मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त
और
अंतःकरण
मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त और अंतःकरण तत्त्वों को श्रीमद्भगवद्गीता , श्रीमद्भगवत पुराण , सांख्य और पतंजलि योग दर्शन के आधार पर यहाँ समझने की कोशिश की जा रही है । मन को 11 वीं इन्द्रिय भी कहा जाता है । गीता : 10.22 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ,
" इंद्रियाणाम् मनः च अस्मि " अर्थात इंद्रियों में
मन मैं हूँ ।
सांख्य दर्शन के मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त और अंतःकरण समीकरण को पतंजलि भी स्वीकारते हैं जो निम्न प्रकार है ⬇️
जब पुरुष प्रकाश के प्रभाव में त्रिगुणी प्रकृति की साम्यावस्था विकृत होती है तब महत् या बुद्धि उत्पन्न होता है । बुद्धि से अहँकार की उत्पत्ति होती है । अहँकार गुण आधारित 03 प्रकार के होते हैं --
सात्त्विक , राजस और तामस । अहँकार से 05 ज्ञान इन्द्रियाँ , 05 कर्म इन्द्रियाँ और मन की उत्पन्न होती हैं । मन , बुद्धि और अहँकार को सामूहिक रूप में एक नाम दिया गया है चित्त ।
मन , बुद्धि और अहँकार को अंतःकरण भी कहते हैं अर्थात चित्त और अंतःकरण एक दूसरे के संबोधन हैं और 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते हैं ।
चित्त जड़ है जो न तो स्वयं को समझता है और न अन्य को लेकिन जब पुरुष की ऊर्जा इसमें बहने लगती है तब यह प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि बन जाता है । चित्त के माध्यम से पुरुष 10 इंद्रियों , 05 तन्मात्र और 05 महाभूतों को समझता है । जिस वस्तु का प्रतिविम्ब चित्त पर उभड़ता है , उसे पुरुष देखता है । इसे ऐसे समझें , पुरुष अँधा होता है जो चित्त के माध्यम से देखता है । चित्त से जुड़ते ही पुरुष चित्ताकार हो जाता है ।
चित्त का स्वामी , पुरुष अपरिवर्तनीय है और चित्त परिवर्तनीय ।
अंतः करण स्वेच्छा से अलग - अलग बिषय ग्रहण करते हैं । मन एवं अहँकार के सहयोग से बुद्धि तीनों कालों के बिषयों पर गहरा चिंतन करती है।
मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी - अपनी वृत्तियों को जानते हैं और इन सभी वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है ।
मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त को विस्तार से समझने के लिए अगले अंकों को देखें ।
~~◆◆ ॐ◆◆~~ अक्टूबर 08
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