Friday, November 29, 2013

मूर्ति से

● मूर्ति से ●
1- दर्पणके सामनें खड़े हो कर सभीं अपनेंको अभिनेता समझते हैं , कुछ क्षण केलिए लेकिन कभीं किसी मंदिरकी मूर्तिके सामनें खड़े हो कर आप अपनें को आँखें बंद करके देखना , वहाँ आपको अपना असली चेहरा दिखेगा और आप बेचैन होनें लगेंगे । 2- एक वह है जो सबकुछ होते हुए भी अतृप्त है और एक वह है कुछ न होनें पर भी आनन्दित है ।
3- भक्त सबकुछ खोकर उसे पा लेता है और आनंदित रहता है और भोगी सबकुछ होते हुए भी उसकी ओर पीठ किये मुह लटकाए जीता है ।
4- सभीं उसके द्वार तक पहुँचते हैं लेकिन हजारों साल गुजर जानें के बाद कोई एक ऐसा मिलता है जो द्वार खुलनेंका इन्तजार करता है।
5-जितनें द्वार खुलनें का इन्तजार करते होते हैं उनमें कोई एक - दो ऐसे होते हैं जो द्वारमें प्रवेश कर पाते हैं अन्यको माया अपनी ओर खीच लेती है , पीछे ।
6- मंदिरके दरवाजे तक पहुँचना , अति सरल तो नहीं पर सुगम जरुर है लेकिन पूर्तिके सामनें खड़ा रहना इतना सरल नहीं , मूर्तिवत होना अपनें बशमें नहीं और जो मूर्तिवत हो गया , वह उसका हो गया । 7- ध्यानसे हृदय- कपाट खुलता है ।
8- हृदयमें परम बसता है ।
9- हृदय -कपाट खुलते ही वह उर्जा जो अन्दरसे बाहर बह रही थी थम जाती है और बाहरसे परम उर्जा अन्दरकी और आती स्पष्ट रूपसे दिखने लगती है ।
10- जब यह उर्जा नाभिसे हृदयमें पहुँचती है तब वह ध्यानी अब्यक्त से जुड़ जाता है और अब्यक्त हो उठता है ।
~~ ॐ ~~

Monday, November 25, 2013

दर्द और रिश्ता

● दर्द और रिश्ता ●
1- प्रतिदिन दर्द और रिश्ताके अनुभवसे हम गुजरते हैं लेकिन दर्द इए रिश्ता को समझनें की कोशिश हम नहीं करते ।
2- दर्दमें रिश्ते और रिश्तेमें दर्द दोनों का अनुभव एक दुसरे से थीक उल्टा होता है , दर्द में रिश्तेकी तलाशमें मन होता है और रिश्ते में दर्दका अनुभव वैराग्य की ओर चलता है ।
3- दर्दसे रिश्ता है ? या रिश्तेसे दर्द है ? बहुत कठिन है इस समीकरणको समझना ।
4- दर्दमें जो रिश्ता बनता है वह परम रिश्ता होता है जैसे माँ और औलादका रिश्ता जो प्रसव पीड़ासे सम्बंधित रिश्ता है लेकिन अब यह रिश्ता भी कमजोर होता दिख रहा है क्योंकि अब शिशुका जन्म बिना प्रसव पीड़ा संभव  है ।
5- भक्त और भगवानके मध्य दर्दका रिश्ता है जहां भक्त रोता - रोता नाचनें भी लगता है जैसे मीरा और परमहंस श्री परमहंस जी ।
6- भक्तिमें उठी दर्द जब भक्तके हृदयको पिघलाती है तब उसके तरल हृदयमें भगवान दिखता है और तब उसका सम्बन्ध संसारसे टूट जाता है और वह शुद्ध परा भक्तिकी समाधिमें पहुँच कर प्रभु ही बन जाता है । 7- रिश्ते में जो दर्द उठता है वह दो प्रकारका होता
है ; एक वह दर्द जो जुदाईके कारण उठता है और दूसरा दर्द कृतिम दर्द होता है जो बुद्धि - अहंकारके सहयोगसे उठता है । जुदाई का दर्द प्राकृतिक दर्द होता है जिसके तार हृदय से जुड़े होते हैं लेकिन कृतिम दर्द बुद्धि एवं अहंकार की उपज है ।
8- प्राकृतिक दर्द हृदय का दर्द है और कृतिम दर्द अहंकारकी उपज है । अहंकारका दर्द नर्क में पहुंचता है और प्राकृतिक दर्दमें परमकी खुशबू मिलती रहती
है ।
~~ ॐ ~~

Sunday, November 24, 2013

एक सोच

●● एक सोच - 1 ●●
1- सत्य भोगीके लिए एक भ्रम है और भोग उनके लिए परम सत्य है ।
2- योगीके लिए सत्य उनका बसेरा है और भोग सत्यका द्वार ।
3- भोगी भोगकी सुरक्षा हेतु भ्रमित मनसे सत्यको देखता है , और काम उसका परम सत्य है ।
4- प्रकृतिमें मनुष्यको छोड़ कर अन्य सभीं जीवोंका केंद्र भोग है पर मनुष्यके जीवनके दो केंद्र हैं ( bipolar life ) - एक भोग और दूसरा योग ।
5 - गणितमें अंडाकार आकृति जिसे इलिप्स कहते
हैं , उसके दो केंद्र होते हैं ।
6 - मनुष्य जब भोगकी ओर कदम उठता है तब उसे योग अपनी ओर आकर्षित करता है और जब योग में होता है तब उसे भोग खीचता है ।इस प्रकार मनुष्य कभी संतुष्ट नही हो पाता ।
7 - अपनें अनुकुल औरोंको बदलनें की सोच दुःखके सिवाय और क्या दिया ? लेकिन स्वयंको बदलनेंका अभ्यास ध्यान प्रक्रिया है जो परम से जोडती है ।
8 - संसारकी सोच आपको सिकोड़ती चली जाती है और प्रभुकी सोच आपको फैलाती रहती है । पहली स्थिति में दुःखकी और दूसरी स्थितिमें आनंदकी उर्जा तन-मन में भरती है ।
9 - जैसे हो वह आपका अपना अर्जित किया हुआ
है , जहाँ लोगो केलिए आप सुखी दिखते हैं और अपनें लिए दुखी रहते हैं पर यदि आप स्वयंको अपनें कृत्यों में देखनें का अभ्यास करें तो एक दिन आप अन्दर - बाहर से सुखी ही सुखी होंगे ।
10 - भोगकी यात्रामें जब हम दो कदम चल लेते हैं और देखते हैं अपनीं स्थितिको तो पहली जगहसे चार कदम अपनेंको पीछे पाते हैं लेकिन योगी योग की यात्रामें पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं और जहाँ भी होता है जैसे भी होता है , खुश रहता है ।
11- अपनेंको दूसरोंकी तुलनामें देखनेंका अभ्यास आपको अपनेंसे दूर करता जाता है।
~~~ ॐ ~~~

Saturday, November 16, 2013

ध्यान सूत्र

मेरी नज़र में - 1
1- कर लो इकठ्ठा जितना चाहो लेकिन साथ ही साथ यह न भूलना कि अंतमें खाली हाँथ ही जाना होगा ।
2- मनुष्य योनि स्वयंमें एक तीर्थ है और हर मनुष्य तीर्थंकर , तीर्थंकर अहंकार - गुण अप्रभावित ब्रह्मवित् होता है , यह सोच बना कर जीना स्वयंसे मिला देता है ।
3- कामना - अहंकार रहित जीवन परम अनुभवका द्वार है ।
4- जीवनको जीनें वाला लाखोंमें एक हो सकता है लेकिन अन्य सभीं जीवनको पीठ पर ढोनें वाले हैं । 5- गहरी कामना अहंकारकी छाया है ।
6- मोह तामस अहंकारकी पहचान है ।
7- लोभ असंतोष की झलक है ।
8- मेरा और तेरा का भाव फैलनें नहीं देता और बिना फैले प्रकृति से एकत्व स्थापित नहीं हो सकता । 9- प्रकृतिसे एकत्व स्थापिर होते ही प्रभुकी खुशबू मिलने लगती है ।
10- साधनाकी डगर है बहुत कठिन लेकिन इस डगर की यात्राके लिए ही तो मनुष्य योनि मिली हुयी है । ~~~ ॐ ~~~

Thursday, November 14, 2013

ध्यानकी बातें


1- मनुष्य अपनें किये गये से फलके रूपमें सुख प्राप्ति चाहता है , कभीं जो क्षणिक सुख मिलता भी है वह दुःखमें बदल जाता है , क्यों ? क्योंकि मनुष्य गुणोंकी उर्जके प्रभावमें कर्म करता है । बिना गुणोंके प्रभावमेंआये कर्मको करना जिस कर्ममें फलकी कोई चाह न हो , यह सांख्य - योगके मूल सूत्र पर महाभारत युद्धमें प्रभु श्री कृष्णका एक अनूठा प्रयोग था जैसा और कहीं नहीं मिलता ।
2- कालके रूपमें सभीं घटनाओंमें वही होता है जिसका एक नाम काल भी है लेकिन विभिन्न रूपोंमें उसे पहचानना कठिन होता है ।
3-यह ब्रह्माण्ड और इसकी सभीं सूचनाएं किसी द्वारा नियंत्रित हैं या किसी नियमसे नियंत्रित हैं , यह कहना कठिन है लेकिन जो भी है , वह मन - बुद्धि सीमासे परे जरुर है ।
4- हिमायलके होनें में और एक फूलके होनें में एक ही रहस्य है और उस रहस्यको कोई नाम दिया जा सकता है पर उसकी परिभाषा करना संभव नहीं । 5- जीवन जितना सरल और सीधा होगा , जीनें का उतना ही गहरा अनुभव होगा ।
6- जीवन मिला हुआ है अनुभवसे स्वयंको पहचाननें केलिए और स्वयंकी पहचान ही प्रभुकी पहचान है । 7- चाहे जो करलो लेकिन जबतक तुम्हारा कर्म प्रभु केन्द्रित न होगा , तुम बेचैन ही रहोगे।
8- दुसरेके जीवनके रंगमें अपनें जीवनको न रंगों , तुम्हारा रंग भी उतना ही प्यार है , उसे पहचाननें की कोशिश करते रहो ।
9- दो श्वासोंके अंतरालमें जो घट रहा हो ,उसे देखो, यह ध्यान शिव पार्बती को सिखाया था।
10- बाहर जाती श्वासको साधो, इसी श्वाससे प्राण भी एक दिन बाहर निकलेगा ।
~~~ ॐ ~~~

Tuesday, November 12, 2013

सोच की पहचान

सोच
1- सोच मनुष्यके जीवनका आधार है ।
2- सोचसे हम स्वयंको क्षणभरके लिए राजा समझ बैठते हैं और क्षणभरमें अपनेंको रंक समझनें लगते
हैं ,सोचसे कोई बचा नहीं है ।
3- सोचमें सभीं तैरते हैं लेकिन कोई इसमें दूबनें की कोशिश नहीं करता और बिना डूबे मोती पाना संभव नहीं ।अगर आप मोतीके खोजी हैं तो सोचमें तैरनें की आदतको छोडो और सोच में दूबनेंका अभ्यास करो । 4- सोचमें एक बार दूबनेंका रस मिल जाए तो वह ब्यक्ति सोचसे बाहर आनें पर एक दम भिन्न होगया होता है और समझ जाता है कि सच्चाई कहाँ पर है । 5-सोच मनकी उपज है और मन तीन गुणोंकी उर्जासे संचालित है ।
6- मन कहीं रुकनें नहीं देता और न चैनसे सोच रहित होनें देता । मनका काम है भगाए रहना और हम बिना सोचे समझे रात और दिन भाग रहे हैं ।
7- भोगी आदमीकी सोच दो जगह खोजती है ; एक धनके भण्डारकोऔर दूसरीस्त्री प्रसंगको।
8-योगी सोचसे सोचके परे निकल कर सोचको धन्यबाद देता है और कहता है , सोच तेरा धन्यबाद , यदि तूँ न होती तो हमें ब्रह्म में कौन पहुँचाता ?
9- योगी सोचसे परे पूर्ण स्थिर प्रज्ञताकी अलमस्तीमें मस्त रहता है और भोगी सोच में उलझा एक नहीं अनेक तत्त्वों जैसे कमाना, क्रोध ,लोभ ,मोह,अहंकार और भय में उलझा हुआ स्वयंसे धीरे -धीरे दूर होता चला जाता है ।
10- भोगी मरना नहीं चाहता और योगी अपनी मौतका द्रष्टा होता है ।
11- भोगी मौतसे बचनेंके सारे बंदोबस्त कर रहा है और योगी मौतको एक भौतिक परिवर्तन का अवसर समझता है।
12- योगी मौत की तैयारी करता है और भोगी मौतकी तरफ पीठ करके बेचैनीमें रहता है ।
13- भोगीके माथेका पसीना कभीं नहीं सूखता और योगीके माथे पर कभीं पसीना नहीं आता ।
~~ ॐ ~~

Friday, November 8, 2013

ध्यानकी किरण - 1

●ध्यानकी किरण - 1 ●
1- भक्त वह है जो आत्मा - परमात्माके एकत्वकी अनुभूतिसे गुजरा हो।
2- अहंकार आपको क्षणिक शांतिका भ्रम देता है पर वह एक अनूठा जहर होता है जो जला कर भष्म करदेता है ।
3- लेनेंका भाव दुःख उर्जाकी पहचान है जिसमें अहंकार छिपा हो सकता है और देनेंका भाव परिधि पर अकड़े हुए अहंकारकी छाया भी हो सकती है । 4- देनेंके भाव से यदि दुःख मिलता हो तो वह भाव निर्मल नहीं , गुण प्रभावित होता है हो नर्कमें पहुंचाता है ।
5- देना और लेना एक उर्जाकी दो तस्बीरें हैं।
6- भाव दुःखके धनी होते हैं जिनके सुखमें दुःखके बीज विकसित होते रहते हैं ।
7 - परिस्थियाँ बदलनेंका यत्न न करो , उनमें रहनेंका अभ्यास करो , यह आपको सुखी होनें में सहयोग करेगा।परिस्थिति जिसमें आप हैं वह आप द्वारा ही निर्मित है , दूसरों पर दोशार्पण क्यों करते हो ?
8 - लोगोंको धोखा देकर वहाँ तक पहुँच तो सकते हो लेकिन जहाँ किसी को धोखा देकर पहुँचना चाह रहे हो वह तुमको चैन से रहने न देगा ?
9 - दूसरोंको बदलनें में स्वयं को बर्बाद न करो , स्वयंसे जो हुआ उसके परिणाम को देखते हुए स्वयं को बदलते रहना ही भोग संसार में चैन की किरण दिखा सकता है ।
10 - आज संसार जिस रंगमें रंग रहा है उसे कोई नहीं बदल सकता , कालके चक्रकी गति को कौन बदल सकता है ? संसारके बदल रहे रंगमें अपनें को न उलझाओ , उसका द्रष्टा बनानें का अभ्यास करो । ~~~ ॐ ~~~

Thursday, November 7, 2013

भागवत का एक अंश

● कृष्णका मथुरा और ब्रज - 1●
श्रीमद्भागवत पुराणमें ऐसा प्रसंग मिलता है कि प्रभाष क्षेत्रमें जहाँ सरस्वती नदी अरब सागरमें गिरती थी वहाँ सभीं यदुबंशी मैरेयक - बारूणी मदिरा पी कर आपस में लड़ते हुए समाप्त हो गए थे , बलराम जी ध्यान माध्यम से प्राण त्यागा था और प्रभु के लिए उनके धाम से रथ उतरा था जिस पर बैठ कर वे स्वधाम चले गए थे । प्रभु स्वधाम जाते समय अपनें सारथी दारुकके माध्यमसे द्वारका यह संदेशा भिजवाया कि वहाँ जो लोग हैं उनको तुरंत अर्जुनके साथ इन्द्रप्रष्ठ चले जाना चाहए क्योंकि आज से ठीक 7वें दिन द्वारका समुद्र में डूब जायेगी ।
* यह घटना कृष्ण जन्मके बाद ठीक 125 वें वर्ष की है । कृष्ण का स्वधाम जाना , पांडवों का स्वर्गारोहण , धृतराष्ट्र और गांधारी का गंगा तट पर सप्त श्रोत आश्रम पर महानिर्वाण प्राप्त करना , परीक्षितका पृथ्वी सम्राटके रूप में हस्तिनापुरमें आसीन होना और कृष्णके प्रपौत्र बज्रका मथुरा एवं शूरसेन क्षेत्रके सेनाधिपति रूपमें अभिषेक होना , यह सारी घटनाएँ एक साथ घटित हुयी ।
* भागवत कहता है , जब बज्र नाथ मथुरा आये तो मथुरा - वृन्दाबन वीरान हो चुका था, बहुत कम आबादी ही गयी थी और प्रभु श्री कृष्ण के सभीं लीला स्थलों की पहचान भी समाप्त हो चुकी थी ।
* लगभग 70 सालमें ऐसा क्या हुआ मथुरा एवं ब्रज में कि प्रभु के सभीं लीला स्थलों को बतानें वाले कोई न थे और ऐसा जुछ नहीं दीखता था जिसके आधार पर यह समझा जा सके कि इन- इन स्थानों पर प्रभु कभीं लीलाएं की थी ।कहाँ गए वे लोग और क्या हुआ उन स्थानों को ?
> इस बात पर आगे चर्चा की जायेगी <
~~~ ॐ ~~~

Friday, November 1, 2013

मन को समझो

● रे मन ●
1- मन मनुष्यको दैत्य और देव बनाता है ।
2- सात्त्विक अहंकार और काल ( समय ) से सृष्टिके प्रारम्भमें मनका निर्माण होता है ।
3- अपरा प्रकृतिके 08 तत्त्वों ( पञ्च महाभूत + मन + बुद्धि + अहंकार ) में से एक मन है ।
4- मन जब 10 इन्द्रियों से जुड़ता है जब विकारों का पुंज हो जाता है ।
5- मन , चित्त , बुद्धि और अहंकारके योग को अन्तः करण कहते हैं ।
6- जैसे एक समझदार ब्याध पकडे गए हिरन पर भरोषा नहीं रखता वैसे योगी अपनें मन पर भरोषा नहीं रखता ।
7- मन को राजस - तामस गुणों की बृत्तियों से दूर रखना , ध्यान है ।
8- मन पूर्व अनुभव में आये बिषयों पर भौरे की तरह मडराता रहता है ।
9- कर्म संस्कारोंका पुंज , मन है ।
10- मन संसार का विलास है ।
11- 10 इन्द्रियाँ ,मन और स्थूल देह को साधक लिंग शरीर कहते हैं ।
12- Sir Wilder Penfield
( 1891 - 1979 ), a recognised nurologist says : Mind is not brain , it works independent of brain as a computer programmer.
13- Roger Wolcot Sperry
( 1913-1994 ) : Nobel prize 1982 : Nurologist : He says , body doesnot create biochemical and nurological brain nechanism , it is developed before the development of the body . 14 - John C. Accles ( 1903-1997) : nobel prize : 1963 says : Consciousness is extra cerebral located in the area where orthodox brahmins keek crest , this area is called S.M.A. area ( supplement motor area ).
15 - Max Planck -nobel prize 1918 says : Mind is matrix of matters .
~~ ॐ ~~