Saturday, November 27, 2010

राह सही है -------

जीवन भर हम लोग सही मार्ग पर चलते हैं -
हम सब कुछ ऐसा ही समझते रहते हैं लेकीन एक दिन ......
जब गले तक डूबा अपनें को पाते हैं तब भी जेहन में यह नहीं आता की -----
हो न हो हमसे कूई गलती हो गयी हो , हाँ , इतना कहते जरुर हैं की -----
सब ठीक ही चल रहा था , लगता है , किस्मत साथ नहीं दिया ।

इंसान के लिए प्रभु बार - बार गलती करता रहता है , इंसान प्रभु को माफ़ करता चला जाता है ,
इंसान एक ऐसा प्राणी है जो कभीं गलती करता ही नहीं और दुसरे की
गलती पर उसे सजा मिलती रहती है ।
मनुष्य केवल एक अपना स्वभा को बदल दे तो वह कभी दुखी हो नहीं सकता -----
दूसरों की गलती पर स्वयं को कष्ट देनें का स्वभाव ।
हम स्वयं दुखी नहीं हैं लेकीन जब यह देखते हैं की
दूसरा ऐसा क्यों कर रहा है तब तुरंत दुखी हो उठते हैं , जब तक हम दुसरे के कर्म पर नज़र नहीं डालते ,
हम दुःख से दूर रहते हैं ।
हम दूसरों के लिए दुःख पैदा करके सोचते हैं , सुख की गंगा में नहाना और यह प्रकृति के नियम के प्रतिकूल
है । हमारा हर कदम प्रकृति की बिपरीत दिशा में उठता है पर हम यही समझते रहते हैं की हमारा
मार्ग सही है । अमावस्या की रात को दिन समझ कर जो आंखें बंद करके तेज गति से चलेगा , वह तो
कदम - कदम पर टकराता ही रहेगा ॥
ध्यान एक ऐसा मार्ग है ------
जो हमारे जीव के मार्ग को निर्विकार बनाता रहता है ।
ध्यान में गुजरे दो पल मनुष्य के अन्दर की ऊर्जा को इतना तो पवित्र करही देते हैं जिसके प्रभाव में मनुष्य का
कोई कदम गलत उठ नहीं सकता ॥

===== अगला कदम किधर और क्यों उठ रहा है ? ======

Friday, November 19, 2010

मुझे नहीं पूछना था -------



मैं बस इतना पूछा था .....
शायद आप भी भारतीय ही हैं ।
एक लगभग सत्तर - पचहत्तर साल के रहे होंगे , जिनसे मैं यह बात पूछी थी । हमारे प्रश्न के बाद तो
उनका रंग ही फीका पड़ गया , वे मुझे देखे और इशारा किया साथ में बैठनें का , मैं बैठ तो गया लेकीन
अन्दर - अन्दर से पेशान हो उठा था , लग रहा था , मुझे पूछना नहीं चाहिए था । मैं धीरे से पूछा -
माफ़ करना , मझे पूछना नहीं चाहिए था , मुझे ऐसा नहीं लगा की यह बात आप के जख्मों को
खुरेदेगी , खैर आप मुझे माफ़ करें ।
वे भरे श्वर में बोल पड़े - ऎसी कोई बात नहीं है , आप मुझे देख कर भारतीय समझ बैठे थे , लेकीन मैं तो
फीजी का रहनें वाला हूँ ।
बचपन में मेरी माई मुझे भारत - अपनें देश की कहानियाँ सुनाया करती थी की मेरा देश ऐसा है , मेरे देश
की मिटटी की अपनी खुशबू है आदि - आदि । अभी तक तो मुझे मौक़ा न मिल पाया था , भारत जानें
का लेकीन घर की जिम्मेदारियां जब समाप्त हो गयी तो पिछले साल सोचा , चलते हैं अपना देश देखनें ।
भारत में मुझे दो चीजें सर्वत्र देखनें को मिली ------
[क] पश्चिम की सभ्यता का भारतीय - सभ्यता पर चढ़ता रंग और ----
[ख] गरीबों के तन की झांकती सुखी हड्डियां ।
मैं हैरान हो उठा , यह सोच कर की मेरी मैया , मुझसे इतना बड़ा झूठ क्यों बोला था ?
कहाँ है ------
भारतीयता .......
भारत की अपनी सभ्यता ....
भारतीय लोगों का आपसी प्यार .....
भारतीय पहनावे .......
भारतीय खान - पान ......
मैं जगह - जगह मिटटी को सूंघा लेकीन कहीं भी कोई मिटटी की सुगंध न मिली ।
कहाँ है -------
भारतीय संगीत .....
भारतीय - वाद्य
भारतीय नृत्य ......
और अपने भारतीय लोग ॥
भाई ! मुझे तो कुछ भी नज़र न आया , इतना कह कर वे सज्जन रो पड़े ॥
मैं हैरान हो उठा , पहले इतना प्रेमी ब्यक्ति कभी न देखा था जो भारतीय न होते हुए भी
भारत से इतना प्यार करता हो , आखिर करता क्यों न , उसके रगों में भी तो भारतीय
खून ही बह रहा था ॥
यह बात है अफ्रिका के एक एयर पोर्ट की ॥

==== ऐसे भी लोग - प्यारे लोग होते हैं =======

Thursday, November 18, 2010

कोई तो सुनता ही होगा ----



प्रभु की आवाज को , कौन सुनता होगा ?
बेहोशी में पहुंचनें के ठीक पहले एक मरीज की कराह को , कौन सुनता होगा ?
माँ बननें जा रही बेटी की कराह को कौन सुनता होगा ?
एक भीखारी की भूख मिटानें की आवाज को कौन सुनता होगा ?
सत को कौन सुनता होगा ?

दिल की आवाज को कौन सुनता होगा ?
एक असी साल के बुजुर्ग के सीने की दर्द को कौन सुनता होगा ?
एक ऐसे इन्शान की कराह को ,
जिसकी जान मात्र पल भर की ही शायद बाक़ी हो , कौन सुनता होगा ?
जब आत्मा देह छोड़ कर सफ़र करता है तो उसकी ध्वनि को कौन सुनता होगा ?

जो इन आवाजों को सुनता होगा , वह क्या होगा ?
सोचिये और सोच के ऊपर मन ओ केन्द्रित करके ....
शांत मन वाला बन कर .....
इन आवाजों को आप भी सुनें ॥
ये आवाजें ऎसी हैं जो .....
सीधे प्रभु से जोडती हैं ॥

=== आप भी सुननें का यत्न करें और .... =====

Wednesday, November 17, 2010

ना की मायूशी

ना की मायूशी हमें हिला दिया ......
वह आखीर किस सम्बन्ध में था ?

एक दिन अकेले बैठा था , इन्तजार कर रहा था -कोई गाँव का आये और उसे दो चार मन गड़ंत बाते
बता कर अपना खून बढ़ाऊ और उसका खून घटाऊ , लेकीन कोई आ नहीं रहा था , पता नहीं, इन
लोगों को क्या हो जाता है , कभीं तो सुबह - सुबह धमक पड़ते हैं और आज दोपहर आनें को है , किसी
का अता - पता तक नहीं चल रहा ।

इस तरह की सोच अन्दर ही अन्दर फ़ैल रही थी की ऐसी बात अन्दर एक दम आयी की
चलो आईने में अपनी तस्बीर देखते हैं और उठा लिया पास में रखे आईने को ।
आइनें से एक आवाज आई - बाबूजी ज़रा ध्यान से देखना , मैं तो घबडा गया ,
आगे - पीछे देखा पर वहाँ तो कोई न था । मैं अब इस सोच में पड़ गया की -
यह आवाज आई तो आई कहाँ से ? आइना बोलता है - बाबू जी
बहुत सालों तक मैं चुप था और देखता रहा आप को लेकीन अब तो बोलना ही पड़ रहा है ।
मैं सोचा - यह करिश्मा कैसा ? क्या आइना भी बोल सकता है ? कुछ भी समझ में न आया अंततः
मैं आइनें को रख चलनें को तैयार होनें लगा की इतनें में आइना फिर बोला ......
बाबूजी आज मैं आप जैसी तस्बीर चाहेंगे वैसी तस्बीर दिखाउंगा , आप देखें तो सही ?
आइना कहता है मेरे पास आप की तीन तस्बीरें हैं ----
[क] एक वह जैसा लोग आप को समझते हैं ......
[ख] दूसरी वह जैसा आप अपनें को समझते हैं ....
[ग] तीसरी वह है जैसे आप वास्तव में प्रभु की नजर में हैं ......
मैं कुछ बोलता की मुझे उस आइनें पर क्रोध उठ खड़ा हुआ और मैं उसे तोड़ दिया और कांच के टुकड़ों से
आवाज आयी ------
बाबूजी ! आपनें अच्छा ही किया लेकीन मैं आज आप को वह तस्बीर दिखाता जैसे आप हैं पर आप उस
तस्बीर को देख न पाते क्यों की सच्चाई को कौन देख सकता है , यह कहते -कहते वह आइना रो पडा ।
मेरा बदन कापनें लगा .......
सर घूमनें लगा ......
आँखे भर आई .....
और मैं स्वयं से अनेक प्रश्न पूछा , और सब का जब जबाब मुझे ना के रूप एन मिला तो .....
मैं उस आइनें की बात को समझ लिया और .......
अब एक महल छोड़ कर एक झोपड़े में हूँ , अपनी असली तस्वीर को देखा करता हूँ , मन के आइनें में ।
गंगा के किनारे रहते - रहते मेरा पापी मन अब गंगा की तरह पवित्र हो गया है और मुझसे कहता है ----
बहुत साथ दिया तेरा , अब तूं अपनें को देख और मैं अपनें को देख रहा हूँ ।
आखिर मुझे भी तो वहां जबाब देना होगा ॥
आज मैं प्रभु का धन्यबाद करता हूँ की .......
हे प्रभु उस आईने के रूप में आप मेरे सामनें आये लेकीन मैं अपनें अहंकार के नशे में आप को समझ न पाया , आप का धन्यबाद कैसे करूँ की समय रहते आप मुझे उस मार्ग पर ला दिया जो मार्ग आपमें पहुंचता है ॥

======ॐ=====

Monday, November 15, 2010

क्या करें ------



इन्द्रियों को वर्त्तमान में रस मिलता है
और
मन को गुजरे वक़्त की घटनाओं में ॥

आँखें खोजती हैं -- रूप - रंग को
और
कान खोजता है मधुर ध्वनि को ॥

जिह्वा खोजती है स्वाद को
और
नाक खोजती है सुगंध को ॥

त्वचा खोजता है संवेदना की लहर को
और
बुद्धि खोजती है , तर्क - वितर्क के बिषय को ॥

और ------
जहां -----
इन्द्रियाँ ......
मन .......
बुद्धि .....
एक साथ बसते हैं ,
वह है -----
परमात्मा का आयाम ॥

अब आप सोचो ......
जब सभी अंग लग - अलग यात्रा पर हैं
तो फिर अपना क्या होगा ?

====== कुछ तो करना ही है =======

Saturday, November 13, 2010

जीवन में कहाँ - कहाँ रस है ?

आप भी सोचें और मैं भी सोच रहा हूँ -------
जीवन में कहाँ - कहाँ हमें रस दिखता है ?



हम जब कुछ ऐसा कर रहे होते हैं जैसा कोई और न किया हो तो उसमें रस दिखता है ॥

घर में जब कोई नया बच्चा आता है तब उसमें हमें रस दिखता है ॥

जब हमें कोई कुछ उपहार देता है तब उसमें हमें रस दिखता है ॥

जब बेटा या बेटी परीक्षा में औअल आते हैं तब उसमे रस दिखता है ॥

जब पड़ोसी का बेटा / बेटी पढाई में अपने बेटे / बेटी से पीछे रहते हैं तब उसमे रस दिखता है ॥

जब कोई गरीब मेहमान घर आये तो उसमें रस दिखता है ॥

पढ़ोसियों में जब युद्ध हो रहा हो तब उसमे रस दिखता है ॥

अब आप सोचें की हम सब की गति -----

परमात्मा की ओर है , या ----

नरक की ओर ?

हमें क्या करना है और हम क्या कर रहे हैं ,
आखिर कुछ तो समझ होनी ही चाहिए ॥

फिर मिलेंगे अगले अंक में ....

Thursday, November 11, 2010

कौन सोचता होगा ?



कर्मसे कर्म - योग ,
कर्म - योग से ज्ञान
ज्ञान से ज्ञानेश्वर
तक की यात्रा का
नाम
गीता है ॥

भोग से योग
योग से संन्यास
संन्यास में ज्ञान
ज्ञान से नारायण
तक की यात्रा का
नाम गीता है ॥

राग में ध्यान
ध्यान में वैराग्य
वैराग्य में ज्ञान
ज्ञान से ज्ञानेश
तक की यात्रा का
नाम गीता है ॥

===== ॐ ======

ऐसी स्थिति क्यों है ?



कौन सा काँटा सीनें में चुभता रहता है ?
वह कौन सी दर्द है , जो चैनसे नहीं रहनें देती ?
तन जमीं पर और मन ब्रह्माण्ड में क्यों घूमता रहता है ?
अपनों से ऎसी एलर्जी क्यों है ?
बच्चों से बूढों तक को ये आँखें क्यों नहीं देखना चाहती ?
पहाड़ों से उतरता झरना ----
कल - कल बहती ये दरियां ----
खिलता हुआ कमल ......
मुस्कुराते हुए बाग़ ......
कोयल का सुर ......
हरिराम चौरसिया की बासुणी की धुन .....
बिस्मिल्लाह खान की सहनाई की धुन .....
गोदी के बच्चे की किलकारियां ----
आखिर क्या कारण है की पल - दो पल से अधिक ये भी इन्शान को पकड़ नहीं पाते ?
आखिर मनुष्य क्यों इतना तनहा है ?
मनुष्य न जीना चाहता है , न मरना लेकीन .....
अमरत्व की दवा आखिर क्यों खोज रहा है ?
अमरत्व की दवा खोजनें वाला इन्शान जहर खा कर क्यों मर रहे हैं ?
एक नहीं ऐसे अनेक प्रश्न हम - सब के अन्दर सदैव रहते हैं , लेकीन ......
हम इनसे बचनें के लिए कहीं ठहर नहीं पाते ॥
उठा दो परदे को .....
खोल दो जख्मों को , सूखनें दो इनको .....
अपनें दिल की किताब के एक - एक अक्षर को पढो , डरो नहीं और तब .......
आप के मर्ज की दवा आप के पास दिखेगी , जिसकी तलाश में ....
आप बादशाह होते हुए भी ----
भिखारी की तरह इधर से उधर , उधर से इधर ....
चक्कर काटनें में अपनें समय को गुजार रहे हो ॥

===== सब कुछ तो अन्दर है ======

Wednesday, November 10, 2010

लौट आये ----- ?

पत्नी, पति को देख कर कहती हैं --------
क्या हुआ , रास्ते में, की आप वापिस आगये ?
सुबह चार बजे उठे , नहाया - धोया , नास्ता तक नहीं किया , कह रहे थे , ब्रह्म सरोवर में नहा कर
पूजा करनें के बात वहीं कुरुक्षेत्र में नास्ता करूंगा और अभी घंटे भर भी न हुआ की लौट आये ?
पति का मूड खराब सा दिख रहा था
और धीरे से बोले ------
एक कप चाय यदि मिल जाती तो -----
पत्नी उठी एक कप चाय बना कर ले आयी और धीरे से बोली , आखिर बात क्या थी ------ ?
पति कहते हैं - क्या बताऊ , बश मन खराब सा हो उठा और नेसनल हाई- वे से ही वापिस हो लिया ।
पत्नी पूछती हैं , अरे बात तो बताओ की मन कैसे खराब हो गया ?
पति कहने लगे .....
मेरे सामनें एक सात आठ साल के स्कूली बच्चे को एक ट्रक वाला कुचल कर भाग गया , लोग और मैं
देखते ही रह गए । यही कारण है , मन खराब होनें का ।

पति जिसको मन खराब होनें का कारण बता रहे हैं ,
उस स्थिति के बारे में सोचना ।
जारहे थे उस स्थान को देखनें जहा संसार का पहला विश्व - युद्ध लड़ा गया था और आ गए वापिस एक
मौत को देख कर । जिस को मन खराब होनें का कारण बता रहे हैं - पतीजी ,
उस स्थिति को एक बार आप भी पुनः सोचो ।
बहुत से ऐसे मौके जीवन में मिलते हैं जहां से जीवन मार्ग एक मोड़ लेता है ।
यदि यह हादसा उनके जिगर में उतर गया होता तो .......
घर आकर चाय न माँगते ,
संन्यासी बन कर कहीं भिक्षा माग रहे होते ।
जीवन मार्ग जिस घड़ी मुड़ता है , वह घड़ी या तो ......
योगी बना देती है ।
वह स्थिति जहां तन , मन और बुद्धि में बहनें वाली
ऊर्जा स्थिर हो जाती है , उस घड़ी .....
मन दर्पण पर प्रभु दिख सकता है ॥
प्रभु का दिखना अर्थात ........
संन्यास में कदम रखना ॥

भविष्य में जब भी आप के जीवन में कोई ऎसी स्थिति आये जिस से मन खराब हो रहा हो , तो आप
वापिस घर आ कर चाय न पीना , जाना कुरुक्षेत्र जैसी जगह में और उस घाव को तब तक
हरा करते रहना जब तक प्रभु का दर्शन न हो जाए ॥

कुछ देखो और कुछ समझो

Tuesday, November 9, 2010

रहस्य और दर्शन

पाइथागोरस की प्रमेय है :------
ऐसा त्रिभुज जिसका एक कोण नब्बे अंश का हो , उसके कर्ण का यदि आप बर्ग करदे
जैसे यदि पांच इंच हो तो पांच का बर्ग होगा 5x5=25 , तो यह रकम शेष दो भुजाओं के
बर्ग के योग के बराबर होगी ॥
उदाहरण लेते हैं -----
जैसे एक ऐसा त्रिभुज है जिसका एक कोण नब्बे अंश का है , आधार चार इंच का है ,
दूसरी भुजा तीन इंच की है
तो -- तीन का बर्ग + चार का बर्ग और इस रकम का बर्गमूल जो होगा वह होगा
कर्ण की लम्बाई ।

यह प्रमेय वैदिक गणित में आठ सौ साल इशा पूर्व में दी जा चुकी है
और इस प्रमेय की आधार पर
मिस्र [ इजिप्त ] की सारी पिरामिडों की बनावटे आधारित हैं ।

हम चर्चा कर रहे हैं रहस्य और दर्शन के ऊपर , रहस्य वह है जिसको ब्यक्त किया ही नहीं जा सकता और
जो लोग इस असंभव को संभव बनाना चाहते हैं , उनको कहते हैं - दार्शनिक । रहस्य को जो देखता हुआ
चुप रह जाता है , वह है मिस्टिक , और जब वह अपनें नजदीक रहनें वालों को कुछ - कुछ बातें
बताता है तब उनमें से कुछ जो बुद्धि आधारित होते हैं , वे बिना अनुभव के रहस्य को शब्दों में बाधते है ।
जो लोग ऐसा करते हैं , उनको दार्शनिक कहते हैं ॥
मैं बहुत पहले लिखा था -------
जो बिना अनुभव गाता है , यह समझ कर की वह गा रहा है तो वह होता है - कबी
और जो जिसमें जीता है और उसको गाता है , वह है - ऋषि ॥

पाइथागोरस के ही समय [ लगभग ] भारत में महाबीर थे और बुद्ध , जो सत्य में जी रहे थे लेकीन कभी
गणित के बारे में सोचा भी नहीं क्योंकि
वे प्रकृति - पुरुष के द्रष्टा थे
और देखनें में उनको परम आनंद
मिलता था ।
आइन्स्टाइन का सापेक्ष - सिद्धांत बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गणित - रूप में आया लेकीन
महाबीर का सापेक्ष - सिद्धांत छब्बीस सौ साल पुराना है और उसको आज जाननें वाले शायद हो भी न ॥

===== जीवो मेरे प्यारों , अलमस्ती में जीवो =====

Monday, November 8, 2010

कितनें मौके आ रहे हैं ..........

हिन्दू परम्परा में कितनें मौके हैं , आगे सरकने के लेकीन ......
हम पहाड़ की भाँती एक जगह स्थिर हो चुके हैं , कुछ ऐसा दिखता है ॥

** अभी - अभी हमनें देखा गणेश पूजा ----
मिटटी से गणेश की प्रतिमा मन के आधार पर रची , उसे कुछ दिन घर में रख कर पूजी और एक दिन
उस प्रतिमा को पानी में प्रवाह कर दी , आखिर यह है क्या ?
पश्चिम के लोग कहेंगे , यह पागलपन है लेकीन यह साधाना की एक सीढ़ी है जो बहुत मजबूत है ।
प्रतिमा को बनाना , मन की साधना है ......
प्रतिमा प्रतिमा का नियमित पूजा करना , साकार साधना है .....
प्रतिमा का एक दिन विसर्जन कर देना है ------
साकार से निराकार में प्रवेश करना ॥
सीधे निराकार में कोई कैसे प्रवेश पा सकता है , ऐसे लोग शदियों बात अवतरित होते हैं जो जन्म से
निराकार में होते है ॥
** दीपावली आयी , चारों ओर रंग - बिरंगी रोशनिया देखनें को मिली ,
खूब खाया - पीया और ....
मौज उड़ाया और अब वह दिन भी गुजर गया लेकीन
क्या हम कुछ करवटें बदले ? जी नहीं वहीं के वहीं हैं ।

** अब आ रही है कार्तिक पूर्णिमा जिसको गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं ,
यह वह दिन है जिस दिन बुद्ध को
निर्वाण मिला था और धर्म शात्र कहते हैं .....
इस दिन चाँद से अमृत टपकता है ॥

क्या इस दिन को भी वैसे ही जानें देना है ?
तड़प तो हर इन्शान को है , सब पूर्ण से जुड़ना चाहते हैं क्योंकि हम सब में उसका अंश है ,
हम सब उसके ही अंश हैं , हम ऐसे हैं इस संसार में .......
जैसे मेले में कोई लड़का अपनें पिता की उंगली छूट जानें से कहीं गूम हो गया हो और उनको खोज रहा हो ।
ऐसा बच्चा घडी भर के लिए तो कहीं चुप हो जाता है लेकीन उसके अन्दर खोज की ऊर्जा बवंडर की
तरह चलती ही रहती है और जब -----
वह अपनें पिता को पा जाता है तब उसकी खुशी को देखना , यह वह खुशी है .....
जिसको परमानंद कहते हैं ॥

कार्तिक पूर्णिमा के दिन सबसे अधिक लोग .....
निर्वाण प्राप्त करते हैं -----
सबसे अधिक लोग पागल भी होते हैं ------
पागल होनेंवालों में ......
स्त्रियों की संख्या कम और पुरुषों की संख्या अधिक होती है ॥

कार्तिक पूर्णिमा की रात चाँद की रोशनी ....
किसी को पागल बनाती है तो
किसी को निर्वाण में पहुंचाती है .....
आप क्या चाहते हैं ?

==== आओ चलें अब उस पार =====

Sunday, November 7, 2010

देख तो सकते हैं ?

बुद्ध संन्यास देनें से पहले कहा करते थे ------
जाओ समसान पर छः महीनें रहो और तब आना .........

उन दिनों लोग ईमानदार हुआ करते थे , क्योंकि ------
संन्यास कोई ब्यापार न था , लोग सत को समझनें के लिए संन्यासी जीवन गुजारना चाहते थे ।
उन दिनों भोग के लिए था भी क्या ? साधारण भोजन और साधारण भेष - भूसा और स्त्री एवं बच्चों का संग ॥
उन दिनों सीमित भोग - साधन थे लेकीन फिर भी लोग गुफाओं में रह कर ध्यान किया करते थे और जब
उनको सत का पता लगता था तो चल पड़ते थे बस्तियों की ओर , लोगों को अपना अनुभव बाटनें
के लिए ॥
इधर मैं कुछ महीनों से सुबह और साम एक बहुत बड़े हस्पताल में जाता हूँ और देखता हूँ ,
संसार की गति को ॥
कहीं कोई आ रहा है ......
कहीं कोई जा रहा है .....
कहीं संगीत चल रहा है .....
कहीं आंसू टपक रहें हैं ......
लेकीन दोनों परिस्थितियों में एक बात सामान्य है .......
आनें वाला आना नहीं चाहता ----
जानें वाला जाना नहीं चाहता ,
और ......
आनेंवाला जब आता है , तब वह बेहोशी में होता है , आँखें बंद होती हैं ,
और .....
जो जा रहा है , वह भी बेहोशी में है , और ज्यादातर लोगों की आँखें भी बंद होती हैं या .....
लोग बंद कर देते हैं ॥
यह है प्रभु रचित संसार .....
जहां आना और जाना लगा हुआ है लेकीन कोई न आना चाहता है .....
और न कोई जाना चाहता है ॥
जिस दिन यह पता लग गया की न चाहते हुए भी ......
आना - जाना क्या है , समझो .....
सब मिल गया ॥

===== देखना तो पड़ेगा ही ====

Saturday, November 6, 2010

लोग देख क्या रहे हैं ?

लोग परेसान हैं ------
लोग नुक्कड़ों पर टोलियाँ बना कर आपस में तर्क कर रहे हैं ----
कोई कहता ......
पहले तो कभीं इस गाँव में देखा नहीं ----
कोई कहता ......
होगा कोई दूर का रिश्तेदार -----
कोई कहता .....
बिचारा कुछ मांगनें आया होगा ----
कोई कहता .....
क्या पायेगा , जब वह जिसके पास आया है , वह स्वयं आगे - पीछे से नंगा है ?

जब लोगों को अपनें ही प्रश्नों के साथ रहना कठिन हो जाता है
तब .......
सभीं अपनें - अपनें घर चले जाते हैं और अपनें - अपने बच्चों , पत्नियों से पूछते हैं -----
अरे ज़रा सुनना ......
पत्नी खुश हो उठती है और जल्दी - जल्दी भागी - भागी जाती है और कहती है -----
पप्पू के पापा - क्या बात है ?
पप्पू के पापा कहते हैं , ज़रा बैठना , यह नकली प्यार भरे शब्द पत्नी के अन्दर असली प्यार की
लहरें उठानें लगता है , और इतनें में पप्पू के पापा कहते हैं ------
सूना है - पड़ोसी के यहाँ कोई मेहमान आया है , पहले तो कभी उसे देखा नहीं ,
क्या तुमको कुछ मालूम है ?
पत्नी कहती हैं -----
भला मुझे क्या पता ? मैं तो आंटा गूथ रही हूँ ॥
पति कहते हैं - ठीक है फिर जाओ और जल्दी से भोजन बनाओ ,
मुझे शहर काम से जाना है , यहाँ क्यों बैठी हो ?
पत्नी के सारे अरमान झुलस उठते हैं और बिचारी दबे पैर चल पड़ती है ॥

आप ज़रा सोचना ------
लोगों को दुसरे के अन्दर झाकने से क्या मिलता है ?
लोग चैन से दो घडी क्यों नही रहना चाहते ?

बुद्ध
महाबीर
गीता
उपनिषद्
जे कृष्णामूर्ति
रमण महर्षि
चन्द्रमोहन रजनीश - ओशो
सब कहते हैं - एक बात .....
मन - बुद्धि को रिक्त करो क्योंकि .....
प्रभु किसी वक़्त आ सकता है , पर इन बातों का ......
हम पर क्या कोई असर होता है ?

===== इस दीपावली से अगली तक =======

Friday, November 5, 2010

हम समझना नहीं चाहते , क्या ?

** हम अपनें जीवन को जितना सुलझाना चाहते हैं , वह उतना और उलझ जाता है , क्यों ?
** ऐसा सब के साथ हो रहा है या केवल मेरे साथ ?
** यदि सब की हालत एक सी है तो ----------
++ हम इसकी बुनियाद को क्यों नहीं पकड़ना चाहते ?
++ हम असल में बुनियाद तक पहुँचना नहीं चाहते ॥

हमारी सारी चाहतें क्षणिक हैं ......
## हम इंतज़ार में विश्वास नहीं करते ॥
## हमारी चाहत होती है - जो मिलना है , वह अभी मिल जाए ॥
हमें मार्ग की तलाश में केवल एक दिशा दिखती है की .......
हमें चाहिए अपनें उलझनों से दोस्ती करना , और ऎसी दोस्ती की ......
$ हमें उसका पल - पल का बोध हो , जो हमसे हो रहाहो ॥

हमारा सुलझन के लिए उठा हर कदम उलझन में पड़ता है , क्यों की हम भोग की यात्रा पर हैं ॥
भोग में भोग के समय जो क्षणिक सुख मिलता है , उस सुख में दुःख का बीज पल रहा होता है ॥
ऐसा कोई क़ाम नहीं जिसमें दोष न हो , लेकीन यह समझते हुए कर्म क़ा चुनाव होना चाहिए ॥
भोग कर्म में मात्र क्षणिक सुख ही मिल सकता है , बाद में निराशा ही नज़र आती है ॥

सुखी जीवन जीनें के लिए आप के पास एक रास्ता है ........
गीता पढ़िए और गीता में अपनी कुटी बनाइये ॥
ना काहू से दोस्ती , ना काहू से बैर , इस बात को गीता कहता है ......
सम भाव ॥

******** आप सब को दीपावली एक नयी ऊर्जा से भर दे ********
====समझना तो पड़ेगा ही ======

Thursday, November 4, 2010

जीवन की रस्सी को तो --------



जीवन को जिन - जिन रस्सियों से हमनें बाध रखा है ,
उनको को धीरे - धीरे खोलना ही पड़ेगा ,
चाहे यह काम अभी से प्रारम्भ कर दें या कोई मुहूर्त निकलवा कर करे ,
इसके बिना मनुष्य हो कर भी
हमें पशुवत जीवन में रहना ही होगा ।
वह कौन सी रस्सियाँ हैं जिमें हम अपनें जीवन को फसा रखे हैं ?
बारीकी से यदि देखा जाए तो .....
हमारा जीवन दो पर आधारित है -----
[क] सुरक्षा और .....
[ख] प्यार ......
सुरक्षा के लिए हम महल बनवाते हैं और प्यार के लिए पत्नी की तलाश करते हैं ।
सुरक्षा के लिए जब महल बन जता है तब हम खूब खुशियाँ मनाते हैं
और गृह प्रवेश के नाम पर
एक अच्छा मनोरंजन का प्रयोजन भी करते हैं ,
लेकीन क्या हम सुरक्षित मह्शूश कर पाते हैं ?
जिस प्यार के लिए हम घर बसाते हैं , बच्चे पैदा होते हैं
लेकीन क्या वह प्यार हमें मिल पाता है ?
मनुष्य को जिस दिन इन दो प्रश्नों का माकूल जबाब मिल जाता है
उस दिन सभी बंधन अपनें आप
गिर जाते हैं और -----
वह मनुष्य ससार में रहता हुआ , स्वयं को ......
प्रभु में देखता है ॥
वह कौन सी रस्सियाँ हैं जिमें हमारा जीवन नारज की ओर जाता दिखता है ?
इस प्रश्न को आप स्वयं देखें और सोचें की ऐसे बंधन कौन से हैं ?

==== सब शान्ति में रहें =====

Tuesday, November 2, 2010

आओ रामू काका से मिलते हैं

रामू काका अब अकेले अपनें गाँव में रहते हैं ,
होगी उनकी उम्र लगभग सत्तर साल की ।
अब से लगभग पैतालीस साल पहले रामू काका उस जमानें में
चार साल की इंजिनीअरिंग की डिग्री ली थी ।
मुझे मालूम है की परमात्मा का उन पर बहुत स्नेह रहा है ।
कक्षा पांच से अभियंत्रण की डिग्री तक उनके
सामनें अनेक समस्याएं आयी लेकीन रामू काका गिर - गिर के उठते रहे ।

जब मैं रामू काका के गाँव पहुंचा तो अब तक लगभग वह गाँव वैसे के वैसे पडा है ,
कोई विकास नहीं , विश्वविद्यालय से डिग्रीयां ले - ले के बेकार समय काट रहे हैं ;
उनमें कोई स्नातक है ,
कोई स्नातकोत्तर है तो कोई शोध भी किया हुआ है
पर नौकरी के नाम पर शून्य ही दिखता है ।

मैं सोच रहा था - देखते हैं , रामू काका मुझे अब पहचानते भी हैं या नहीं ।
मैं गया अन्दर उनके एक छोटे से मकान में , झुक कर प्रणाम किया ,
रामू काका की आँखें भर आयी ,
और मैं भी भाउक हो उठा । मैं काका से पूछा - काकाजी !
आप के बच्चे कहाँ हैं ? काकाजी बोले - बेटा ! तुमको तो मालूम ही होगा
क्योंकि तुम भी तो इसी गाँव के हो , हाँ ठीक है आज परदेशी बन गए हो ।
मेरा एक बेटा लन्दन में है , दूसरा अमेरिका जानें की तैयारी कर रहा है और इस समय
वह दील्ली के पास किसी विदेशी कम्पनी में है ।
मैं बोल पडा - काका एक को तो अपनें पास रखते ?
काका को मानो जैसे करेंट लग गया हो , बोल पड़े - क्या कहते हो ?
सूख रहे पेड़ के लिए वह अपनी जिन्दगी बेकार कर दें ?

मैं तो प्रभु से कहता हूँ -
हे प्रभु !
यदि अगले जनम में इंसान बनाना तो ऎसी ही औलाद देना ॥
मनुष्य को इतना भी स्वार्थी नहीं होना चाहिए की अपनें लिए अपनें बच्चों के जीवन की
रफ़्तार को कम करदे ।

==== काका का दिल प्यार से भरा पड़ा है =====

Monday, November 1, 2010

तलाशिये ऐसे लोगों को -------


## जो मध्य उम्र के हों और उनके अन्दर परमात्मा की सोच किसी न किसी रूप में न हो .........
## जो परमात्मा के नाम पर सिकुड़ न जाते हों .......
## जो परमात्मा से डरते न हों ......
## जो परमात्मा को अपनें साथ - साथ साकार रूप में रखना चाहते हों .....
## जो परमात्मा को अपनी ढाल न बना कर रखना चाहते हों .....
## जो परमात्मा से वह सब न चाहते हों जो उनके लिए असंभव लग रहा हो ......
लोग परमात्मा को क्यों चाहते हैं ?
** क्यों की परमात्मा कुछ कहता नहीं ------
** क्योंकि परमात्मा तर्क - वितर्क नहीं करता ------
** क्योंकि परमात्मा कुछ फूल , कुछ अक्षत [ चावल ] , सड़ा-गला फल से खुश हो कर वह देता है ,
जो .....
[क] लगभग असंभव होता है .....
[ख] जो किस्मत बदल देता है ....
[ग] जो पुत्र - धन देता है .....
[घ] जो अति सुन्दर नारी देता है ....
[च] जो सुख , सम्पति देता है .....
भला ऐसे को कोई क्यों नहीं चाहेगा
जो -----
तन , मन , सुबुद्धि , धन - दौलत , पुत्र , नारी और मरनें के बाद स्वर्ग , जहां के भोग के लिए देवता
भी तरसते हैं .......
जिसकी मांग शून्य हो ......
अब आप सोचिये =======
जब मन - बुद्धि में इतना कूड़ा - करकट भरा है
तो क्या ....
हम परमात्मा को हासिल कर सकते हैं ?
भाई ! कहाँ चले , परमात्मा को तलाशनें -ज़रा -------
अपनें अन्दर झाँक कर देखना , कहीं वह .......