लेकिन दोनों पक्षों के लोगों को देखते ही मोह में ऐसे डूबे जैसे पानी में पत्थर का टुकड़ा डूब जाता है ।
धृतराष्ट्र का मोह युद्ध को आमंत्रित किया और अर्जुन का मोह युद्ध टालने की युक्ति की खोज कर रहा है , है न मोह के सम्मोहन का तिलस्म !
अब आगे की यात्रा में उतरते हैं ⬇️
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य ,युद्ध प्रारंभ होने के ठीक पहले अर्जुन और प्रभु श्री कृष्ण के मध्य हुए संवाद का ही नाम श्रीमद्भगवद्गीता है।
गीता अध्याय - 1 में अर्जुन के 22 श्लोकों को सुनने के बाद गीता अध्याय - 2 के प्रारम्भ में (श्लोक - 2.2 ) प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ,
" हे अर्जुन ! तुम्हें असमय में यह मोह कैसे हो गया ? "
युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व प्रभु चाहते हैं कि अर्जुन मोह मुक्त हो कर युद्ध करे अन्यथा वह युद्ध हार जायेंगे ।अर्जुन को मोह मुक्त कराने हेतु प्रभु गीता के 700 श्लोकों में 574 श्लोकों के माध्यम से जो ज्ञान देते हैं , वह मोह मुक्ति की औषधि का काम करता है या नहीं , इस विषय पर आप बाद में सोचना , अभी निम्न तालिका को देखें ⬇️
गीता में श्लोकों का विवरण
अर्जुन प्रभु की बातों में चतुरता के साथ युद्ध न करने के उपाय खोजते रहते हैं और प्रभु श्री उनकी अस्थिर बुद्धि को भ्रमित करके स्थिर करना चाहते हैं । महर्षि पतंजलि अपनें योग दर्शन के समाधि पाद में अस्थिर मन को स्थिर करने के 9उपाय बताए हैं जिनका मुख्य आधार अभ्यासऔर वैराग्य है । प्रभु भी गीता अध्याय - 6 में अस्थिर मन को स्थिर करने के लिए अभ्यास - वैराग्य को ही प्रमुख आधार बताते हैं ।
प्रभु कहते हैं , जब मेरे भांति -भांति के वचनों को सुनने के बाद तेरी बुद्धि मुझ पर स्थिर हो जाएगी तब तुम योगारूढ़ अवस्था में होओगे और सत्य को सम्मझ सकोगे ।
प्रभु श्री गीता में आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह ,भय और अहँकार , कर्म , कर्म योग , ज्ञान , ज्ञानयोग , समत्त्वयोग , अभ्यासयोग ,श्रद्धा , स्पृहा , भक्ति ,गुण विभाग और कर्म विभाग जैसे रहस्यों को भी स्पष्ट करते हैं ।
प्रभु श्री गीता में अपनें साकार - निराकार और सगुण - निर्गुण स्वरूपों के संबंध में भी बताते हैं ।
प्रभु श्री अर्जुन को मन शांत रखने की कुछ योग विधियों को भी बताते हैं और अंततः ज्ञान योग के मूल तत्त्व आत्मा एवं ब्रह्म जैसे अव्यक्तातीत विषयों को भी व्यक्त करते हैं
गीता में ऐसा नहीं दिखता कि अर्जुन मोह मुक्त हुए होंगे क्योंकि अंत तक वे प्रश्न करते हैं और प्रश्न उठना अस्थिर बुद्धि का लक्षण है ।
# अगले अंक में अर्जुन का पहला प्रश्न देखें #
~~~ ॐ ~~~
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