Thursday, March 14, 2024

वेदांत दर्शन का ब्रह्म और सांख्य दर्शन का पुरुष


श्रीमद्भगवद्गीता और सांख्य दर्शन 

भाग - 01 > गीता का ब्रह्म और सांख्य का पुरुष

पहले श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न 04 श्लोकों को देखते हैं …

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक : 13.13 - 13.16

सर्वतः पाणि  पादम्  तत् सर्वतः अक्षिशिरोमुखम् ।

सर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति ।। 13.13 ।।

उसके हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान सर्वत्र हैं । वह सबको व्याप्त करके स्थित है ।

सर्वेंद्रिय गुणाभासम्  सर्व इंद्रिय विवर्जितम्  ।

सक्तम्  सर्वभृत्  च एव निर्गुणमृ  गुणभोक्तृ च।। 13.14 ।।

इंद्रिय रहित है लेकिन सभीं इंद्रियों के विषयों को जानने वाला  है । वह आसक्ति रहित हो कर भी सबका धारण - पोषण करने वाला है । वह निर्गुण होते हुए भी गुणों को भोगनेवाला है ।

बहि: अंतः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च । 

सूक्ष्मत्वात् तत्  अविज्ञेयम्  दूरस्थम्  च अंतिके च तत्।।13.15।।

 वह सभिन चर - अचर के अंदर , बाहर  है , वही चर - अचर है और वह सर्वत्र है तथा अति सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है ।

अविभक्तम्  च भूतेषु विभक्तम्  इव च स्थितम् ।

भूतभर्तृ च तत् ज्ञेयम्  ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। 13.16।।

वह अविभक्त होते हुए भी सभीं भूतों में विभक्त सा स्थित है।  वह धारण - पोषण करता है और जानने योग्य है । वह रुद्र रूप में सबका  संहार करता है एवं ब्रह्मा रूप में सबको उत्पन्न करता भी है। ऊपर दिए गए भावार्थ के आधार पर ब्रह्म निर्गुण एवं त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता है । वह इंद्रिय रहित है लेकिन इंद्रियों के विषयों को समझता है । उससे संधि चर - अचर हैं और वही सभीं चर - अचर भी है । 

उसके हाथ , पैर , नेत्र , सिर , मुख और कान सर्वत्र हैं । वह सबको व्याप्त करके स्थित है । सबका जन्म , जीवन और मृत्यु का कारण ब्रह्म है । वह अतिसूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय भी है । 

अब सांख्य दर्शन के पुरुष को समझते हैं ।

संबंधित संख्या कारिकाएँ > 3 ,9 ,10 , 11 , 15 - 22 , 32 , 41 , 42 , 52 - 60 , 62 - 68

सांख्य दर्शन द्वैत्यबादी दर्शन है । सांख्य में पुरुष - प्रकृति दो स्वतंत्र सनातन तत्त्व हैं । पुरुष शुद्ध चेतन एवं निर्गुण तत्त्व है जैसे ब्रह्म है और प्रकृति अचेतन , जड़ और त्रिगुणी तत्त्व है । तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते है । जब प्रकृति का संयोग पुरुष से होता है तब वह विकृत होती है और विकृत होने के फलस्वरूप बुद्धि की उत्पत्ति होती है । बुद्धि से अहंकार तथा अहँकार से 11 इंद्रियों एवं पांच तन्मात्रों की उत्पत्ति होती है । 05 तन्मात्रों से उनके अपने - अपने महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार प्रकृति के 23 त्रिगुणी तत्त्वों में प्रथम तीन तत्त्वों ( बुद्धि + अहंकार + मन ) को चित्त कहते हैं जो प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि है । प्रकृति के 23 तत्त्व जड़ तत्त्व हैं लेकिन पुरुष ऊर्जा की उपस्थिति में ये चेतन जैसा व्यवहार करते हैं । पुरुष सर्वज्ञ तो है लेकिन उसे अपने ज्ञान का कोई अपना अनुभव नहीं । पुरुष अनुभव हेतु प्रकृति से  जुड़ता है और जबतक उसका अनुभव उसे भोग से वैराग्य  में नहीं पहुंचा पाता , वह प्रकृति से मुक्त नहीं हो पाता । प्रकृति के 23 तत्त्वों में से 05 महाभूतों को छोड़ शेष 18 तत्त्वों के समूह को सूक्ष्म या लिंग शरीर कहते हैं । लिंग शरीर तबतक आवागमन में रहता है जबतक पुरुष को कैवल्य नहीं मिल जाता , इस प्रकार प्रकृति के 23 तत्त्व पुरुष के  लिए कैवल्य हेतु हैं । 

भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि , समाधि  में स्व बोध और स्व बोध में कैवल्य जो मोक्ष का द्वार है , की प्राप्ति के साथ चित्ताकार पुरुष अपने मूल स्वरूप  में आ जाता है और विकृति प्रकृति के तत्त्वों का अपनें - अपनें कारणों में लय हो जाता है और विकृत प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था  में आ जाती है जो उसका मूल स्वरूप है । प्रकृति , पुरुष को उसके संसार के अनुभव में अपनें 23 तत्त्वों की मदद से सहयोग करती है।

श्रीमद्भगवद्गीता का ब्रह्म और सांख्य दर्शन का पुरुष दोनों एक तत्त्व के संबोधन हैं जो  निर्गुण , निराकार और शुद्ध चेतन तत्त्व है । सूक्ष्म और निराकार होने के कारण वह स्वत: कुछ करने में असमर्थ होता है जबकि वह सर्वज्ञ होता है । जैसे सांख्य का निर्गुण एवं चेतन पुरुष अचेतन , जड़ एवं त्रिगुणी प्रकृति से संयोग करता है और संसार का अनुभव प्राप्त करता है वैसे गीता का निर्गुण , निराकार एवम चेतन ब्रह्म अपनी जड़ , अचेतन एवं त्रिगुणी माया माध्यम से देह में जीवात्मा के रूप में त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता  होता है । देह में जीवात्मा को छोड़ शेष जो भी है , वह माया है ।

सांख्य और वेदांत दर्शन ( श्रीमद्भगवद्गीता )  एक ही बात को अलग - अलग ढंग से कह रहे हैं 

~~ ॐ ~~ 


Monday, March 11, 2024

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक 18.61 के संदर्भ में सांख्य दर्शन का सिद्धांत

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेश अर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढ़ानि मायया।। गीता - 18.61

भावार्थ >हे अर्जुन! ईश्वर सभीं प्राणियों के हृदय में स्थित है और जैसे एक यंत्र को उसका चालक चलाता है वैसे ईश्वर सभीं प्राणियों को अपनी माया माध्यम से भ्रमण करा रहा है “।

यहां श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय : 7 श्लोक : 14 +15 के आधार पर श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक जी 18.61 में दिए गए माया को समझते हैं । 

यहां प्रभु श्री कृष्ण का रहे हैं , “ माया मोहित मनुष्य आसुर स्वभाव वाला होता है और माया मुक्त मनुष्य संसार बंधनों से मुक्त हो जाता है ।

कुछ इसी तरह सांख्य दर्शन में भी कहा गया है जो निम्न प्रकार है …

 “ प्रकृति - पुरुष संयोग से सभीं भूत हैं । प्रकृति त्रिगुणी , प्रसवधर्मी , अचेतन एवं जड़ है । पुरुष निर्गुण एवं शुद्ध चेतन है । प्रकृति और पुरुष दोनों स्वतंत्र एवं सनातन हैं । पुरुष की ऊर्जा से प्रकृति की तीन गुणों की साम्यावस्था विकृत होती है जिसके फलस्वरूप बुद्धि , अहंकार , मन , 10 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत उत्पन्न होते हैं जिनके दृष्टि की निष्पत्ति हुई है । इन 23 तत्त्वों में से बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को चित्त कहते हैं । पुरुष है तो सर्वज्ञ लेकिन उसे अपनें ज्ञान के आधार पर अनुभव नहीं अतः वह अनुभव प्राप्त करने के लिए प्रकृति निर्मित 23 तत्त्वों में से चित्त केंद्रित हो कर जीव के शरीर माध्यम से संसार का अनुभव करता है । प्रकृति के 23 तत्त्व पुरुष की मदद करते हैं । पुरुष के इस अनुभव से जब उसे वैराग्य हो जाता है तब वह  अंततः कैवल्य प्राप्ति से मोक्ष प्राप्त करता है । पुरुष के कैवल्य प्राप्ति के साथ प्रकृति भी अपनें मूल स्वरूप में आ जाती है अर्थात उसके सभीं तत्त्व उसमें लय हो जाते हैं और वह तीन गुणों की साम्यावस्था में आ  कर निष्क्रिय हो जाती है ।

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक : 18.61 के संदर्भ में सांख्य दर्शन का सिद्धांत आपको कैसा लगा ? 

~~ ॐ ~~

Thursday, March 7, 2024

भारतीय दर्शनों में शब्द क्या है ?

भारतीय दर्शनों में शब्द क्या है ? 

1- शब्द के संबंध में John Bible कहता है , “ In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God “ ।

अर्थात

सृष्टि से पहले जब दृश्य - द्रष्टा नहीं थे तब जो था वह शब्द था । वह शब्द प्रभु के साथ था और वह शब्द ही प्रभु था । 

‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा गया है । श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है , “ जब न दृश्य था न दृष्टा , तब जो था ,  वह ब्रह्म है । ब्रह्म स्वतः दो भागों में विभक्त हो गया , एक भाग को त्रिगुणी माया कहते हैं और दूसरे भाग को पुरुष जो निर्गुण है । शब्द के संबंध में निम्न कुछ और संदर्भों को देखते हैं ….

 2 - श्रीमद्भागवत पुराण 3.5 - 3.10  में विदुर एवं ऋषि मैत्रेय वार्ता के अंतर्गत सृष्टि - निष्पत्ति संदर्भ में ऋषि मैत्रेय कहते हैं ,

 “ दृष्टा - दृश्य का अनुसंधान करता प्रभु की त्रिगुणी माया है जो कारण - कार्य रूपा है “ । 

काल की प्रेणना से अव्यक्त माया से महत्तत्त्व की निष्पति हुई । महत्  से तीन प्रकार के अहंकरो की निष्पति हुई । सात्त्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति हुई , राजस अहंकार से 10 इंद्रियों की उत्पत्ति हुई और तामस अहंकार से शब्द तन्मात्र की उत्पत्ति हुई है । शब्द से आकाश महाभूत की उत्पत्ति हुई । आकाश से आत्मा का बोध होता है। 

3 - श्रीमद्भागत पुराण 3.26 में कपिल कहते हैं , तामस अहँकार के विकृत होने से शब्द तन्मात्र की उत्पत्ति हुई । 

शब्द से आकाश तथा शब्द का ज्ञान कराने वाली श्रोत इंद्रियों की उत्पन्न हुई । आकाश , प्राण , इन्द्रिय और मन का आश्रय है । यह सबके अंदर - बाहर सर्वत्र है ।

4 - श्रीमद्भागवत पुराण 11.24 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं …

तामस अहंकार के विकृत होने से पांच तन्मात्रो की उत्पत्ति हुई और उनसे पांच महाभूतों की उत्पत्ति हुई है । 

शब्द से आकाश की उत्पत्ति हुई है। 

5 - सांख्य दर्शन और पतंजलि योग दर्शन कहते हैं ,

  तामस अहंकार से शब्द तन्मात्र की निष्पत्ति हुई और शब्द से आकाश महाभूत की उत्पत्ति हुई “।

6 - श्रीमद्भागवत पुराण 2.4 -2.6 ब्रह्मा नारद वार्ता में ब्रह्मा जी कहते हैं  , “ तामस अहंकार में विकार होने से  आकाश की उत्पत्ति हुई । आकाश का गुण और तन्मात्र शब्द है । शब्द से द्रष्टा और दृश्य का बोध होता है “ ।

ऊपर 06 संदर्भों में संदर्भ - 2 , 3 , 4 और 5 में तामस अहंकार से शब्द की निष्पत्ति बताई गई है और शब्द से आकाश की उत्पति की बात कही गई है जबकि संदर्भ - 6 में ब्रह्मा द्वारा आकाश से शब्द की उत्पत्ति बताई गई है। 

~~ ॐ ~~

Saturday, February 17, 2024

पतंजलि योग सूत्र में धारणा से मोक्ष तक की योग यात्रा


पतंजलि योग सूत्र दर्शन में संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात और धर्ममेघ समाधियां एवं कैवल्य - मोक्ष  रहस्य 

किसी सात्विक आलंबन से चित्त बाध कर रखने का नियमित और निरंतर अभ्यास चित्त का उस आलंबन से जुड़े रहने का अभ्यासी बना देता है । लंबे समय तक आलंबन पर चित्त के जुड़े रहने के अभ्यास से ध्यान की सिद्धि मिलती है । ध्यान सिद्धि से विषय वितृष्णा का भाव गहराने लगता है ।  जब उसी आलंबन पर लंबे समय तक ध्यान स्थिर रहने लगता है तब संप्रज्ञात समाधि मिलती है ।मूलतः संप्रज्ञात  समाधि लंबे समय तक ध्यान में रहने का परिणाम है। संप्रज्ञात समाधि में आलंबन का स्वरूप सूक्ष्म हो गया होता है , केवल अर्थ मात्र प्रकाशित ( निर्भासित) ,होता रहता है । जैस - जैसे संप्रज्ञात समाधि सघन होती जाती है और धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि की सिद्धि एक साथ एक एक ही समय एक ही आसन में योगारूढ़ योगी को मिलने लगती है तब इसे संयम कहते हैं । इस योगाभ्यास का निरंतर अभ्यास करते रहने से संयम की सिद्धि मिलती है जिसके फलस्वरूप सिद्धियां मिलती हैं । जिस विषय पर संयम सिद्धि की जाती है , उस विषय से संबंधित सिद्धि मिलती है । पतंजलि योग दर्शन विभूति पाद में ऐसी 45 सिद्धियों की चर्चा की गई है। जैसे - जैसे साधना आगे बढ़ती जाती है ,  बुद्धि ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है अर्थात सत्य से भर जाती है । चित्त राजस और तामस गुणों से मुक्त हो जाता है केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का संचार होता रहता है । यहां ध्यान में रखना होगा कि चित्त त्रिगुणी होता है क्योंकि यह  त्रिगुणी प्रकृति का कार्य है । अब त्रिगुणी न रह कर  केवल एक सात्त्विक गुणी रह जाता है । 

ऋतंभरा प्रज्ञा से प्राप्त विवेक ज्ञान से प्रकाशित चित्त से पिछले संस्कार धुल जाते हैं लेकिन विवेक ज्ञान से नया सत् आधारित संस्कार निर्मित हो जाता है । विवेक ज्ञान पिछले श्रुति - अनुमान आधारित ज्ञान से ( वह ज्ञान जो शास्त्र आदि एवं अध्यात्मिक आचार्यों से मिलता है ) भिन्न होता है । समाधिष्ठ अवस्था में  चित्त कर्म एवं कर्म वासनाओं से मुक्त हो जाता है लेकिन जैसे ही समाधि टूटती है पिछले संस्कार और कर्म वासनाएं सक्रिय हो जाती हैं , फलस्वरूप समाधि टूटते ही योगी कस्तूरी मृग जैसा हो उठता है , अपनें कस्तूरी(समाधि )  की तलाश में बेचैन हो उठता है और वह पुनः उसी समाथिष्ठ अवस्था में लौटना चाहता है ।  जब योगी संयम सिद्धि से मिली सिद्धियों से विचलित नहीं होता तब योग यात्रा आगे चल कर असंप्रज्ञात समाधि में बदल जाती है जहां धारणा - ध्यान का स्थूल आलंबन का सूक्ष्म प्रकाशित स्वरूप का भी क्षय हो जाता है । अब बिना आलंबन , बिना कारण , अपने - आप असंप्रज्ञात  समाधि घटित होने लगती है और योगी विवेक ख्याति में होता है।

असंप्रज्ञात समाधि का निरंतर योगाभ्यास करते रहने से आगे चल कर धर्ममेघ समाधि घटित होती है । यहां विवेक ज्ञान से निर्मित संस्कार का भी क्षय हो जाता है और प्राप्त विभूतियों से भी वैराग्य हो जाता है । धर्ममेघ  समाधि कैवल्य का द्वार होती है । कैवल्य में ज्ञान अनंत हो जाता है , ज्ञेय अल्प हो जाता है , पुरुषार्थ शून्य हो जाता है और योगी गुणातीत होता है। कैवल्य कैवल्यावस्था में योगी औरों के लिए होता है लेकिन अपनें लिए वह नहीं होता , ऐसा प्रकृति लय और विदेह योगी अपनें स्थूल शरीर त्याग के दृष्टा रूप में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाता है जिसे मोक्ष कहते हैं । 

~~ ॐ ~~ 

Monday, February 12, 2024

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में चित्त एकाग्रता

पतंजलि योग सूत्र दर्शन चित्त एकाग्रता क्या है ?

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन में पुरुष प्रकाश से तीन गुणों की साम्यावस्था युक्त मूल प्रकृति विकृत हो जाती है (  इसकी साम्यावस्था खंडित हो जाती है ) और यह निष्क्रिय से सक्रिय हो उठती है , जिसके फलस्वरूप महत् (बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति  है । बुद्धि से अहंकार और अहंकार से मन सहित शेष 10 इंद्रियों एवं 5 तन्मात्रो तथा तन्मात्रो से 5 महाभूतो की निष्पत्ति है । बुद्धि अहंकार और मन को चित्त कहते हैं जो  मूलतः जड़ और त्रिगुणी है लेकिन पुरुष प्रभाव में यह सक्रिय एवं चेतन जैसा व्यवहार करता है । 

चित्त के दो धर्म हैं ; व्युत्थान और निरोधचित्त की चंचलता व्युत्थान धर्म के कारण है और चित्त की एकाग्रता , निरोध धर्म की पहचान है । पतंजलि योग दर्शन में अष्टांग योग साधना से बहिर्मुखी चित्त,अंतः मुखी बन जाता है अर्थात इसका रुख परिधि की ओर से केंद्र की ओर हो जाता है । यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और सबीज ( संप्रज्ञात ) समाधि , अष्टांगयोग के 08 अंग हैं । इन 08 अंगों में प्रारंभिक 05 अंगों को बाह्य अंग और आखिरी तीन अंगों को अंतरंग कहते हैं । चित्त का व्युत्थान धर्म से निरोध धर्म पर स्थिर हो जाना , चित्त एकाग्रता है और यही धारणा एवं ध्यान की सिद्धि का फल भी है । संपूर्ण ब्रह्मांड में को भी है वह त्रिगुणी है केवल पुरुष को छोड़ कर । हमारे देह में चित्त केंद्रित पुरुष को छोड़ शेष सब त्रिगुणी प्रकृति है । हमारी उत्पति 25 तत्त्वों ( प्रकृति , पुरुष , अहंकार , 11 इंद्रियां , 5 तन्मात्र और 5 महाभूत) के संयोग से हुई है । इन 25 तत्त्वों में से 24 तत्त्व त्रिगुणी एवं जड़ हैं केवल पुरुष तत्त्व निर्गुणी एवं चेतन है । 

चित्त केंद्रित पुरुष चित्त के माध्यम से संसार को देखता है और भोगता है । पुरुष करता और सुख - दुःख का भोक्ता भी है और प्रकृति के 23 तत्त्व इसकी मदद करते हैं । 

सात्त्विक आलंबन पर चित्त को स्थिर रखने का निरंतर बिना किसी रुकावट किए जाने वाले अभ्यास , चित्त को धीरे - धीरे राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों एवं इनसे निर्मित संस्कारों से मुक्त करने लगता है  । जैसे - जैसे यह अभ्यास दृढ़ होता जाता है , चित्त का व्युत्थान धर्म दबने लगता है और निरोध धर्म ऊपर उठने लगता है , फलस्वरूप चित्त में वितृष्णा का भाव भरने लगता है । 

सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता का अभ्यास चित्त में सात्त्विक प्रवृत्ति उत्पन्न करता है और चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष , अंतर्मुखी रहने लगता है। जब सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता अभ्यास देश और काल से अप्रभावित हो जाता है तब उस आलंबन का स्वरूप केवल अर्थ मात्र रह जाता है और उसी पर चित्त शून्य हो जाता है । इस अवस्था सबीज या संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । संप्रज्ञात समाधि का बार - बार घटित होते रहने  पिछले संस्कार धुल जाते हैं लेकिन नया सात्त्विक संस्कार निर्मित हो जाता है ।  चित्त एकाग्रता की सिद्धि को ही धारणा एवं ध्यान की सिद्धि भीं कहते हैं । चित्त को सात्त्विक आलंबन से बाध देना , धारणा है , धारणा में  देर तक बने रहना ध्यान है ।  धारणा , ध्यान और समाधि का एक साथ घटित होना संयम कहलाता हैं।   संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती है ( पतंजलि विभूति पाद सूत्र : 16  - 49 अर्थात 34 सूत्रों में  45 सिद्धियां बताती गई हैं  )। सिद्धियां समाधि से कैवल्य की यात्रा में रुकावट उत्पन्न करती हैं । जोनसिद्धियों के आकर्षण से बच जाता है वह आगे की योग यात्रा कर पाता है । 

~~ शेष अगले अंक में ~~


Wednesday, February 7, 2024

सांख्य एवं पतंजलि योगसूत्र दर्शनों में प्रकृति संयोग सिद्धांत के आधार पर मनुष्य की स्थिति

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन 

के आधार पर स्वयं को समझते हैं …….

  सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन के अनुसार पुरुष शुद्ध चेतन , स्वतंत्र , निर्गुण और  सनातन तत्त्व है । प्रकृति जड़ , स्वतंत्र , सनातन और त्रिगुणी तत्त्व है । तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते हैं । पुरुष और प्रकृति अति सूक्ष्म तत्त्व हैं । 

मूल प्रकृति , पुरुष से जुड़ते ही  विकृत हो जाती है और फलस्वरूप बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , पांच तन्मात्र और पांच महाभूतों के रूप में 23 तत्त्वों की निष्पत्ति होती हैं । इन 23 तत्त्वों में से प्रथम 03 तत्त्व - बुद्धि , अहंकार एवं मन को चित्त कहते हैं । मूल प्रकृति के जड़ और त्रिगुणी होने के कारण उसके 23 तत्त्व भी मूलतः जड़ एवं त्रिगुणी होते हैं ।

चित्त को कर्माशय भी कहते हैं । चित्त के अंग मन में सृष्टि प्रारंभ से वर्तमान तक के सभी किए गए कर्मों के फलों के बीज सूक्ष्म रूप में संचित रहते हैं । वर्तमान में इन कर्मों के फलों को मनुष्य के चित्त में स्थित पुरुष  सुख /दुःख रूप में भोगता रहता है ।  हम ऊपर व्यक्त  25 तत्त्वों के समूह हैं जिनमें 24 तत्त्व मूलतः जड़ और त्रिगुणी हैं केवल चित्त केंद्रित पुरुष चेतन एवं निर्गुणी हैं।  इसे ऐसे भी समझा जा सकता है - मानो चेतन एवं निर्गुणी पुरुष , प्रकृति सहित उसके 23 जड़ एवं त्रिगुणी तत्त्वोंसे निर्मित पिजड़े में कैद है । पुरुष प्रकृति संयोग के साथ चेतन पुरुष चित्ताकार हो जाता है और प्रकृति से 23 तत्त्वीं के माध्यम से संसार का अनुभव करने लगता है । 

ऊपर व्यक्त सिद्धांत सांख्य दर्शन का मूल सिद्धांत है । महर्षि पतंजलि अपनें योग सूत्र दर्शन में  195 सूत्रों के माध्यम से प्रकृति रूपी पिजड़े में कैद चेतन पुरुष को मुक्त कराने का विज्ञान देते हैं । जो इस योग सूत्र दर्शन में व्यक्त विज्ञान का अपनें जीवन में निरंतर अभ्यास करता रहता है , उसे वैराग्य के माध्यम से समाधि घटित होती है जिनसे उसे अपनें मूल स्वरूप का बोध होने लगता है और वह प्रकृति से मुक्त हो जाता है । जब पुरुष को स्व बोध हो जाता है और वह कैवल्य प्रवेश कर जाता  है तब विकृत हुई प्रकृति

 ज्ञान -अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य -  राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य इन 08 भावों में से ज्ञान को छोड़ शेष 07 भावों से मुक्त हो जाती है और ज्ञान माध्यम से अपनें तीन गुणों की साम्यावस्था में लौट आती है । 

पुरुषार्थ का शून्य हो जाना तथा गुणों का प्रतिप्रसव होना , कैवल्य है ।

ऊपर सांख्य दर्शन के प्रारंभिक 68 कारिकाओं और पतंजलि योग सूत्र दर्शन के 195 सूत्रों के आधार पर प्रकृति -पुरुष एवं सृष्टि निष्पत्ति के सार को व्यक्त किया गया ।

~~~ ॐ ~~

Monday, February 5, 2024

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में 14 योग बाधाएं



पतंजलि योग दर्शन में …..

सात्त्विक आलंबन पर एकाग्रता सिद्धि से 14 प्रकार की  योग साधना की बाधाओं से मुक्ति मिलती है   , कैसे ? देखें  यहां ⤵️

समाधि पाद सूत्र : 30 - 33

समाधि पाद सूत्र : 32

“ तत् प्रतिशोध अर्थम् एक तत्त्व अभ्यास: “

यहां तत् सूत्र 30 और सूत्र 31 में बताई गई 14 बाधाओं को संबोधित कर रहा है ।

सूत्र - 32 के माध्यम से ऋषि कह रहे हैं , एक तत्त्व अभ्यास से बाधाओं का नाश होता है । एक तत्त्व अर्थात एकाग्रता ।

एकाग्रता क्या है ?

क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और नीरू - चित्त की  05 भूमियों में चौथी भूमि एकाग्रता है ।चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की  यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और  समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः इन्हें ठीक से समझना होगा  ।

1-  क्षिप्ति  : चित्त की यह भूमि योगमें एक बड़ी रुकावट

 है । विचारों का तीव्र गति से बदलते रहना , चित्त की क्षिप्त अवस्था होती है । यह अवस्था तामस गुण प्रधान होती है शेष दो गुण दबे हुए रहते हैं ।

2 - मूढ़ : मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है ।  यह अवस्था राजस गुण प्रधान अवस्था होती है जिसमें ज्ञान - अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य - राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य जैसे 08 भावों से चित्त बधा रहता है । आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , भय आदि जैसी रस्सियों से चित्त जकड़ा हुआ होता है ।

3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है  पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है। इस प्रकार रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चित्त की  चंचलता अवरोध उत्पन्न करती रहती है लेकिन इस अवस्था में भी कभीं - कभीं सम्प्रज्ञात समाधि लग जाया करती है । 

4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता है । एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता  है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना होता रहता है।

5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है जो समाधि का द्वार है । जब सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है तब चित्त निरु भूमि में होता  है । सम्प्रज्ञात समाधि आलंबन आधारित होती है और असम्प्रज्ञात समाधि आलंबन मुक्त समाधि होती है । असम्प्रज्ञात समाधि को ही निर्विकल्प या निर्बीज समाधि भी कहते हैं ।  

समाधिपाद सूत्र 33 

 बाधा मुक्त योगाभ्यास बनाए रखने के लिए निम्न का अभ्यास करते रहना चाहिए ….

1 - सुखी ब्यक्ति से मैत्री रखें …

2 - दुखीके साथ करुणा का भाव रखें ….

 3 - पुण्य आत्माओं की संगति करें ( मुदिता ) ।

4 -  पापियों  से उपेक्षा का भाव रखें । 

अब 14 प्रकार की बाधाओं से परिचय करते हैं ….

समाधिपाद सूत्र : 30 - 31 

1 - व्याधि > व्याधि का तात्पर्य है , कष्ट , रोग और असामान्य स्थिति को शारीरिक एवम मानसिक हो सकती है ।

2 - अकर्मण्यता > साधना करने में अरुचि का होना ।

 3 - संशय > साधना के प्रति संदेह का बने रहना

4 - प्रमाद > प्रमाद मानसिक रोग है जिसमें मन - बुद्धि का संतुलन बिगड़ जाता है और इस कारण जो होता है उसमें मद की ऊर्जा होती है । बुद्ध प्रमाद को बड़ी बाधा मानते हैं ।

  5 - आलस्य > आलस्य तामस गुण का तत्त्व है जिससे नकारात्मक ऊर्जा मिलती है और जो हो रहा होता है , वह पूरा नहीं हो पाता या उसकी गुणवत्ता थीक नहीं होती । 

व्याधि > शारीरिक - मानसिक व्याधि। व्याधि का तात्पर्य है , कष्ट , रोग और असामान्य स्थिति ।

2 - अकर्मण्यता > साधना करने में अरुचि का होना। 

3 - संशय > साधना के प्रति संदेह का बने रहना

4 - प्रमाद > प्रमाद मानसिक रोग है जिसमें मन - बुद्धि का संतुलन बिगड़ जाता है और इस कारण जो होता है उसमें मद की ऊर्जा होती है । बुद्ध प्रमाद को बड़ी बाधा मानते हैं।

  5 - आलस्य > आलस्य तामस गुण का तत्त्व है जिससे नकारात्मक ऊर्जा मिलती है और जो हो रहा होता है , वह पूरा नहीं हो पाता या उसकी गुणवत्ता थीक नहीं होती ।

 6 - अविरति > वैराग्य का अभाव ।

 7 - भ्रम > दृढ संदेह

8 - अलब्ध चित्त भूमिकत्व

 ( चित्त का उच्च भूमियों पर न पहुँच पाना ) 

9 - साधना की कुछ उच्च भूमियों पर चित्त का देर तक स्थिर न होना 

10 - दुःख > दुःख शारीरिक और मानसिक हो सकता है

 11 - बुरे भाव से मिलने वाले दुःख

12 - अंगों में कंपन का होना

13 - श्वास लेने में कठिनाई का होना।

14 - श्वास - प्रश्वास प्रक्रिया का सामान्य न होना

।।।। ॐ ।।।