Tuesday, October 31, 2023

सांख्य दर्शन में महत् या बुद्धि तत्त्व की निष्पत्ति भाग - 01


सांख्य दर्शन में ….

महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति किससे और कैसे हुई ? भाग - 01

सम्बन्धित सांख्य कारिकाएं ⤵️

20

55

59

60

61

66

67

68

62

योग > 09

" महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की निष्पति पुरुष - प्रकृति संयोग से हुई है । बुद्धि ,  जड़ एवं अचेतन विकृत हुई मूल प्रकृति का कार्य है । पुरुष किसी तत्त्व का न तो कारण है और न ही कार्य " 

महत् तत्त्व को बुद्धि तत्त्व और प्रत्यय तत्त्व भी कहते हैं । प्रत्यय शब्द का अर्थ है - श्रद्धायुक्त दृढ़ धारणा और प्रमाण । सांख्य कारिका - 04 में प्रत्यक्ष , अनुमान और आप्त वचन - तीन प्रमाण बताए गए हैं जिनसे सारे प्रमेय सिद्ध होते हैं और इस  तर्क आधारित तथ्य का केंद्र बुद्धि ही होती है ।

सांख्य दर्शन में निष्क्रिय , जड़, त्रिगुणी , प्रसवधर्म और सनातन ( नित्य ) प्रकृति तत्त्व और निष्क्रिय , निर्गुणी , शुद्ध चेतन और सनातन ( नित्य ) तत्त्व के संयोग से महत् या बुद्धि या प्रत्यय की निष्पत्ति हुई है । प्रकृति बुद्धि का कारण है लेकिन पुरुष न तो किसी तत्त्व का कारण है और न हो कार्य है । 

चेतन पुरुष को अचेतन जड़ प्रकृति का ज्ञान तो होता है लेकिन इस ज्ञान में अनुभव की अनुपस्थिति होती है अतः पुरुष प्रकृति को पूरी तरह देखना और समझना चाहता है । जब पुरुष की चेतन ऊर्जा जड़ प्रकृति को स्पर्श करती है तब निष्क्रिय, जड़ और अचेतन प्रकृति विकृत हो उठती है और चेतन ऊर्जा के प्रभाव में स्वयं को समझने जी उसे जिज्ञासा होने लगती है । विकृत होने से पहले मूल प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था होती है लेकिन विकृत होने पर इसके तीनों गुण सक्रिय हो उठते है जिसके फलस्वरूप पहला तत्त्व बुद्धि की निष्पत्ति है । 

त्रिगुणी प्रकृति बुद्धि का कारण है और बुद्धि उसका कार्य है अतः कार्य - कारण सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि भी त्रिगुणी होती है । बुद्धिसे अहँकार , अहँकार से 11 इंद्रियों और 05 तन्मात्रों की निष्पत्ति है और तन्मात्रों से 05 महाभूतों की उत्पत्ति है । इस प्रकार विकृत प्रकृति से 07 कार्य - कारण

 (बुद्धि , अहँकार , 05 तन्मात्र ) और 16 कार्यों (11 इन्द्रियाँ और 05 महाभूत ) की उत्पात्ति हुई है। ये सारे 23 तत्त्व त्रिगुणी हैं। विकृत प्रकृति के 23 तत्त्वों में 

बुद्धि , अहँकार और मन के समूह को सांख्य में चित्त कहा गया है।

प्रकृति - पुरुष संयोग के साथ शुद्ध चेतन पुरुष चित्ताकार हो जाता है अर्थात निर्गुण पुरुष सगुण जैसा स्वयं को समझने लगता है लेकिन स्मृति की गहराई में उसे अपने मूल स्वरूप का भी बोध रहता है ।

प्रकृति - पुरुष संयोग होने ही जड़ प्रकृति में अपनें अंदर उपस्थित चेतन ऊर्जा के कारण सोचने की शक्ति आ जाती है और वह निर्गुण पुरुष को जानने की जिज्ञासा करती है ।  निर्गुण पुरुष प्रकृति से जुड़ने के बाद स्वयं को चित्त समझ बैठता है और चित्त माध्यम से संसार की सूचनाओं को समझता और देखता है । 

यहां प्रकृति - पुरुष संयोग के विज्ञान को देख रहे 

हैं ! अचेतन प्रकृति चेतन पुरुष से जुड़ते ही चेतन शक्ति धारण कर लेती है और चेतन पुरुष प्रकृति से जुड़ते ही चित्ताकार बन जाता है जबकि चित्त अचेतन और जड़ है । 

चित्ताकार पुरुष भोक्ता एवं करता रूप में सगुणी प्रकृति को भोगता है , भोग से उत्पन्न सुख - दुःख का भोक्ता होता है और 13 करणों ( 11 इंडियन और बुद्धि , अहंकार और मन अर्थात चित्त ) के रूप में स्वयं को करता समझने लगता है ।  प्रकृति भोग नेयोग्य है और चित्त केंद्रित पुरुष उसका भोक्ता है । प्रकृति चेतन ऊर्जा के प्रभाव में चाहती है कि पुरुष मेरे माध्यम से अनुभव प्राप्ति के बाद कैवल्य प्राप्त कर ले और जब प्रकृति को ऐसा दिखने लगता है कि पुरुष उसे देख लिया है और उसे पूरा अनुभव हो चुका है तब वह अपने मूल स्वरूप अर्थात तीन गुणों की साम्यावस्था में लौट जाती है ।

 पुरुष अनुभव सिद्धि के बाद जब समझने लगता है कि वह चित्त नहीं , वह अहँकार नही , वह इन्द्रियाँ नहीं , वह तन्मात्र एवं महाभूत नहीं तब वह कैवल्य प्राप्त करता है । इस प्रकार प्रकृति उपकारिणी है और अपनें 23 तत्त्वों से पुरुष को कैवल्य प्राप्ति में मदद करती है। अब इस संबंध में प्रारंभ में दी गई 09 कारिकाओं को समझते हैं ⬇️ 

कारिका - 20 > पुरुष के चेतन ऊर्जा के कारण अचेतन प्रकृति और उसके से उत्पन्न 23 तत्त्व चेतनवत दिखने लगते हैं । प्रकृति त्रिगुणी है अतः उसके 23 तत्त्व भी त्रिगुणी ही होंगे । चूंकि पुरुष - प्रकृति संयोग के फलस्वरूप पुरुष  चित्त स्वरूपाकार हो जाता है अतः यह तीन गुणों के प्रभाव में रहने लगता है । पुरुष जो भी अनुभव करता है , वह चित्त आधारित होता है।

कारिका - 55 > बुढापा - मृत्यु आदि से उत्पन्न दुःखों का भोक्ता पुरुष है ।  जबतक पुरुष स्व एवं प्रकृति सहित उसके 23 तत्त्वों के बोध से लिङ्ग शरीर (23 तत्त्वों में 05 महाभूतों को छोड़ शेष 18 तत्त्वों के समूह को सांख्य लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर कहता है ) से निवृत्त नहीं हो जाता तब तक वह दुःखों को भोगता रहता है । 

कारिका : 59 - 60 > जैसे एक नर्तिकी नाना प्रकार के भावों - रसों से युक्त नृत्यको प्रस्तुत करके निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति भी अपने को  पुरुषको दिखा कर निवृत्त हो जाती है । जैसे उपकारी व्यक्ति दूसरों पर उपकार करते हैं तथा अपने प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते उसी तरह गुणवती प्रकृति भी अगुणी पुरुषके लिए उपकारिणी है और प्रत्युपकार की आशा नहीं रखती ।

कारिका - 61 > प्रकृति को जब यह बोध हो जाता है कि पुरुष उसे देख लिया है तब उसका पुरुष के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है ।

कारिका : 66 > मैं प्रकृतिको देख लिया है - ऐसा सोच कर पुरुष प्रकृति की उपेक्षा करता है । मुझे पुरुष देख लिया है - इस सोच के कारण प्रकृति पुरुष से निवृत्त हो जाती है । ऐसी स्थिति में प्रकृति - पुरुष संयोग होने पर भी पुनः सृष्टि का  कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता।

कारिका : 67 - 68 > धर्म , अधर्म , अज्ञान , वैराग्य , 5 अवैराग्य , ऐश्वर्य और अनैश्वर - ये सात भाव मोक्ष के हेतु नहीं हैं  - ऐसा ज्ञान प्राप्ति के बाद भी ,पुरुष मुक्त नहीं होता , ऐसा क्यों है ? इसे समझें ⬇️

पुरुष कुम्हार की चाक की भांति है जो घड़ा तैयार हो जाने के बाद भी चलती रहती है क्योंकि वह आगे चलते रहने की ऊर्जा से युक्त होती है । आईएसआई तरह संस्कारों के कारण पुरुष मुक्त नहीं हो पाता । जब संस्कार भी क्षीण हो जाते हैं तब पुरुष प्रकृति निर्मित देह के बंधन से मुक्त हो कर कैवल्य प्राप्त कर लेता है ।  संस्कार से मुक्त होने के संबंध में पतंजलि योग सूत्र में संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात और धर्ममेघ समाधियों को समझना होगा ।

कारिका : 62 > पुरुष न बद्ध है और न ही मुक्त है तथा न ही बहुत से आश्रयों से संसरण (एक जन्म से दूसरे जन्म में जाना )  करता है । प्रकृति अपनें 23 तत्त्वों से बद्ध होती है , मुक्त होती है और संसरण करती है ।

【यहां इतना ही , अगले अंक में प्रकृति -पुरुष संयोग से उत्पन्न बुद्धि तत्त्वको समझा जाएगा 】

~● ॐ ●~

Sunday, October 29, 2023

सांख्य दर्शन में प्रकृति - पुरुष संयोग और संयोग फल

सांख्य दर्शन में कारिका : 3 , 20 , 21 और 22 के आधार पर …

प्रकृति - पुरुष संयोग रहस्य ⬇️

सांख्य दर्शन द्वैत्यवादी दर्शन है जिसमें ब्रह्म , ईश्वर , आत्मा , जीवात्मा और माया जैसे शब्द नहीं हैं । ज्यादा तर सांख्य दर्शन पर लिखने वाले पुरुष को आत्मा मानते हैं जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए । जब सांख्य दर्शन पर चर्चा हो रही हो तब सांख्य के ही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए और जब वेदांत दर्शन की चर्चा हो तब वेदांत दर्शन के शब्दों का प्रयोग होना चाहिए ।

अब ऊपर व्यक्त 04 सांख्य कारिकाओं की यात्रा करते हैं और देखते हैं कि यह प्रकृति - पुरुष संयोग और सर्ग उत्पत्ति के रहस्य की यात्रा कैसी होती है !

💮 प्रकृति - पुरुष संयोग से सर्ग उत्पत्ति होती है । अचेतन , जड़ , निष्क्रिय , सनातन और प्रसवधर्मी तीन गुणों की साम्यावस्था वाली मूल प्रकृति का जब संयोग शुद्ध चेतन , निष्क्रिय और सनातन से होता है तब प्रकृति के तीन गुणों की साम्यावस्था खंडित हो जाती है और तीनों गुण सक्रिय हो उठते हैं । प्रकृति - पुरुष संयोग के फलस्वरूप विकृत हुई प्रकृति से महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति होती है । बुद्धि से अहंकार , अहंकार से 11 इंद्रियों एवं 05 तन्मात्रो की निष्पत्ति होती है और तनमत्रों से उनके अपने - अपनें महाभूतों की निष्पति होती है । इस प्रकार प्रकृति -पुरुष संयोग से त्रिगुणी 23 तत्त्वों की उत्पत्ति होती है । प्रकृति के 23 तत्त्वों में बुद्धि , अहंकार और मन को चित्त कहते हैं । प्रकृति के इन 23 मूल तत्त्वों से 14 प्रकार की सृष्टियां विकसित होती हैं।

पुरुष प्रकृति को देखने की जिज्ञासा के कारण उससे जुड़ता है और जुड़ते ही वह चित्ताकार हो जाता है अर्थात स्वयं को चित्त समझने लगता है । पुरुष की चेतन ऊर्जा मिलने प्रकृति जब देखती है है कि पुरुष अपनें मूल स्वरूप में अब नहीं रहा अतः उसे उसके मूल स्वरूप में लौटने अर्थात कैवल्य प्राप्ति के लिए उसकी मदद करने लगती है। 

( अगले लेख में सांख्य आधारित 

प्रकृति - पुरुष वियोग रहस्य को देख सकते हैं )

~~ ॐ ~~

Sunday, October 22, 2023

सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद क्या है ?


सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद 

सांख्य दर्शन में सत्कार्यवाद को कार्य - कारण सिद्धांत भी कहते हैं । यह सिद्धांत सांख्य दर्शन की बुनियाद हैं । जो उत्पन्न करता है , उसे कारण कहते हैं और जो उत्पन्न होता है , वह उस कारण का कार्य कहलाता है

सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद कारिका 09 में व्यक्त किया गया है जो निम्न प्रकार है ⤵️

 कारिका के  07 शब्दों को समझते हैं  ⬇️ 

1 - असदकर्णात् ( असत् + अकरणात् )

 असत् से सत् की उत्पत्ति असंभव है । 

2 -  उपादानग्रहनात् ( उपादान ग्रहण से ) 

 # जिस गुण वाले कार्य की उत्पत्ति चाहिए होती है उसी गुण वाले उपादान कारण को ग्रहण करना चाहिए । कारण दो प्रकार के हैं ; उपादान और निमित्त । मिट्टी के घड़े का निमित्त कारण घड़ा निर्माता होता है और घड़े का उपादान कारण मिट्टी है।

3 - सर्वसंभावाभावत् ( सर्वसम्भव अभावात् ) 

#  किसी वस्तु से सब कुछ उत्पन्न नहीं किया जा सकता जैसे रेत से तेल नहीं निकाला जा सकता।

4 - शक्तस्यशक्यकरणात्  (शक्त के शक्त करण से ) # जो कारण जिस कार्य को उत्पन्न करने में सक्षम होता है , वह उसी को उत्पन्न कर सकता है । अर्थात सामर्थ्यवान कारण , कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है जैसे तिल तेल उत्पन्न करने में सक्षम है लेकिन  रेत तेल उत्पन्न करने में सक्षम नहीं है अर्थात एक कारण केवल वही कर सकता है जो उसकी कर सकने की क्षमता  में होता है ।

5 - कारणभावात् ( कारण भाव से )

# कार्य - कारण में अभेद होता है अर्थात दोनों के गुण समान होते हैं । कारण - कार्य एक बस्तु की दो अवस्थाएँ  हैं , पहली अवस्था अव्यक्त और दूसरी अवस्था व्यक्त है अर्थात  कार्य की प्रकृति, कारण जैसी होती है ।

 6 - च का अर्थ और है ।

7 - सत् कार्यम् अर्थात सभी व्यक्त कार्य 

 कार्य ‘सत्’ है अर्थात कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान रहता  है। वह जो विद्यमान है उसे सांख्य सत् कहते हैं और जो विद्यमान नहीं उसे असत् कहते हैं ।

अब ऊपर व्यक्त सांख्य कारिका - 09 के आधार पर सरल भाषा में  सत्कार्यवाद के पांच सिद्धान्त को समझते हैं ⤵️

1 - असत् (अविद्यमान ) से सत् (विद्यमान ) की निष्पत्ति असंभव है । 

2 - बिना उपादान कारण  कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं ।

3 - किसी एक कारण से अनेक कार्यों की उत्पत्ति संभव नहीं ।

4 - कारण केवल वही कार्य उत्पन्न कर सकता है जो उसकी कर सकने की क्षमता में होता है जैसे तिल ,तेल पैदा कर सकता है , बैगन तिल का तेल नहीं पैदा कर सकता ।

5 - कार्य - कारण दोनों के गुण एक जैसे होते हैं ।

ऊपर व्यक्त 05 सिद्धांतों को निम्न रूप में भी समझा जा सकता है ….

1- अविद्यमान से कार्य की उत्पत्ति असम्भव है ।

2 - जिसका निर्माण करना है उसके उपादान कारण को ग्रहण करना होता है जैसे दही बनाने के लिए दूधको ग्रहण करना ही पड़ता है ।

3 - सब बस्तुए सभीं बस्तुओं से उपलब्ध नहीं होती जैसे रेत से तेल नहीं निकल सकता ।

4 - शक्तिमान ही विशेष कार्य को उत्पन्न कर सकता है ।

5 - कार्य , कारण से भिन्न नहीं होता।

इन सभीं बातों से सिद्ध होता है कि उत्पत्ति से पहले भी कार्य अव्यक्त रूप में अपने कारण में विद्यमान रहता है । 

निम्न सूत्रों पर मनन करें …

1 - उत्पत्ति पूर्व कार्य अपने कारण में छिपा रहता है और इस प्रकार उत्पत्ति पूर्व कार्य सत् है । 

2 - कारण , कार्य की अव्यक्त अवस्था है , और कार्य से उसके कारण को जाना जाता है । 

3 - कार्य , कारण की व्यक्त अवस्था है ।

4 - चूंकि प्रकृति त्रिगुणी है अतः उससे कार्य रूप 23 तत्त्व भी त्रिगुणी ही होते हैं । 

5 - कारण के गुण और स्वभाव उसके कार्य में बीज रूप में होते हैं जो अनुकूल परिस्थिति मिलने पर अंकुरित हो उठते हैं ।

~~ ॐ ~~ 

Tuesday, October 17, 2023

सांख्य दर्शन में करण रहस्य


सांख्य दर्शन में 

करण क्या हैं और कितने हैं ?

यहां देखें सांख्य कारिका > 32 और 33

पुरुष - प्रकृति संयोग के बाद विकृत प्रकृति , पुरुष को कैवल्य   में पहुंचाना चाहती हैं और इस कार्य के लिए उसके 23 तत्त्व टूल्स के रूप में पुरुष की मदद करते हैं । 

^^^ ऊपर  की स्लाइड को ध्यान से देखें ^^^


11 इंद्रियां सात्त्विक अहंकार के कार्य हैं अतः ये मूलतः सात्त्विक गुण प्रधान हैं । पांच तन्मात्र तामस अहंकार के कार्य हैं और पांच महाभूतो के करण हैं अतः  मूलतः ये तामस  गुण की वृत्तियों से प्रभावित रहते हैं जैसे आलस्य आदि । बुद्धि त्रिगुणी प्रकृति का कार्य है अतः मूलतः यह तीनों गुणों की वृतियों के प्रभाव में रहती है ।  विकृत प्रकृति का अपनें मूल स्वरूप में लौटने और  चिताकार पुरुष का  अपनें मूल स्वरूप में लौट जाना , महर्षि पतंजलि योग दर्शन का लक्ष्य है । प्रकृति का मूल स्वरूप तीन गुणों की साम्यावस्था है तथा पुरुष का मूल स्वरूप निर्गुण  है।


सांख्य दर्शन , 25 तत्त्वों के माध्यम से जड़ और चेतन सृष्टियों की उत्पात्ति की गणित देता है । इन 25 तत्त्वों में दो सनातन एवं स्वतंत्र तत्त्व हैं जिन्हें पुरुष और प्रकृति कहते हैं । इन दो मूल तत्त्वों के संयोग से विकृत हुई मूल प्रकृति के 23 तत्त्व विकृत हुई प्रकृति के कार्य हैं और प्रकृति उनका कारण है ।

सांख्य के 25 तत्त्व कारण , कार्य , न कारण न कार्य और करण में विभक्त हैं । कारण , कार्य और न कारण , न कार्य तत्त्वों के संबंध में पिछले लेख में बिस्तर के चर्चा की जा चुकी है । अब यहां हम करण तत्त्वों के संबंध में देखने जा रहे हैं।

करण  शब्द का अर्थ हैकर्ता अर्थात करनेवाला या क्रिया का आश्रय।  

पुरुष , प्रकृति एवं विकृत प्रकृति के कार्य रूप में बुद्धि  (महत् ), अहंकार ,11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और तन्मात्रों के कार्य रूप में 05 महाभूत , सांख्य दर्शन के 25 तत्त्व हैं , जैसा ऊपर स्लाइड में दिखाया गया है ।  पुरुष को छोड़ शेष 24 तत्त्व त्रिगुणी तत्त्व हैं और पुरुष निर्गुणी है ।

सांख्य के ऊपर व्यक्त  25 तत्त्वों में बुद्धि ,अहंकार , और 11 इंद्रियों को करण कहते हैं । इन 13 करणों में बुद्धि , अहंकार और मन को अंतः करण एवं चित्त कहते हैं और शेष 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते हैं। चित्त माध्यम से पुरुष करता और भोग एवं भोग से मिलने वाले सुख - दुःख का भोक्ता सा भाषता है ।

13 करणों में बुद्धि मूल प्रकृति का कार्य है और अहँकार का कारण । अहँकार तीन प्रकार के हैं ; सात्त्विक , राजस और तामस । ये तीनिन5 अहँकार बुद्धि के कार्य हैं , सात्त्विक अहँकार बुद्धि का कार्य तथा 11 इंद्रियं का कारण है । तामस अहँकार बुद्धि का कार्य एवं पांच तन्मात्रों का कारण है । पांच तन्मात्र पांच महाभूतों के कारण है । राजस अहँकार बुद्धि का कार्य भर है , किसी तत्त्व का कारण नहीं है , यह शेष दो अहंकारों की मदद करता है । पांच महाभूत  केवल तन्मात्रो के कार्य हैं । 

👌 करण के निम्न तीन कार्य हैं 👇

1 - आहरण (लेना या ग्रहण करना )

2 -  धारण करना 

3 - प्रकाशित करना ( ज्ञान देना ) 

 💮05 कर्म इन्द्रियाँ ग्रहण एवं धारण दोनों करती हैं 

 💮05 ज्ञान इंद्रियाँ केवल प्रकाशित करती हैं । 

💐 इन 05 कर्म इन्द्रियों एवं ज्ञान इन्द्रियों के अपनें - अपनें कार्य हैं  और ये कार्य ऊपर व्यक्त 03 भागों

 (आहरण , धारण और प्रकाशित करना )  में विभक्त 

हैं ।

👉अंतःकरण अर्थात मन , बुद्धि और अहंकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनीं - अपनीं वृत्तियों को समझते हैं । 

👉मन , बुद्धि और अहंकार की सभी वृत्तियों का

 पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य है और करण स्वयं ही प्रवृत्त होते हैं ,किसी से नियंत्रित होकर नहीं प्रवृत्त होते। 

💐 बाह्य करण केवल वर्तमान काल के बिषयों को ग्रहण करते हैं जबकि अंतःकरण ( बुद्धि ,मन और अहंकार ) तीनों कालों के बिषयों को ग्रहण करते हैं ।

🐦 05  कर्म इन्द्रियों में वाक् इन्द्रिय का केवल एक शब्द बिषय है ,शेष 04 कर्म इन्द्रियाँ  , पांच बिषयों ( शब्द , स्पर्श , रूप  , रस , गंध ) वाली है ।

 उदाहरण देखिए 👉 जैसे हाँथ एक घड़े को ग्रहण करता है जिसमें सभीं 05 बिषय हो सकते हैं और पैर सभीं 05 बिषयों से युक्त पृथ्वी पर चलता है । 

💐 13 करणों ( बुद्धि + अहँकार + मन + 10 इंद्रियाँ ) में अंतःकरण ( बुद्धि , अहंकार और मन )  द्वारि (स्वामी ) हैं और अन्य 10 ( 10 इन्द्रियाँ ) द्वार  हैं

 मन - अहंकार से युक्त बुद्धि तीनों कालों के बिषयों का अवगाहन (गहरा चिंतन ) करती है । 

💐 तीनों अंतःकरण स्वेच्छा से अगल - अलग द्वारों 

(10 इन्द्रियों ) से  अलग -अलग बिषय ग्रहण करते हैं ।

💐 सभीं इंद्रियाँ तथा अहंकार दीपक की भांति हैं और एक दूसरे से भिन्न गुण वाले हैं । जैसे दीपक अपनी परिधि में स्थित सभीं बिषयों को प्रकाशित करता है वैसे 12 करण ( 11 इंद्रियां + अहंकार ) सम्पूर्ण पुरुषार्थ 

(धर्म + अर्थ + काम + मोक्ष  ) को प्रकाशित करके बुद्धि को समर्पित करते हैं । 

💐 पुरुष के सभीं उपभोग की व्यवस्था बुद्धि करती है और वही  प्रकृति और पुरुष के सूक्ष्म भेद को विशेष रूप से जानती है ।

 💮 पञ्च महाभूत सात्त्विक गुण के प्रभाव में शांत स्वरूप और सुख स्वरूप में होते हैं ।

🐥 पञ्च महाभूत राजस गुण के प्रभाव में 

घोर ( दुःख ) स्वरुप में होते हैं ।

🐔 पञ्च महाभूत तामस गुण के प्रभाव में मूढ़ भाव स्वरूप में होते हैं ।

【 ध्यान रखना होगा कि तीन गुण पञ्च भूतों के स्वभाव को परिवर्तित करते रहते हैं और ये तीन गुण हमारे देह में हर पल बदल रहे हैं । एक गुण अन्य दो को दबा कर प्रभावी होता है ।

~~ ॐ ~~