Monday, February 12, 2024

पतंजलि योग सूत्र दर्शन में चित्त एकाग्रता

पतंजलि योग सूत्र दर्शन चित्त एकाग्रता क्या है ?

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग सूत्र दर्शन में पुरुष प्रकाश से तीन गुणों की साम्यावस्था युक्त मूल प्रकृति विकृत हो जाती है (  इसकी साम्यावस्था खंडित हो जाती है ) और यह निष्क्रिय से सक्रिय हो उठती है , जिसके फलस्वरूप महत् (बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति  है । बुद्धि से अहंकार और अहंकार से मन सहित शेष 10 इंद्रियों एवं 5 तन्मात्रो तथा तन्मात्रो से 5 महाभूतो की निष्पत्ति है । बुद्धि अहंकार और मन को चित्त कहते हैं जो  मूलतः जड़ और त्रिगुणी है लेकिन पुरुष प्रभाव में यह सक्रिय एवं चेतन जैसा व्यवहार करता है । 

चित्त के दो धर्म हैं ; व्युत्थान और निरोधचित्त की चंचलता व्युत्थान धर्म के कारण है और चित्त की एकाग्रता , निरोध धर्म की पहचान है । पतंजलि योग दर्शन में अष्टांग योग साधना से बहिर्मुखी चित्त,अंतः मुखी बन जाता है अर्थात इसका रुख परिधि की ओर से केंद्र की ओर हो जाता है । यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और सबीज ( संप्रज्ञात ) समाधि , अष्टांगयोग के 08 अंग हैं । इन 08 अंगों में प्रारंभिक 05 अंगों को बाह्य अंग और आखिरी तीन अंगों को अंतरंग कहते हैं । चित्त का व्युत्थान धर्म से निरोध धर्म पर स्थिर हो जाना , चित्त एकाग्रता है और यही धारणा एवं ध्यान की सिद्धि का फल भी है । संपूर्ण ब्रह्मांड में को भी है वह त्रिगुणी है केवल पुरुष को छोड़ कर । हमारे देह में चित्त केंद्रित पुरुष को छोड़ शेष सब त्रिगुणी प्रकृति है । हमारी उत्पति 25 तत्त्वों ( प्रकृति , पुरुष , अहंकार , 11 इंद्रियां , 5 तन्मात्र और 5 महाभूत) के संयोग से हुई है । इन 25 तत्त्वों में से 24 तत्त्व त्रिगुणी एवं जड़ हैं केवल पुरुष तत्त्व निर्गुणी एवं चेतन है । 

चित्त केंद्रित पुरुष चित्त के माध्यम से संसार को देखता है और भोगता है । पुरुष करता और सुख - दुःख का भोक्ता भी है और प्रकृति के 23 तत्त्व इसकी मदद करते हैं । 

सात्त्विक आलंबन पर चित्त को स्थिर रखने का निरंतर बिना किसी रुकावट किए जाने वाले अभ्यास , चित्त को धीरे - धीरे राजस एवं तामस गुणों की वृत्तियों एवं इनसे निर्मित संस्कारों से मुक्त करने लगता है  । जैसे - जैसे यह अभ्यास दृढ़ होता जाता है , चित्त का व्युत्थान धर्म दबने लगता है और निरोध धर्म ऊपर उठने लगता है , फलस्वरूप चित्त में वितृष्णा का भाव भरने लगता है । 

सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता का अभ्यास चित्त में सात्त्विक प्रवृत्ति उत्पन्न करता है और चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष , अंतर्मुखी रहने लगता है। जब सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्रता अभ्यास देश और काल से अप्रभावित हो जाता है तब उस आलंबन का स्वरूप केवल अर्थ मात्र रह जाता है और उसी पर चित्त शून्य हो जाता है । इस अवस्था सबीज या संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । संप्रज्ञात समाधि का बार - बार घटित होते रहने  पिछले संस्कार धुल जाते हैं लेकिन नया सात्त्विक संस्कार निर्मित हो जाता है ।  चित्त एकाग्रता की सिद्धि को ही धारणा एवं ध्यान की सिद्धि भीं कहते हैं । चित्त को सात्त्विक आलंबन से बाध देना , धारणा है , धारणा में  देर तक बने रहना ध्यान है ।  धारणा , ध्यान और समाधि का एक साथ घटित होना संयम कहलाता हैं।   संयम सिद्धि से सिद्धियां मिलती है ( पतंजलि विभूति पाद सूत्र : 16  - 49 अर्थात 34 सूत्रों में  45 सिद्धियां बताती गई हैं  )। सिद्धियां समाधि से कैवल्य की यात्रा में रुकावट उत्पन्न करती हैं । जोनसिद्धियों के आकर्षण से बच जाता है वह आगे की योग यात्रा कर पाता है । 

~~ शेष अगले अंक में ~~


No comments: