Sunday, April 16, 2023

कुंडलिनी जागरण


कुंडलिनी ,  07चक्र और दो ब्रह्मरंध्र 

कर्म बंधनों ( आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय और आलस्य रूपिकर्म बंधनों से बधे हुए सामान्य गृहस्थ का  दिन धन इकट्ठा करने की हाय - हाय में और रात्रि स्त्री प्रसंग में गुजरती है । ऐसे भोग आसक्त गृहस्थ का चित्त  सात चक्रों में से  मूलाधार , स्वाधिष्ठान और मणिपुर के मध्य घूमती रहता है । भोग आसक्त गृहस्थ के विपरीत भक्ति में डूबे भक्त का चित्त , हृदय ( अनहत ) चक्र एवं विशुद्ध चक्र के मध्य विचरण करता है । सिद्ध और परमहंस का चित्त आज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार के मध्य विचारित करता है और कभीं - कहीं ऐसे योगी अपने चित्त को विशुद्ध चक्र पर भी ला कर शिष्यों की साधनाओं को आगे बढ़ाने हेतु ईश्वरानुभूति को व्यक्त भी करते हैं ।

 योग साधना में  जिस साधक का गुणातीत चित्त 21 दिनों तक निर्विज समाधि अवस्था में सहस्त्रार पर स्थिर हो गया होता है , वह योगी कैवल्य प्राप्ति के साथ स्वेच्छा से  देह का त्याग भी कर जाते हैं । 

जब योगाभ्यास  सतत निरंतर बिना किसी रुकावट दिन प्रतिदिन ऊर्ध्व मुखी बना रहता है देह में स्थित प्राण महाप्राणमें बदलने लगता है ।  योग साधनके संदर्भ में प्राण और महाप्राण को समझना बहुत आवश्यक भी

 है । 

स्पाइनल कॉर्ड के निचले छोर पर स्थित तथा सहस्त्रार पर स्थित ब्रह्म रंध्रों का रहस्य ⤵️

स्पाइनल कॉर्ड के सबसे निचले छोर पर स्थित ब्रह्म रंध्र कुंडलिनी ऊर्जा को स्पाइनल कॉर्ड में अंदर यात्रा करने में सहयोग करता है । सहस्त्रार चक्र पर स्थित दूसरा ब्रह्म रंध्र से चेतन ऊर्जा का संतुलित प्रवाह बना रहता

 है । मनुष्य के देह में स्थित न्यूरोलॉजिकल  माइंड कॉस्मिक माइंड से जुड़ा होता है । निचले ब्रह्म रंध्र से सक्रिय कुंडलिनी ऊपर की यात्रा करती हैं और सबसे ऊपर स्थित ब्रह्म रंध्र पर स्थित शिव कुंडलिनी शक्ति से मिल जाते हैं जिसके फलस्वरूप योगी की चेतना फैल जाती है , ज्ञेय अल्प और ज्ञान अनंत हो जाता है ।

चक्र - कुंडलिनी साधना

कुण्डलिनी 

प्रभुसे एकत्व स्थापित करने की जिज्ञासा , मनुष्य को साधना मार्ग पर ले आती है । जैसे - जैसे साधना गहराती जाती है , वैसे - वैसे रीढ़की हड्डीके सबसे निचले नोकीले भागके क्षेत्रमें स्थित कुण्डलिनी सक्रीय होने लगती है । साढ़े तीन कुण्डल की कुण्डलिनीका एक सिरा रीढ़की हड्डीके नोकीले छोर पर स्थित ब्रह्म रंध्रमें प्रवेश करता है  और कुण्डलिनी की ऊर्जा ऊपरकी ओर चलने लगती है । साधकको इस स्थितिमें ऐसा लगता है जैसे उसके रीढ़की  हड्डीके मध्य कोई चीज़  चल रही हो । साधनामें ऐसी घटना , एक शुभ लक्षण

 है । जब विभिन्न चक्रोंसे होती हुई कुण्डलिनी आज्ञा चक्र  पर पहुँचती है तब उस साधकको सिद्धियाँ मिलती हैं । इस प्रकार जब साधना और गहराती है तब कुण्डलिनी आज्ञाचक्र से दूसरे ब्रह्म रंध्रकी ओर चल पड़ती है । दूसरा ब्रह्म रंध्र  सिरके उस क्षेत्रमें होता है जहाँ शिखा रखी जाती है ।  कुण्डलिनीकी  ब्रह्म रंध्र - 1 से ब्रह्म  रंध्र - 2 की यात्रामें प्राण ,महाप्राणमें रूपांतरित होता है , और निर्विकल्प समाधि माध्यमसे परमसे एकत्व  स्थापित   हो जाता है।

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03 नाड़ियाँ और कुंडलिनी 

कुछ ज्ञान संदर्भ ⤵️

शिव संहितामें 3,50,000 नाड़ियोंकी बात बताई गयी है , जिनमे 14 को प्रमुख बताया गया है जबकि इडा , पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी तंत्रकी मूल नाड़ियाँ हैं । 

1- इडा 

शरीरके बायीं तरफ spinal cord के सबसे निचले नोकीले छोर पर स्थित मूलाधार चक्र से स्पाइनल कार्ड के समानांतर ऊपर की ओर जाती है। 

2 - पिंगला 

नाड़ी शरीरके दाहिनी ओर  स्वाधिष्ठान चक्र (sex  center से spinal cord के समानांतर ऊपर की ओर जाती हैं।

3 - सुषुम्ना 

spinal cord के अंदर केंद्र में नीचे से ऊपर की ओर जाती है ।

तीनो नाड़ियाँ आज्ञा चक्र पर जा कर मिलती हैं  और वहाँ से एक बन कर सहस्त्रार  चक्र में विनीत हो जाती  हैं

औरा रहस्य 

नीचे स्लाइड में औरा संबंधित 04 फोटोज दी गई हैं ।

फोटो नंबर : 01

यहां दो फोटोज एक साथ दी गई हैं जिनमें यह दिखाया गया है कि जब ध्यान की गहरी अवस्था में निर्मल विवेक की धारा अंतःकरण में बहने लगती है तब मनुष्य के शरीर से सतरंगी सूक्ष्म प्रकाश की किरणें निकलने लगती हैं ।

अमेरिका में ध्यान की गहराई में डूबे योगी के अंदर की conscious energy को मापने का प्रयोग किया गया । योगी लगभग जब समाधि की अवस्था में आने को होता है तब vibration of subtle conscious energy ' frequency was found as 200,000 cycles /second where as this. Frequency in ordinary state was found as 350 cycles )seconds .

फोटो नंबर : 02

A Kirlian photo showing an artistic representation of a man in the Lotus position , surrounded by a blue glow .


फोटो नंबर : 03

Representation of a human Aura , after a diagram by Walter John Kilmer ( 1847 - 1920 ) .

In 1939 , Semiyon Davidovich Kirlian discovered that by placing an object or body part directly on photographic paper , and then passing a high voltage across the object , he would obtain the image of a glowing countour surrounding the object . This process came to be known as Kirlian Photography .


आभा मंडल 

आभा मंडल 07 चक्रों से नियंत्रित होते हैं ।

मूलाधार का रंग लाल होता है । इसके असामान्य होने पर रीढ़ की हड्डी में दर्द रक्त एवं कोशिकाओं पर इसका प्रभाव होता है ।

स्वाधिष्ठान का रंग नारंगी है । इसका संबंध प्रजनन अंगों से है । इसके कारण मनुष्य का आचरण और व्यवहार प्रभावित होता है ।

मणिपुर का रंग पीला होता है ।यह बुद्धि और शक्ति को नियंत्रित करता है । इसके असामान्य यावहार से मानसिक बीमारियां लग जाती हैं ।

अनाहत का रंग हरा है । इसके असामान्य होने पर भाग्य साथ नहीं देता ।धनाभाव , दमा , यक्ष्मा , फेफड़ों संबंधित बीमारियों  से जूझना पड़ता है ।

विशुद्ध हल्का नीले रंगका है । टानसिल और आवाज संबंधित विकार आते हैं , जब यह सही कार्य नहीं करता।

सत्पुरुषों एवं सिद्धों का आभा मंडल 30 - 50 मीटर के क्षेत्र में फैला होता है।

आभा मंडल सत चक्रों के रंगीन का शरीर से निकलता हुआ और होता है जिसको समझने वाला उस व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं को समझ सकता है।

Friday, April 7, 2023

चक्र साधना और विज्ञान भैरवी

चक्र और तंत्र साधना 

जब कुंडलिनी मूलाधार से मेरुदंड के अंदर केंद्र से ऊपर उठ कर शेष चार चक्रों (स्वाधिष्ठान, मणिपुर , अनाहत और आज्ञा ) से होती हुई  सिर के सर्वोच्च भाग में स्थित सहस्त्रात चक्र में पहुंचती है तब कुंडलिनी रूपी शक्ति का शिव के एकत्व स्थापित हो जाता है और इस अनुभूति का बोध  तंत्र साधना में चक्रों की साधना के माध्यम से संभव होता है । 

सिर के सबसे ऊपर का भाग क्या है ?

John Chrew Accles ( 1903 - 1997) . He received Nobel prize in 1963 . He says , " Consciousness is extra cerebral located within the area called S.M.A.

 ( Supplementary Motor Area ) located within the area where Hindus keep crest .


सात चक्रों से सामान्य परिचय ⤵️


चक्र

परिचय

विशेष 

मूलस्थान 

लम् , शिव , लाल 

हरिद्वार 

अचेतन मन से इसका संबंध है 

स्वाधिष्ठान

वम् , ब्रह्मा , नारंगी , सरस्वती 

कांचीपुरम 

हमारे अस्तित्व के प्रारंभ में गर्भ से सभी जीवन अनुभव और छायाएं जमा रहती हैं।

मणिपुर

अयोध्या , रम् पीला  

तमस गुण प्रधान , पाचन क्रिया नियंत्रण

अनाहत

मथुरा ,  यम् , हल्का नीला , शिव - पार्वती 

चक्र में हमारी चेतना अनंत तक फैल सकती है

विशुद्ध

उज्जैन, हम् , आसमानी 

ईश्वर केंद्रित , भोगी से दूर रहना 

आज्ञा

, नीला - सफेद 

श्वेत शिवलिंग , काशी 

तीन नाड़ियों का संगम , सिद्धियां मिलती हैं

सहस्त्रार 

वैगनी , ॐ , द्वारका

शिव

ज्ञेय शून्य , ज्ञान अनंत 

1 - मूलाधार चक्र

स्पाइनल कॉर्ड के सबसे निचले भाग के क्षेत्र को मूलाधार क्षेत्र कहते हैं । सुषुप्ता अवस्था में कुंडलिनी यहां विश्राम करती रहती है । कुंडलिनी जागृत हो कर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर ऊपर की ओर चल पड़ती 

है । मूलाधार पर स्थित कुंडलिनी शक्ति है और शिव सिर के उच्चतम शिखर पर स्थित सहस्त्रार पर निवास करते हैं । मूलाधार से सहस्त्रार तक की कुंडलिनी शक्ति की यात्रा ही 07 चक्रों की साधना है । कुंडलिनी (शक्ति ) ऊर्जा के रूप में मेरुदंड  के निचले छोर के चारों तरफ  साढ़े तीन कुंडल में शांत सुषुप्ता अवस्था में विश्राम कर रही होती है ।

मूलाधार चक्र में मूल का अर्थ है जड़ और आधार का अर्थ है नींव । यह चक्रों में सबसे पहला चक्र है। इस चक्र का मंत्र लम (LAM) है।

 मूलाधार चक्र पशु और मानव चेतना के मध्य सीमा निर्धारित करता है। इसका संबंध अचेतन मन से है, जहां पिछले जीवनों के कर्म और अनुभव संग्रहीत होते हैं अत: कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र हमारे भावी प्रारब्ध का मार्ग निर्धारित करता है। यह चक्र हमारे व्यक्तित्व के विकास की नींव भी है। हरिद्वार तीर्थ की इस चक्र से तुलना करते हैं ।

मूलाधार चक्र की सकारात्मक उपलब्धियां स्फूर्ति, उत्साह और विकास है। नकारात्मक गुण हैं सुस्ती और निष्क्रियता । इस चक्र का देवता भगवान शिव है । 

2 - स्वाधिष्ठान चक्र

प्रजनन / जननेन्द्रिय क्षेत्र स्वाधिष्ठान चक्र क्षेत्र है जिसे तीर्थों में कांचीपुरम कहते हैं । काम वासना बंधन से मुक्ति मिलने पर यह चक्र सक्रिय होता है । जबतक कुंडलिनी का आगमन यहां नहीं होता , काम का प्रभाव इंद्रियों , मन और बुद्धि तक बना रहता है ।

स्वाधिष्ठान चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना का दूसरा चक्र है। स्व का अर्थ है आत्मा। यह चक्र त्रिकास्थि (पेडू के पिछले भाग की पसली) के निचले छोर में स्थित होता है। इसका मंत्र वम् है।

स्वाधिष्ठान चक्र अवचेतन मन का वह स्थल है जहां हमारे अस्तित्व के प्रारंभ में गर्भ से सभी जीवन अनुभव और छायाएं जमा रहती हैं। स्वाधिष्ठान चक्र की जाग्रति स्पष्टता और व्यक्तित्व में विकास लाती है। चेतन मन और अचेतन ( अवचेतन )  मन को समझते हैं । 

हमारे मन की मुख्यतः दो अवस्थाएं होती हैं ⤵️

 1. चेतन मन और 2. अवचेतन मन।

 दोनों के कई और भी स्तर होते हैं। सम्मोहन के दौरान अवचेतन मन को जागृत किया जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति की शक्ति बढ़ जाती है लेकिन उसका उसे आभास नहीं होता, क्योंकि उस वक्त वह सम्मोहन कर्ता के निर्देशों का ही पालन कर रहा होता है।

1 - चेतन मन : इसे जागृत मन भी मान सकते हैं। चेतन मन में रहकर ही हम दैनिक कार्यों को निपटाते हैं अर्थात खुली आंखों से हम कार्य करते हैं। परंतु कई लोग जागे हुए भी सोए - सोए से रहते हैं , मतलब यह कि जब तक आपके मस्तिष्क में कल्पना, विचार, चिंता, भय आदि चल रहे हैं तो आप पूर्ण चेतन नहीं हैं।

 2 - अवचेतन मन ( sub conscious mind )  : जो मन सपने देख रहा है वह अवचेतन मन है। इसे अर्धचेतन मन भी कहते हैं। गहरी सुषुप्ति अवस्था में भी यह मन जागृत रहता है। विज्ञान के अनुसार जागृत मस्तिष्क के परे मस्तिष्क का हिस्सा अवचेतन मन होता है। हमें इसकी जानकारी नहीं होती। बौद्धिकता और अहंकार के चलते हम उक्त मन की सुनी-अनसुनी कर देते हैं। उक्त मन को साधना ही सम्मोहन है।

सम्मोहन व्यक्ति के मन की वह अवस्था है जिसमें उसका चेतन मन धीरे-धीरे निद्रा की अवस्था में चला जाता है और अर्धचेतन मन सम्मोहन की प्रक्रिया द्वारा निर्धारित कर दिया जाता है। साधारण नींद और सम्मोहन की नींद में अंतर होता है। साधारण नींद में हमारा चेतन मन अपने आप सो जाता है तथा अर्धचेतन मन जागृत हो जाता है। सम्मोहन निद्रा में सम्मोहनकर्ता चेतन मन को सुलाकर अवचेतन को आगे लाता है और उसे सुझाव के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार करता है।

 हमारा अवचेतन मन ( sub conscious mind )  चेतन मन की अपेक्षा अधिक याद रखता है एवं सुझावों को ग्रहण करता है। इसमें हमारी सभी तरह की भूली - बिसरी यादें रहती  हैं।

स्वाधिष्ठान चक्र के तत्त्व हैं - क्रोध, घृणा, वैमनस्य, क्रूरता, अभिलाषा जिनपर साधक को विजय पाना होता है। ये व्यक्ति के विकास में आलस्य, भय, संदेह, प्रतिशोध, ईर्ष्या और लोभ 06 अवरोध उत्पन्न करता है।

स्वाधिष्ठान चक्र का प्रतीक पशु मगरमच्छ है। यह सुस्ती, भावहीनता और खतरे का प्रतीक है जो इस चक्र में छिपे हैं। इस चक्र का अनुरूप तत्त्व जल है , यह भी छुपे हुए खतरे का प्रतीक है।

इस चक्र का देवता ब्रह्मा और सरस्वती हैं।

स्वाधिष्ठान का रंग संतरी है । सूर्योदय का यह रंग उदीयमान चेतना का प्रतीक है। संतरी रंग सक्रियता और शुद्धता का भी रंग है। यह सकारात्मक गुणों का प्रतीक है और इस चक्र में प्रसन्नता, निष्ठा, आत्मविश्वास और ऊर्जा जैसे गुण पैदा होते हैं । मंत्र वम्  है और रंग नारंगी है ।

3 - मणिपुर चक्र 

इस चक्र का क्षेत्र नाभि का क्षेत्र है , इसकी तुलना अयोध्या से की जाती है । मनुष्य पर तामस गुण की वृत्तियों का पूरा प्रभाव रहता है ।


इस चक्र का स्थान स्वाधिष्ठान और अनाहत के मध्य नाभि के चारों तरफ होता है । मणि का अर्थ है  गहना और पर का अर्थ है - स्थान, शहर । मणिपुर चक्र नाभि के पीछे स्थित है। इसका मंत्र है रम्  । जब हमारी चेतना मणिपुर चक्र में पहुंच जाती है तब हम स्वाधिष्ठान के निषेधात्मक पक्षों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मणिपुर चक्र में अनेक बहुमूल्य मणियां हैं जैसे स्पष्टता, आत्मविश्वास, आनन्द, आत्म भरोसा, ज्ञान, बुद्धि और सही निर्णय लेने की योग्यता जैसे गुण।

मणिपुर चक्र का रंग पीला है। मणिपुर का प्रतिनिधित्व करने वाला पशु मेढ़ा (मेष)है। इसका अनुरूप तत्त्व अग्नि है, इसलिए यह 'अग्नि' या 'सूर्य केन्द्र' के नाम से भी जाना जाता है। शरीर में अग्नि तत्त्व सौर मंडल में गर्मी के समान ही प्रकट होता है। मणिपुर चक्र स्फूर्ति का केन्द्र है। यह हमारे स्वास्थ्य को सुदृढ़ और पुष्ट करने के लिए हमारी ऊर्जा नियंत्रित करता है। इस चक्र का प्रभाव एक चुंबक की भांति होता है, जो ब्रह्माण्ड से प्राण को अपनी ओर आकर्षित करता है।

पाचक अग्नि के स्थान के रूप में, यह चक्र अग्न्याशय और पाचक अवयवों की प्रक्रिया को विनियमित करता है। इस केन्द्र में अवरोध कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं, जैसे पाचन में खराबियां, परिसंचारी रोग, मधुमेह और रक्तचाप में उतार-चढ़ाव। तथापि, एक दृढ़ और सक्रिय मणिपुर चक्र अच्छे स्वास्थ्य में बहुत सहायक होता है और बहुत सी बीमारियों को रोकने में हमारी मदद करता है। जब इस चक्र की ऊर्जा निर्बाध प्रवाहित होती है तो प्रभाव एक शक्तिपुंज के समान, निरन्तर स्फूर्ति प्रदान करने वाला होता है - संतुलन और शक्ति बनाए रखता है । मणिपुर चक्र के सक्रिय होने से मनुष्य नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त होता है और उसकी स्फूर्ति में शुद्धता और शक्ति आती है।

इस चक्र के देवता विष्णु और लक्ष्मी हैं। भगवान विष्णु उदीयमान मानव चेतना के प्रतीक हैं, जिनमें पशु चारित्रता बिल्कुल नहीं है। देवी लक्ष्मी प्रतीक है-भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि की, जो भगवान की कृपा और आशीर्वाद से फलती-फूलती है।

मल , मूत्र और नाभि अर्थात मूलाधार , स्वाधिष्ठान और मणिपुर चकों के मध्य सांसारिक कामिनी - कांचन आसक्त लोगों का मन गतिमान रहता है ।


4 - अनाहत ( अनहद ) चक्र 

इस चक्र की तुलना मथुरा से की जाती है । कुंडलिनी यहां आ कर विश्राम करती है । जब कुंडलिनी यहां आती है तब योगी कहने लगता है - यह क्या है ! यह क्या है ! योगी को एक ज्योति दिखने लगती है । अनाहत चक्र सक्रिय होते ही राजस - तामस गुणों की वृत्तियों से योगी मुक्त हो कर सात्त्विक गुण की वृत्तियों के आलंबन के सहारे आगे की योग साधना करता रहता है । चित्त वृत्तियों का शांत होने पर ,स्थिर प्रज्ञता मिलती है जो आगे चल कर गुणातीत बना देती हैं जहां जीभ और तालू के बिना संयोग हृदय से एक अद्भुत ध्वनि निकलती है जिसे अनाहत नाद कहते हैं ( भागवत : 12.6.37 ) । अनाहत चक्र का केंद्र हृदय  है ।

अनाहत नाद का अर्थ शाश्वत ध्वनि ॐ ध्वनि है ।

अनाहत चक्र हृदय के निकट सीने के बीच में स्थित है। इसका मंत्र यम् (YAM)है। अनाहत चक्र का रंग हलका नीला, आकाश का रंग है। इसका समान रूप तत्त्व वायु है। 

अनाहत चक्र आत्मा की पीठ (स्थान) है। यह हृदय के दैवीय गुणों जैसे परमानंद, शांति, सुव्यवस्था, प्रेम, संज्ञान, स्पष्टता, शुद्धता, एकता, अनुकंपा, दयालुता, क्षमाभाव और सुनिश्चिय का प्रतीक है। तथापि, हृदय केन्द्र भावनाओं और मनोभावों का केन्द्र भी है । जब अनाहत चक्र की ऊर्जा आध्यात्मिक चेतना की ओर प्रवाहित होती है, तब हमारी भावनाएं भक्ति, शुद्ध, ईश्वर प्रेम और निष्ठा प्रकट करती है। तथापि यदि हमारी चेतना सांसारिक कामनाओं के क्षेत्र में डूब जाती है, तब हमारी भावनाएं भ्रमित और असंतुलित हो जाती हैं। तब होता यह है कि इच्छा, द्वेष-जलन, उदासीनता और हताशा भाव हमारे ऊपर छा जाते हैं।

अनाहत, ध्वनि (नाद) की पीठ है। इस चक्र पर एकाग्रता व्यक्ति की प्रतिभा को लेखक या कवि के रूप में विकसित कर सकती है। अनाहत चक्र से उदय होने वाली दूसरी शक्ति संकल्प शक्ति है जो इच्छा पूर्ति की शक्ति है। जब आप किसी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं, तब अपने हृदय में इसे एकाग्रचित्त करें। आपका अनाहत चक्र जितना अधिक शुद्ध होगा उतनी ही शीघ्रता से आपकी इच्छा पूरी होगी।

अनाहत चक्र का प्रतीक पशु कुरंग (हिरण) है जो अत्यधिक ध्यान देने और चौकन्नेपन का हमें स्मरण कराता है। इस चक्र के देवता शिव और पार्वती हैं, जो चेतना और प्रकृति के प्रतीक हैं। इस चक्र में दोनों को सुव्यवस्था में एक हो जाना चाहिए।

5 - अवंतिका चक्र या विशुद्ध चक्र 

अवंतिका चक्र की तुलना उज्जैन तीर्थ की जाती 

है । इस चक्र की सक्रियता योगी को ईश्वर केंद्रित बना देता है । ईश्वर के गुणों और भक्ति को छोड़ अन्य किसी विषय पर वह न तो सुन सकता हैं और न ही बोल सकता है । ऐसा योगी प्रज्ञा आलोकित योगी होता है । 

हृदय से कुंडलिनी ऊपर कंठ या विशुद्ध चक्र में पहुंचती है । इस अवस्था में साधक के मन में सात्त्विक गुण की वृत्तियों सक्रिय रहती हैं । ऐसा योगी , भोगियों की संगति से दूर भागता है और ईश्वरानुभूति संबंधित विषयों को छोड़ अन्य किसी विषय पर न तो सुनना चाहता है और न ही बोलना चाहता है ।

6 - आज्ञा चक्र (अजाना )

विशुद्ध चक्र से ऊपर कुंडलिनी आज्ञा चक्र पर पहुंचती है जहां योगी को सिद्धियां मिलती हैं । यहां जो ज्योति दिखती है वह लालटेन के ज्योति जैसी होती है जो एक आवरण में कैद होती  है । पतंजलि योगसूत्र में बताया गया है कि सिद्धियां साधना की आगे की यात्रा में अवरोध उत्पन्न करती हैं । ऐसा योगी जो कुछ सिद्धियां प्राप्त करने के बाद धनोपार्जन या अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए इन सिद्धियां का प्रदर्शन करने लगता है , तब उस योगी की योग की आगे की यात्रा वही रुक जाती है और वह नीचे गिरने लगता है ।

दोनों नेत्रों के मध्य नासिका के केंद्र रेखा पर स्थित ललाट के मध्य क्षेत्र में आज्ञा चक्र होता है जो छठवां चक्र या भूमि है । राजस और तमस गुणों की वृत्तियों के मुक्त होते ही मन  हृदय में केंद्रित हो जाता है ; हृदय अनाहद चक्र है । हृदय में पहुंच कर कुंडलिनी विश्राम करती है । जब कुंडलिनी हृदय में पहुंचती है तब साधक एक ज्योति का दर्शन करता है और कहता है यह क्या है ! , यह क्या है !

इस चक्र की तुलना काशी तीर्थ से की जाती है । इस चक्र के सक्रिय होने पर सिद्धियां मिलती है एडलर कायसी , महान गणितज्ञ रामानुज आदि जैसी निर्मल बुद्धि मिल जाती है । 


आज्ञा चक्र मस्तक के मध्य में, भौंहों के बीच स्थित है। इस कारण इसे "तीसरा नेत्र” भी कहते हैं। आज्ञा चक्र स्पष्टता और बुद्धि का केन्द्र है। यह मानव और दैवी चेतना के मध्य सीमा निर्धारित करता है। यह तीन प्रमुख नाडिय़ों, इडा (चंद्र नाड़ी) पिंगला (सूर्य नाड़ी) और सुषुम्ना (केन्द्रीय, मध्य नाड़ी) के मिलने का स्थान है। जब इन तीनों नाडिय़ों की ऊर्जा यहां मिलती है और आगे उठती है, तब हमें समाधि, सर्वोच्च चेतना प्राप्त होती है। इसका मंत्र है ॐ। आज्ञा चक्र का रंग सफेद है। इसका चिह्न एक श्वेत शिवलिंगम्, सृजनात्मक चेतना का प्रतीक है। इसमें और बाद के सभी चक्रों में कोई पशु चिह्न नहीं है। इस स्तर पर केवल शुद्ध मानव और दैवी गुण होते हैं। इस चक्र के गुण हैं - एकता, शून्य, सत, चित्त और आनंद। 'ज्ञान नेत्र' भीतर खुलता है और हम आत्मा की वास्तविकता देखते हैं - इसलिए 'तीसरा नेत्र' का प्रयोग किया गया है जो भगवान शिव का द्योतक है । यह द्योतक है बुद्धि और ज्ञान का, जो सभी कार्यों में अनुभव किया जा सकता है। उच्चतर, नैतिक विवेक के तर्कयुक्त शक्ति के समक्ष अहंकार आधारित प्रतिभा समर्पण कर चुकी है। तथापि, इस चक्र में एक रुकावट का उल्टा प्रभाव है जो व्यक्ति की परिकल्पना और विवेक की शक्ति को कम करता है, जिसका परिणाम भ्रम होता है।

7 - सहस्त्रार चक्र 

आज्ञा चक्र से कुंडलिनी सहस्त्रार की यात्रा करती है और जब वहां पहुंचती है तब निर्बीज समाधि लगती है । ईश्वर तुल्य योगी आज्ञा चक्र और सहस्त्र के मध्य अपनी ऊर्जा को गतिमान रखता है और यह संभव तब होता है जब वह किसी एक सात्त्विक मैं को पकड़े रहता है जैसे विद्या का मैं ,भक्ति का मैं आदि । ऐसा योगीजन कल्याण हेतु तबतक शरीर में रहता है जबतक वह कोई ऐसा शिष्य नहीं विकसित कर लेता जिसमें अपनी ऊर्जा का शक्तिपात कर सके । जब उसका अनन्य भक्त तैयार हो जाता है तब वह अपनी ऊर्जा उसे दे कर स्वेच्छा से अपनें शरीर को त्याह कर महासमाधि में चला जाता है । ऐसे योगी नाव की भांति होता है जो जन कल्याण हेतु  बार - बार लोगों को  ले कर इस पार से उस पार  पहुंचाता रहता है । 

सिर के सर्वोच्च शिखर पर स्थित है , सहस्त्रार चक्र जो शिव का स्थान है । इस चक्र की तुलना द्वारका से की जाती है । इस चक्र की सक्रियता , योगी को निर्बीज समाधि में पहुंचाती है । यहां शक्ति का शिव से एकत्व स्थापित हो जाता है । 21 दिन समाधि में डूबा योगी स्वेच्छा से  देह त्याग कर जाता है । कुछ ऐसे भी योगी होते हैं जो बुद्धि या भक्ति की डोर पकड़े रहते हैं और आज्ञा चक्र से सहस्रार और सहस्त्रार से आज्ञा चक्र के मध्य अपने मन को चलाते रहते हैं ।  ऐसे योगी जनहित के लिए जीते हैं । ऐसे सिद्ध योगी एक नाव जैसे होते हैं तो साधना में डूबे योगियों को इस पार से उस पार पहुंचाने का काम करते रहते हैं । कुछ योगी ऐसे भी होते हैं जो स्व केंद्रित रह कर ईश्वरीय अलमस्ती में रहना चाहते हैं जैसे त्रयलंग स्वामी।

सहस्रार का अर्थ हजार है अर्थात अनंत, असंख्य।

इस चक्र के संबंध में कुछ बातें प्रारंभ में भी बताई गई

 हैं । सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है। इस पर स्थित ब्रह्म रंध्र को ईश्वर का द्वार या लक्ष किरणों का केन्द्र भी कहते हैं , क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता।अन्य सभी चक्रों की ऊर्जा और विकिरण सहस्रार चक्र के विकिरण में धूमिल हो जाते हैं। सहस्रार चक्र में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति - मेधा शक्ति है। मेधा शक्ति एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क की प्रक्रियाओं जैसे स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करता है। योग अभ्यासों से मेधा शक्ति को सक्रिय और मजबूत किया जा सकता है। सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। सभी नाडिय़ों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यहां अन्तरात्मा शिव की पीठ है। सहस्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है। जिस प्रकार सूर्योदय के साथ ही रात्रि ओझल हो जाती है, उसी प्रकार सहस्रार चक्र के जागरण से अज्ञान धूमिल (नष्ट) हो जाता है।

यह चक्र योग के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है जहां आत्म अनुभूति और ईश्वर की अनुभूति एवं व्यक्ति की आत्मा ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है। जिसे यह उपलब्धि मिल जाती है, वह सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है । सहस्रार चक्र सिद्धि प्राप्त योगी  पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से पूरी तरह स्वतंत्र होता है । ध्यान में योगी निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) सहस्रार चक्र पर पहुंचता है, यहां मन पूरी तरह निश्चल हो जाता है और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक में ही समाविष्ट होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं।

सहस्रार चक्र विस्तृत चेतना का प्रतीक है। इस चक्र के देवता विशुद्ध, सर्वोच्च चेतना के रूप में भगवान शिव है। इसका समान रूप तत्त्व आदितत्त्व, सर्वोच्च, आध्यात्मिक तत्त्व है। मंत्र वही है जैसा पीआज्ञा चक्र के लिए है , मूल जप ॐ।

Sunday, April 2, 2023

सांख्य दर्शन में सृष्टि रचना रहस्य


सृष्टि रचना 

सांख्य दर्शन आधारित 

           स्लाइड - 01🔼


सांख्य दर्शन द्वैत्य वादी दर्शन है । प्रकृति और पुरुष दोनों सनातन है और सूक्ष्म हैं । शुद्ध चेतन पुरुषेक नहीं अनेक हैं जबकि जड़ प्रकृति एक है । प्रकृति पुरुष ऊर्जा ग्रहण करती है फलस्वरूप स्लाइड दर्शित प्रकृति के विकृत होने से बुद्धि की उत्पत्ति होती है । बुद्धि के विकृत होने से 03 अहंकारो की उत्पत्ति होती है । सात्त्विक अहंकार से 11इंद्रियों की उत्पत्ति होती है । 03 अटंहकर और 11 इंद्रियों के समूह को भाव सृष्टि कहते हैं । राजस अहंकार सात्त्विक और तमस अहंकरों को विकृत होने सहयोग देता है । तामस अहंकार के विकृत होने से पञ्च तनमत्रों की उत्पत्ति होती है । तन्मात्रो से उनके अपने - अपनें महाभुतों की उत्पत्ति होती है।

05 तन्मात्र और 05 महाभूतों को लिंग सृष्टि कहते हैं । बिना भाव सृष्टि लिंग सृष्टि का होना संभव नहीं और बिना लिंग सृष्टि के भाव सृष्टि की कल्पना करना भी संभव नहीं ।

बुद्धि , अहंकार , 11इंद्रियां, 05 तन्मात्र और 05 महाभूतों का लय होता है और इन्हें लिंग तत्त्व कहते हैं । तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहलाती है जिसका लय नहीं होता और यह अलिंग कहलाती है । 

प्रकृति विकृति के फलस्वरूप उत्पन्न 23 तत्त्वों में 05 महाभूतों को छोड़ शेष को लिंग शरीर कहते 

हैं । प्रकृति , पुरुष को कैवल्य दिलाने और स्वयं पुरुष को समझने के लिए , पुरुष से आकर्षित होती है । जबतक प्रकृति के मुक्त हो कर पुरुष कैवल्य नहीं प्राप्त कर लेता तबतक सुक्ष्म शरीर आवागमन करता रहता है । जब पुरुष का अपना अनुभव प्राप्त जो जाता है और वह समझ जाता है कि वह कौन है , उसी घड़ी वह अपने मोल स्वरूप में लौट आता है । प्रकृति जब साख जाति है कि वह कौन है , अपनें मूल स्वरूप ( तीन गुणों की साम्यावस्था ) में लौट आती है । इस प्रकार लिंग तत्त्वों का लय प्रकृति में जो जाता है । 


सांख्य आधारित भाव - लिंग सृष्टियां

इस स्लाइड 02 को ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है


सांख्य में लिंग शरीर

स्लाइड - 03 सांख्य दर्शन में लिंग शरीर

बुद्धि , अहँकार , 11 इन्द्रियाँ और 05 तन्मात्रो के समूह को सूक्ष्म या लिङ्ग शरीर कहते हैं । यह लिङ्ग शरीर तबतक आवागमन में रहता है जबतक इसे कैवल्य नहीं मिल जाता । प्रकृति , पुरुष कैवल्य की हेतु है । लिङ्ग शरीर निर्मल , सनातन और नित्य है 

( कारिका - 40 ) ।

4 - बिना पञ्च भूत आश्रय लिङ्ग शरीर स्थिर नहीं रहता । 

5 - पुनर्जन्म पुरुष का नहीं होता , अन्य 18  सगुणी तत्त्वों का होता है । चित्ताकार पुरुष के लिए लिङ्ग शरीर का पुनर्जन्म , मोक्ष प्राप्ति के लिए एक और अवसर है । पुरुष का मोक्ष उसका अपनें मूल स्वरूप में लौटनें का नाम है ।

 5 - लिङ्ग शरीर पुरुष मोक्ष प्राप्ति हेतु अलग - अलग शरीर धारण करता रहता है। 

6 - लिङ्ग शरीर प्रकृति का स्वामी है  ( कारिका : 41 - 42 )।

 7 - लिङ्ग शरीर के माध्यम से आवागमन है ।

8  - लिङ्ग शरीर  08 भावों से अधिवासित

(सुगन्धित ) रहता है ।

08 भाव क्या हैं ? 

देखें कारिका : 44 - 45 ) 👇

 1 - धर्म 2 - अधर्म  3 - ज्ञान 4 - अज्ञान  

5 - वैराग्य 6 - राग 7 - ऐश्वर्य  8 - अनैश्वर्य 

बुद्धि सहित 11 इंद्रियों को भाव सृष्टि या बुद्धि सृष्टि या प्रत्यय सृष्टि कहते हैं और पञ्च तन्मात्रों को लिङ्ग सृष्टि या भौतिक सृष्टि कहते हैं ।

1 - लिङ्ग - अलिङ्ग (पतंजलि योग दर्शन आधारित )

ऐसे तत्त्व जिनका लय होता है , लिंग कहलाते हैं और इसके विपरित सनातन अनादि को अलिंग कहते हैं ।

प्रकृति की साम्यावस्था को अलिङ्ग कहते हैं ।  प्रकृति विकृति के फलस्वरूप उपजे 23 तत्त्वों को लिङ्ग कहते हैं जो सगुणी हैं ।

2 - सांख्य दर्शन में लिङ्ग शरीर

1- लिङ्ग शरीर नित्य और सनातन है जबकि माता - पिता से मिला स्थूल शरीर अनित्य है । सूक्ष्म शरीर , माता - पितासे मिला शरीर और प्रभूत ( सुख , दुःख और मोह ) , ये 03 प्रकारके विशेष हैं 

( कारिका - 39 )

2 - महत् , अहंकार , 11 इन्द्रियाँ तथा 05 तन्मात्र लिङ्ग शरीर के अंग हैं । सुक्ष्म शरीर और लिंग शरीर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

3 - लिङ्ग शरीर निर्मल , सनातन और नित्य है ( कारिका - 40 ) ।

4 - बिना पञ्च भूत आश्रय लिङ्ग शरीर स्थिर नहीं रहता । 

 5 - लिङ्ग शरीर पुरुष मोक्ष प्राप्ति हेतु अलग - अलग शरीर धारण करता रहता है। 

6 - लिङ्ग शरीर प्रकृति का स्वामी है । 

 ( कारिका : 41 - 42 ) 

7 - लिङ्ग शरीर के माध्यम से आवागमन है ।

8  - लिङ्ग शरीर  08 भावों से अधिवासित ( सुगन्धित ) रहता है ।

08 भाव क्या हैं ? 

देखें कारिका : 44 - 45 ) 👇

  1 - धर्म 2 - अधर्म  3 - ज्ञान 4 - अज्ञान 

 5 - वैराग्य 6 - राग  7 - ऐश्वर्य  8 - अनैश्वर्य 


3  - लिङ्ग और भाव सृष्टियाँ एवं आवागमन 

 सम्बंधित सांख्य कारिकायें

  46 - 47 , 52 - 54 , 56  - 58

कारिका : 46 - 47 : इनका सम्बन्ध बुद्धि से है अतः इन्हें आगे देखा जायेगा ।

कारिका : 52 

 ★ सर्ग , सृष्टि का पर्यायवाची शब्द है ★

👌भाव ( प्रत्यय या बुद्धि ) सृष्टि के बिना लिङ्ग 

(भौतिक ) सृष्टि या पञ्च तन्मात्रो के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती और ⤵

💐 लिङ्ग ( भौतिक ) सृष्टि के बिना भाव ( प्रत्यय या बुद्धि ) सृष्टि की निष्पत्ति नहीं हो सकती । 

👉 लिङ्ग  ( भौतिक ) सृष्टि में  05 तन्मात्र आते हैं जिनसे 05 महाभूतों की उत्पत्ति होती है ।

◆ भाव (प्रत्यय या बुद्धि ) सृष्टि में बुद्धि , तीन अहँकार और 11 इन्द्रियाँ आती हैं । 


          स्लाइड - 04 लिंग - भाव सृष्टियां 


कारिका : 46 - 47

बुद्धि निम्न 04 प्रकार की है 👇

 विपर्यय + अशक्ति + तुष्टि + सिद्धि

1 - विपर्यय (विपरीत समझना , अविद्या , अज्ञान )यह 05 प्रकार की है ।

2 - अशक्ति (दुर्बलता )यह 28 प्रकार की है ।

3 - तुष्टि 4 प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टि  + 8 प्रकार की बाह्य तुष्टि है  अर्थात तुष्टि 12 प्रकार की है ।

4 - सिद्धि  

पतंजलि योग विभूति पाद में 45 प्रकार की सिद्धियां बतायी गयी हैं जिनमें 08 प्रमुख सिद्धियां हैं जिनके सम्बन्ध में भागवत में बताया गया है कि ये सिद्धियां प्रभु श्री कृष्ण के साथ हर पल रहती हैं ।



कारिका - 53

मुख्यरूप से भौतिक (लिङ्ग )सृष्टि निम्न 03 प्रकार की है ⬇️

1-  दैव , 2 - तैर्यम्योन और 3 - मनुष्य

1 - दैवी सृष्टि 08 प्रकट की है 

2 - तैर्यम्योन सृष्टि 05 प्रकार की है 

3 - मनुष्य - सृष्टि एक प्रकार की है 

कुल मिला कर भौतिक ( लिङ्ग ) सृष्टि 14 प्रकार की है 

1 - दैव सृष्टि के अंतर्गत ब्रह्मा ,प्रजापत्य , सौम्य , इंद्र , गांधर्व , यक्ष , राक्षस और पिशाच आदि आते हैं ।

2 - तिर्यक सृष्टि के अंतर्गत  पशु , पक्षी , सरीसृप और स्थावर आदि आते हैं ।

कारिका - 54 गुण आधारित सृष्टि


👉ब्रह्मा आदि सर्ग सत्त्व गुण प्रधान हैं , लेकिन अन्य दो गुण भी इनमें होते हैं ।

 👉पशु - पक्षी आदि सर्ग तामस गुण प्रधान हैं लेकिन अन्य दो गुण भी होते हैं 

👉और मनुष्य सर्ग राजस गुण प्रधान है । 

👉सब में होते तो 03 गुण ही हैं लेकिन एक समय में सक्रियता केवल एक ही गुण की होती है । किसी जीव में एक समय पर एक से अधिक गुण सक्रिय नहीं  होते । 

कारिका :56 - 57 - 58

कारिका : 56 

👉  प्रकृति निर्मित महत् से लेकर पंच महाभतों तक की सृष्टि, पुरुष मोक्ष के साधन हैं  ।

👌प्रकृतिक स्वार्थ की तरह ही परार्थ के कार्य भी करती है ।

👌 प्रकृति जड़ है और पुरुष चेतन । 

👌 प्रकृति पृरुष को देखना चाहती है और पुरुष प्रकृति को जानना चाहता है । 

👌 पुरुष प्रकृति के 23 तत्त्वों से निर्मित पिजड़े में कैद हो जाता है और प्रकृति अनुभव प्राप्ति के बाद उसे अपनें मूल स्वरूप में लौटने में मदद करती है । प्रकृति का यही परार्थ है 

कारिका : 57 + 58   

पुरुष मोक्ष की हेतु प्रकृति है 

👉 जैसे अचेतन दूध , चेतन बछड़े का निमित्त होता है उसी तरह अचेतन प्रकृति , चेतन पुरुष के मोक्ष की हेतु है ।

👉जैसे लोग अपनी - अपनी उत्सुकताओं को पूरा करने हेतु अलग -अलग क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं वैसे ही पुरुष मोक्ष के लिए प्रकृति भी प्रवृत्त रहती है । पुरुष मोक्ष ही प्रकृति का मूल लक्ष्य है