Wednesday, May 31, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 9 भोग तत्त्व


  1. गीता तत्त्वम् - 9

  2. भोग – तत्त्व 

  3. भोग में उठा होश , वैराग्य है

इंद्रियों में वितृष्णा भाव का जागना , वैराग्य है 


कांचीपुरम  - मंदिर 

आसक्ति  [ attachment ]

आसक्ति दो प्रकार की है ; सत्संग की आसक्ति और भोग की आसक्ति । सत्संग आसक्ति से माया मुक्त का मार्ग दिखने लगता है लेकिन माया मुक्ति मिलती नहीं और भोग आसक्ति चुपके से नरक के द्वार पर ला छोड़ती है । सत्संग की आसक्ति निरंतर सत्संग में रहते रहने से स्वयं छूट जाती है और जब सत्संग की आसक्ति भी  छूट जाती है तब उस साधक को कैवल्य की खुशबू मिलने लगती है । कैवल्य की खुशबू की मादकता उस साधक को कब और कैसे निर्विकल्प समाधि मध्यम से प्रभुमय बना देती है , योग साधक को भनक भी नहीं लगने देती ,और अब आगे ⤵️

देखें गीता के निम्न 15 श्लोकों  को  ⤵️


2.48 

2.56

2.62

2.63

3.19

3.20

3.25

3.34

4.1

4.22

5.10

5.11

18.23

18.49

18.5

-

योग

15

गीता  – 2.48

आसक्ति रहित कर्म समत्व – योग है ।

गीता  – 2.56

आसक्ति , क्रोध और भय रहित स्थिर प्रज्ञ होता है ।

गीता : 2.62 - 2 .63

विषय मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना , कामना से क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध में बुद्धि भ्रमित हो जाती है और क्रोधी पतित हो जाता है।

गीता – 3.19

अनासक्त कर्म प्रभु का द्वार बन जाता है ।

गीता – 3.20

राजा जनक भी आसक्ति मुक्त कर्म माध्यम से परमपद प्राप्त किए थे। 

गीता – 3.25

बाहर से योगी - भोगी के कर्म एक से दिखते हैं ; योगी का कर्म चाह रहित होता है और भोगी के कर्म में चाह होती है ।

गीता – 3.34

बिषयों में राग – द्वेष की ऊर्जा होती है ।

गीता – 4.10

राग , भय , क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।

गीता – 4.22

समत्त्व – योगी कर्म – बंधन मुक्त होता है ।

गीता  – 5.10

आसक्ति रहित ब्यक्ति संसार में कमलवत रहता है ।

गीता - 2.64

राग – द्वैष विमुक्तौ : तु बिषयान् इन्द्रियै : चरन 

आत्म – वश्यै : विधेय आत्मा प्रसादं अधिगच्छति //  

 राग - द्वेष मुक्त इंद्रियों का दृष्टा होता है।            

गीता - 4.10

वीत राग भय क्रोधा : यत् मया माम् उपाश्रिता : /

वहव : ज्ञान तपसा पूता : मत् भावं आगता :      //    

राग – भय रहित ज्ञानी होता है , मुझे प्राप्त करता है।  

गीता - 2.14 

मात्रा - स्पर्शा : तु कौन्तेय शीत – उष्ण सुख – दुःख दा : 

आगम अपायिन : अनित्या : तान् तितिक्षस्व  भारत // 

इन्द्रिय सुख – दुःख क्षणिक होते हैं उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए ।

गीता - 18.38

विषय इन्द्रिय संयोगात् यत् अग्रे अमृत – उपमम्  /

परिणामे विषं इव तत् सुखं राजसं स्मृतं         //

 इन्द्रिय सुख प्रारम्भ में अमृत सा लगता है पर उसका फल बिष मय होता है ।

गीता - 5.22

ये हि संस्पर्श – जा : भोगाः दुःख योनयः एव ते  /

आदि अन्तवन्त : कौन्तेय न् तेषु रमते बुध :        // 

इन्द्रिय से जो होता है वह भोग है और इंद्रिय भोग आदि - अंत वाले होते हैं ।

गीता - 2.62

ध्यायत : विषयां पुंस : संग : तेषु उपजायते  /

संगात् संज्जायते काम : कामः कामत् क्रोध : अभिजायते // 

बिषय मनन से कामना उठती है कामना के टूटनें  से क्रोध पैदा होता है 


  1. गीता तत्त्वम् - 9 क्रमशः

  2. भोग – तत्त्व भाग : 2 ( काम )

      भोग में उठा होश , परा वैराग्य है ….

        परा वैराग्य  कैवल्य मुखी बनाता है ……

काम संबंधित गीता के 13 श्लोक ⤵️  

2.56

4.10

3.37

3.38

3.39

3.4

3.41

3.42

3.43

5.23

7.11

10.28

16.21                    

-

गीता – 2.56 + 4.10         

   राग ,भय ,क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।

गीता  – 3.37           

     काम : एष : क्रोध : एष : रजो - गुण समुद्भवः /

महा - अशन : महा - पाप्मा विद्धि एनं इह वैरिनम् /काम उर्जा से क्रोध है और दोनों राजस गुण से हैं 

गीता – 3.38             

  धूमेन आव्रियते वह्नि : यथा आदर्श : मलेन च  /

  यथा उल्बेन आबृत : गर्भः तथा तेन इदं आबृतम् //

जैसे अग्नि धुएं से , दर्पण धूल से और गर्भ जेर से ढका रहता है वैसे काम के अज्ञान से ज्ञान ढक जाता  है ।

गीता  – 3.39              

 आबृतम् ज्ञानं एतेन ज्ञानिनः नित्य वैरिणा /

  कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेण अनलेन च  // 

काम का अज्ञान ज्ञानी के लिए बैरी है और काम दुस्पूर है। 

गीता – 3.40               

इन्द्रियाणि मन : बुद्धि : अस्य अधिष्ठानम् उच्यते / एतै : विमोहयति एषः ज्ञानं आबृत्य देहिनं   //   

 काम का सम्मोहन इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि पर होता है ।

गीता : 3.41 - 3.43         

 इन्द्रिय नियोजन काम साधना का पहला चरण है ।

इंद्रियां स्थूल शरीर से बलवान है , मन इंद्रियों से अधिक बलवान है और मन से भी परे बुद्धि है तथा बुद्धि से परे आत्मा है अतः  आत्मा केंद्रित ब्यक्ति के ऊपर काम का सम्मोहन नहीं होता ।

गीता – 5.23

काम – क्रोध से अछूता सुखी ब्यक्ति होता है ।

गीता – 10.28

प्रजन : च अस्मि कन्धर्व :

प्रजनन की ऊर्जा पैदा करनें वाला काम देव , मैं हूँ। 

गीता  – 7.11

धर्म – अविरुद्ध : काम : अस्मि 

धर्म के अनुकूल काम , मैं हूँ 

~~ ॐ ~~ 

Tuesday, May 30, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 8 मन रहस्य


  1. गीता तत्त्वम् - 8

  2. मन विज्ञान  

केदारनाथ  - मंदिर 

🔼🌷मन और मंदिर का गहरा संबंध है  🌷🔼

▶️ जहां मन शून्य हो जाता हो , वह मंदिर होता है

▶️ मन की शून्यता में जीवात्मा - ब्रह्म का एकत्व होता है 

▶️ जब चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब चित्ताकार पुरुष अपनें मूल स्वरूप में आ जाता है ~~सांख्य दर्शन ~~

श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत पुराण आधारित मन को समझने से पहले मन और चित्त के संबंध में कुछ प्रमुख बातों को जान लेते हैं ⤵️

भारतीय दर्शन की उत्पत्ति आध्यात्मिक असंतोष से हुई है। यहाँ के दार्शनिकों ने संसार को दुःखमय माना है। यहाँ जीवन के प्रति अभावात्मक एवं निषेधात्मक दृष्टिकोण विद्यमान है। जीवन का प्रत्येक क्षण दुःखत्रय (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) की स्थिति के कारण व्यथित रहता है। 

भारत में दर्शन उसे कहते हैं जिससे तत्त्वों का  ज्ञान हो और तत्त्व ज्ञान एक मात्र ऐसा मार्ग है जिसकी यात्रा से तीन प्रकार के दुखों से पूर्णरूपेण मुक्तिमिल जाती है।

सम्यक दर्शन  कर्म बंधन से मुक्ति दिलाता है । आसक्ति , कामना , काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य , अज्ञान और अहंकार कर्म बंधन बताए गए हैं ।  

मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रिय ग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है। 

सामान्य भाषा में मन शरीर का वह हिस्सा या प्रक्रिया है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने और समझने का कार्य करता है।

अध्यात्म में मन एक भूमि  है, जिसमें संकल्प और विकल्प निरंतर उठते रहते हैं। विवेक शक्ति का प्रयोग कर के अच्छे और बुरे का अंतर किया जाता है। 

विवेक मार्ग अथवा ज्ञान मार्ग में मन का निरोध किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा शून्य में होती है। भक्तिमार्ग में मन को रूपांतरित किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा भगवान के दर्शन में होती है। जीवात्मा और इन्द्रियों के मध्य ज्ञान , मन कहा जाता है।

गीता के अध्याय 6, श्लोक 6 में, भगवान कृष्ण मन के बारे में कहते हैं ⬇️

“जिसने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन सबसे अच्छा मित्र है "

निम्न लिखित चार विशेषताओं के कारण अनियंत्रित मन व्यक्ति के जीवन को अस्त-व्यस्त करने की क्षमता रखता है

1. यह पसंद और नापसंद से भरा है

2. इसमें अतीत या भविष्य में फिसलने की प्रवृत्ति है

3. यह अंतहीन इच्छाएं उत्पन्न करता है

4. यह वस्तुओं और प्राणियों के प्रति लगाव विकसित करता है।

ज्यादातर लोग मन के कारण या तो अपने भूत काल से जुड़े रहते हैं या भविष्य की कल्पनाओं में उड़ते रहते हैं और इसके परिणाम स्वरूप  उनका आज उनके हाथ से ऐसे सरकता चला जाता है जैसे मुट्ठी की रेत सरक जाती है और ऐसे लोग  वर्तमान के आनंद से वंचित रह जाते

 हैं । हमारी पूरी जीवन शैली एक धोखा है, जो हमें किसी चीज के लिए तैयार करने के लिए बनाई गई है लेकिन वह चीज कभी आती नहीं है। हम अपना जीवन किसी चीज़ के पीछे भागते हुए बिताते हैं लेकिन हम नहीं जानते कि वह चीज़ क्या है?

अपने सभी दोषों के साथ, मन के आदेश के अधीन रहते हुए जीवन जीना गुलामी है। आने वाले कुछ बेहतर भविष्य की प्रतीक्षा और उम्मीद करते हुए, खुद को लगातार किसी चीज के लिए 'तैयार' करते हुए, हम जीवन का आनंद लेने से चूक जाते हैं। 

मन संबंधित कुछ मनोवैज्ञानिक विचार

मन की दो अवस्थाएं होती हैं ⤵️

 1. चेतन और 2. अवचेत।

  सम्मोहन के दौरान अवचेतन मन को जागृत किया जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति की शक्ति बढ़ जाती है लेकिन उसका उसे आभास नहीं होता, क्योंकि उस वक्त वह सम्मोहन कर्ता के निर्देशों का ही पालन कर रहा होता है।अब चेतन और अवचेतन मन को समझते हैं ।

1 - चेतन मन (conscious mind)

 इसे जागृत मन भी मान सकते हैं। चेतन मन में रहकर ही हम दैनिक कार्यों को निपटाते हैं अर्थात खुली आंखों से हम कार्य करते हैं। परंतु कई लोग जागे हुए भी सोए - सोए से रहते हैं , मतलब यह कि जब तक आपके मस्तिष्क में कल्पना, विचार, चिंता, भय आदि चल रहे हैं तो आप पूर्ण चेतन नहीं हैं।

 2 - अवचेतन मन ( sub conscious mind )  

 जो मन सपने देख रहा है वह अवचेतन मन है। इसे अर्धचेतन मन भी कहते हैं। गहरी सुषुप्ति अवस्था में भी यह मन जागृत रहता है। विज्ञान के अनुसार जागृत मस्तिष्क के परे मस्तिष्क का हिस्सा अवचेतन मन होता है। हमें इसकी जानकारी नहीं होती। बौद्धिकता और अहंकार के चलते हम उक्त मन की सुनी-अनसुनी कर देते हैं। अवचेतन मनको साधना ही सम्मोहन है।

सम्मोहन व्यक्ति के मन की वह अवस्था है जिसमें उसका चेतन मन धीरे-धीरे निद्रा की अवस्था में चला जाता है और अर्धचेतन मन सम्मोहन की प्रक्रिया द्वारा सक्रिय किया जाता है । साधारण नींद और सम्मोहन की नींद में अंतर होता है। साधारण नींद में हमारा चेतन मन अपने आप सो जाता है तथा अवचेतन मन जागृत हो जाता है। सम्मोहन की  निद्रा में सम्मोहन कर्ता चेतन मन को सुलाकर अवचेतन को सक्रिय बनाता है और उसे सुझाव के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार करता है - इसे ऐसे समझते हैं ; सम्मोहन प्रक्रिया में चेतन मन को सुला दिया जाता है और कुछ मनोवैज्ञानिक विधियों से अवचेतन मन को नियंत्रण रखते हुए सक्रिय बनाते

 हैं । सम्मोहन करनेवाले के निर्देशों का पालन अवचेतन मन करता है ।

 हमारा अवचेतन मन ( sub conscious mind )  चेतन मन की अपेक्षा अधिक याद रखता है एवं सुझावों को ग्रहण करता है। इसमें हमारी सभी तरह की भूली - बिसरी यादें रहती  हैं।

मन और चित्त संबंधित कुछ और बातें 

सांख्य एवं पतंजलि योग दर्शन में बुद्धि , अहंकार एवं मन के समूह को चित्त कहते हैं । मन 11 इंद्रियों में से एक है । सांख्य में बुद्धि , अहंकार और मन को अंतःकरण तथा 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते 

हैं जबकि वेदांत में मन , बुद्धि , अहंकार एवं चित्त को अंतःकरण कहते हैं । सांख्य में 13 करण होते 

हैं । सांख्य में पुरुष चित्त मध्यम से विषयों को समझता है ।

◆ मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी -अपनी वृत्तियों को जानते हैं । 

◆ इन सभीं वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है । 

# गुणों का प्रतिप्रसव हो जाना तथा पुरुषार्थ का शून्य हो जाना , कैवल्य है (पतंजलि योग दर्शन कैवल्य पाद सूत्र : 34 )

√√√

 मन संबंध में कुछ वैज्ञानिकों के विचार 

1 - Wilder Penfield [ 1891 – 1979 ]

He says , mind is not brain , it is even not a part of physical brain , its working is 

independent as a computer programer .


2 - Roger Wolcott Sperry [1913 – 1994 ] 

He got noble prize in 1981 . He says , body does not create mind, it evolves much before the physical body and brain evolution . Mind develops biological and neurological brain which works on the direction of mind. Mind develops the 

complete neurological – net work within the body . 


3 - John Eccles [ 1903 – 1997 ] 

He got noble prize in 1963 .

 He says , consciousness is extra cerebral located within the human skull along the brain somewhere within the area where orthodex Hindus keep their crest. This area is called supplementary motor area [ SMA]

where fusion of consciousness with the physical brain takes place.


गीता आधारित मन रहस्य 

अध्याय

श्लोक 

योग

3

6 , 7 , 40

3

5

13

01

6

6  + 10 - 21 तक +

26 , 27 + 35 - 37 तक

18

7

4

01

8

5 , 6

02

10

22

01

13

5 , 6 

02

15

8

01

योग

>>       > >

29


ऊपर दिए गए श्लोकों के भावार्थ ⬇️

गीता श्लोक : 3.6 +  3.7 + 3.40

●हठात् इन्द्रिय नियोजन , मनको बिषय - मनन से नहीं रोक सकता ।

● इन्द्रिय नियोजन मनसे होना चाहिए ।

● इंद्रियाँ , मन और बुद्धि पर काम ( Sex )का 

सम्मोहन रहता है ।


गीता श्लोक : 5.13 

● अंतःकरण (मन , बुद्धि ,अहँकार कौर चित्त ) जिसका निर्मल है , वह 09 द्वारों वाले शरीर में सुख से रहता है ।

देह में सुख - दुःख का भोक्ता कौन है ?

सांख्य दर्शन में पुरुष सुख -दुःख का भोक्ता है और वेदांत में जब आत्मा देह में जीवात्मा रूप में होता है तब वह सुख - दुःख का भोक्ता होता है । वेदांत के सभी आचार्य एक मत नहीं रखते ।

गीता श्लोक : 6.6

◆ मन सहित इंद्रियाँ जिसकी नियोजित हैं , वह स्वयं का मित्र है ।

श्लोक : 6.10 - 6.21 (12 श्लोको का सार )

यहाँ  मन शांत के लिए एक ध्यान विधि दी जा रही है…

● मन सहित  इंद्रियों के नियोजित हो जाने पर  आशा - संग्रह मुक्त योगी को एकांत में प्रभु से एकत्व स्थापित करने का निरंतर बिना किसी रुकावट अभ्यास करते रहना चाहिए ।

मन शांत रखने की ध्यान विधि 👇

शुद्ध समतल भूमि पर कुश या मृगचर्म का बिछावन बिछा कर , उस पर किसी आसान में बैठ कर ,मन एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिए । इस ध्यान में ⬇️

【 1】 शरीर , सिर और गर्दन तनाव रहित एक सीधी रेखा में पृथ्वी पर लंबावत स्थिर होने चाहिए ।

【 2 】 नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिए ।

सावधानियाँ

➡️ इस अभ्यासमें , सामान्य भोजन लेना चाहिए , उपवास रखना वर्जित है और सम्यक निद्रा लेनी चाहिए ।

जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है , वैसे योगारूढ़ योगी का मन स्थिर रहता है। 

गीता श्लोक 6.26 - 6.27

👉मनका पीछा करते रहो , वह जहाँ - जहाँ जाय , उसे वहाँ - वहाँ से प्रभुके विग्रह पर लौटा ले आना चाहिए ।

👉 राजस गुण , ब्रह्म - खोज मार्गी के लिए एक बड़ी रुकावट है।

गीता श्लोक : 6.35 - 6.37 

●चंचल मन , अभ्यास - वैराग्यसे बश में होता है । पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 12 में भी यही बात कही गयी है ।

● शांत मन वाला , योगारूढ़  होता है ।

गीता में अर्जुन पूछते हैं , " श्रद्धावान पर अनियमित योगी का अंत कालमें जब मन विचलित हो जाता है , तब उसे कौन सी योनि मिलती है ? "

इस बिषय पर गीतामें दो बातें बताई गई हैं ; 

1 - वैराग्य में पहुंचे योगीका योग जब खंडित होता है तब वह योगी  स्वर्ग न जा कर किसी योगी कुल मे जन्म लेता है और पिछले जन्म की साधना जहाँ खंडित हुई होती है , वह उसे वहाँ से पुनः आगे बढ़ाता है ।

2 -  ऐसे योगी जो वैराग्यवस्था तक नहीं पहुंच पाते और   उनका योग खंडित हो गया होता है और  यदि वे इस स्थिति में उनका देह छूट जाता हैं तो  वे श्रीमानों के कुल में जन्म न ले कर स्वर्ग जाते हैं और स्वर्ग में अपना भोग पूरा करते हैं । जब उनके भोग की अवधि समाप्त हो जाती  है तब वे पुनः जन्म लेते हैं और प्रारम्भ से साधना करते हैं ।

गीता श्लोक : 7.4

अपरा प्रकृति के 08 तत्त्व हैं >पंच महाभूत , बुद्धि , अहंकार और मन ।

गीता श्लोक : 8.5 - 8.6

●अंत समयकी गहरी सोच उस मनुष्यके जीवात्मा को उसकी सोच के अनुसार यथा उचित योनि में ले जाती है ।

● जब जीवात्मा देह त्यागती है तब उसके संग

मन सहित 05 ज्ञान इंद्रियाँ भी होती हैं । मन और ज्ञान इन्द्रियों के समूह को लिंग शरीर ( cosmic body ) या सूक्ष्म शरीर भी कुछ बेदंती कहते हैं 

( यहाँ देखिये भागवत : 11.22)



यहां तक हो गया है 

गीता श्लोक : 10.22

प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , इन्द्रियों में  मन और चेतना मैं हूँ 

गीता श्लोक : 13.5 - 13.6

क्षेत्र ( देह ) की रचना 

05 महाभूत , 05 बिषय , 10 इंद्रियाँ , अहँकार , बुद्धि , विकार , सभीं द्वैत्य भाव , धृतिका और मन एवं चेतना  ।

गीता श्लोक : 15.8

जैसे वायु  गंध को अपनें साथ ले जाता है वैसे जीवात्मा देह त्याग के समय अपनें साथ मन सहित 05 ज्ञान इन्द्रियों को भी ले जाता है ।। यहाँ गीता श्लोक : 8.5 + 8.6 को भी देखें जो कहते हैं ⬇️

# अंत काल में जो मेरी स्मृति के साथ आखिरी श्वास छोड़ता है , वह मेरे स्वरुप को प्राप्त करता है ।

# आखिरी श्वास के समय का गहरा भाव उसकी अगली योनि को निश्चित करता है ।


भागवत आधारित मन रहस्य 

स्कन्ध संख्या

अध्याय . श्लोक

योग

2

1 .17 , 2.2.15

02

3

5.30 , 25.15 ,28.10 ,29.20 


04

5

6 .2 + 11.8 + 11.9

03

7

11.33

01

10

1 .42 + 2.36 + 16.42 

03

11

7.8 , 13.13 , 13.25 , 13.34

 22.26, 22.37 , 26.22 , 28.20 

08

योग


21


अब ऊपर के सूत्रों के सारको देखते हैं 

1 - भागवत 2.1.17

मन को स्थिर करनें हेतु मन का पीछा करते रहने का अभ्यास करना चाहिए ।

2 - भागवत : 2.2.15 

अंत समय में मनको देश - काल बंधन से मुक्त रहना चाहिए ।

3 - भागवत : 3.5.30 

मनसे बिषय बोध होता है ।

4 - भागवत : 3.25.15 

बंधन - मोक्ष का माध्यम , मन है ।

5 - भागवत : 3.28.10 

प्राणवायु नियंत्रणसे मन शुद्ध रहता है। 

6 - भागवत : 3.29.20 

राग - द्वेष मुक्त चित्त , प्रभु से जोड़ता है ।

 

7- श्लोक : 5.6.2 

योगी , मनका गुलाम नहीं होता।

8 - श्लोक : 5.11.8 

शुद्ध चित्त ,कैवल्य का द्वार होता है ।

9 - श्लोक : 5.11.9 

मनकी वृत्तियाँ : 10 इंद्रियाँ , बिषय , अहँकार और 05 प्रकारके कार्य /

10 - श्लोक : 7.11.33 

मन वासनाओं का संग्रहालय है ।

11 - श्लोक : 10.1.42 

 विकारों का पुंज , मन है ।

12 - श्लोक : 10.2.36 

मन और वेद वाणी से प्रभुके स्वरूप का अंदाज़ भर लगता है।

13 - श्लोक : 10.16.42 

 11 इन्द्रियों सहित 05 बिषय , 05 महाभूत और बुद्धिका केंद्र , चित्त है ।

14 - श्लोक : 11.7.8 

अशांत मन एक वस्तु को अनेक रूपों में देखता है

15 - श्लोक : 11.13.13 

बिषय चिंतन , संसार से बाध कर रखता है ।

16 - श्लोक : 11.13.25 

 बिषय मनन से मन बिषयाकार बन जाता है ।

17 - श्लोक : 11.13.34 

जगत मनका विलास है ।

18 - श्लोक : 11.22.26 

 कर्म संस्कारो का पुंज , मन है ।

19 - श्लोक : 11.22.37 

पूर्व अनुभवों पर मन भौरे की तरफ मंडराता रहता है ।

20 - श्लोक : 11.26.2

इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन में विकार उठते हैं ।

21 - श्लोक : 11.28.20 

मनकी अवस्थाएँ : जाग्रत , स्वप्न  और सुषुप्ति पर निर्मल मन तुरीय अवस्था में होता है जहां इसका एकत्व ब्रह्म से होता है ।