Monday, November 29, 2021

गीता अध्याय - 14 हिंदी भाषान्तर

 


अध्याय : 14 का सार …

★ गीता अध्याय : 12 श्लोक : 1 के मध्यमसे अर्जुन जानना चाहते है , साकार एवं निराकार भक्तोंमें उत्तम योगवित् कौन होता है ? इस प्रश्नके सन्दर्भमें गीता अध्याय : 14 के प्रारंभिक 20 श्लोक हैं और श्लोक : 14.21 में अर्जुन गुणातीतके सम्बन्धमें जानना चाहते हैं । 

गीता अध्याय : 2 श्लोक : 54 में अर्जुन स्थिरप्रज्ञ योगीकी पहचान जानना चाहते हैं और यहाँ गुणातीत की पहचान पूछ रहे हैं जबकि स्थिरप्रज्ञ योगी का योग जब सिद्ध हो जाता है तब वह गुणातीत हो जाता है । गुणातीत योग की मोक्ष से ठीक पहले की स्थिति होती है गुणातीत को पतंजलि योग में निम्न प्रकार बताया गया है ⤵️

🐧 पतंजलि योग सूत्र समाधि पाद सूत्र : 17 में 04 प्रकारकी संप्रज्ञात समाधि बतायी गयी है - वितर्क , विचार , आनंद और अस्मिता ।  

🌷वितर्क , विचार और आनंद सम्प्रज्ञात समाधियों की सिद्धि प्राप्त योगी प्रकृतिलय सिद्ध योगी होता है और अस्मिता 

(अहं ) सम्प्रज्ञात समाधि सिद्धि प्राप्त योगी विदेहलय योगी होता है । प्रकृति लय योगी गुणातीत योगी होता है।

★ सात्विक गुणकी ऊर्जा अंतःकरणको प्रभुसे जोड़ती है ।

● राजस गुणकी ऊर्जासे मनुष्य आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ से जुड़ता है और तामस गुणकी ऊर्जासे मनुष्य अज्ञान , मोह , भय और आलस्यसे जुड़ता है ।

● श्लोक : 14.5 > देहमें देहीको 03 गुण बाध कर रोके हुए हैं । श्लोक : 14.10 में गुण समीकरण बताया गया हैं ; एक गुण अन्य दो को दबा कर प्रभावी होता है अर्थात जब एक गुण प्रभावी होता है तब अन्य दो अप्रभावी रहते हैं । अब आगे देखें⤵️

गीतामें अर्जुनका पहला प्रश्न ( गीता श्लोक : 2.54 ) निम्न प्रकार से है …

हे केशव ! समाधिमें स्थित स्थिरप्रज्ञकी भाषा कैसी होती है ?

वह कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? और कैसे चलता है ?

अर्जुन के ये दोनों प्रश्न  मूलतः दो नहीं हैं , दोनों  लगभग एक ही पुरुष से संबंधित हैं ।

अर्जुन के प्रश्न : 14 से यह बात तो स्पष्ट है कि अर्जुन यह तो जानते हैं कि  गुणातीत पुरुष , समाधि की अनुभूति वाला होता  है । यदि ऐसी बात है तो फिर अर्जुन यह भी जानते ही होंगे कि समाधि क्या है ? और यदि ऐसी बात है तो अर्जुन समाधि प्राप्त योगी की पहचान भी जानते ही होंगे ! फिर वे क्यों गुणातीत और स्थिर प्रज्ञ की पहचान जानना चाहते हैं ? इस बिषय पर किया गया गहरा मनन प्रभु से एकत्व स्थापित करा सकता है ।

✡ गीता अध्याय : 14 के बिषय 

श्लोक

बिषय

श्लोक योग

1- 4

ब्रह्म और सृष्टि रचना

04

5+10

● गुण - आत्मा सम्बन्ध और गुण समीकरण 

02

6 - 9

11 - 20

सात्त्विक , राजस और तामस गुण

14

21 

अर्जुन का प्रश्न : 

गुणातीत योगी की पहचान क्या है ?

01

22 - 27

गुणातीत योगी की पहचान

06

योग 


27


  गीता अध्याय : 14 

हिंदी भाषान्तर


श्लोक : 1

प्रभु श्री कह रहे हैं -

👉  ज्ञानोंमें अति उत्तम परम् ज्ञानको फिर कहूँगा , जिसको जानकर सब मुनि लोग इस संसारसे मुक्त होकर , परम् सिद्धिको प्राप्त हो गए हैं ।

 अब आगे देखते हैं कि वह परम् ज्ञान क्या है ?


श्लोक : 2

इदम् ज्ञानं उपाश्रित्य मम  साधर्म्यम्  आगताः ।

सर्गे अपि न उपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।

👉 इस ज्ञान प्राप्ति से मोक्ष मिलता है और इस ज्ञान प्राप्त योगी प्रलय काल में व्याकुल भी नहीं होता ।

श्लोक : 3 + 4 सृष्टि रचना 

मन योनि : महत् ब्रह्म तस्मिन् गर्भम् दधामि अहम् 

संभवतः सार्वभूतानाम् ततः भवति भारत ।

 ब्रह्म गर्भ धारण करने की योनि हैं , मैं उस योनि में सभीं भूतों के बीज को गर्भ रूप में स्थापित करता हूँ जिससे सभीं भूतों की उत्पत्ति होती है ।

श्लोक : 5 तीन गुण और जीवात्मा..

प्रकृति मूलक 03 गुण अव्यय देही को देह में बाध कर रखते हैं ।


श्लोक : 6 सात्त्विक गुण 

👉 सात्त्विक से अंतःकरण निर्मल - निर्विकार रहता है और यह गुण सुख से जोड़े रखता है 


श्लोक : 7 राजस गुण

👉 राग , रूप , तृष्णा तथा आसक्ति , इसके मूल तत्त्व हैं , 

यह जीवात्मा को कर्म - फल से बाँधता है ।


श्लोक : 8 तामस गुण 

👉 इस गन का मूल तत्त्व अज्ञान जनित मोह है । यह गुण जीवात्मा को प्रमाद , आलस्य और निद्रा से बाँधता है ।


श्लोक :9 तीनों गुण

👉 सत्व गुण सुख से , रजो गुण कर्म से और तमों गुण प्रमाद से जोड़ता है । प्रमाद में ज्ञान को अज्ञान ढक लेता है ।


श्लोक : 10  गुण समीकरण

एक गुण अन्य दो गुणों को दबाकर , प्रभावी होता है ।

श्लोक : 11 सात्त्विक गुण 

👉 जिस समय देह के सभीं द्वारों में प्रकाश -  ज्ञान की ऊर्जा ब ह रही होती है , उस समय , वह ब्यक्ति  सात्त्विक गुण में होता है ।

यहाँ गीता : 5.13 देखें 👇

👉 मन से सभीं कर्मोंका  के त्यागी के देह में स्थित देही  09 द्वारों वाले उसके देह में सुख से रहता है ।

श्लोक : 12 राजस गुण

👉 लोभ , प्रवृत्ति , अशांति , स्पृहा , राजस गुण के तत्त्व हैं ।

श्लोक : 13  तमोगुण

👉 अज्ञान , अप्रवृत्ति , प्रमाद , मोह आदि , तमोगुण के तत्त्व हैं ।


श्लोक : 14  सतगुणी की गति

👉 उत्तम कर्म करने वाले सतगुणी निर्मल लोकों को प्राप्त होता है

श्लोक : 15 राजस - तामस गुण धारी की गति

👉 राजस गुण धारी कर्म - आसक्त मनुष्यों के कुल में जन्म पाता है और  तामस गुणधारी मूढ़ योनि में जन्म लेता है जैसे कीट - पशु आदि।

( यहाँ गीता : 14.18 को भी देखें ) 


श्लोक : 16 सात्त्विक - राजस कर्मों के फल

# सात्त्विक गुण - कर्म फल : सुख , ज्ञान - वैराग्य 

# राजस गुण - कर्म फल : दुःख 

◆ तामस गुण कर्म -  फल : अज्ञान

श्लोक : 17 तीन  गुणों की वृत्तियां 

सात्त्विक से ज्ञान , राजस से लोभ और तामस से प्रमाद - मोह एवं अज्ञान होता है ।



श्लोक : 18 तीन गुण और गति

यहाँ गीता श्लोक 14.14  - 14 . 15 को भी देखें …

श्लोक : 14.18 > जो सत्व गुण में देह त्यागते हैं  उन्हें ऊर्ध्वलोकों में जगह मिलती है , जो राजस  गुण में देह त्यागते हैं वे मध्य में अर्थात मनुष्यलोक में जगह पाते हैं और जो तामस गुण में देह त्यागते हैं वे अधो गति जैसे  किट , पशु आदि नीच योनियों में ( नरक ) पहुँचते हैं ।


श्लोक : 19 द्रष्टा ( पुरुष ) 

जिस समय तीन गुण करता  दिखने लगते  हैं और गुणों से परे परम् का बोध हो जाता है , उस समय उस साधक को प्रभु भाव प्राप्त हो जाता है ।


श्लोक : 20  देही ( आत्मा )

➡️जो गुणातीत हो जाता है , वह जन्म , मृत्यु , जरा और दुखों से मुक्त परमानंद को प्राप्त करता है ।


श्लोक : 21अर्जुन का प्रश्न : 14

➡️ इन तीन गुणों से अतीत पुरुष किन - किन लक्षणों से युक्त होता है , और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा गुणातीत कैसे बना जाता है ?

श्लोक : 22

➡️ हे अर्जुन ! जो सत्त्वगुण के कार्य रूप प्रकाश , और रजो गुण के कार्य रूप प्रवृत्ति तथा तामस गुण के कार्य रूप मोह को भी न प्रवित्त होने पर द्वेष करता है और निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है..

श्लोक : 23

जो उदासीन भाव में स्थित हुआ गुणों की वृत्तियों से विचलित नहीं होता , जो यह समझता है कि गुण ही गुणों को वरत रहे हैं , ऐसा सोच कर एकी भाव से प्रभु केंद्रित रहता है , कभीं विचलित नहीं होता ...

श्लोक : 24

जो सुख - दुःख में समभाव रहता है , जिसे मिट्टी , स्वर्ण  एक समान दिखता है , जो ज्ञानी , प्रिय - अप्रिय को एक समान देखता है  और जो निंदा - स्तुति में भी समभाव रहता है ...

श्लोक : 25

जो मान -अपमान मे सम रहता हो , जिसके लिए मित्र - वैरी एक समान दिखते हों जो सर्वारम्भ परित्यागी है , वह गुणातीत होता है।


श्लोक : 26

जो अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझे भजता है , वह गुणातीत , ब्रह्म को प्राप्त होता है ।


श्लोक : 27

श्लोक रचना ⤵️

◆ ब्राह्मण : ( ब्रह्म ) हि ( क्योंकि )  प्रतिष्ठा ( आश्रय ) अहम् अमृतस्य ( अमृत का )  अव्ययस्य ( अव्ययका ) 

च ।

◆ शाश्वतस्य ( शाश्वत का )  च धर्मस्य ( धर्मका )  सुखस्य ( सुख का ) एकान्तिकस्य (अखंड एक रस का ) च ।।

श्लोक भावार्थ ⤵️

अव्यय ब्रह्मका , अमृतका , शाश्वत धर्मका अखंड एक रसका आश्रय , मैं हूँ ।

~~◆◆ ॐ ◆◆~~

Friday, November 26, 2021

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 9 हिंदी भाषान्तर

 देखे > गीता के मोती , गीता तत्त्व विज्ञान और ॐ शांति ॐ


गीता अध्याय : 09

गीता अध्याय : 09 के आकर्षण👇

💐 गीता अध्याय - 8 में श्लोक : 1 - 2 के माध्यम से अर्जुनका एक प्रश्न है ।  उस प्रश्न के उत्तर में  प्रभु श्री के  71 श्लोक हैं ( श्लोक : 8.3 से श्लोक : 10.11 तक ) और

अध्याय : 09 इस उत्तर का एक अंश है ।

 प्रभु अपनें 34 श्लोकों में से 32 श्लोकों के माध्यमसे 65 उदाहरण दे कर बता रहे हैं कि मुझे इनमें देखो , ये सब मैं ही  हूँ।

अनन्य भक्ति , मुक्ति - मार्ग है । 

  दैवी और आसुरी प्रकृति के लोगों के सम्बन्ध में  गीता अध्याय : 16 जैसी बातें बताई गई हैं ।

● कोई हर पल दुराचारी नहीं रहता , कभीं उसमें सत् भाव भी भरता ही है । 

मैं ( प्रभु श्री कृष्ण ) सबमें समभाव से हूँ ।

◆  मेरा कोई प्रिय - अप्रिय नहीं ।

पूजाके प्रकार 

1 -  देव पूजन

2 -  पितर पूजन

3 -  भूत पूजन

4  प्रभु पूजन

◆ जो जिसे पूजता है , वह उसे ही प्राप्त करता है ।


 अध्याय - 9 के श्लोकों का हिंदी भाषान्तर ⏬


श्लोक - 1

➡️ अब मैं दोष दृष्टि रहित तुमको वह अति गोपवनी सविज्ञान ज्ञान को बताऊँगा जिसको जानने के बाद अशुभ से मोक्ष मिलता है ।

यहाँ सविज्ञान ज्ञान के लिए निम्न को देखें ⤵️

1 -  गीता : 7.2  जहाँ प्रभु कहते हैं , मैं तुमको वह सविज्ञान ज्ञान को कहूँगा जिसको जान लेने के बाद और कुछ जानने को शेष  नहीं बचता ।

ज्ञान - विज्ञान क्या है ?

2 - भागवत : 11.19.15

प्रकृति + पृरुष + महत्तत्त्व + अहंकार + 05 तन्मात्र + 11 इन्द्रियाँ + 05 महाभूत और 03 गुण - इन 28 तत्त्वों को जिस ज्ञान से ब्रह्म से लेकर एक तृण तक में देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्म तत्त्व  को अनुगत रूप में देखा जाता है - वह परोक्ष ज्ञान है । जब जिस एक तत्त्व से अनुगत एकात्मक तत्त्वों को पहले देखता था , उनको पहले के समान न देखे  , किंतु एक परम् कारण ब्रह्म को ही देखे , तब यही निश्चित विज्ञान ( अपरोक्ष ज्ञान ) कहा जाता है ।

ज्ञान - विज्ञान की सरल व्याख्या 

श्रुति ,स्मृति शास्त्रों , उपनिषदों , वेदों आदि से जो मिलता है वह परोक्ष ज्ञान होता है जिसे उधार का ज्ञान भी कह सकते

 हैं । 

परोक्ष ज्ञान तो मार्ग है , जो कुछ दूर ले जाता है और समाप्त हो जाता है । जब मार्ग ही न हो फिर यात्रा या तो वहीं रुक जाती है या फिर बिना मार्ग की यात्रा होती है जिसे J . Krishnamurti pathless journey कहते हैं । इस pathless journey की अनुभूति को कृष्णमूर्ति सत्य कहते हैं और वेदांत इसे विज्ञान कहता है जो अव्यक्तातीत होता है लेकिन होता है ।

यहाँ भागवत : 10.29.12 और भागवत : 10.87.1 को देखना चाहिए जो निम्न प्रकार से हैं 👇

भागवत : 10.29.12

परीक्षित पूछते हैं ⤵️

कृष्ण को गोपियाँ केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थी । उनका उनमें ब्रह्मभाव नही था । इस प्रकार वे प्रकृति जनित गुणों में ही आसक्त दिखती हैं । ऐसी स्थिति में इस संसार से उनकी निवृत्ति कैसे संभव हुई ? 

भागवत : 10.87.1

यहां परीक्षित पूछते हैं ⤵️

ब्रह्म कार्य - कारण से परे गुणातीत है । वह मन - वाणी की पकड़ से भी परे है । दूसरी ओर समस्त श्रुतियाँ गुण आधारित हैं । ऐसी स्थिति में ये श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं ?

 सगुण निर्गुण की सोच पैदा करता है और इस सोसह में जब मन - बुद्धि - अहँकार क्षीण1 हो जाते हैं तब प्रज्ञा पारिजात मणि जैसी पारदर्शी हो कर परमसत्य की अनुभूति कराती है । 

ठीक इसी तरह ज्ञान की सीमा जहाँ समाप्त होती दिखती है वहीँ विज्ञान की सोच उठने लगाती है और जब यह सोच सिद्ध हो जाती है तब परम सत्य प्रकाशित हो उठता है ।


श्लोक - 2

यह सविज्ञान ज्ञान सब विद्याओं का राजा , सब गोपनीयों का राजा पवित्र , अतिउत्तम , धर्मयुक्त , प्रत्यक्ष फलवाला , अविनाशी और सुख देने वाला है।

श्लोक - 3

इस धर्ममें श्रद्धा रहित पुरुष मुझे न प्राप्त होकर जन्म - मृत्यु चक्र में भ्रमण करते रहते हैं ।

श्लोक - 4

मया ततं इदं सर्वं जगत्  अव्यक्त मूर्तिनाम्  ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न च अहं तेषु अवस्थित:।।

➡️ मुझ अव्यक्त से एवं मुझमें जगत के सभीं व्यक्त हैं 

पर उनमें मैं नहीं हूँ ।

श्लोक - 5

च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगं ऐश्वर्यम् ।

भूतभृत् न च भूतस्थ : मम आत्मा भूतभावनः।।

➡️ये सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं किन्तु मेरे ऐश्वर्य यिग को देख कि भूतों का धारण - पोषण एवं उत्पन्न करता मेरा आत्मा इन भूतों में स्थित नहीं है ।

श्लोक - 6

जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचारनेवाला वायु आकाश में ही स्थित है उसी प्रकार सभीं भूत मुझने स्थित हैं , ऐसा समझ ।

श्लोक - 7

कल्प के अंत में सभीं भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्प के आदि में मैं उन्हें पुनः रचता हूँ ।

यहां इस संदर्भ में गीता : 8.16 - 8.20 तक के श्लोकों को  देखें ।

श्लोक - 8

मैं अपनी प्रकृति माध्यम से सभीं भूत समुदाय को उनके कर्मों के आधार पर उन्हें बार - बार रचता हूँ ।

श्लोक - 9

उन कर्मोंमें मैं अनासक्त और उदासीनके सदृश रहता हूँ । कर्म मुझे नही बाधते ।

श्लोक - 10

प्रकृति मेरी अध्यक्षता में संसार के सभीं चर - अचर को रचती है और इस प्रकार यह संसारचक्र घूम रहा है ।

श्लोक - 11

मूढ़ देह धारी मनुष्य मेरे परम भाव को न जानते हुए 

मुझ भूतमहेश्वरको साधारण मनुष्य ही समझते हैं ।

आसुरी - दैवी प्रकृति वाले लोग …

श्लोक - 12

➡️ व्यर्थ आशा , व्यर्थ काम , व्यर्थ ज्ञान आसुरी - मोहिनी प्रकृति वाले होते हैं ।

श्लोक - 13

➡️ दैवी प्रकृति वाले महात्मा मुझे भूतोंके सनातन कारण और अव्यय समझ कर अनन्य मन से निरंतर भजते रहते हैं ।

श्लोक - 14

➡️ दृढ़ व्रत वाले निरंतर मेरी कीर्ति में रहते हैं तथा मेरी प्राप्ति हेतु मुझे नमस्कार करते हुए नित्य युक्त 

भक्ति से मेरी उपासना करते रहते हैं ।


श्लोक - 15 ज्ञानी एवं अन्य योगी

➡️ कुछ योगी मुझे ज्ञानयोग से एकत्व भाव से और कुछ 

मेरे विश्वतोमुखम् ( मेरे विराट स्वरुप ( की बहुत प्रकार से पृथक भाव से उपासना करते हैं ।


श्लोक - 16 मैं क्या - क्या हूँ 

यज्ञ में क्रतु , यज्ञ ,स्वधा , ओषधि , मंत्र ,घृत , अग्नि और हवन क्रिया , मैं हूँ ।


श्लोक - 17 मैं क्या - क्या हूँ क्रमशः 

जगत का धाता , पिता , माता  पितामह  जनानेयोग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद ,सामवेद एवं यजुर्वेद , मैं हूँ ।

श्लोक - 18 मैं क्या - क्या हूँ क्रमशः 

➡️ गति ( मृत्यु के बाद जो गति मिलती है जैसे परमधाम ) ,भरण -  पोषण , प्रभु , साक्षी , शरण लेने योग्य निवास , सुहृद , प्रभव - प्रलय का आधार तथा सबका अव्यय बीज ,  मैं हूँ ।

श्लोक - 19 मैं क्या - क्या हूँ क्रमशः 

सूर्य की तपस , वर्षा का आकर्षण करता , एवं बारिश करवाने वाला , अमृत - मृत्यु , सत - असत , 

मैं हूँ ।

श्लोक - 20

त्रैविद्या ( तीनो वेदों ) में वर्णित सकाम कर्मों को करने वाले , सोमरस पीनेवाला , पापरहित पुरुष, यज्ञों के माध्यम से मुझे जो इष्ट करके स्वर्ग प्राप्ति चाहते हैं , वे पुरुष स्वर्ग प्राप्त करके वहाँ दिव्य देव - भोगों को भोगते हैं।

श्लोक - 21

उपर बताये गए पुरुष स्वर्ग लोक के भोग को भोग कर पुनः जब उनका पुण्य क्षीण हो जाता है तब वे मृत्युलोक में लौट आते हैं । तीनों वेदोंमें वर्णित कर्मका आश्रय ले कर भोगों के इच्छुक बार- बार आवागमन को प्राप्त होते रहते हैं ।

श्लोक - 22

जो अनन्य प्रेमी मेरा चिंतन करते रहते हैं , उनका योग - क्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ ।

योग - क्षेम > प्रभुसे जुड़ने के माध्यम को योग कहते हैं और योग साधनकी रक्षाका नाम क्षेम है ।

श्लोक - 23

जो भक्त श्रद्धा पूर्वक अन्य देवों को पूजते हैं , वे भी मुझे ही पूजते हैं लेकिन यह पूजन अविधि पूर्वक होती है ।

श्लोक - 24 ( प्रभु स्वयं के सम्बन्ध में कह रहे हैं )

सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी , मैं  ही हूँ । जो ऐसा तत्त्व से नहीं जानते , वे पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं ।

श्लोक - 25 (पूजा करने वाले )

देव पूजक , देवताओं को प्राप्त होते हैं , पितरों को जो पूजते हैं , वे पितरों को प्राप्त होते हैं , भूतों के पूजक , भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरे पूजक , मुझे प्राप्त होते हैं ।

श्लोक - 26

जो मेरा भक्त पत्र , पुष्प , फल और जल मुझे अर्पण करता है , उस निर्मल बुद्धि वाले भक्त का अर्पण मैं ग्रहण करता हूँ ।

श्लोक - 27

हे कौन्तेय ! तूँ जो करता है , जो खाता है , जो हवन करता है , जो दान देता है , जो तप करता है , वह सब मुझे अर्पण कर ।

श्लोक - 28

इस प्रकार संन्यास योगयुक्त शुभ - अशुभ कर्म - बंधन से मुक्त हो जायेगा और मुझे प्राप्त होगा ।

श्लोक - 29

मेरा कोई प्रिय - अप्रिय नहीं , मैं सबमें समभाव से हूँ परंतु जो भक्त मुझे भजते हैं , वे मुझमें और मैं उनमें हूँ ।

श्लोक - 30

यदि कोई दुराचारी भी मुझे अनन्य भाव से भजता है वह साधु ही माननेयोग्य होता है क्योंकि वह सम्यक् रूपेण मुझमें स्थित होता है ।

श्लोक - 31

अर्जुन ! यह तुम निश्चय जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता और श्लोक - 30 में बताया गया मेरा प्रेमी शीघ्र ही शाश्वत शांति को प्राप्त होता है ।

श्लोक - 32

स्त्री , वैश्य , शुद्र और चांडाल , ये सभीं जो मेरी शरण में आ जाता है वह परमगति को प्राप्त होता है ।

श्लोक - 33

फिर पुण्यशील ब्राह्मण , राजर्षि और मेरे भक्त जन की क्या बात है , वे तो परमगति पाते ही है अतः तुम इस असुख एवं अनित्य लोक में मेरा भजन करो ।

श्लोक - 34

अपना मन मुझ में बसाओ , मेरा भक्त बनो , मेरी पूजा करो , मुझे नमस्कार करो , इस प्रकार मुझमें केंद्रित होकर तूँ मुझे प्राप्त करेगा ।

// अध्याय : 09 समाप्त //