Friday, November 11, 2011

इसे भी समझो

मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं देखता?

क्या अपनें को देखता है?

क्या उसका अगला पैर जहां पड़नें वाला होता है उसे देखता है?

क्या पेड़ – पौधों के अंकुरण को देखता है?

क्या उदित हो रहे सूर्य को देखता है?

क्या अस्त हो रहे सूर्य को देखता है?

क्या अपने बेटो/बेटी को देखता है कि वे कैसे आगे बढ़ रहे हैं?

क्या अपनें परिवार की सच्चाई को देखता है?

इस प्रकार ढेर सारे प्रश्न हैं जो असत्य के जीवन में सत्य की किरण दिखा सकते हैं लेकिन देखनें वाला दिल होना चाहिए / कोई नहीं चाहता खासकर अपने सम्बन्ध में सत्य को देखना लेकिन बिना सत्य को देखे उसे कैसे पता चलेगा कि वह किधर जा रहा है और उसे किधर जाना था ? एक छोटा सा बीज मिटटी में डाल कर देखना कभीं जब प्रकृति को नजदीक से देखना हो / बीज में एक बिंदु से दो बाहर निकलते हैं एक से तना बनता है और दूसरा जड़ का तंत्र निर्माण करता है ; एक आकाश को छूना चाहता है और दूसरा पृथ्वी की गहराई को मापना चाहता है . एक सूर्य को छूना चाहता है और एक जमीन के अंदर छिपे अन्धकार की गहराई को मापना चाहता है , एक सूर्य की तपस को पीता है और दूसरा जमीन के अंदर शीतल पानी की तलाश करता है , दोनों की दिशा अलग – अलग हैं , दोनों की सोच अलग – अलग हैं लेकिन दोनों का केंद्र एक होता है , बीज के अंदर एक ऎसी बिंदु होती है जो उन दोनों की मन होती हैं वहाँ दोनों एक से रहते हैं लेकिन मनुष्य क्यों ऐसे नहीं रह सकता ? हम क्यों चाहते हैं दूसरे को गुलाम बन कर रखना ? हमें कब होश आयेगी ? आप भी इस बात आर सोचना और मैं भी सोचूंगा //


=====ओम्======


1 comment:

Atul Shrivastava said...

प्रेरक पोस्‍ट।
आभार....