Wednesday, January 31, 2024

पतंजलि योग सूत्र में महर्षि कहते हैं , सिद्ध योगी एक से अधिक शरीर धारण कर सकता हैं

सिद्ध योगी अपने संकल्प मात्र से अनेक शरीर धारण कर सकता है ….

~ पतंजलि योगसूत्र कैवल्य पाद सूत्र - 02 ~

सिद्धि प्राप्ति के 05 श्रोत हैं ; जन्म , औषधि , मंत्र , तप और समाधि ( पतंजलि कैवल्यपाद - 01 ) । कोई जन्म से सिद्ध योगी होता है , कोई औषधि से कोई मंत्र अभ्यास से , कोई तप सिद्धि से और कोई योगाभ्यास से समाधि सिद्धि से सिद्ध योगी बनता है । 

सिद्ध योगी अपने संकल्प मात्र से अनेक शरीर धारण कर सकता है । योगी को ऐसा करने में प्रकृति से उन्हें सहयोग मिलता है ( कैवल्यपाद - 2 +3 ) । 

जब एक से अधिक शरीर होंगे तो उनके अपनें - अपनें चित्त ( बुद्धि , अहंकार एवं मन ) भी होंगे क्योंकि प्रत्येक शरीर की अपनी - अपनी प्रवृत्ति अलग - अलग होने से उनके कार्य भी अलग - अलग होंगे अतः उनके चित्त भी अलग - अलग ही होने चाहिए । यदि ऐसा है तो फिर एक से अधिक चित्ताें का निर्माण कैसे होता होगा ? और इन चित्तो का संचालन कैसे होता होगा ? 

इस प्रश्न के संबंध में महर्षि पतंजलि कहते हैं , “ अस्मिता से चित्तो का निर्माण होता है और ऐसे चित्तो को निर्माण चित्त कहते हैं ( कैवल्यपाद - 04 ) और इनका संचालन मूल चित्त से होता है ( कैवल्यपाद - 05 )

अस्मिता क्या है ?  प्रकृति और पुरुष को अलग - अलग न  देखना , उन्हें एक देखना , अस्मिता के कारण होता है (साधनपाद - 06 ) । 

वितर्क , विचार , आनंद और अस्मिता - 04 प्रकार की संप्रज्ञात समाधि होती है (समाधिपाद - 17 )

~~ ॐ ~~


Thursday, January 25, 2024

पतंजलि योग दर्शन में धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि की यात्रा


पतंजलियाेग सूत्र में …

धारणा , ध्यान और समाधि ……

यहां महर्षि पतंजलि योगसूत्र दर्शन आधारित अष्टांगयोग के तीन अंतः अंग  - धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि के साथ संयम सिद्धि एवं असंप्रज्ञात समाधि रहस्य को देखने जा रहे हैं। धारणा , ध्यान और समाधि को समझने से पूर्व पहले चित्त , चित्त की वृत्तियों एवं चित्त की भूमियों को समझा लेना चाहिए क्योंकि सांख्य दर्शन एवं पतंजलि योग दर्शन में भोग से योग में उतरना , योग में भोग तत्त्वों के प्रति वैराग्य तथा वैराग्य भाव में आगे समाधि तथा समाधि से कैवल्य की यात्रा का केंद चित्त ही तो है अतः इस योग यात्रा के केंद्र चित्त से सबंधित महर्षि पतंजलि के कुछ सूत्रों को समझते हैं।

 🌼 चित्त त्रिगुणी एवं जड़ है अतः उसे न तो स्वयं का ज्ञान होता है और न दूसरों का ।  पुरुष निर्गुणी शुद्ध चेतन है  चित्त , स्मृतियों में पुरुष के साक्षित्वमें विषय धारण करता है 

( पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र : 19 +20 )।

💮 चित्तानुसार वस्तु दिखती  है । ( पतंजलि कैवल्य पाद सूत्र -17)।

💮  कर्माशय (चित्त ) में कर्म संस्कार संचित रहते हैं (पतंजलि साधनपाद सूत्र - 12 )।

चित्त की 05 वृत्तियां  ( समाधि पाद सूत्र : 5 - 11 )  

चित्त की 05 वृत्तियां क्लिष्ट - अक्लिष्ट रूप में होती हैं । क्लिष्ट दुःख से जोड़ती हैं और अक्लिष्ट सुख से । सात्त्विक गुण की वृत्तियों से प्रभावित चित्त - वृत्तियाँ सुख की जननी हैं और इन्हें अक्लिष्ट कहते हैं जबकि राजस - तामस गुणों से प्रभावित चित्त वृत्तियाँ दुःख की जननी हैं जिन्हें क्लिष्ट कहते हैं । 

 चित्त की पहली वृत्ति प्रमाण 

 यह तीन प्रकार की होती है ; प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम । आगम को शब्द और आप्त वचन भी कहते हैं । पांच ज्ञान इंद्रियों से बिषय-  बोध होना , चित्त की  प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्ति कहलाती है । अनुमान में बिषय अनुपस्थित रहता है लेकिन उससे सम्बन्धित चिन्हों से उसे जानते हैं  जैसे दूर कहीं धुआं देख कर वहां अग्नि होने का अनुमान लगाना जिस बिषय का बोध प्रत्यक्ष एवं अनुमान से संभव नहीं , उसके बारे में उपलब्ध सर्वमान्य ग्रंथों एवं संदर्भों के विषय संबंधित ज्ञान से चित्त में उत्पन्न वृत्ति को  आगम वृत्ति कहते हैं ।

चित्त की दूसरी वृत्ति विपर्यय 

विपर्यय का अर्थ है अज्ञान या अविद्या । जो बिषय जैसा है , उसे वैसा न समझ कर उसके विपरीत समझना , विपर्यय है अर्थात सत को असत , और असत्य को सत समझना , विपर्यय है ।

चित्त की तीसरी वृत्ति विकल्प  (समाधि पाद सूत्र : 9)

शब्द ज्ञान अनुपाती वस्तु शून्यो विकल्प: 

वस्तु की अनुपस्थिति में उस वस्तु के संबंध में उपलब्ध शब्द ज्ञान से उसे समझना , विकल्प है जैसे  देवता , भूत - प्रेत आदि के सम्बन्ध में जानना केवल शब्द -  ज्ञानसे संभव है। 

चित्त की चौथी और पांचवीं वृत्ति निद्रा और स्मृति 

समाधि पाद सूत्र : 10 +11

समाधिपाद सूत्र - 10

" अभाव प्रत्यय आलंबना वृत्ति : निद्रा "

निद्रा में बिषय आलंबन का अभाव होता है । कभीं - कभीं हम जब सो कर उठते हैं तब कहते हैं कि आज बहुत प्यारी नींद आयी , समय का पता तक न चला अर्थात उस नींद में भी चित्त की कोई वृत्ति सक्रिय थी जो मीठी नींद की स्मृति को जगने के बाद प्रकट कर रही है , चित्त की यह वृत्ति निद्रा वृत्ति है ।

समाधि पाद सूत्र - 11

अनुभूत , विषय , असंप्रमोष : स्मृति :

 पूर्व अनुभव किये हुए विषयों की सोच का समय पर चित्त पटल पर प्रगट हो जाना , स्मृति है । 

चित्त की 05 भूमियाँ 

क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु 

चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की  यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और  समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः अब चित्त की 05 भूमियों को समझते हैं । तीन गुणों के व्यवहार से चित्त भूमियाँ निर्मित होती हैं ।

1-  क्षिप्ति  : सात्त्विक सोच को चित्त में न उठने देने वाले तत्त्वों की सक्रियता से यह चित्त भूमि बनती है । इस भूमि में स्थित चित्त में विचारों का तीव्र गति से बदलते रहते हैं । यह अवस्था तामस गुण प्रधान होती है शेष दो गुण दबे हुए रहते हैं ।

2 - मूढ़ : चित्त की मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है ।  यह अवस्था राजस गुण प्रधान अवस्था होती है जिसमें ज्ञान - अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य - राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य जैसे 08 भावों से चित्त बधा रहता है । इन 08 भावों में ज्ञान , धर्म , वैराग्य और ऐश्वर्य सात्त्विक बुद्धि के तत्त्व हैं और इनके गिपारियत तत्त्व तामस बुद्धि के तत्त्व हैं। 3 3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है  पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है। इस चित्त भूमि के साथ भी संप्रज्ञात समाधि लग जाया करती है ।

4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता हैएकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता  है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना बना रहता है ।

5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है जो समाधि का द्वार है । 



यहां से धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि की योग यात्रा प्रारंभ होती है ⬇️

विभूति पाद सूत्र : 1 धारणा 

<> देश बंध: चित्तस्य , धारणा <>

धारणा अर्थात धारण करना । जब चित्त को किसी एक सात्त्विक आलंबन के साथ बाध  कर रखना धारणा है। धारणा - अभ्यास से चित्त,आलंबन मुखी होने लगता है जिसे प्रवृत्ति कहते हैं । प्रवृत्ति , ध्यान एवं समाधि की यात्रा को सुलभ बनाती है । 

विभूति पाद सूत्र : 2 ध्यान 

<> तत्र , प्रत्यय , एकतानता , ध्यानम् <>

धारणा में धारण किए गए आलंबन पर चित्त का बिना बिना खंडित हुए देर तक स्थिर रहना ध्यान कहलाता है ।

🌀 तत्र + ध्यानजम् + अनाशयम् (कैवल्यपाद सूत्र - 6 ) अर्थात ध्यानसे निर्मित चित्त कर्म वासनाओं से मुक्त होता है । 

🌀 ध्यान हेयात् तत् वृत्तयः (साधनपाद  सूत्र : 11 ) । यहां तत् क्लेश के लिए उपयोग किया जा रहा है ,  अर्थात ध्यान से क्लेशों की वृत्तियों का निरोध होता है।   

🌀 क्लेश कर्माशय की मूल हैं ( साधनपाद -12 ) । 

🌀 जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , सुख - दुख मिलते रहते हैं और आवागमन से मुक्ति नहीं मिलती (साधन पाद सूत्र : 13+14 )  

🌀 समाधि भाव उठते ही क्लेष तनु अवस्था में आ जाते हैं (पतंजलि साधन पाद सूत्र - 2 ) ।

🌷 समाधि भाव कब  उठता है ?

चित्त के दो धर्म हैं ; व्युत्थान और निरोध ( विभूतिपाद - 9 ) । जब व्युत्थान दबने लगता है तब निरोध धर्म ऊपर उठने लगता है ।

 निरोध धर्म के साथ चित्त में समाधि भाव जागृत होता है । 

ऊपर साधनपाद सूत्र - 2 में क्लेश शब्द आया है अतः इसे भी क्लेश संबंधित साधनपाद के सूत्र : 3 - 14 + 25 को समझते हैं …

क्लेश का शाब्दिक अर्थ है - वेदना , कष्ट और कलह ।

क्लेश उन तत्त्वों को कहते हैं जिनके प्रभाव में मनुष्य चिंताओं के कारण मानसिक रूप से विकल एवं संतप्त रहने लगता है । क्लेश कष्टपूर्ण मानसिक स्थिति की जननी हैं ।

क्लेश कर्माशय ( चित्त ) की मूल हैं । क्लेश सबल त्रिगुणी बंधन तत्त्व हैं जो शुद्ध निर्गुणी चेतन पुरुष को त्रिगुणी जड़ प्रकृति से जुड़ने के बाद उसे अपने मूल स्वरूप में तबतक नहीं लौटने देते जबतक ये निर्मूल नहीं हो जाते।

निम्न 05 प्रकार के क्लेश हैं …

अविद्या ,अस्मिता ,राग , द्वेष और अभिनिवेष , ये पांच क्लेश हैं । इनमें अविद्या शेष चार क्लेशों की जननी है। 


1 - अविद्या साधन पाद सूत्र : 5

अनित्य को नित्य , अशुचि को शुचि , दुःख को सुख और अनात्म को आत्म समझना अविद्या है जिसे विपर्यय या अज्ञान भी कहते हैं । अविद्या का अभाव , दुःख का अभाव है और यही कैवल्य है (साधनपाद सूत्र - 25 )

2 - अस्मिता साधनपाद - 6

 दृग - दर्शन शक्ति का एक हो जाना , अस्मिता है अर्थात पुरुष का स्वयं को चित्त समझना ।

3 - राग (साधन पाद - 7 

" सुख अनुशयी रागः" अर्थात भोग सुख की चाह रखना , राग है ।


4 - द्वेष (साधन पाद सूत्र - 8 )

" दुःख अनुशयी द्वेष: " अर्थात द्वेष दुःख की जननी है ।

5 - अभिनिवेश ( मृत्यु भय ) साधनपाद - 9

मृत्यु - भय से सभीं प्रभावित हैं मृत्यु  - भय सबके संस्कार में होता है और इस मृत्यु - भय को  अभिनिवेश कहते हैं ।

क्लेश कर्माशाय की मूल हैं । जबतक क्लेष निर्मूल नही होते , मनुष्य क्षणिक सुख - दुख में भोग जीवन जीता रहता है और क्लेश रहते आवागमन से मुक्ति भी नहीं मिल पाती । स्थूल शरीर छूट जाने पर सूक्ष्म (लिंग ) शरीर नाना प्रकार की योनियों में तबतक आवागमन करता रहता है जबतक लिंग शरीर केंद्रित पुरुष अपनें मूल स्वरूप में नहीं लौट आता।

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग दर्शन में बुद्धि ,अहंकार ,

 11 इंद्रियां एवं 05 तन्मात्र के समूह को लिंग शरीर कहते है जिसका आश्रय 05 महाभूत हैं । बिना पांच महाभूत आश्रय रहित लिंग शरीर अस्थिर होता है और स्थिर होने के लिए पञ्च महाभूतों से निर्मित स्थूल देख खोजता है ।

अभीं तक पतंजलि योग सूत्र दर्शन आधारित धारणा , ध्यान और समाधि रहस्य के अंतर्गत …

चित्त , चित्त के 02 धर्म चित्त की 05 वृत्तियां , चित्त की 05 भूमियाँ और 05 प्रकार के क्लेशों के साथ धारणा  और ध्यान रहस्यों को देखा गया । अब संप्रज्ञात समाधि को समझते हैं ….


संप्रज्ञात समाधि  ( विभूति पाद सूत्र : 3 )

<> तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुपशून्यम् इव समाधि <>

ध्यान जब सिद्ध होता है तब ध्यान का आलंबन नाम मात्र ( अर्थ मात्र ) रह जाता है अर्थात अति सूक्ष्म रूप में रहता है और उस सूक्ष्म आलंबन  पर चित्त शून्य हो जाता हैआलंबन के सूक्ष्म स्वरूप (अर्थ मात्र ) के साथ चित्त की शून्यावस्था सबीज समाधि या सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है ।

सम्प्रज्ञात समाधि की ऊर्जा में प्रज्ञा ऋतंभरा हो जाती है अर्थात सत्य से भर जाती है ( समाधिपाद : 48 ) ….

समाधिपाद सूत्र : 50 - 51

 परोक्ष सात्त्विक ज्ञान ( श्रुति और अनुमान आधारित ज्ञान ) राजस - तामस गुणों की वृत्तियों को धो देता है लेकिन इससे भी एक संस्कार निर्मित होता है जो निर्बीज समाधि ( असम्प्रज्ञात समाधि ) घटित होने से धुल जाता है।

अर्थात संप्रज्ञात समाधि सिद्धि तक चित्त राजस एवं तामस गुणों से मुक्त हो गया होता है लेकिन सात्त्विक गुण की नाना प्रकार की वृत्तियों कस आना - जाना लगा रहता 

है । जब संप्रज्ञात समाधि सिद्धि के आगे असंप्रज्ञात समाधि की सिद्धि मिलती है तबतक चित्त सात्त्विक गुण की वृत्तियों से भी मुक्त हो गया होता है । अब संप्रज्ञात समाधि सिद्धि के बाद तथा असंप्रज्ञात समाधि की सिद्धि के मध्य संयम सिद्धि मिलती है , जिसे अगले सूत्र में देखें ⤵️


संयम  ( विभूति पाद सूत्र : 4 )

<>त्रयं एकत्र संयम <>

त्रयं अर्थात धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि ।  जब  ये तीनों एकत्र हो जाय तो उस स्थिति को संयम कहते हैं । संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती हैं ।

अगले अंक में 

असंप्रज्ञात समाधि से धर्ममेघ समाधि तथा धर्ममेघ समाधि से कैवल्य तक की यात्रा की जाएगी ) ।

~~ ॐ ~~