Saturday, May 23, 2015

कतरन - 14 ( संसारकी हवा हमें कहाँ से कहाँ ले जाती है )

* मनुष्यके माथेसे पसीना टपकने लगता है और धीरे - धीरे भोगकी सोचकी सघनता गहरानें लगती है ।
* मनुष्यके अपनें भोग - सुखमें परम सुखको पकड़ने की प्यास हर भोग - क्षणके साथ और तिब्र हो जाती है । * अपनें और परायेके बीचकी दूरी बढ़नें लगती है ।
* अहंकार कामना पूर्तिके लिए कहाँ - कहाँ चक्कर नहीं लगवाता ।
* जैसे दुःख निवारण हेतु जल्दी - जल्दी दवा और हकीम बदले जाते हैं वैसे कामना पूर्ति हेतु देवताओं एवं गुरुओंको हम बदलनें लगते हैं ।
<> और यह भ्रमित भोग - सुख में परम सुख की तलाश हमें कहाँ - कहाँ नहीं भगाती ? जितना हम भागते हैं - परम सुख मुझसे उतना और दूर होता दिखनें लगता है ।
* हम आँखें बंद करने अपनीं हर कामयाबी पर स्वयं अपनीं पीठ ठोकने में कभीं नहीं चूकते ।
* हम यह समझनें में कभीं नहीं चूकते कि हमारी कामयाबी हमारे अथक श्रमका फल है और नाकामयाबीका कारण मैं नहीं वह है ।
* संसारकी हवाके प्रभावमें हम इतनीं बेहोशीमें आ जाते हैं कि लोगोंको धोखा देते - देते इतने आदी हो जाते हैं कि फिर अपनेंको भी धोखा देनें लगते हैं ।
* हम जब स्वयंको धोखा देनें में पक जाते हैं तब परमात्माको भी धोखा देनें लगते हैं ।
* संसारकी हवा हमारे होशके ऊपर बेहोशीकी चादर धीरे - धीरे ऐसे चढ़ाती चली जाती है कि आगे चल कर यही चादर कफ़न बन जाती है और हम होश खोजते - खोजते बेहोशी में दम तोड़ देते हैं ।
* भोगके क्षणिक सुखमें परम सुखकी तलाश की यात्रा भोगके सम्मोहन के कारण अधूरी ही रह जाती है और पुनः जन्म से यह यात्रा फिर शुरू हो जाती है ।
~~~ॐ ~~~

Wednesday, May 13, 2015

कतरन - 13

* दूसरोंके घरके दरवाजोंमें वे झाँकनेका प्रयत्न करते रहते हैं , जिनके लिए उनके अपनें घरका दरवाजा बंद हो गया होता है ।
* अपनीं गन्दगी छिपानेंके चक्करमें हम दूसरों को गंदा बनानें में कोई कसर नहीं छोड़ते।
* किसी की हिम्मत नहीं जो मेरे सामनें मेरी बुराईकी किताब खोल सके लेकिन जो खोलनें में समर्थ दिखते हैं , उनसे हम दूरी बनाकर रहते हैं ।
* सच्चाई को कहना बहुत आसान है लेकिन सुनना बहुत कठिन ।
* प्रकृति की तरफसे सबको सरल जीवन मिला हुआ है लेकिन मनुष्य सरल जीवन जीनें का आदी नहीं । ~~~ ॐ ~~~

Friday, May 8, 2015

कतरन - 12

कतरन -12
जरा सोचना :----
# नदियोंके साथ ---- # पहाड़ोंके साथ --- # जंगलोंके साथ --- # पेड़ोंके साथ ---- # समुद्रके साथ ---- # पशुओंके साथ ---
और अब
अंतरिक्षके साथ --- अपनें परिवार के साथ एवं स्वयं अपनें साथ --- हम सब क्या कर रहे हैं ?
# प्रकृति प्रभुको देखनेंका आइना है ।
* वैज्ञानिक , दार्शनिक , कवि , लेखक , ऋषि और अन्य सत्यके खोजी एक प्रभुके अनेक रूपों में देखा और उपनिषद्के ऋषियोंनें यह भी नहीं , वह भी नहीं अर्थात नेति - नेति के माध्यम से सबको ऐसे मार्ग पर रखना चाहा जो प्रकृति दर्पण पर ही हम सबका ध्यान केंद्रित रखती है।
# और#
आज हम सब इस प्रकृति - दर्पणके अस्तित्व को ही समाप्त करनें पर जुटे हुये हैं । # फ्रेडरिक नितझे आज से 60 साल पहले मनुष्यके मनोविज्ञानके रुखको भाफ गया और एक दिन बोल उठा कि :----
" प्रभु मर चुका है , उसे हम सब मार चुके हैं अब वह कभीं नहीं उठेगा और हम सब आजाद हैं ।
~~~ ॐ ~~~