Sunday, January 8, 2023

सांख्य के 25 तत्त्व और इनसे दो प्रकार की सृष्टियां

25 सृष्टि रचना के तत्त्व , और दो प्रकार की सृष्टियों का रहस्य 【 मूलतः सांख्य आधारित 】 सांख्य द्वैत्यवादी दर्शन हैं जो यह मानता है कि जो भी व्यक्त हैं वे एक से नहीं दो अव्यक्त के संयोग से हैं । दोनों अव्यक्त सनातन और स्वतंत्र हैं । इन दो में एक जड़ प्रकृति है और दूसरा शुद्ध चेतन पुरुष है । प्रकृति का मूल स्वरूप तीन गुणों की साम्यावस्था है और पुरुष का मूल स्वरूप शुद्ध चेतन है । मूल प्रकृति का बोध योग सिद्धि से होता है जब योगी गुणातीत की अवस्था में कैवल्य के द्वार पर होता है । पुरुष प्रकाश से मूल प्रकृति विकृत हो कर 23 तत्त्वों वाली हो जाती है अर्थात इसकी साम्यावस्था विकृत हो जाती है और जड़ अवस्था स्व सक्रिय अवस्था में आ जाती है । पुरुष जबतक प्रकृति से नहीं जुड़ा होता तब तक वह अपने साक्षी , अकर्ता और शुद्ध चेतन मूल स्वरूप में होता है । जब पुरुष प्रकृति से जुड़ता है तब स्वयं को प्रकृति समझ बैठता है और तब यह चित्त केंद्रित हिट हुए स्वयं को करता और जरा - मृत्यु दुःख भोक्ता हो जाता है लेकिन इसे अपने मूल स्वरूप का हल्का बोध भी बन जाता है । प्रकृति अपने 23 तत्त्वों के माध्यम से अपने में स्थित पुरुष को उसके मूल स्वरूप में लौट जाने में मदद करती है । प्रकृति पुरुष को कैवल्य में पहुंचाना चाहती है और पुरुष की चेतन ऊर्जा को प्राप्त कर स्वयं भी अपने मूल स्वरूप में लौटना चाहती है । पुरुष जब प्रकृति और संसार के अनुभव को ठीक - ठीक समझ लेता है तब उसे स्व बोध होता है और तब वह अपने मूल स्वरूप में आ जाता है । सांख्य दर्शन का सूक्ष्म शरीर प्रकृति के 18 तत्त्व ( महत् , अहंकार , 11 इन्द्रियाँ , 05 तन्मात्र ) हैं । प्रकृति सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अपने में स्थित पुरुष को मोक्ष दिलाने हेतु आवागमन करती रहती है । पञ्च महाभूत सूक्ष्म शरीर के आश्रय हैं , इनकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म शरीर की कोई आकल्पन नहीं कि जा सकती और पञ्च भूतों के बिना सूक्ष्म शरीर अस्थिर होता है । जबतक योग साधना से योगी प्रकृति लय और विदेहलय की स्थिति नहीं प्राप्त कर लेता और इस बीच यदि उस योगी का भौतिक स्थूल पञ्च भूतीय शरीर किसी कारण बश समाप्त हो जाता है तब उस योगी का सूक्ष्म शरीर जिसमें पुरुष कैद होता है , पुरुष मोक्ष के लिए दूसरे पञ्च भूतीय देह को खोजता रहता है और इस खोज को ही आवागमन चक्र कहते हैं । 👉तीन गुणों की साम्यावस्था को मूल प्रकृति कहते हैं जो अविकृति , अनादि एवं सनातन है । यह किसी से उत्पन्न नहीं होती , प्रसवधर्मी है तथा कार्य नहीं , कारण है । 💐 यहां संक्षेप में कार्य - कारण को समझते हैं । उत्पन्न होने वाला उत्पन्न करनेवाले का कार्य कहलाता है और उत्पन्न करता को कारण कहते हैं । कार्य में कारण का अंश रहता है । कारण दो प्रकार के हैं ; निमित्त और उपादान कारण , इसे एक उदाहरण से समझते हैं । मिट्टी के घड़े के निर्माण में घड़ा मिट्टी का कार्य है , मिट्टी घड़े का उपादान कारण है और घड़ा बनानेवाला घड़े का निमित्त कारण है । 💮मूल प्रकृति पुरुष ऊर्जा से विकृत होती है और विकृत होने से जो 23 तत्त्व उत्पन्न होते हैं उनमें से 07 तत्त्व ( महत् , अहँकार और 05 तन्मात्र ) कार्य - कारण हैं और अन्य 16 तत्त्व (11 इंद्रियाँ और 05 महाभूत ) केवल कार्य ( विकार ) हैं । पुरुष न तो किसी का कारण है और न ही किसी की कार्य है । प्रकृति अविवेकी , भोग्या , प्रसवधर्मी , सामान्य और अचेतन है और पुरुष प्रकृति के विपरीत है । पुरुष अनेक हैं , पुरुष का मूल स्वभाव साक्षी , शुद्ध चेतन और अकर्ता का है जबकि प्रकृति से जुड़ा पुरुष स्वयं को करता और भोक्ता समझता है । प्रकृति से जुड़ते ही पुरुष प्रकृति स्वरूपाकार हो जाता है और स्वयं को प्रकृति के 23 तत्त्वों के रूप में समझने लगता है । प्रकृति पुरुष संयोग में जड़ प्रकृति अपने को धर्म , अधर्म ,अज्ञान ,वैराग्य ,अवैराग्य , ऐश्वर्य और अनैश्वर - 07 भावों से बाध लेती है । प्रकृति जब जान जाती है कि पुरुष उसे देख लिया है तब वह अपने 23 तत्त्वों एवं 07 भाव - बंधनों से भी मुक्त हो कर अपने मूल स्वरूप में आ जाती है । यह तब घटित होता है जब प्रकृति में स्थित पुरुष को कैवल्य मिल जाता है । पुरुष को कैवल्य प्राप्ति और प्रकृति का अपने मूल स्वरूप में आना एक साथ घटित होते हैं । 👉 जैसे एक नर्तिकी नाना प्रकार के भावों - रसों से युक्त नृत्यको प्रस्तुत करके निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति भी अपने 23 तत्त्वों से स्वयं की कलाओं को पुरुषको दिखा कर निवृत्त हो जाती है । 👉 जैसे उपकारी व्यक्ति दूसरों पर उपकार करते हैं तथा अपने प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते उसी तरह गुणवती प्रकृति भी अगुणी पुरुषके लिए उपकारिणी है और प्रत्युपकार की आशा नहीं रखती । 👉 प्रकृति को जब यह बोध हो जाता है कि पुरुष उसे देख लिया है तब वह पुनः पुरुषका दर्शन नहीं करती । प्रकृति निःस्वार्थ परार्थ कार्य करती है । जैसे अचेतन दूध चेतन बछड़े का निमित्त होता है उसी तरह अचेतन प्रकृति , चेतन पुरुष के मोक्ष की हेतु है । जैसे लोग अपनी -अपनी उत्सुकताओं को पूरा करने हेतु अलग -अलग क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं वैसे ही प्रकृति भी पुरुष मोक्ष के लिए प्रवृत्त रहती है । 👉 पुरुष मोक्ष ही प्रकृति का मूल लक्ष्य है 👈 👉 मैं प्रकृति को देख लिया है - ऐसा सोच कर पुरुष प्रकृति की उपेक्षा करता है । 👉 मुझे पुरुष देख लिया है - इस सोच के कारण प्रकृति पुरुष से निवृत्त हो जाती है । ● ऐसी स्थिति में प्रकृति - पुरुष संयोग होने पर भी पुनः सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। 👉 प्रकृति - पुरुष को अलग करना संभव नहीं और जो दोनों को पृथक - पृथक देखते हैं , वे सिद्ध होते हैं । प्रकृति -पुरुष अव्यक्त एवं अलिंग ( सनातन - नित्य ) हैं । प्रकृति के 23 तत्त्व व्यक्त एवं लिङ्ग ( इनका लय होता है ) हैं । 👉प्रकृति - पुरुष का ज्ञान प्रकृति के 23 तत्त्वों से अनुमान द्वारा प्राप्त होता है । √ 👉 व्यक्त (प्रकृति के 23 तत्त्व ) से अव्यक्त ( मूल प्रकृति ) को जाना जाता है , यदि व्यक्त न हों तो अव्यक्त को जानना संभव नहीं । प्रकृति और उसके 23 तत्त्व त्रिगुणी हैं और उनसे जो भी निर्मित होता है , वह त्रिगुणी होता है । देवताओं सहित सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो गुणातीत हो पर पुरुष गुणातीत है । 👉 प्रकृति निर्मित महत् से लेकर पंच महाभतों तक कि सृष्टि ( सर्ग ) , पुरुष मोक्ष के साधन हैं । 👉25 तत्त्वों का अच्छी तरह ज्ञान हो जाने के बाद धर्म ,अधर्म , अज्ञान , वैराग्य , अवैराग्य , ऐश्वर्य और अनैश्वर मोक्ष के प्रति कारण नहीं हैं । 👌 ज्ञान प्राप्ति के बाद भी पुरुष मुक्त नहीं होता , कुम्हार की चाक की भांति संस्कार के कारण मृत्यु से पहले तक शरीर को धारण किये हुए स्थित रहता है । 👉 धर्म - अधर्म आदि के द्वारा अर्जित संस्कार का क्षय हो जाने पर जब पुरुष शरीर से भिन्न हो जाता है तब वह प्रधान तत्त्व - निवृत्ति से चरितार्थ ऐकान्तिक और आत्यन्तिक दोनों तरह से मोक्ष को प्राप्त करता है । 🐧 ऐसा बोध हो जाने के बाद भी कि 1 - धर्म , 2 - अधर्म , 3 - अज्ञान , 4 - वैराग्य , 5 - अवैराग्य , 6 - ऐश्वर्य और 7 - अनैश्वर - ये 07 भाव मोक्ष के प्रति कारण नहीं है , पुरुष मुक्त नहीं होता , ऐसा क्यों है ? इसे समझें ➡ पुरुष कुम्हार की चाक की भांति है जो घड़ा तैयार हो जाने के बाद भी चलती रहती है क्योंकि वह आगे चलते रहने की ऊर्जा से युक्त होती है ठीक इसी तरह संस्कार रूपी ऊर्जा के कारण पुरुष शरीर -मृत्यु से पहले तक शरीर को धारण करता हुआ स्थित रहता है। धर्म - अधर्म आदि के द्वारा अर्जित संस्कार का क्षय हो जाने पर जब पुरुष शरीर से भिन्न हो जाता है तब वह प्रधान तत्त्व की निवृत्ति से चरितार्थ ऐकान्तिक और आत्यन्तिक दोनों तरह से मोक्ष को प्राप्त करता है अर्थात पहले पुरुष प्रकृति बोध प्राप्ति करके प्रकृति के 23 तत्त्वों से मुक्त हित और फिर अपने मूल स्वरूप में लौट आता है जिसे मोक्ष कहते हैं । पुरुष मोक्ष के बिना प्रकृति अपने मूल स्वरूप में न आ कर आवागमन चक्र में रहती है जैसा पहले बताया जा चुका है । पुरुष और प्रकृतिका संयोग क्यों और कैसे ? 💐 पुरुष , प्रकृति दर्शनार्थ प्रकृति से जुड़ता है और प्रकृति , पुरुष - कैवल्यार्थ पुरुष से जुड़ती हैं । " पुरुष प्रकृति का दर्शन करना चाहता है और प्रकृति पुरुष को कैवल्य में पहुँचाना चाहती है इस तरह दोनों अपनीं सोच को पूरा करने के लिए एक दूसरे से आकर्षित होते हैं " 👉 पुरुष - प्रकृति संयोग ऐसे होता है जैसे एक पंगु (लंगड़े )और एक अंधे का संयोग होता है । अँधा , लंगड़े के कंधे पर बैठ कर मार्ग दिखाता है । यहां पंगु पुरुष है और प्रकृति अंधी है । प्रकृति - पुरुष के संयोगसे सृष्टि - उत्पत्ति होती है। 👉 पुरुष न बद्ध है और न ही मुक्त है तथा न ही बहुत से आश्रयों से संसरण (एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना ) करता है । प्रकृति महत् आदि अनेक आश्रयोंमें बद्ध होती है , मुक्त होती है और संसरण करती है । ऊपर व्यक्त सांख्य तत्त्व ज्ञान जे आधार और भाव और भौतिक सृष्टियों को भी यहाँ समझ लेना चाहिए 👇 प्रकृति के 23 तत्त्वों में से महत् (बुद्धि ) , अहंकार और 11 इन्द्रियाँ ( मन , 05 ज्ञान इन्द्रियाँ और 05 कर्म इन्द्रियाँ ) भाव सृष्टि ( इसे प्रर्याय या बुद्धि सृष्टि भी कहते हैं ) के तत्त्व हैं और 05 तन्मात्र तथा इनसे उत्पन्न 05 महाभूत प्रकृति ( लिङ्ग ) सृष्टि के तत्त्व हैं । लिङ्ग का अर्थ है ऐसे तत्त्व जिनका लय होता है और अलिङ्ग तत्त्व वे तत्त्व हैं जिनका लय नहीं होता । भाव सृष्टि के 13 तत्त्व और लिङ्ग सृष्टि के पञ्च तन्मात्र सूक्ष्म या लिङ्ग शरीर कहलाते हैं जो पुनर्जन्म का कारण है या कहें बीज है । 👉भाव सृष्टि ( बुद्धि , अहंकार और 11 इन्द्रियाँ ) के बिना लिङ्ग सृष्टि ( पंच तन्मात्र ) के होने की कल्पना भी संभव नहीं और बिना लिङ्ग सृष्टि , भाव सृष्टि की निष्पत्ति ( उत्पत्ति ) संभव नहीं । लिङ्ग सृष्टि ( भौतिक सृष्टि ) सांख्य के आधार पर 14 प्रकार की बताई गई है जो 03 भागों में विभाजीत है । पहली सृष्टि में 08 प्रकार के देवताओं की सृष्टि है जिनमें ब्रह्मा , इंद्र , प्रजापति , सौम्य , गंधर्व , यक्ष , पिशाच , राक्षस आते हैं । दूसर लिङ्ग सृष्टि तिर्यक सृष्टि है जिसमें पशु , पक्षी , सरीसृप , स्थावर आदि 05 प्रकार की है । तीसर सृष्टि में मनुष्य आते हैं । श्रीमद्भागवत पुराण 3.10 में 43 प्रकार की सृष्टि में 08 प्रकार की देवताओं की सृष्टि , 06 प्रकार की स्थावर की सृष्टि , 28 प्रकार की तिर्यक सृष्टि और 01 प्रकार की मनुष्य की सृष्टि बताई गई है । 👌👌👌यह रहा , अव्यक्त से व्यक्त , सूक्ष्म से साकार की उत्पत्ति का सांख्य रहस्य ~~ ॐ ~~

Thursday, January 5, 2023

मन - बुद्धि और परमात्मा

साधन साध्य नहीं बन सकता । बुद्धि , 11 इन्द्रियां , अहँकार , तीन गुण , पञ्च तन्मात्र और पञ्च महाभूत , स्थूल देह में स्थित देही अर्थात पुरुष या जीवात्मा को बंधन मुक्त कराने के tools है। बुद्धि ,अहँकार और मन शेष तत्त्वों के केंद्र रूप में हैं । बुद्धि , अहँकार और मन कर्म योग , ज्ञानयोग , भक्तियोग एवं अन्य साधनों के प्रमुख बिषय है । साधना के माध्यम से इन तत्त्वों को तामस एवं राजस गुणों के प्रभाव से मुक्त बनाया जाता है और इन्हें सत्त्विक गुण केंद्रित बनाया जाता है । सत्त्विक गुण से भी अंततः चित्त को विमुक्त कराया जाता है तब कहीं स्व बोध होता है जो ईश्वर के अनंत स्वरुपो की झलक देखने में समर्थ होता है । ॐ ।