Wednesday, December 10, 2014
कतरन - 4
Saturday, November 22, 2014
कतरन भाग - 3
Sunday, November 16, 2014
कतरन भाग - 2
Monday, November 10, 2014
कतरन भाग - 1
● कतरन भाग - 1●
# कबतक सहारेके इन्तजार में बैठे और उसके बारे में सोचते हुए समय को बर्बाद करते रहोगे ? क्या तुम्हें अपनें पर भरोषा नहीं कि अकेले कुछ कर
सको ? उठो और कदम बढाओ आगे , समय की गति को कौन जानता है , कहीं देर न हो जाए ।
# तुम भी उनकी तरह ही हो,एक इंच भी उनसे छोटे नहीं , फिर क्यों अपनें को सिकोड़ते चले जा रहे हो ? उठो , उनको प्रणाम करो ,जिनका तुम इंतज़ार कर रहे हो और अहंकार रहित भाव दशा में अपनें भविष्य निर्माण का पहला कदम भरो ।
# सच्ची लगन से तुम अपना पहला कदम तो उठाओ, दूसरा सही कदम स्वतः उठेगा, तुम संदेह क्यों करते हो , संदेह में सत्य असत्य सा दिखने लगता है ।
# पराश्रित रहना स्वयं को जीते जी कब्र में रखनें जैसा है ,मनुष्य हो ; मात्र मनुष्य एक ऐसा प्रकृति का उपहार है जिसके आश्रित संपूर्ण जड़ -चेतन हैं और यदि वह किसी के आश्रय जीना चाहता है तो वह जियेगा सही लेकिन मुर्दे जैसी जिंदगी उसे
मिलेगी ।परमात्मा के सहारे पर भरोषा मजबूत करो। क्या किसी ब्यक्ति के सहारे के भिखारी बनें बैठे हो ? एक भिखारी दुसरे भिखारी को क्या दे सकता है ? ज़रा गंभीर हो के सोचो तो सही ?
# क्या कभीं इस बात पर सोचते हो कि तुम जिससे सहारा चाह रहे हो , वह स्वयं किसी के सहारे का भिखारी है , तुम इतना तो जानते हो कि तुम्हारे अन्दर परमात्मा रहता है जो सभीं सहारों का सहारा है , फिर क्यों बाएं - दायें देख रहे हो कि कोई मिल जाय , उससे बड़ा और कौन है ?
~~ ॐ ~~
Sunday, November 2, 2014
कुछ तो सुनते ही हैं
# पृथ्वी के पास क्या नहीं है ? पेट्रोल , कोयल ,
गैस , सोना ,चांदी , हीरे और वह सब कुछ जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं पर क्या कभीं पृथ्वी सीना तान कर कुछ कहती भी है ?
# अब ज़रा अपनें को देखते हैं । क्या हमारे पास कोई ऐसी चीज है जिसको हम पृथ्वी से न चुराए हों ? सोचना पड़ेगा और यह कहते मुह नहीं दुखता कि हमारे पास यह है ,वह है आदि -आदि ,अरे भाई ! जो हमारे पास है ,वह हमारा कैसे हुआ ? क्या किसी चीज पर अपनीं मोहर लगानें से अपनीं हो जाती है ,क्या ?
# क्या पृथ्वी कुछ कहती भी है ? मनुष्य कहेगा जी नहीं , पृथ्वी क्या कहेगी ? लेकिन पृथ्वी भी कहती है जिसकी आवाज मनुष्यको छोड़ अन्य सभीं जीव सुनते हैं और उसकी बात को मानते भी हैं ,ऐसे जीव जिनका सम्बन्ध पृथ्वी से है ।
#अब एक नज़र इस पर भी :
* जब भूकप्प आता है ...
* जब तूसामी अपना जलवा दिखाती है ...
* या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा आती है ..
°° तब कौन मरते हैं ?
1- मनुष्य और पालतू जीव जिनको मनुष्य अपनें स्वार्थ - सिद्धिके लिए गुलाम बना रखा है ।
~ पर ~
2- जंगल में प्रकृति की गोद में बसेरा करनें वाले आदि बासी और अन्य जीवोंके मरनें की संभावना बहुत कम रहती हैं ,क्यों ? क्योंकि वे आपदा आनें से पहले पृथ्वी की आवाज को सुन लेते हैं और अपनीं सुरक्षाका बंदोबस्त आपदा आनें से पहले कर लेते
हैं ।
^^ मनुष्य जैसे - जैसे प्रकृति से दूर होता जा रहा है , उसकी तन्हाई बढती जा रही है और प्रकृति जो समझने के लिए उपकरणों का निर्माण करनें में अपनी ऊर्जा लगा रहा है । उपकरणों का निर्माण करो पर स्वयं को प्रकृति से दूर न रखो
# विज्ञान तर्क आधारित है ....
# तर्क संदेह आधारित है ....
~~~ और ~~~
● सत्य तर्क - वितर्क और संदेह से परे है ● ………ॐ ………
Monday, October 13, 2014
पर सुनता कौन है
Monday, September 22, 2014
प्यारे ! यह संसार है ---
Sunday, September 14, 2014
जो जानते हो , वह क्या कम है ?
Thursday, September 11, 2014
जीवन एक परम प्रसाद है
Sunday, September 7, 2014
यह क्या है , उनका दुःख मेरे लिए सुख है ?
* संसार में कौन सुखी है और कौन दुखी ?
आप इसे अपनें बुद्धि -योगका बिषय बना सकते हैं । * बुद्धके ध्यानका मूल बिषय था दुःख की सत्यता और उन्हें सात साल लग गए दुःख को समझनें में ।
* ऐसे कितनें हो सकते हैं जो अपनें दुःखका कारण स्वयंको मानते हों ? ऐसा हजारों - लाखों में कोई एकाध मुश्किल से मिलेगा । ज्यादातर लोग अपनें दुःखका कारण दूसरों को बनाते हैं ।
* भोग - तत्त्वों की रस्सियाँ जितनी मजबूत होती है ,वह ब्यक्ति उतना ही गहरा दुखी रहता है ।
* कामना ,मोह ,राग - द्वेष , क्रोध , लोभ और अहंकार - ये सात भोगके मूल तत्त्व हैं ।
* भोगकी रस्सियों से बधा ब्यक्ति पूरी तरह से न तो भोग से जुड़ पाता है और न योगकी ओर रुख कर पाता है ; बिचारा ! भोग और भगवानके मध्य एक पेंडुलम सा लटकता रहता है ।
* दुःख से भागो नहीं , दुःखको समझो ।
* दुःख की दवा जबतक बाहर खोजते रहोगे , दुखी रहोगे ।
* आपके दुःखका वैद्य कोई और नहीं , आप स्वयं हैं , इस बात को समझो ।
~~ ॐ ~~
Saturday, September 6, 2014
कैसे और किससे कहूँ ?
Sunday, August 10, 2014
जीवन सार
1- जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है जिस्म - बुद्धि कमजोर होती जाती है और मन बढ़ता जाता है ।
2- जैसे - जैसे उम्र बढती जाती है मोह ,ममता ,कामना ,क्रोध ,लोभ और अहँकार सघन एवं तीब्र होते जाते हैं और मंदिर जाना , कथा सुनना आदि में रूचि बढ़ी सी दिखनें लगती है ।
3- अहंकार अपना रंग गिरगिट से भी अधिक तीब्र गति से बदलता है और मोह के अन्दर छिप कर रहनें वाला अहंकार घी जैसा सरकनें वाला होता है ।
4- मोह में अहंकार सिकुड़ कर अन्दर केंद्र पर जा बैठता है और वक़्त का इन्तजार करता है । जब अच्छे दिन आजाते हैं वह तुरंत फ़ैल जाता है और केंद्र से परिधि पर डेरा जमा लेता है ।
5- कामना में अहँकार परिधि पर होता है पर अपनें रंगको ऐसे छिपा कर रखता है कि पहचानना बहुत कठिन होता है ,लेकिन ध्यानी इसे पहचानता है ।
6- परिधि पर स्थित कामनाका अहँकार उस समय लाल रंग में बदल जाता है जब कामना टूटती सी दिखती है ।
7- बसुधैव कुटुम्बकम् का नारा सभीं भारतीय लगाते हैं और यह भी कहते नहीं थकते कि हम , हमारी भाषा , हमारा देश , हमारा इतिहास और हमारी सोच दुनिया में सर्बोपरी है ।
8- गाय की पूजा केवल भारत में होती है ,गाय में सभीं देवता बसते हैं , ऐसी धारणा हम भारतीयों की है लेकिन गौओंके अनाथ आश्रण भी केवल भारत में मिलते हैं । गौओं को बस्ती से बाहर निकालनें वाले कौन हैं ? ज़रा अपनें चारो तरफ नज़र डालकर देखना तो सही ।
9- पत्थर ,पेड़ ,पहाड़ और नदियों की पूजा हम भारतीय करते हैं , सभीं हिन्दू तीर्थ पहाडों पर या नदियों के तट पर हैं फिर हम पहाड़ों और नदियों की पवित्रता की चिंता क्यों नहीं करते ? क्यों इनको बेमौत मार रहे हैं ?
10- पिछले 15-20 सालों नें एक कला का प्यारा फैलाव हुआ है वह कला क्या है ? प्रश्नका उत्तर प्रश्न से देना , हैं न मजे की कला और हम सब सुनकर मस्त रहते हैं ।
~~ हरे राम ~~
Sunday, August 3, 2014
पुरानी आँख और नया आयाम
पुरानी आँख और नया आयाम ( भाग - 1 )
● लाख कोशिश करलें पर असफलता और हमारा रिश्ता टूट नहीं पाता ,क्या कारण हो सकता है ?
°° पुरानी आँख और नया आयाम ; यह समीकरण हमारी असफलताका एक मजबूत कारण है ।
^^ दूसरा कारण है कि हम अपनें को इतना कमजोर बना रखे हैं कि अपनें पर इतबार कम करते हैं और औरों पर अधिक ।आइये ! अब देखते हैं इन पर आधारित कुछ पहलुओं को :---
1- नया आयाम -पुरानी आँख समीकरण क्या है ?
* वर्तमान ( present ) का अर्थ है नया , जीवंत । वर्तमान में हमारा जीवन है और हमारा मन भूत काल की घटनाओं में समय गुजारता है इस परिस्थिति में हमारा वर्तमान बेहोशी में सरक रहा होता है और जहाँ बेहोशी है वहाँ असफलता तो होगी ही । आपको ताजुब होगा यह जानकर कि हमारी क्रियाएं मन से नियंत्रित हैं और मनका स्वाभाव है भूतकाल की घटनाओं में भ्रमण करते रहना अर्थात वर्तमान से दूर रहना फिर ऐसी परिस्थिति में जो हमसे हो रहा है , उसका परिणाम क्या हो सकता है ?
* मन बिषयों में ऐसे भ्रमण करता है जैसे भौरा फूलों में लेकिन भौरा बाहरी आकर्षण में न उलझ कर सार को चूसता है और मन बाहरी आकर्षण से आगे सार की ओर रुख भी नहीं कर पाता ।भौर सत्य की खोज में कहाँ कहाँ नहीं पहुँचता ; एक फूल पर भी मडराता है और गन्दगी के ढेर पर भी और दोनों जगहों से सार को पकड़ने में सफल होता है और मन ?
* नया आयाम ( New Frame of Action ) :मनुष्यका हर पल उसके लिए नया पल है जो चाहता है नयी सोच पर मनुष्य का मन इस नए कैनवास पर पुरानी तस्बीर बना देता। है और ज्यों ही तस्बीर तैयार होती है , मन में उसके प्रति ऊब आजाती है और वह पुनः चल पड़ता है , नए की तलास पर लेकिन अपनें स्वभाव के कारण हर बार धोखा खाता हैं।
* जिस समय नए आयाम को नयी आँखे देखती है , उस घडी सत्य कहीं दूर नहीं होता , वही आयाम सत्य का आयाम होता है और तब :---
● मन की दौड़ रुक जाती है ....
● मन उस आयाम में रम जाता है ....
● मन गुण उर्जा से बनें पिजड़े से मुक्त हो जाता है ... और :---
स्थिर मन सत्य को ढूढ़ता नहीं ,वह स्वयं प्रज्ञा में रूपांतरित होकर सत्य हो गया होता है ।
और :---
* ऐसे मन वाले को गीता ब्रह्म् वित् कहता है । ~~~ ॐ ~~~
Monday, July 21, 2014
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
Saturday, July 19, 2014
मैं और तूँ
● मैं एक माध्यम है तूँ को समझनें केलिए ।
मैं का अर्थ है अहंकार । भागवत में यदि आप मैत्रेय ,नारद , प्रभु कृष्ण और प्रभु कपिल जी के
तत्त्व - रहस्य को गंभीरता से देखें तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ब्यक्त सूचनायें तीन प्रकारके अहंकारों से हैं । गुण आधारित सात्त्विक ,राजस और तामस ये हैं तीन अहंकार , जिनकी उत्पति महतत्त्वसे काल के प्रभाव में होती है ।
● मैं को कोई समझना नहीं चाहता और तूँ को समझनें में सारा जीवन गुजर जाता है पर सच्चाई यो यह है की जबतक मैं की गहरी परख नहीं हो जाती ,तूँ की परख करनी संभव नहीं ।
● अपनीं गलतियों को दूसरों से सुननें पर सारी उर्जा क्रोध में रूपांतरित हो उठती है और यदि अपनीं गलतियों को हम अकेले में प्रभुको साक्षी मानकर देखनें का अभ्यास करे तो यह होता है ,
अभ्यास -योग तो मैं के प्रति होश उठा कर परममें पहुँचाता है ,पर करनें की कोशिश करनें वाले
दुर्लभ हैं ।
** आज इतना ही **
~ हरि ॐ ~~
Friday, July 11, 2014
अपनें को पढ़ लो
** जीवन का हर पल किताब के पन्ने जैसा है जो स्वतः उलटता जा रहा है । जो इन पन्नों को होश में रहते हुये पढनें में सफल है , वह जीवनके परम रस से दूर नहीं और जो इन पन्नो को ठीक - ठीक पढनें में सफल नहीं ,वह जीवन का लुत्फ़ नहीं उठा पाता ।
** हिन्दू दर्शन में देह को जीव आत्मा का नौ द्वारों वाला महल कहा गया है और जब जीवात्मा इस महल को छोड़ कर चला जाता है तब लोग इस महल को जला देते हैं , देर नहीं करते , क्यों ? क्योंकि इस गिरे हुए महल में उनका अओअन महल दिखने लगता है । यदि देर तक किसी लाश को देखा जाए तो वैराग्य होना दूर नहीं । बुद्ध अपनें भिक्षुकों को प्रारम्भ में छः माह तक श्मसान में ध्यान कराते थे ।
** पशु जब तक अपनें बच्चों को पूर्ण स्वावलम्बी नहीं बना देते तबतक पुनः बच्चे पैदा नहीं करते लेकिन मनुष्य क्या कर रहा है ?
** मनुष्य के पास तरह - तरह के फंदे हैं , वह हर पल फंदों का निर्माण कर रहा है । मनुष्य निर्मित फंदे मनुष्य को बाधते चले जा रहे हैं और जब ये फंदे गले को बाधने लगते हैं तब वह ब्याकुल स्थिति में दम तोड़ देता है पर उस समय भी उसे स्वनिर्मित फंदों के राज का पता नहीं चल पाता ।
** क्या हो रहा है , इस स्वके संसार में ? अपना बनाते - बनाते जीवन सरक गया और अंत समय जब नज़दीक आया तो सभीं जिनको हम अपना बनानें में जीवन गुजार दिए , वे झट से पराये बन जाते है और मूह फेर लेते हैं ।
~~ रे मन कहीं और चल ~~
Thursday, July 10, 2014
कहाँ से कहाँ तक
1- तुम हाँ - ना पर टिकते हो वह भी पल भर के लिए , फिर जब टिकने की आदत ही नहीं ,उस परम असीम पर कैसे टिकोगे ? वह तो हाँ और ना के मध्य है जिसे न हाँ कह सकते न ना और हाँ - ना को नकार भी नहीं सकते , काम है , कठिन , पर करना तो पड़ेगा ही , चाहे कितनें और जन्म लेनें पड़े ।
2- मनुष्य योनि में ऐसा कोई न होगा जिसे कभीं उसका सन्देश किसी न किसी रूप में न मिलता हो लेकिन मायासे सम्मोहित मनुष्य उस परम - सन्देश की अनदेखी करता रहता है ।
3- कल दादा जी गए , वह भी देखा , आज अम्मा जी गयी वह भी देख रहा हूँ और कल हमारी भी बारी है जिसे हम न देख पायेंगे , वे देखेंगे जिनको अगले समय में जाना है , यह आवागमनका चक्र ही तो माया का विलास है ।
4- बहुत से लोग आते हैं गीता सुननें पर उनका मकसद सुनना नहीं होता ,सुनाना होता है , समय गुजारना होता है । प्रवचन सुननें के बाद भीड़ जब जानें लगती है तब उन लोगों के पीछे लग कर उनकी बातों को सुनना ; कोई कहता है , संतजी बहुत बढियाँ बोलते हैं , कोई कहता है ,क्या ख़ाक बोलये हैं ,इससे अच्छा तो वे बोलते थे जो इनसे पहले आये थे ,वे तो मेरे घर भी गए थे ।हम स्वयं को जगत गुरु समझते हैं और शंकराचार्य जैसे संतों की लम्बाई ,चौड़ाई और गहराई मापते रहते हैं । अब जरा सोचना ,ऐसी जब हमारी मानसिकता है तब हम क्या ख़ाक बदलेंगे और बिना बदले कुछ होनें वाला नहीं चाहे जो कर लो । 5- परमात्मा है या नहीं हैं - यह भ्रम लोगों को न मनुष्य की तरह रख पा रहा न जानवर की तरह और मनुष्य सम्पूर्ण जीवों का सम्राट होते हुए भी एक लाचार सा जीवन गुजार रहा है । मनुष्य बिचारा ,न भोग में रुक पाता है न योग में ; जब भोगमें उतरता है तब उसे योग खीचता है और जब योग में उतरता है तब भोग उसे सम्मोहित करता है ,मनुष्य भोग - योग के मध्य पेंडुलम सा लटक रहा है ।
6- सृष्टि से पहले और प्रलयके बाद , Big bang से पहले और ,Big crunch के बाद इन दोनों का द्रष्टा रूप में कौन होता है ?
7- Lao Tzu और शांडिल्य कहते हैं , " ब्यक्त करनें पर सत्य असत्य बन जाता है " और जे कृष्ण मूर्ति कहते हैं ," Truth is pathless journey" और हम परमात्मा की लम्बाई , चौड़ाई और ऊँचाई मापना चाहते हैं और दो कौड़ी के चार सड़े बतासे को उन्हें दिखा कर प्रसन्न करना चाहते हैं जिससे हमें भोग के वे साधन उपलब्ध हो जाएँ जो हमारे पास अभीं तक नहीं हैं ।परमात्मा क्या हमारे अन्तः करण को नहीं देखता होगा ? मनुष्य औरों को धोखा देते -देते इतना मज जाता है की बाद में अपनें को भी धोखा फेने लगता है और जब अपनें को धोखा दे दे पर मार चुका होता है तब पहुँचता है मंदिर ,वहाँ परमात्मा को लालच दिखा दिखा कर धोखा देता रहता है और एक दिन ----
8- न इधर का हो पाता है न उधर का और मनुष्य योनि से पहुँच जाता है पशु योनि में ।
9- आये तो थे प्रभु में बसेरा बनानें पर संसार में ब्याप्त माया निर्मित भोग का ऐसा सम्मोहन छाया कि भूल गए अपनें मूलको और पहुँच गए कहाँ ?
10- मनुष्य मात्र एक जीव है जिसके अन्दर किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच का बीज होता है। बीसवीं शताब्दी के महान मनोवैज्ञानिक सी . जी . जुंग कहते हैं , 40 साल की उम्र के ऊपर वाले लोगों में ऐसे को खोजना कठिन काम है जिसके दिमाक में प्रभु की सोच किसी न किसी रूप में न हो ।
~~ ॐ ~~
Monday, July 7, 2014
सुना और खूब सुना
● सुना और खूब सुना ●
1- जब परिवार में लोग इकठ्ठा होते हैं और जब कार्यक्रम समाप्त होने पर लोग अपनें -अपनें स्थानको वापिस चले जाते हैं तब जो वहाँ रहते हैं उनको सूना लगता है ।
2- जब कोई परिवार का सदस्य घर से दूर जाता है तब उसके जानें के बाद घर में सूना - सूना लगता
है ।
3- जब कोइ परिवार का सदस्य नाराज होकर घर छोड़ कर चला जाता है तब बहुत सूना लगता है ।
4- अकेलापनमें दो दरवाजे हैं ; एक पागलपन में खुलता है और दुसरा परममें ।
5- जीवन को क्या समझोगे वह तो बहती दरिया जैसा है बेहतर होगा तुम अपनी उर्जा स्वयं को समझनें में लगाओ ।
~~~ ॐ ~~~
Saturday, July 5, 2014
भारत की आबादी भाग - 1
Tuesday, July 1, 2014
● क्या खोया ? - भाग - 1●
* बड़े प्यारे लोग थे पर उनको लोगों की नज़र लग गयी थी ।एक दिन लगभग 35 साल के बाद मुझे उनसे मिलना हुआ ,मैं हैरान हो गया ,उनको देख
कर ।
* थे तो गरीब ही लेकिन उनके बड़े भाई उनके लिए पिता तुल्य थे , उनको पढानें में कोई कसर न छोड़ी थी । उस जबानें में इंजीनियरिंग के स्नातक हुए जबकि दूर -दूर तक ऐसे लोग दुर्लभ हुआ करते थे।
* मैं उनको करीब से जानता हूँ लेकिन इधर बहुत दिनों से उनकी स्मृति कुछ धुधली सी जरुर हो गयी थी ।मैं उनको जानता हूँ तबसे जब वे केंद्र सरकार में कार्य रत थे ,जब वे विश्व विद्यालय में सहायक प्राध्यापक थे , जब वे किसी लिमिटेड कंपनी में सिनिअर ऑफिसर थे और जब वे विदेश यात्रा की थी लेकिन यह सब देखनें के बाद आज जब मैं उनसे मिला तो दंग रह गया ,उनको देख कर ।
* बाहर -बाहर से देखनें में उनका रंग तो बहुत लुभावनासा दिखता है पर वे अन्दर से अब एक कब्रिस्तान बन चुके हैं ,मुझे तो उनके साथ कुछ दिन रहनें से ऐसा ही दिखा ।
* दो बेटे हैं ,प्यारे हैं ,एक प्रथम पांच iit मेसे एक का विद्यार्थी रह चूका है और दूसरा देश के कुछ प्रमुख nit में से एक के शिक्षा लिया हुआ है । दोनों बेटो का कद अब इतना उचा हो चूका है की उनकी लम्बाई देखते बनती है । दोनों बेटे उनसे प्यार करते हैं लेकिन कुछ तो है जो उनको कब्रिस्तान बना रहा है। * आखिरी दिन आ गया , मैं उनसे बिदा होनें जा रहा था ,वे अन्दर घर में गए हुए थे , बोल गए थे कि जरा रुकना ,चले न जाना । मैं घर के बाहर उनके आनें का इन्तजार कर रहा था । वे आये , गले मिले ,और उनका गला भरा था ,अन्दर आंसू की धरा बह रही थी लेकिन बाहर बाहर से सामान्य दिख रहे थे ।
*जब मैं चलनें लगा ,मुझे कपडे में लिपटी कोई चीज दी और बोले , तुम तो उनसे बहुत प्यार करते थे पर हिम्मत न जुटा पाए ,उनके बारे में पूछनें को , इतना कह कर हस पड़े और बोले , अच्छे जा फिर मिलेंगे। * जब मैं कपडे को खोला तो दंग रह गया ,उस वस्तु को देख कर जो उस कपडे में लपेट के वे मुझे दिए
थे । वह फोटो थी ,उनकी पत्नी की ,उस समय की जब उनका बड़ा बेटा रहा होगा 2-3 साल का जो आज 35 साल का है ।
* वे मेरे कंधो पर अपना हाँथ रखे और धीरे से भरे हुए गले से बोले , अगर खुदा ने इजाजत दी और हम फिर कभीं मिले तो मैं इनके बारे में भी बताऊंगा , जो तुम पूछ न पाये । वे अब भी हैं ,न दूर हैं न नज़दीक लेकिन हैं , इतना कह कर आंसू पोछते हुए घर के अन्दर चले गए और दरवाजा बंद कर ली ।
* आप सोच सकते हैं कि मेरे पर क्या बीती होगी और उन पर क्या बीत रही थी ,यह तो आप समझ ही सकते है लेकिन इतना जरुर मैं कह सकता हूँ कि उनको लोगों की नज़र लग गयी थी ।। क्या खोया ? इस श्रृखला के अगले अंक में कुछ और दृष्यों को देखेंगे ।
* यह एक सत्य कहानी है *
~~ हरे हरे ~~
Monday, June 30, 2014
कैसा रहा यह सफ़र
# कभीं - कभीं ऐसा लगनें लगता है कि अब हम जिन्दा क्यों हैं ? और जो अभीं - अभीं इस संसार से जा रहे होते हैं , उनके न होनें पर दुख भी हो रहा होता है , आखिर ऐसा क्यों ? यह इसलिए हो रहा होता है कि हम जहाँ हैं इसके विपरीत हमारी दृष्टि जम जाती है , इस उम्मीदसे कि हो न हो वह ठीक हो । द्वैत्यकी उर्जा में लिपटा यह मनुष्य अपनें को एक पेंडुलम जैसा बना रखा है पर पेंडुलम से कुछ सीखता नहीं क्योंकि पेंडुलमके गतिका प्रारंभ और अंत जहाँ है वहाँ जो है वह समभाव है और समभाव में स्थित ब्यक्ति स्थिर प्रज्ञ होता है जिसकी आँखें प्रभुके प्यार से भरी होती
हैं ।
# जवानी में कदम रखते ही एक उबाल उठनें लगता है , कोई ऐसा ब्यक्ति जो अभीं - अभीं जवानी में कदम रखा हो और वह अपनें को दुनिया का सम्राट न समझता हो , ऐसा संभव नहीं लेकिन जवानी में देखे गए सारे सपनें एक - एक करके टूटते जाते हैं और वह ब्यक्ति जो आज लगभग 60 साल का हो चूका होता है , अपनें इस जीवनका एक अज्ञान द्रष्टा बना रह जाता है ।
# जो मिला है एक दिन उसे खोना होगा और मनुष्य पाना तो सारा संसार चाहता है पर खोना एक कौड़ी भी नहीं चाहता जो सम्भव नहीं । # एक बह रही दरिया में उसकी धारा के विपरीत जो बहना चाहेगा उसे दर्द तो होगा ही । हम प्रकृतिके विपरीत चलना चाहते हैं और यह हमारी चाह हमसे सुख छीन लेती है और हम कहीं एक कोने में बैठ कर किस्मत का इन्तजार कर रहे होते हैं ।क्या होगा इस रोने - धोने से ?
-- दुनिया का मेला --