Saturday, February 17, 2024

पतंजलि योग सूत्र में धारणा से मोक्ष तक की योग यात्रा


पतंजलि योग सूत्र दर्शन में संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात और धर्ममेघ समाधियां एवं कैवल्य - मोक्ष  रहस्य 

किसी सात्विक आलंबन से चित्त बाध कर रखने का नियमित और निरंतर अभ्यास चित्त का उस आलंबन से जुड़े रहने का अभ्यासी बना देता है । लंबे समय तक आलंबन पर चित्त के जुड़े रहने के अभ्यास से ध्यान की सिद्धि मिलती है । ध्यान सिद्धि से विषय वितृष्णा का भाव गहराने लगता है ।  जब उसी आलंबन पर लंबे समय तक ध्यान स्थिर रहने लगता है तब संप्रज्ञात समाधि मिलती है ।मूलतः संप्रज्ञात  समाधि लंबे समय तक ध्यान में रहने का परिणाम है। संप्रज्ञात समाधि में आलंबन का स्वरूप सूक्ष्म हो गया होता है , केवल अर्थ मात्र प्रकाशित ( निर्भासित) ,होता रहता है । जैस - जैसे संप्रज्ञात समाधि सघन होती जाती है और धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि की सिद्धि एक साथ एक एक ही समय एक ही आसन में योगारूढ़ योगी को मिलने लगती है तब इसे संयम कहते हैं । इस योगाभ्यास का निरंतर अभ्यास करते रहने से संयम की सिद्धि मिलती है जिसके फलस्वरूप सिद्धियां मिलती हैं । जिस विषय पर संयम सिद्धि की जाती है , उस विषय से संबंधित सिद्धि मिलती है । पतंजलि योग दर्शन विभूति पाद में ऐसी 45 सिद्धियों की चर्चा की गई है। जैसे - जैसे साधना आगे बढ़ती जाती है ,  बुद्धि ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है अर्थात सत्य से भर जाती है । चित्त राजस और तामस गुणों से मुक्त हो जाता है केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का संचार होता रहता है । यहां ध्यान में रखना होगा कि चित्त त्रिगुणी होता है क्योंकि यह  त्रिगुणी प्रकृति का कार्य है । अब त्रिगुणी न रह कर  केवल एक सात्त्विक गुणी रह जाता है । 

ऋतंभरा प्रज्ञा से प्राप्त विवेक ज्ञान से प्रकाशित चित्त से पिछले संस्कार धुल जाते हैं लेकिन विवेक ज्ञान से नया सत् आधारित संस्कार निर्मित हो जाता है । विवेक ज्ञान पिछले श्रुति - अनुमान आधारित ज्ञान से ( वह ज्ञान जो शास्त्र आदि एवं अध्यात्मिक आचार्यों से मिलता है ) भिन्न होता है । समाधिष्ठ अवस्था में  चित्त कर्म एवं कर्म वासनाओं से मुक्त हो जाता है लेकिन जैसे ही समाधि टूटती है पिछले संस्कार और कर्म वासनाएं सक्रिय हो जाती हैं , फलस्वरूप समाधि टूटते ही योगी कस्तूरी मृग जैसा हो उठता है , अपनें कस्तूरी(समाधि )  की तलाश में बेचैन हो उठता है और वह पुनः उसी समाथिष्ठ अवस्था में लौटना चाहता है ।  जब योगी संयम सिद्धि से मिली सिद्धियों से विचलित नहीं होता तब योग यात्रा आगे चल कर असंप्रज्ञात समाधि में बदल जाती है जहां धारणा - ध्यान का स्थूल आलंबन का सूक्ष्म प्रकाशित स्वरूप का भी क्षय हो जाता है । अब बिना आलंबन , बिना कारण , अपने - आप असंप्रज्ञात  समाधि घटित होने लगती है और योगी विवेक ख्याति में होता है।

असंप्रज्ञात समाधि का निरंतर योगाभ्यास करते रहने से आगे चल कर धर्ममेघ समाधि घटित होती है । यहां विवेक ज्ञान से निर्मित संस्कार का भी क्षय हो जाता है और प्राप्त विभूतियों से भी वैराग्य हो जाता है । धर्ममेघ  समाधि कैवल्य का द्वार होती है । कैवल्य में ज्ञान अनंत हो जाता है , ज्ञेय अल्प हो जाता है , पुरुषार्थ शून्य हो जाता है और योगी गुणातीत होता है। कैवल्य कैवल्यावस्था में योगी औरों के लिए होता है लेकिन अपनें लिए वह नहीं होता , ऐसा प्रकृति लय और विदेह योगी अपनें स्थूल शरीर त्याग के दृष्टा रूप में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाता है जिसे मोक्ष कहते हैं । 

~~ ॐ ~~ 

Monday, February 12, 2024

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में चित्त एकाग्रता

पतंजलि योग सूत्र दर्शन चित्त एकाग्रता क्या है ?

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन में पुरुष प्रकाश से तीन गुणों की साम्यावस्था युक्त मूल प्रकृति विकृत हो जाती है (  इसकी साम्यावस्था खंडित हो जाती है ) और यह निष्क्रिय से सक्रिय हो उठती है , जिसके फलस्वरूप महत् (बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति  है । बुद्धि से अहंकार और अहंकार से मन सहित शेष 10 इंद्रियों एवं 5 तन्मात्रो तथा तन्मात्रो से 5 महाभूतो की निष्पत्ति है । बुद्धि अहंकार और मन को चित्त कहते हैं जो  मूलतः जड़ और त्रिगुणी है लेकिन पुरुष प्रभाव में यह सक्रिय एवं चेतन जैसा व्यवहार करता है । 

चित्त के दो धर्म हैं ; व्युत्थान और निरोधचित्त की चंचलता व्युत्थान धर्म के कारण है और चित्त की एकाग्रता , निरोध धर्म की पहचान है । पतंजलि योग दर्शन में अष्टांग योग साधना से बहिर्मुखी चित्त,अंतः मुखी बन जाता है अर्थात इसका रुख परिधि की ओर से केंद्र की ओर हो जाता है । यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और सबीज ( संप्रज्ञात ) समाधि , अष्टांगयोग के 08 अंग हैं । इन 08 अंगों में प्रारंभिक 05 अंगों को बाह्य अंग और आखिरी तीन अंगों को अंतरंग कहते हैं । चित्त का व्युत्थान धर्म से निरोध धर्म पर स्थिर हो जाना , चित्त एकाग्रता है और यही धारणा एवं ध्यान की सिद्धि का फल भी है । संपूर्ण ब्रह्मांड में को भी है वह त्रिगुणी है केवल पुरुष को छोड़ कर । हमारे देह में चित्त केंद्रित पुरुष को छोड़ शेष सब त्रिगुणी प्रकृति है । हमारी उत्पति 25 तत्त्वों ( प्रकृति , पुरुष , अहंकार , 11 इंद्रियां , 5 तन्मात्र और 5 महाभूत) के संयोग से हुई है । इन 25 तत्त्वों में से 24 तत्त्व त्रिगुणी एवं जड़ हैं केवल पुरुष तत्त्व निर्गुणी एवं चेतन है । 

चित्त केंद्रित पुरुष चित्त के माध्यम से संसार को देखता है और भोगता है । पुरुष करता और सुख - दुःख का भोक्ता भी है और प्रकृति के 23 तत्त्व इसकी मदद करते हैं । 

सात्त्विक आलंबन पर चित्त को स्थिर रखने का निरंतर बिना किसी रुकावट किए जाने वाले अभ्यास , चित्त को धीरे - धीरे राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों एवं इनसे निर्मित संस्कारों से मुक्त करने लगता है  । जैसे - जैसे यह अभ्यास दृढ़ होता जाता है , चित्त का व्युत्थान धर्म दबने लगता है और निरोध धर्म ऊपर उठने लगता है , फलस्वरूप चित्त में वितृष्णा का भाव भरने लगता है । 

सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता का अभ्यास चित्त में सात्त्विक प्रवृत्ति उत्पन्न करता है और चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष , अंतर्मुखी रहने लगता है। जब सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता अभ्यास देश और काल से अप्रभावित हो जाता है तब उस आलंबन का स्वरूप केवल अर्थ मात्र रह जाता है और उसी पर चित्त शून्य हो जाता है । इस अवस्था सबीज या संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । संप्रज्ञात समाधि का बार - बार घटित होते रहने  पिछले संस्कार धुल जाते हैं लेकिन नया सात्त्विक संस्कार निर्मित हो जाता है ।  चित्त एकाग्रता की सिद्धि को ही धारणा एवं ध्यान की सिद्धि भीं कहते हैं । चित्त को सात्त्विक आलंबन से बाध देना , धारणा है , धारणा में  देर तक बने रहना ध्यान है ।  धारणा , ध्यान और समाधि का एक साथ घटित होना संयम कहलाता हैं।   संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती है ( पतंजलि विभूति पाद सूत्र : 16  - 49 अर्थात 34 सूत्रों में  45 सिद्धियां बताती गई हैं  )। सिद्धियां समाधि से कैवल्य की यात्रा में रुकावट उत्पन्न करती हैं । जोनसिद्धियों के आकर्षण से बच जाता है वह आगे की योग यात्रा कर पाता है । 

~~ शेष अगले अंक में ~~


Wednesday, February 7, 2024

सांख्य एवं पतंजलि योगसूत्र दर्शनों में प्रकृति संयोग सिद्धांत के आधार पर मनुष्य की स्थिति

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन 

के आधार पर स्वयं को समझते हैं …….

  सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन के अनुसार पुरुष शुद्ध चेतन , स्वतंत्र , निर्गुण और  सनातन तत्त्व है । प्रकृति जड़ , स्वतंत्र , सनातन और त्रिगुणी तत्त्व है । तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते हैं । पुरुष और प्रकृति अति सूक्ष्म तत्त्व हैं । 

मूल प्रकृति , पुरुष से जुड़ते ही  विकृत हो जाती है और फलस्वरूप बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , पांच तन्मात्र और पांच महाभूतों के रूप में 23 तत्त्वों की निष्पत्ति होती हैं । इन 23 तत्त्वों में से प्रथम 03 तत्त्व - बुद्धि , अहंकार एवं मन को चित्त कहते हैं । मूल प्रकृति के जड़ और त्रिगुणी होने के कारण उसके 23 तत्त्व भी मूलतः जड़ एवं त्रिगुणी होते हैं ।

चित्त को कर्माशय भी कहते हैं । चित्त के अंग मन में सृष्टि प्रारंभ से वर्तमान तक के सभी किए गए कर्मों के फलों के बीज सूक्ष्म रूप में संचित रहते हैं । वर्तमान में इन कर्मों के फलों को मनुष्य के चित्त में स्थित पुरुष  सुख /दुःख रूप में भोगता रहता है ।  हम ऊपर व्यक्त  25 तत्त्वों के समूह हैं जिनमें 24 तत्त्व मूलतः जड़ और त्रिगुणी हैं केवल चित्त केंद्रित पुरुष चेतन एवं निर्गुणी हैं।  इसे ऐसे भी समझा जा सकता है - मानो चेतन एवं निर्गुणी पुरुष , प्रकृति सहित उसके 23 जड़ एवं त्रिगुणी तत्त्वोंसे निर्मित पिजड़े में कैद है । पुरुष प्रकृति संयोग के साथ चेतन पुरुष चित्ताकार हो जाता है और प्रकृति से 23 तत्त्वीं के माध्यम से संसार का अनुभव करने लगता है । 

ऊपर व्यक्त सिद्धांत सांख्य दर्शन का मूल सिद्धांत है । महर्षि पतंजलि अपनें योग सूत्र दर्शन में  195 सूत्रों के माध्यम से प्रकृति रूपी पिजड़े में कैद चेतन पुरुष को मुक्त कराने का विज्ञान देते हैं । जो इस योग सूत्र दर्शन में व्यक्त विज्ञान का अपनें जीवन में निरंतर अभ्यास करता रहता है , उसे वैराग्य के माध्यम से समाधि घटित होती है जिनसे उसे अपनें मूल स्वरूप का बोध होने लगता है और वह प्रकृति से मुक्त हो जाता है । जब पुरुष को स्व बोध हो जाता है और वह कैवल्य प्रवेश कर जाता  है तब विकृत हुई प्रकृति

 ज्ञान -अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य -  राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य इन 08 भावों में से ज्ञान को छोड़ शेष 07 भावों से मुक्त हो जाती है और ज्ञान माध्यम से अपनें तीन गुणों की साम्यावस्था में लौट आती है । 

पुरुषार्थ का शून्य हो जाना तथा गुणों का प्रतिप्रसव होना , कैवल्य है ।

ऊपर सांख्य दर्शन के प्रारंभिक 68 कारिकाओं और पतंजलि योग सूत्र दर्शन के 195 सूत्रों के आधार पर प्रकृति -पुरुष एवं सृष्टि निष्पत्ति के सार को व्यक्त किया गया ।

~~~ ॐ ~~

Monday, February 5, 2024

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में 14 योग बाधाएं



पतंजलि योग दर्शन में …..

सात्त्विक आलंबन पर एकाग्रता सिद्धि से 14 प्रकार की  योग साधना की बाधाओं से मुक्ति मिलती है   , कैसे ? देखें  यहां ⤵️

समाधि पाद सूत्र : 30 - 33

समाधि पाद सूत्र : 32

“ तत् प्रतिशोध अर्थम् एक तत्त्व अभ्यास: “

यहां तत् सूत्र 30 और सूत्र 31 में बताई गई 14 बाधाओं को संबोधित कर रहा है ।

सूत्र - 32 के माध्यम से ऋषि कह रहे हैं , एक तत्त्व अभ्यास से बाधाओं का नाश होता है । एक तत्त्व अर्थात एकाग्रता ।

एकाग्रता क्या है ?

क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और नीरू - चित्त की  05 भूमियों में चौथी भूमि एकाग्रता है ।चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की  यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और  समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः इन्हें ठीक से समझना होगा  ।

1-  क्षिप्ति  : चित्त की यह भूमि योगमें एक बड़ी रुकावट

 है । विचारों का तीव्र गति से बदलते रहना , चित्त की क्षिप्त अवस्था होती है । यह अवस्था तामस गुण प्रधान होती है शेष दो गुण दबे हुए रहते हैं ।

2 - मूढ़ : मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है ।  यह अवस्था राजस गुण प्रधान अवस्था होती है जिसमें ज्ञान - अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य - राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य जैसे 08 भावों से चित्त बधा रहता है । आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , भय आदि जैसी रस्सियों से चित्त जकड़ा हुआ होता है ।

3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है  पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है। इस प्रकार रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चित्त की  चंचलता अवरोध उत्पन्न करती रहती है लेकिन इस अवस्था में भी कभीं - कभीं सम्प्रज्ञात समाधि लग जाया करती है । 

4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता है । एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता  है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना होता रहता है।

5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है जो समाधि का द्वार है । जब सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है तब चित्त निरु भूमि में होता  है । सम्प्रज्ञात समाधि आलंबन आधारित होती है और असम्प्रज्ञात समाधि आलंबन मुक्त समाधि होती है । असम्प्रज्ञात समाधि को ही निर्विकल्प या निर्बीज समाधि भी कहते हैं ।  

समाधिपाद सूत्र 33 

 बाधा मुक्त योगाभ्यास बनाए रखने के लिए निम्न का अभ्यास करते रहना चाहिए ….

1 - सुखी ब्यक्ति से मैत्री रखें …

2 - दुखीके साथ करुणा का भाव रखें ….

 3 - पुण्य आत्माओं की संगति करें ( मुदिता ) ।

4 -  पापियों  से उपेक्षा का भाव रखें । 

अब 14 प्रकार की बाधाओं से परिचय करते हैं ….

समाधिपाद सूत्र : 30 - 31 

1 - व्याधि > व्याधि का तात्पर्य है , कष्ट , रोग और असामान्य स्थिति को शारीरिक एवम मानसिक हो सकती है ।

2 - अकर्मण्यता > साधना करने में अरुचि का होना ।

 3 - संशय > साधना के प्रति संदेह का बने रहना

4 - प्रमाद > प्रमाद मानसिक रोग है जिसमें मन - बुद्धि का संतुलन बिगड़ जाता है और इस कारण जो होता है उसमें मद की ऊर्जा होती है । बुद्ध प्रमाद को बड़ी बाधा मानते हैं ।

  5 - आलस्य > आलस्य तामस गुण का तत्त्व है जिससे नकारात्मक ऊर्जा मिलती है और जो हो रहा होता है , वह पूरा नहीं हो पाता या उसकी गुणवत्ता थीक नहीं होती । 

व्याधि > शारीरिक - मानसिक व्याधि। व्याधि का तात्पर्य है , कष्ट , रोग और असामान्य स्थिति ।

2 - अकर्मण्यता > साधना करने में अरुचि का होना। 

3 - संशय > साधना के प्रति संदेह का बने रहना

4 - प्रमाद > प्रमाद मानसिक रोग है जिसमें मन - बुद्धि का संतुलन बिगड़ जाता है और इस कारण जो होता है उसमें मद की ऊर्जा होती है । बुद्ध प्रमाद को बड़ी बाधा मानते हैं।

  5 - आलस्य > आलस्य तामस गुण का तत्त्व है जिससे नकारात्मक ऊर्जा मिलती है और जो हो रहा होता है , वह पूरा नहीं हो पाता या उसकी गुणवत्ता थीक नहीं होती ।

 6 - अविरति > वैराग्य का अभाव ।

 7 - भ्रम > दृढ संदेह

8 - अलब्ध चित्त भूमिकत्व

 ( चित्त का उच्च भूमियों पर न पहुँच पाना ) 

9 - साधना की कुछ उच्च भूमियों पर चित्त का देर तक स्थिर न होना 

10 - दुःख > दुःख शारीरिक और मानसिक हो सकता है

 11 - बुरे भाव से मिलने वाले दुःख

12 - अंगों में कंपन का होना

13 - श्वास लेने में कठिनाई का होना।

14 - श्वास - प्रश्वास प्रक्रिया का सामान्य न होना

।।।। ॐ ।।।