Monday, May 22, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 3 गीता के ज्ञान सूत्र




[03] गीता प्रसाद     


    गीता ज्ञान सूत्र 


  • # कर्ता - भाव अहंकार की छाया है    

  • # अहंकार सत् से दूर रखता है        

  • # कर्मयोग ज्ञानयोग का द्वार है  

  • # ज्ञानी सबके अंदर - बाहर प्रभु को निहारता रहता है 

  • # अज्ञान में उठा होश ज्ञान का द्वार खोलता है  

  • # क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ज्ञान है         

  • # कर्म - योग कर्म संन्यास एक दूसरे के संबोधन हैं 

  • # कर्म - संन्यास ही ज्ञानयोग है 

  • # कर्म में कर्म - बंधनों का न होना कर्म को कर्म संन्यास बनाता है 

# कर्म संन्यास भावातीत स्थिति में मिला प्रभु का  प्रसाद है 


  • # आसक्ति रहित कर्म , नैष्कर्म्य – सिद्धि में पहुंचाते हैं 

            # नैष्कर्म्य सिद्धि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है 

# मन से मैत्री का होना ही ध्यान है 

  • # भोग -भगवान की यात्रा मन से होती है 

  • # मन माध्यम से निर्वाण की यात्रा का नाम गीता - ध्यान है 

  • # सब में स्वयं को देखना और अपनें में सब को देखना ध्यान का परिणाम है 

            # ज्ञान से माया रहस्य खुलता है 

  • # ज्ञान से सत् दिखता है 

  • # ज्ञान द्वैत्य – द्वन्द को अपनें में नहीं बसाता 

            # कर्म स्वभाव से होता है 

  • # स्वभाव गुण समीकरण से बनाता है 

  • # गुणों से निर्मित स्वभाव में अहंकार की छाया होती है 

  • # चाह रहित एवं अहंकार रहित स्वभाव मनुष्य का मूल स्वभाव है 

  • # भावातीत में हुआ कर्म मुक्ति का द्वार खोलता है 

  • # भावातीत में ब्रह्म बसता है 

  • # कामना दुस्पुर होती है 

  • # काम की ऊर्जा से कामना , क्रोध एवं लोभ हैं 

  • # काम ऊर्जा का सम्मोहन पाप में पहुंचाता है 

            # योगी कामना - संकल्प रहित होता है 

             # योगी , सन्यासी वैरागी , ज्ञानी  सब

                 एक दूसरे के   संबोधन हैं 

              # भोग से योग , योग से संन्यास , संन्यास 

                  में वैराग्य और वैराग्य में ज्ञान मिलता है 

  • # मोह और वैराग्य एक साथ नहीं रहते 

  • # वैरागी कभी मोहित नहीं होता 

  • # वैरागी भोग संसार को समझता है 

  • # भोग का द्रष्टा वैरागी होता है 

# राजस गुण प्रभु मार्ग का सबसे मजबूर रुकावट है 


# तामस गुण सिकोड़ता है 

# राजस गुण अहंकार को फैलाता है 


# संदेह अज्ञान की पहचान है 

# गुण तत्त्वों का प्रभाव अज्ञान की जननी है 

# वैरागी प्रभु में बसता है 


# भोगी भोग को प्रभु समझता है 


  • # प्रकृति - पुरुष संयोग से  सृष्टि है 

  • # अपरा प्रकृति से जीव का स्थूल शरीर बनता है और परा प्रकृति जीव धारण करती है 

           # योग सिद्धि से आत्मा में परमात्मा 

               की झलक मिलती है 

  • # आत्मा / ईश्वर का स्थान हृदय है

             

  • # परम प्यार हृदय की निर्गुण ऊर्जा है 


  • # देह में नौ द्वार हैं 

  • # नौ द्वारों का प्रकाशित होना कैवल्य का द्वार खोलता है 

  • # कर्म में कर्म बंधनों के प्रति होश का उठना कर्म को कर्म – योग बनाता है 


# मन – बुद्धि का निर्विकार होना ही ब्रह्ममय होना है 

# सत् की अनुभूति का नाम ब्रह्ममय होना है 


# परा भक्त प्रभु को समझता है 

# प्रभु को पाना अति आसान पर प्रभु को व्यक्त करना असंभव है

# गुण विभाग – कर्म विभाग की होश परम ज्ञान है 

# गुण विभाग एवं कर्म विभाग का मध्य सम भाव है 

# गुण तत्त्वों की पकड़ का ढीला होना योग में  उतारता है 

# जो है वह प्रभु का प्रसाद है , ऎसी सोच प्रभु चिंतन से मिलती है 

  • # ज्ञानी के ऊर्जा क्षेत्र में रहनेवाला एक दिन स्वयं ज्ञानी बन जाता है 

  • # जहां मैं और तूं का अंत होता है वह प्रभु का स्थान है 

  • # बिना कर्म किये कर्म संन्यास संभव  नही 

  • # संन्यास स्व का कृत्य नहीं प्रभु का प्रसाद है 

  • # कर्म का पूर्ण रूप से त्याग करना अहंकारी बनाता है और अहंकार का न होना प्रभुमय बनाता है 

  • # कामना रहित कर्म संन्यास की पहचान है

  • # अहंकार रहित केवल गुणातीत हो सकता है 

  • # प्रभु के अव्यक्त स्वरुप की जिसको अनुभूति हो वह सात्त्विक गुण धारी होता है 


  • # ब्रह्माण्ड में कोई ऎसी सूचना नहीं जो गुण प्रभावित न हो 

  • # कोई कर्म ऐसा नहीं जो दोष रहित हो 

  • # भक्त में प्रभु बसते हैं और भक्त माया का दृष्टा होता है 

  • # सब के आदि - अंत का श्रोत अब्यक्त  है 

            

# समत्वयोगी ज्ञानी होता है 

# समत्वयोगी सब में ब्रह्म को देखता है 

# श्री कृष्ण कहते हैं , सम भाव – योगी मुझे प्रिय हैं 

# राग , भय एवं क्रोध रहित समत्व योगी होता है 

# ब्रह्म न सत् है न असत् 

# श्री कृष्ण कहते हैं , सभीं गुणों के भाव मुझ से हैं पर मैं भावातीत - गुणातीत हूँ 

# गुणों से मोहित मोहन को नहीं समझता 


# त्रिगुणी माया को प्रभु में श्रद्धा रखनें वाले समझते हैं 

# ब्रह्म सर्वत्र है ब्रह्म से ब्रह्म में सब हैं  

  • # नियोजित इन्द्रियों वाला ज्ञान - विज्ञान से परिपूर्ण होता है 

            # ब्रह्म की अनुभूति ध्यान में होती है 

            # श्रोतापन से ब्रह्म की अनुभूति संभव है 

          ~~ ॐ ~~ 


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