Friday, November 25, 2011

स्वयं की पहचान ही उसकी पहचान है

लोग कहते हैं--------

कहाँ है भगवान?

कैसा है भगवन?

किसका है भगवन?

सबका एक या सबका अगल – अलग है भगवन?

मैं समझता हूँ , आज लोगों के मन में जितनें प्रश्न भगवन के संबंध में हैं उतनें प्रश्न किसी अन्य बिषय पर नहीं ,, क्या कारण है कि प्रभु के ऊपर भी मनुष्य प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है ? मनुष्य प्रभु को भी आजाद नहीं रखना चाहता ; कोई उसे मंदिरों में , कोई उसे गिरिजा घरों में और कोई मस्जिदों में क्यों बंद करना चाहता है ? सपूर्ण ब्रह्माण्ड का रचयीता को भी मनुष्य पिजडे में क्यों बंद करना चाहता है ? जरुर कोई कारण तो होगा ही ?

मनुष्य परमात्मा के सम्बन्ध में तो प्रश्नों का तंत्र बना रखा है …...

मनुष्य स्वयं के सबंध में प्रश्न रहित रहता है …..

इन दो बातों से क्या ऐसा नहीं दिखता कि मनुष्य अपनीं पीठ की ओर चल रहा …

मनुष्य का मुख तो है किसी ओर और उसकी गति है किसी ओर … .

आप कभी उलटा चल कर देखना , बहुत कठिन होता है , उल्टा चलना अर्थात प्रभु की तरफ पीठ करना / एक तरफ हम प्रभु की शरण प्राप्ति की कोशीश में दिखते हैं और दूसरी ओर अपनी पीठ उसकी और रखते हैं . क्यों हम अपना मुह प्रभु की ओर नहीं रहना चाहते ? क्योंकि हम क्या कर रहे हैं उसके प्रति हम स्वयं बोध रहित हैं और अचेतन स्थिति में किया गया कार्य फल रहित बृक्ष कि तरह होता है जहां तनहाई के अलावा और कुछ नहीं रहता //

आप और हम जबतक प्रभु की आँखों में नहीं झाकनें का प्रयत्नं करते तबतक हमें - आप को तनहाई , सागर में ही डूबे रहना है और डूब हुआ मनुष्य कैसा होगा इसकी खोज को मैं आप पर छोडता हूँ //

मैं तो इतना कह सकता हूँ कि -----

स्वयं की तलाश ही प्रभु की तलाश है//

=====ओम्======


Friday, November 18, 2011

आप की उम्र क्या है

क्या कारण है कि मनुष्य के जीवन में चालीस साल तक की उम्र अपनी

एक अलग जगह रखती है?

अब आप देखना ….

जयशंकर प्रसाद कामायनी की रचना लगभग चालीस साल की उम्र में की

तुलसीदास जी चालीस साल की उम्र में रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की

बुद्ध को चालीस साल की उम्र में परम सत्य दिखा

महाबीर को चालीस साल की उम्र में संसार एक भ्रम सा दिखनें लगा

आदि गुर ु नानकजी साहिब को तीस साल की उम्र में बोध हुआ

रामकृष्ण परम हंश को परम सत्य का बोध हुआ जब वे अभीं 15 साल के भी नहीं हुए थे

आदि शंकराचार्य का जीवन ही चालीस साल से भी कम का रहा है

मीरा,रहीम को बाल कृष्ण सर्वत्र दिखानें लगे जब उनकी उम्र अभीं प्रौढा अवस्था में भी नहीं पहुंची थी रमण महर्षि एवं चैतन्य महा प्रभु को बोध हुआ जब उनकी उम्र तीस स्साल के आस पास रही होगी अलबर्ट आइन्स्टाइन को42साल की उम्र में नोबल पुरष्कार उस बिषय पर मिला जिसको वे अपनी21साल की उम्र में अनुभव की थी/

यदि आप नोबल पुरष्कार विजेताओं को देखें तो आप को ताजुब होगा की लगभग 85% लोगों को

उन – उन बिषयों पर पुरष्कार मिला है जो उनके प्रारंभिक बिषय थे अर्थात जिनके बारे में उनको सोच प्रारंभ हुयी थी लगभग 15 – 25 साल की उम्र में और उसका परिणाम मिला उनको लगभग 35 साल की उम्र से 70 साल की उम्र के मध्य जा कर /

विश्व के अति माने जानें वाले मनोवैज्ञानिक Jung कहते हैं , शायद ही कोई ऐसा मिले जिसकी उम्र चालीस साल पार कर रही हो और उसके दिमाक में परमात्मा की सोच न हो ; जुंग का परमात्मा कौन है ? जुंग का परमात्मा परम सत्य है , वह परम सत्य जो संसार को चला रहा है /

आप की उम्र क्या है?ज़रा विचार करना और अपने को देखनें का प्रयाश पकरना क्या पता--- ?


======ओम्======




Wednesday, November 16, 2011

एक निगाह इधर भी

मां की गोदी----

पिता की उंगलियां-----

पत्नी का प्यार------

पुत्र – पुत्री के बड़े होने का इन्तजार----

और फिर … ..

पौत्र – पौत्री के बड़े होनें का इन्तजार----

यह है भ्रान्ति से भरी हुयी भोग आधारित सोच जिसके सहारे मनुष्य का जीवन परम के प्रकाश में भ्रान्ति के अँधेरे में न जानें कब , कैसे और कहाँ समाप्त हो जाता है ? इधर देह चलनें से इनकार करता है और गिर जाता है और उधर मन तडपता हुआ आत्मा के साथ उड़नें लगता है , खोजनेंलगता है किसी और नये देह को जिससे वह , वह कर सके जो अभीं नहीं कर पाया था या जिसको किया तो था लेकिन तृप्तता न मिल सकी थी / कैसा है यह भ्रान्ति का जीवन ? भ्रान्ति शब्द आप को उचित नहीं लग रहा है लेकिन मैं और कोई शब्द पाता भी तो नहीं ; भ्रान्ति की परिभाषा है – वहाँ जहां अनुमान अनुमान नहीं रह जाता अपितु अनुमान कर्ता को पूर्ण विश्वाश हो जाता है कि अमुक ऐसा ही है और जहां अनुमान अनुमान रहता है उसे संदेह कहते हैं / देखा आपनें जीवन का यह भोग आधारित समीकरण जहां सत्य के प्रकाश को असत्य का अन्धेरा कैसे घेर रखा है ? पुत्र के रूप में मां - पिता के सहारे की सोच में हमारा बचपन निकल गया , जवानी पत्नी ई सोच में गुजर गया और पता भी न चल पाया और जब बच्चे पहले चाचा फिर तौ फिर दादा कहने लगे तो विश्वास ही नहीं होता कि हमारी उम्र यहाँ पहुँच चुकी है और अंततः सभीं सहारे बेसहारे हो जाते हैं और , और सहारे की सोच के लिए वक्त भी नहीं रह जाता और इधर श्वास रुक - रुक के चलने लगाती है और वह घडी आ ही जाती है जब -----

कहाँ

कैसे

और कब यह श्वास रुक जाती है,कुछ नहीं पता लग पाता

यह है हम सब के जीवन की एक झलक


======ओम्=======


Tuesday, November 15, 2011

वासना से प्यार की यात्रा

कौन किसका कितना और कबतक अपना है ?

प्यार और वासना

सुरक्षा और भय

यह दो कड़ियाँ ऎसी हैं जिनका सीधे सभीं जीवों के जीवन से गहरा सम्बन्ध है / मनुष्य मात्र एक ऐसा जीव है जो द्वैत्य के माध्यम से अद्वैत्य की हवा को पहचान सकता है और अन्य जीव गुणों के प्रभाव से परे कभीं नहीं पहुच सकते ; उनका जीवन स्टीरियो टाइप है अर्थात जन्म , भोजन , काम , सुरक्षा एवं मृत्यु इनके मध्य सीधी रेखा में उनका जीवन आगे चलता रहता है / मनुष्य के जीवन के दो केंद्र हैं [ bipolar life ] एक केन्द्र है राम और दूसरा केंद्र है काम ; राम केंद्र का मार्ग है प्यार और काम का मार्ग है वासना / मनुष्य वासना से प्यार में पहुँच कर अपने को धन्य समझता है और प्रभु की कुशबू ले कर समाधि में पहुँच कर परम धाम को देखनें लगता है और वासना में उलझा मनुष्य वासना के फल स्वरुप पैदा होता है , वासना की खोज में उसका जीवन गुजर जाता है और वासना की अतृप्त में उसे न चाहते हुए भी शरीर छोड़ना पड़ता है /

मनुष्य प्यार के लिए परिवार की रचना करता है , पत्नी - बच्चों में उसे वासना में निर्विकार प्यार की झलक मिलती रहती है और वह आगे चलता चला जाता है लेकिन वह होती तो वासना ही है , वह वासना के सम्मोहन में आगे चलता रहता है लेकिन जिस दिन बुद्ध – महाबीर जैसे वाशना में होश उठता है उस दिन वह वासना को धन्यबाद करके चल पड़ता है सत् पथ पर जहां जो होता है वह सत् ही होता है / मनुष्य सुरक्षा के लिए महल बनवाता है , धन इकट्ठा करता है लेकिन क्या उसे कभी यह मह्शूश हो पाता है कि अब वह पूर्ण सुरक्षित है ? जी नहीं / साधनों से सुरक्षित कैसे हो सकता है ? साधन जैसे - जैसे बढते जाते हैं मनुष्य और अधिक अशुरक्षित महशूश करनें लगता है / पूर्ण सुरक्षा तब महशूश होती जय जब मन पूर्ण शांत हो और उस परम पर टिका हो जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सुरक्षा चक्र है / सब कहनें की बाते हैं , अमुक मेरा बेटा है , अमुक मेरी पत्नी है , अमुक मेरा पिता है अमुक मेरी मां है कोई किसी का नहीं सब अपनें - अपने स्वार्थ में डूबे हैं लेकिन इनसे नफरत करना अपने को नर्क में डालना है , ये सभीं सीढियां है सबको एक - एक करके समझते रहो और अंत में जहां तुम्हारी यह होश ले जायेगी वही परम प्रभु पा आयाम होगा जहां परमानंद बसता है //

काम से राम की यात्रा मनुष्य के जीवन की यात्रा है

काम से काम में स्थिर अन्य जीवों के जीवन की गोलाकार यात्रा है

मनुष्य कभी हसता है तो कभी रोता है जो बाहर से स्पष्ट दिखता है

अन्य जीव जब रोते हैं या हस्ते हैं तब मनुष्य को पता भी नहीं चल पाता

मनुष्य नशे में रहता है उसे दूसरों का रोना देख हस्त है और हसता देख कर क्रोध करता है लेकिन यह पूर्ण भोगी मनुष्य के लक्षण हैं जो इनको समझा वह गया उस पार


======ओम्========


Sunday, November 13, 2011

इसे भी देखो और समझो

जिससे आप कभीं मिले नहीं

जिसको आप कभीं सुने नहीं

जिसको आप कभीं देखे नहीं

उसकी मात्र फोटो देख कर आप उसे अपना बना लेते हैं या उससे नफरत करनें लग जाते हैं आखिर ऐसा क्यों होता है?आप किसी की तस्बीर देख कर,किसी की मूर्ती देख कर उससे या तो दूर हो जाते हैं या उसे अपना लेते हैं,ऐसा क्यों होता है?क्या कभीं आप इस बिषय पर सोचे हैं?

एक महान मनोवैज्ञानिक का कहना है कि हम किसी को ठीक वैसा समझते हैं जैसा उसे हमारा मन देखता है,मन के पास ऐसा कौन सा साधन है कि वह समझ जाता है कि अमुक अच्छा है और अमुक खराब है?

जब हम किसी की मूर्ती या तस्बीर देखते हैं और इस निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि वह ठीक है या खराब;इस रहस्य में बहुत गहरा विज्ञान छिपा है आइये देखते हैं इसे-------

सभीं मूर्तियों एवं तस्बीरों में एक ऊर्जा होती है बिना ऊर्जा कोई भी सूचना नहीं होती और उसकी अपनी ऊर्जा के साथ उसमें बनानें वाले की भी ऊर्जा आ जाती है/जब हम उसे देखते हैं तब-----

हमारे अंदर की ऊर्जा जिसका केंद्र मन होता है उस तस्बीर की ऊर्जा को पकडती है और-----

[]जब दोनों उर्जायें एक सी होती हैं तब हमारा मन उसे स्वीकार कर लेता है और …...

[]जब दोनों की आबृति एवं दिशा भिन्न – भिन्न होती हैं तब हमारे मन की ऊर्जा उसे अस्वीकार कर देती है,इस विज्ञान को टेलीपैथी कहते हैं/प्राचीन काल में इस विज्ञान का बहुत चलन था लेकिन अब लुप्त सा हो चला है//


=====ओम्======


Friday, November 11, 2011

इसे भी समझो

मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं देखता?

क्या अपनें को देखता है?

क्या उसका अगला पैर जहां पड़नें वाला होता है उसे देखता है?

क्या पेड़ – पौधों के अंकुरण को देखता है?

क्या उदित हो रहे सूर्य को देखता है?

क्या अस्त हो रहे सूर्य को देखता है?

क्या अपने बेटो/बेटी को देखता है कि वे कैसे आगे बढ़ रहे हैं?

क्या अपनें परिवार की सच्चाई को देखता है?

इस प्रकार ढेर सारे प्रश्न हैं जो असत्य के जीवन में सत्य की किरण दिखा सकते हैं लेकिन देखनें वाला दिल होना चाहिए / कोई नहीं चाहता खासकर अपने सम्बन्ध में सत्य को देखना लेकिन बिना सत्य को देखे उसे कैसे पता चलेगा कि वह किधर जा रहा है और उसे किधर जाना था ? एक छोटा सा बीज मिटटी में डाल कर देखना कभीं जब प्रकृति को नजदीक से देखना हो / बीज में एक बिंदु से दो बाहर निकलते हैं एक से तना बनता है और दूसरा जड़ का तंत्र निर्माण करता है ; एक आकाश को छूना चाहता है और दूसरा पृथ्वी की गहराई को मापना चाहता है . एक सूर्य को छूना चाहता है और एक जमीन के अंदर छिपे अन्धकार की गहराई को मापना चाहता है , एक सूर्य की तपस को पीता है और दूसरा जमीन के अंदर शीतल पानी की तलाश करता है , दोनों की दिशा अलग – अलग हैं , दोनों की सोच अलग – अलग हैं लेकिन दोनों का केंद्र एक होता है , बीज के अंदर एक ऎसी बिंदु होती है जो उन दोनों की मन होती हैं वहाँ दोनों एक से रहते हैं लेकिन मनुष्य क्यों ऐसे नहीं रह सकता ? हम क्यों चाहते हैं दूसरे को गुलाम बन कर रखना ? हमें कब होश आयेगी ? आप भी इस बात आर सोचना और मैं भी सोचूंगा //


=====ओम्======


Sunday, November 6, 2011

हम क्यों सिकुड़े से रहते हैं

क्या हमें भर पेट भोजन नहीं मिल रहा?

क्या हमें तन ढकने को वस्त्र की कमी है?

क्या सर ढकने को झोपडा नही है?

क्या बेटा वैसा न बन सका जैसा हम चाहते थे?

क्या पत्नी आप के इशारे पर नहीं चलती?

क्या जहां रहते हैं उस बस्ती का मोहौल ठीक नहीं?

आखिर कोई तो कारण होगा कि हम सिकुड़े से क्यों रहते हैं?

सुबह – सुबह सूरज निकल रहा है,सभीं पशु-पंछी खुशी-खुशी अपनें अपनें काम पर जा रहे हैं और एक हम हैं घर के एक कोनें में या घर से कुछ दूरी पर एकांत में बैठ कर बीडी से अपना कलेजा फूँक रहे हैं,आखीर वह क्या कारण हैं कि जीवों का सम्राट होते हुए भी हम चोर की तरफ एकांत में बैठ कर बीडी फूक रहे हैं,ऎसी कौन सी बात है?

एक काम करना होगा यदि हमें / आपको इस मर्ज की दवा चाहिए तो / सुबह – सुबह उठते ही अपनें पास एक कोरा कागज़ का टुकड़ा और एक पेन रखनी होगी / कागज़ – पेन को अपनी जेब में हर पल रखे रहें जबतक रात्रि में सोनें न जा रहे हों तब तक / बारह घंटों में जब भी आप दुखी हों या क्रोध के शिकार बनें उस की वजह को कागज़ पर लिख लें / इस बारह घंटों में आप का कागज़ भर जाएगा और जब रात्रि में सोनें जाए तब इस कागज को स्थिर मन से पढ़ें , आप पायेंगे कि आप को दुःख तब आता है या क्रोध तब आता है

जब -----

आप के अहंकार पर कोई चोट मारा होता है …..

जब आप की कामना खंडित होती दिखती है ….

मिल गयी वह बूटी जो मेरे / आपके मर्ज की दवा है , क्या है वह बूटी ?

कामना एवं अहंकार की छाया में रहना बंद करो

और

चैन से रहो,सम्राट की तरह जैसा

परमात्मा बना कर भेजा है//


=====ओम्=======



Wednesday, November 2, 2011

हवा का रुख


पुरुष का ज्यादा समय घर से बाहर गुजरता था


और


स्त्री का ज्यादा वक्त घर में ही गुजरता था


लेकिन


समय बदला , समय से साथ – साथ हवा का रुख बदला


और इस बदलाव में सबकुछ तो बदल गया //


पहले हवा पूर्व से पश्चिम की ओर बहती थी और अब पश्चिम से पूर्व की ओर चल पडी है / इस हवा के प्रभाव में हम सबका खान – पान , रहन – सहन , उठना - बैठना , पहनावा , भाषा और चाल सब कुछ तो बदल रहा है और है कोई जरुर कहीं न कहीं जो इस बदलाव को गहराई से निहार रहा है /


आज से बीस साल पहले कोई सोच भी न सकता रहा होगा कि स्त्रियों के सैलून होते होंगे और आज खोजना पड़ता है आदमी को अपनें सैलून को ; जहाँ देखो वहीं स्त्रियों के सैलून हैं , कहीं कहीं गरीब बस्तियों में एकाध सड़े - गले देखनें में ऐसे दिखते जैसे कोई ऐतिहासिक जगह हों , एकाध पुरुषों के सैलून भी दिख जाते हैं /


आज दूर से किसी बाइक चालक को देख कर यह कहना की यह चालक स्त्री है या पुरुष कुछ कठिन होगा , सब एक से दिखते हैं / आदमी का अधिकाँश समय घर से बाहर दो कारणों से गुजरता था ; एक घर को चलाने के साधनों का बंदोबस्त करना उनकी प्राथमिकता होती थी और इस कार्य में औरों के सहयोग की भी जरुरत होती थी, यही जरुरत समाज को जोड़ कर रखती थी और दूसरा करण था , पुरुष घर की परेशानियों से लड़ा हुआ अपने को अब और चलाना जब मुश्किल समझनें लगता था तब घर से बाहर निकल पड़ता था और ऐसे की तलाश में घूमता था जो उसको अपनी न सुना कर उसकी सुन सके लेकिन यह समीकरण किसी - किसी का सही बैठता था ज्यादातर लोग बाहर जा कर अपनें बोझ को और बढ़ा कर वापिस आते थे और उनका नज़ला घर के जिस सदस्य पर अधीन गिरता था वह होती थी उनकी पत्नीजी /


कहते हैं न --- जाति रहे हरि भजन को , ओटन लगे कपास , गए तो थे घर से बाहर कुछ हलके होनें लेकिन अपना वजन और अधिक बढा कर वापिस आगये / क्या करोगे गीता पढ़ के , क्या करोगे रामायण पढ़ के , यदि पढ़ना ही चाहते हो तो -------


हरपल अपनें को पढ़ो


अपनें को देखो


====== ओम् ======