Friday, April 27, 2012

जीवन दर्पण 45

  • जब आप क्रोध में हों तब देखना उसके होनें के कारण को,कारण आप स्वयं नहीं कोई और होगा

  • भोग - तत्त्वों एवं क्रोध का आपसी गहरा सम्बन्ध है

  • राजस गुणों के तत्त्वों के साथ धनात्मक अहंकार होता है जो स्पष्ट दिखता है

  • तामस गुण का अहँकार सिकुड़ा हुआ समय के इन्तजार में केंद्र में झुप कर रहता है

  • भोग तत्त्वों में अहँकार की उम्र सबसे कम होती है

  • अहँकार की अनुपस्थिति में सत् का बोध होता है

  • सत् वह है जो संसार के बोध के साथ प्रभुमय बनाए

  • भोग तत्त्वों एवं अहँकार के सम्मोहन के प्रभाव से जो बच रहता है वह है ज्ञानी

  • ज्ञानी प्रभु के सम्बन्ध में चुप रहता है

  • लाओत्सू कहते हैं , सत् ब्यक्त करनें पर असत्य बन जाता है "

  • अपनें को दर्पण में क्या देखते हो स्वयं के मन को दर्पण बनाओ

===== ओम्======



Friday, April 20, 2012

जीवन दर्शन 44

  • वह क्या है जो स्वयं में भय है ?

  • क्या वह मौत तो नहीं?

  • वह जो प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल चलता है वह मौत की ओर जाता है

  • वह जो प्रकृति के अनुकूल चल रहा है उसे मौत से भय नहीं होता

  • मौत एक ऐसा परम सत्य है जिसको कोई नहीं नक्कार सकता

  • परमात्मा है , ऐसा कहना विवाद रहित नहीं हो सकता

  • लेकिन मौत है , ऐसा कहना विवाद रहित जरुर है

  • वह जो मौत से दूर भागता है,मौत से उतना नजदीक होता जाता है

  • तन की मौत तो सबकी होती है

  • लेकिन मन की मौत होना असंभव है

  • गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , इंद्रियों में मन मैं हूँ "

  • मन एक माध्यम है जो एक तरफ अमरत्व से जुड़ा है और दूसरी तरफ मौत से

  • मन का जो गुलाम है वह मौत से दूर नहीं रह सकता

  • वह जिसके इशारे पर उसका मन चलता हो उसकी मित्रता मौत से होती है

  • भोगी मौत का बैरी है और योगी मित्र

  • प्रभु में डूबा हुआ योगी मौत को देख सकता है जैसे जुन्नैद

===== ओम्======




Tuesday, April 17, 2012

जीवन दर्शन 43

  • न हम किसी को हसते देख सकते हैं और न रोते

  • आखिर हम किसी को कैसा देखना चाहते हैं ?

  • हसने और रोने के मध्य की स्थिति को क्य समभाव नहीं कह सकते?

  • क्या गीता का मूल आधार समभाव नहीं?

  • जब हम किसी को हसते देखते हैं तब तुरंत पूछते हैं , “ भाई क्या बात है बहुत हस रहे हो ? “

  • जब हम किसी को रोते देखते हैं तब भी कारण जानना चाहते हैं , क्यों ?

  • कारण जाननें से हमें क्या मिलता है?

  • जो हसता है उसके पीछे कोई कारण होता है

  • जो रोता है उसके पीछे भी कोई कारण होता है

  • जो उसके हसने - रोने के करण को जानना चाहता है उसके जानने के पीछे भी कोई कारण होता है

  • क्या कारण रहित रोना नहीं हो सकता?

  • क्या कारण रहित हसना नहीं हो सकता?

  • जिस हसी के पीछे कोई गहरा कारण होता है वहाँ अहँकार भी होता है

  • जिस रोने के पीछे जितना गहरा कारण होगा वहाँ उतना गहरा मोह हो सकता है

  • मोह में नकारात्मक अहँकार होता है

  • वह हसी जिसमें अहँकार न हो और भोग तत्त्वों की छाया न हो,परम से जोड़ती है

  • कारण रहित रोना सत् से जोड़ता है

  • हमें लोगों की इतनी गहरी चिंता क्यों रहती है?

  • हम कब और कैसे स्व पर केंद्रित हो सकेंगे?

  • ध्यान एक मार्ग है जहाँ न हसी है , न रुदन और उससे जो निकलता है वह सब का आदि है

  • सकारण ध्यान ध्यान नहीं,दिखावा होता है

  • ध्यान से मनुष्य स्वयं को पहचाननें लगता है

  • स्व की पहचान में परमेश्वर बसता है

==== ओम्=======





Sunday, April 15, 2012

जीवन दर्शन 42

  • मुह से चुप होना अति सरल है और मन से चुप होना साधना है

  • मुह से चुप होते ही मन की रफ्तार तेज हो जाती है

  • मुह से मौन रहनें का अभ्यास मन से मौन रहनें की स्थिति में पहुंचा सकता है

  • मुह से चुप रहनें की आदत डालनें से मनोविज्ञान बदलता है

  • मनोविज्ञान में आ रहे बदलाव को गंभीरता से समझने की जरुरत होती है

  • यदि अहँकार मुह से मौन बना रहा हो तो इसे समझिए ; यह खतरनाक स्थिति में ले जा सकता है

  • लोग कभीं कभी मौन रहनें का व्रत लेते हैं , यह अभ्यास – योग का एक चरण है

  • जब आप मौन व्रत में हों तब स्वयं को निहारते रहिये

  • हठात इंद्रियों को रोकना अहंकारी बना सकता है

  • इंद्रियों की मित्रता परम सत्य का द्वार खोल सकती है

  • मौन होना अर्थात शब्द रहित होना

  • शब्द रहित होना अर्थात भाव रहित होना

  • और भावातीत की स्थिति ही ब्रह्म की स्थिति है

  • ब्रह्म की अनुभूति जब घटित होती है उस काल में वह साधक स्वयं ब्रह्म हो गया होता है

  • भावातीत की स्थिति में साधक समाधि में पहुंचा होता है

    और

  • वह संसार का द्रष्टा होता है

==== ओम्======




Friday, April 13, 2012

जीवन दर्शन - 41

योगी,ज्ञानी,संन्यासी,वैरागी,कर्म – योगी,सांख्य – योगी,भक्त ये सब एक के संबोधन हैं

वह योगी है जिसका बसेरा भोग संसार में नहीं प्रभु में होता है

योगी भोग का द्रष्टा होता है

योग का मार्ग भोग से गुजरता है

भोग में उठा होश ही योग है

योगी बुद्धि स्तर पर बनना अति आसान पर ह्रदय से योगी होना प्रभु का प्रसाद है

योग का अर्थ है ब्यक्ति विशेष की चेतना का परम चेतना से जुडना

तन स्तर पर जो योग होते हैं वे तन साधना के उपाय भर हैं

तन साधना से मन साधना संभव है लेकिन तन साधना में अहँकार भी साथ साथ सघन होता रहता है

तन साधना स्थिर-प्रज्ञ बना सकती है अगर कहीं किसी स्तर पर साधना में अहंकार का प्रवेश

न हो तब

साधना से ह्रदय का कपाट खुलता है और बुद्धि परम सत्य का द्रष्टा बनी रहती है

ह्रदय के कपाट के खुलनें से संसार का रहस्य दिखता है

ह्रदय साधना का नाभिकेंद्र है ; जहाँ प्रभु - आत्मा का निवास होता है

ह्रदय चक्र जब खुलता है तब स्व का बोध होता है,स्व का बोध तत्त्व – वित् बनाता है

तत्त्व वित् आत्मा से आत्मा में समभाव में जहाँ होता है वहीं परमात्मा होता है

तत्त्व – वित् हजारों साल बाद कभीं कभीं बुद्ध – महाबीर जैसे अवतरित होते हैं

तत्त्व – वित् पंथ का निर्माण नहीं करते , देह स्तर पर उनके जानें के बाद बुद्धि जीवी मार्ग का निर्माण करते हैं और उस मार्ग का ब्यापार चलाते रहते हैं /


====ओम्=======


Wednesday, April 11, 2012

जीवन दर्शन 40

न हसना बुरा है न रोना

न न रोना बुरा,न न हसना

अच्छा और बुरा की सोच गुण प्रभावित बुद्धि की उपज है

गुण प्रभावित बुद्धि पर सत् का प्रतिबिम्ब नहीं बनता

निर्विकार बुद्धि में सत्य के अलावा और कुछ नहीं होता

हंसी और रोना दोनों एक जगह पहुंचाते हैं

हसना और रोना दो अलग – अलग मार्ग दिखते हैं लेकिन ऐसा है नहीं

हसना और रोना एक ऊर्जा के दो रूप हैं भौतिक स्तर पर मात्र

हसना और रोना दो अलग – अलग भाव हैं

भाव भावातीत से हैं

भावातीत और कोई नहीं परमात्मा है

भाव से भाव की उत्पत्ति कैसे संभव है ?

गीता कहता है-----

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः गीता - 2.16

====ओम्=====


Monday, April 9, 2012

जीवन दर्शन - 39

जानना होनें की पौधशाला है

होना अर्थात प्रकृति के रहस्यों में बसना

प्रकृति के दिल की धडकन वह सुनता है जो होश मय होता है

बुद्धि स्तर पर जाननें में अहँकार हो सकता है

बुद्धि स्तर की समझ संदेह मुक्त नहीं भी हो सकती

बुद्धि स्तर पर जानना जब ह्रदय में पहुँचता है तब होश उठता है

ह्रदय की अनुभूति में संदेह का होना संभव नहीं

बुद्धि स्तर की समझ दो पर आधारित होती है

जहाँ एक के दो विकल्प हों वहाँ संदेह का होना अनिवार्य होता है

संदेह जब श्रद्धा में बदलता है तब बुद्धि की सोच ह्रदय में पहुंचती है

श्रद्धा परम सत्य का द्वार है

श्रद्धा और संदेह दोनों एक साथ एक बुद्धि में नहीं रह सकते

संदेह से विज्ञान और श्रद्धा से परमात्मा का रहस्य उजागर होते हैं

भक्ति का प्रारम्भ श्रद्धा से है

विज्ञान का प्रारम्भ संदेह से होता है

जितना गहरा संदेह होगा उतनी गहरी विज्ञान की बात निकल सकती है

श्रद्धा की गहराई में प्रभु बसता है


======ओम्=========




Saturday, April 7, 2012

जीवन दर्शन - 38

जिस सागर में रहते हो उसे पहचानो
स्वयं की पहचान ही सागर से मिलाती है
संसार सागर में तीन प्रमुख लहनें उठती रहती हैं [ सात्त्विक , राजस एवं तामस गुणों की ]
अध्यात्म की आसक्ति सात्त्विक लहर की उप लहर है
आसक्ति,कामना,क्रोध एवं लोभ राजस लहर की उप लहरें हैं
मोह,आलस्य एवं भय तामस लहर की उप लहरे हैं
ऊपर बतायी गयी लहरों एवं उप लहरों का बोध ही स्व का बोध है
स्व के बोध में बिषय,इंद्रिय,मन,बुद्धि,चेतना एवं आत्मा परमात्मा का द्रष्टा बनना होता है
स्व का बोध वह द्रष्टा भाव है जिसमें प्रकृति-पुरुष का रहस्य छिपा है
संसार का रहस्य ही माया रहस्य है
माया एक पर्दा है जो मन-बुद्धि को परम सत्य के दूर रखता है
परम सत्य सर्वत्र है एवं जो हैं उनका आदि मध्य एवं अंत भी वही है
गुणों का बोध अपरा भक्ति से संभव है
अपरा भक्ति का आखिरी द्वार परा भक्ति का प्रवेश – द्वार है
परा भक्त परम सत्य से परम सत्य में बसा हुआ प्रकृति-पुरुष का द्रष्टा होता है

=====ओम्======

Thursday, April 5, 2012

जीवन दर्शन 37

कितने दिन और अपने को अपने से दूर रखोगे?

कितने दिन और नफरत की आग में जलते रहोगे?

कितने दिन और चिंता की चिता में बैठे रहोगे?

कितने दिन और अहँकार की गुलामी में रहोगे?

कितने दिन और काम के सम्मोहन में उलझे रहोगे?

कितने दिन और मोह का रस चखते रहोगे?

कितने दिन और लोभ के काँटों की सेज पर सोते रहोगे?

कितने दिन और असत् से मित्रता रखना चाहोगे?

कितने दिन और रात को दिन समझ कर भागते रहोगे?

कितने दिन और राम को धोखा देते रहोगे?


====== ओम्=======



Tuesday, April 3, 2012

जीवन दर्शन - 36

मन नियंत्रित होता है ध्यान से

मन से मित्रता होती है ध्यान से

मन की दो दिशाएं हैं ; आक्रमण एवं प्रतिक्रमण

जब हम किसी और के सम्बन्ध में सोच रहे होते हैं तब मन आक्रमण की स्थिति में होता है

जब मन बाहर से अंदर की ओर चलता है तब उसे प्रतिक्रमण कहते हैं

आक्रमण में मनुष्य संसार से जुड़ता है

प्रतिक्रमण में मनुष्य यह समझनें लगता है कि मैं कौन हूँ ?

पांच कर्म इन्द्रियाँ एवं पांच ज्ञानेन्द्रिया मन के फैलाव हैं

दस इंद्रियों का सम्बन्ध होता है प्रकृति में बसे पांच बिषयों से

मन से संसार की यात्रा अति सरल यात्रा है

मन से भगवान की यात्रा अति कठिन यात्रा है

मन से मंदिर और मंदिर में भगवान की अनुभूति , साधना की यात्रा है

शांत मन में प्रभु का निवास होता है

मन कामना पूर्ति के माध्यम नहीं,अपितु कामना के प्रति होश मय होनें के माध्यम हैं

मन वह चौराहा है जहाँ से दो मार्ग निकलते हैं ; एक नरक को जाता है और दूसरा स्वर्ग को

मन ख़्वाबों में रखता है और चेतना सत् में

=====ओम्=======





Sunday, April 1, 2012

जीवन दर्शन - 35

  • तीन गुणों से माया है और माया प्रकृति का निर्माता है

  • तीन गुणों के अपनें-अपनें भाव हैं

  • सात्त्विक गुण निर्विकार प्रभु से जोड़ता है

  • राजस गुण भोग में आसक्ति बनाता है

  • तामस गुण मोह – भय एवं आलस्य से जोड़ कर रखता है

  • मनुष्य में सात्विक गुण का केन्द्र ह्रदय है

  • राजस गुण का केंद्र है प्रजनन इंद्रिय के आस – पास का स्थान जिसे स्वाधिस्थान चक्र कहते हैं

  • तामस गुण के भावों का केंद्र है नाभि चक्र[मणिपुर चक्र]

  • श्री कृष्ण कहते हैं , “ तीन गुणों के भाव मुझसे हैं और मैं भावातीत हूँ "

  • शब्दों से संसार बसत है और मौन में भगवान बसता है

  • प्यार ह्रदय की उपज है और वासना मन – बुद्धि की

  • प्यार ह्रदय में बसे प्रभु की तरंगों से है जो आत्मा से निकलती हैं

  • वासना की तरंगें मन से उठती हैं और तन में समाप्त हो जाती हैं

  • वासना अज्ञान की ऊर्जा से है और प्यार सत् की उर्जा है

====ओम् =======