Friday, December 28, 2012

कौन सुनता है ? कोई तो सुनता ही होगा

दिल से कौन सुनता है ?


  • गुरुद्वारा से आ रही गुरुवानी की परम धुन को .....
  • मंदिर से  उठती ओम् की धुन को .....
  • मस्जिद से आ रही अल्लाह ओ अकबर की पुकार को .....
  • खाली पेट वाले की भूख के दर्द को ......
  • वक्त की पुकार को .....
  • सब के सीनें में दबी दर्द को ......
  • मीरा के भजन को .....
  • कबीर जी के वचनों को .....
  • नानक जी के ह्रदय के भाव को .....
  • गायत्री के छंद को ......
  • पृथ्वी की दर्द भरी आवाज को ....

ऎसी  एक नहीं अनेक बातें हैं, हम इन्शान को सुननें के लिए

 लेकिन ---

हम क्यों नहीं सुन पा रहे , कोई तो कारण होगा ही ?
जी , हाँ , कारण है और गहरा कारण है .....
हम यदि स्वयं को देखें तो एक चलती - फिरती लाश के अधिक नहीं जिसकें गति तो है ....
लेकिन
 चेतना नहीं 
ऐसा कौन सा धर्म ग्रन्थ है जो यह न कहता हो कि ----
परमात्मा तुम्हारे ह्रदय में है , हम जानते भी हैं लेकिन समझते नहीं , न ही समझनें की कोशिश करते हैं /

प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन कहते हैं : -----

बहुत कम लोग ऐसे हैं जो जानते हैं उसे अपनें ह्रदय से समझते भी हैं /

सौ साल जीना ब्यर्थ है यदि बेहोशी में जीया जाए
और
होश भरा एक  पल का जीवन ही वह जीवन है .....
जिसकी तलाश हम सब को है //

==== ओम् =====

Friday, December 21, 2012

केवल दो घडी , सोचना

  • आज कौन जीना चाहता है ?
  • आज कौन मरना चाहता है ?
  • आज मनुष्य अपनें जीनें - मरनें का क्या मापदंड बना रखा है
  • क्यों लोग भोग के लिए जीना और भोग के लिए मरना चाह रहे हैं ?
  • आज क्यों लोग परमात्मा को पीठ पीछे रख रहे हैं ?
  • आज क्यों मनुष्य की सोच नकारात्मक हो रही है ?
  • आज जितना भय मनुष्य को मनुष्य से है उतना भय और किसी जीव से नहीं , क्यों ?
  • आज का मनुष्य आखिर चाहता क्या है ? मात्रा कामना - काम की तृप्ति /
  • आज वे सबहीं पराये से क्यों दिखाते हैं जो पहले अपने हुआ  करते थे ?
बहुत सारे प्रश्न हैं और प्रश्न रहित मन - बुद्धि कभी शांत नहीं हो सकते / शांत मन - बुद्धि जिसे देखते हैं वह होता है परम सत्य और हम अपनें मन - बुद्धि को प्रश्न रहित करना नहीं चाहते , आखिर वह कौन सी मजबूरी है ?

एक घडी ही सही ....

आज नहीं तो कल ही सही ....

लेकिन ....

आप शांत मन - बुद्धि के आयाम में बैठ कर परम सत्य में जरुर डूबें /

==== ओम् =====

Wednesday, December 12, 2012

एक नज़र इस पर भी

कौन परमात्मा से नहीं मिलना चाहता ?
कौन परमात्मा की ओर पीठ करके रहना चाहता है ?
कौन शास्त्रों को नही पढ़ना चाहता ?
कौन शात्रों को अपनें  जीवन की डोर बनाना चाहता है ?
कौन गीता - उपनिषदों को नक्कारता है ?
कौन गीता - उपनिषदों को अपनें जीवन में उतारना चाहता है ?
कौन झूठ बोलना चाहता है ?
कौन सत्य पर यकीन करता है ?
कौन किसी से सलाह नहीं लेता ?
यहाँ सलाह देनें वालों की कतारें खडी हैं लेकिन उनकी सलाह को लेनें वाले कितनें हैं ?
मंदिर में प्रसाद लेनें वालों की लंबी लाइन लगी दिखती है लेकिन प्रभु के प्रसाद - प्राप्ति के बाद भी वे अतृप्त क्यों दिखते हैं ?
कौन किसको और कब अपना समझता है ?
मंदिर - गुरुद्वारा  में जा रहे हैं और साथ में पेस्तौल लटकाए हैं , क्यों प्रभु पर विश्वास नही ?
कौन प्रभु पर और किस लिए विश्वास करता है ?
प्रभु पर हमारा  विश्वास कितना गहरा है ?
** मैं बहुत  से ऐसे  लोगों से मिल रहा  हूँ जो राधे - राधे , कृष्ण - कृष्ण , राम - राम कहते हुए अब जीवन के आखिरी पायदान पर जा पहुंचे हैं / मैं  उनसे एक सवाल करता हूँ , क्या आप कभीं स्वप्न में भी  राधा को , या कृष्ण को या राम को देखा ? सब का एक उत्तर मिलता है , जी नहींऔर वह भी  गुस्से में  पर  एक सज्जन ऐसे भी मिले जो बतानें से पूर्व रो पड़े  और बोले , यदि दिखे होते तो आज यहाँ गंगा किनारे क्यों बैठा होता ?
सत् की स्मृति यदि गहरी हो तो जीवन सत् में गुजरता है
 न कि ....
जीवन सत्य की खोज में गुजरता है / 
बश एक पल , मात्रा एक पलांश जब गहरी सोच की लहर ह्रदय में उठेगी तब वह  स्वप्न में ही नहीं वर्तमान में आप के सामनें दिखनें लगेगा 
और 
तब आप वही कहेंगे जो गीता कहता है -----
वह सबे बाहर , सबसे दूर , सब के समीप , सब के अंदर है 
और 
सभीं उसके फैलाव स्वरुप हैं 
==== ओम् ========

Friday, December 7, 2012

अपनें को सुनो और देखो भी

एक सूनी सड़क के मध्य खडा हो कर सड़क को देखो ....
सड़क एक दम सीधी हो तो उत्तम रहेगा /
दोनों किनारे एक दूसरे के समानांतर चलते हैं पर .....
सड़क के दोनों किनारे सामनें कही दूर आपस में मिलते हुए से दिखते हैं .....
लेकिन ऐसा होता नहीं /
क्या कभीं आप  अपनें इस  भ्रान्ति के सम्बन्ध में सोचा है ?
दोनों किनारे समानांतर चलते हैं और आपस में मिलते  हुए से भी  दिखते हैं .....
दो आँखें और एक बुद्धि हमें किस भ्रान्ति में रख रहे हैं ....
आप कभीं इस पर सोचा नहीं होगा ?

सड़क की भांति हमारे जीवन का भी रहस्य है .....
भोग - योग दोनों समानांतर चलते से दिखते हैं लेकिन ऐसा है नहीं /
भोग एक माध्यम है जिसमें उठा होश ही योग है और योग वाहन पहुंचाता है ......
जहाँ दोनों मिलते से दिखते भर नहीं मिलते भी हैं ....
और उस मिलन को कहते हैं अब्यक्त , अचिन्त्य , अप्रमेय , ब्रह्म और .......
सांख्य - योगी जिसे कहते हैं परम पुरुष और ......
जिसे ध्यान में उतरे योगी अपनें ह्रदय में देखते हैं ....
ब्रह्म चारी अपने ब्रह्म चर्या में पाते हैं ....
तप करनें वाले अपनें तप की ऊर्जा में देखते हैं ...
और ...
प्रेमी  अपनें प्यार में पाते हैं //
=== ओम् =====

Sunday, December 2, 2012

जबतक -------

[क] जबतक श्वासें चल रही हैं , उसके लिए

  • अपनें - पराये हैं
  • यह तेरा और यह मेरा है
  • जाति - धर्म है
  • दिन - रात हैं
  • सुख - दुःख है
  • अच्छा - बुरा है
और ----
वह सब है जो चाह आधारित  है
लेकिन -----

[ख] जब श्वासें चलानी बंद हो जाती है , तब

  • वह स्वयं अपना सांसारिक अस्तित्व खो बैठता है
  • पलंग से उसे उसके अपनें ही उठा कर जमीं पर लिटा देते हैं
  • उसका नाम रामानंद - ज्ञानानंद नहीं रह जाता 
  •  उसे अब उसके अपनें ही मुर्दा कहनें लगते हैं
  • उसकी कोई जाति नहीं रहती
  • उसका कोई धर्म नहीं होता
  • उसकी कोई चाह नहीं रहती , भौतिक स्तर पर
  • उसके लिए उसके कोई अपनें - पराये नहीं रहते
  • उसे सुख - दुःख , गर्म - ठंढा और अन्य सभीं  द्वैत्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता
  • उसे संसार में हो रही घटनाएँ नहीं हिला पाती
और ----
वह जिस आयाम में होता है उसके लिए .......
उस घडी जो रहता है , उसे गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ----
अब्यय , अप्रमेय , अब्यक्त , सनातन
और .....
मनुष्य जीवन भर भागता रहता है , जो उसे मिलता है उससे उसे क्षण भर की शांति मिलती है लेकिन .....
वे धन्य हैं ----
जिनको उनकी श्वास चलते अपनी श्वासों के मध्यम से उस परम अब्यय की खुशबू मिल जाती है ----
और उस खुशबू में वे तृप्त हो उठते हैं
उनके लिए ---
सभीं द्वित्य तिरोहित हो उठते हैं
और ---
वह अद्वैत्य की ऊर्जा में अलमस्त रहता है
=== ओम् =====

Sunday, November 25, 2012

गुरु प्रसाद - 1


श्री ग्रन्थ साहिब जी परम ज्ञान सागर हैं जिसमें …
...
  • दस गुरुओं के साधनाओं का फल है
  • सत्रह भक्तों की अनुभूतियों का रस है
  • पंद्रह परम भक्तों की वाणियों का सुर है
  • भाई मरदाना जैसे परम भक्त की धुनें है
  • 1जो चौदह सौ तीस पृष्ठों में फैला हुआ है
  • तीसरे गुरु श्री अमर दास की नौ सौ चौहत्तर वाणियों का संग्रह है
  • दूसरे गुरु श्री अंगदजी साहिब की तिरसठ वाणियों की गंगा प्रवाहित होती हैं
  • आखिरी गुरु श्री गोबिंद जी साहिब का निर्देशन है और भाई मणि सिंह की बुद्धि है जिनके द्वारा यह लिपिबद्ध हुआ
  • सन चौदह सौ से सत्रह सौ के मध्य के संतों फकीरों की वाणियों का संग्रह है
  • दस गुरुओं सत्तरह भक्तों एवं पन्द्रह परम सिद्धों की ऊर्जा है
  • ऐसे परम पवित्र को छोड़ कर आप और कहाँ और क्या खोज रहे हैं
  • एक ओंकार

Friday, November 23, 2012

कोई तो सुनता ही होगा


  • कौन क्या बोल रहा है , यह महत्वपूर्ण नहीं , आप क्या सुन रहे हैं , यह महत्वपूर्ण है 
  • बोलनें वाला कभी यह नहीं समझता कि सुननें वाला क्या सुन रहा है 
  • सुननें वाला कभी यह नहीं सोचता की बोलनें वाला क्या बोलना चाह रहा 
  • बुद्धि स्तर की समझ बहुत कमजोर समझ होती है 
  • ह्रदय की समझ , गहरी समझ है 
  • जिस से हमारा कोई खास मतलब होता है उसकी हर बात हमें स्वीकार होती है 
  • जिससे  हमारा कोई मतलब नहीं उसकी बात को सुननें के हमारे कान और होते हैं 
  • प्रकृति अब सिकुड़ने लगी है और मनुष्य का अहंकार फ़ैल रहा है 
  •  विज्ञान के आविष्कारों का प्रकृति को सिकोड़ने में हो रहे प्रयोग घातक हो सकते हैं 
  • विज्ञान संदेह आधारित है और संदेह की रोशनी में सत्य को देखना संभव नहीं 
  • संदेह जब श्रद्धा में बदलता है तब उस ऊर्जा से सत्य दिखता है 

विज्ञान का केन्द्र मन - बुद्धि हैं और ज्ञान का केन्द्र है ह्रदय 
निर्विकार मन - बुद्धि का सीधा सम्बन्ध ह्रदय से होता है 
ह्रदय में चेतना की ऊर्जा तब प्रभावी होती है जब मन - बुद्धि निर्विकार हो जाते हैं
हमेशा औरों के सम्बन्ध में ही क्यों सोचते रहते हो कभीं अपनें बाते में भी सोचा करो

  • आज औरों के ऊपर कफ़न डाल रहे हो एक दिन और तुम पर कफन  डालेंगे 

==== ओम् ======


Saturday, November 17, 2012

हम इनके मध्य हैं - - - - -


  • एक परमात्मा ......
  • अनेक देवता ........
  • एक माया ............
  • अनेक जीव .........
  • दो प्रकृतियाँ ........
  • ऊपर आकाश .....
  • नीचे एक काल्पनिक संसार , पाताल .....
  • सप्त सिंधु ......
  • सप्त ऋषि .....
  • सप्त दिन [ सप्ताह ] .....
  • नौ ग्रह .......
  • देव - दानव .....
  • सच - झूठ ......
  • अपना - पराया .....
  • सास - ससुर , पति - पत्नी , पुत्र - पुत्री , समाज 
  • समाज की जरूरतें और स्वयं की चाह 
  • स्वर्ग - नर्क का भय 

हमारे रहनें के आयाम तो अनेक हैं , हम उनमे कैसे रहते हैं , यह हमारे जीवन की दिशा को तय करता है 
जीवन वह है जो न अपनें लिए जीया जाए , न पराये  के लिए ,जीवन  चाह  रहित एक दरिया की धार जैसे बहते रहना चाहिए जहाँ किसी अवरोध की कोई फ़िक्र न रहे और धीरे - धीरे ऐसा जीवन जहाँ पहुँचता है उसी का नाम है.........
 परम धाम 
==== ओम् ======

Saturday, November 10, 2012

मनुष्य और पशु

भोग से भोग में मनुष्य और पशु दोनों पैदा होते हैं 
भोग - भोजन की खोज में पशु आखिरी श्वास भरता है 
मनुष्य भोग में होश उठा कर परम गति प्राप्त करता है 
परम गति अर्थात जहाँ समय की छाया नहीं पड़ती 
जहाँ सूर्य - चन्द्र - अग्नि प्रकाश का श्रोत नहीं 
जो स्व प्रकाशित है 
पशु का मूल स्वभाव है भोग और ....
मनुष्य का मूल स्वभाव है अध्यात्म
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं [ श्लोक - 8.3 ] .....
स्वभावः अध्यात्मं उच्यते 
पशु कभीं आकाश नहीं देखता और मनुष्य आकाश में भी घर बननें को सोच रहा है
वह जो काम को न समझा , वह जो कामना को नहीं समझा , वह जो क्रोध को नहीं समझा ...
वह जो मोह को नहीं समझा , वह जो अहँकार  को नहीं समझा .....
वह पशु है और वह भी भोग - भोजन की तलाश में कहीं मध्य मार्ग  के चौराहे पर दम तोड़ देगा और पुनः पशुवत योनि में पैदा हो कर भोग - भोजन में भागता रहेगा ,
 लेकिन ----
जो  काम से राम की यात्रा कर लिया , जो भोग में भगवान की छाया देख ली , वह आवागमन से मुक्त हो कर प्रभु में बसेरा बना  लेता है /
=== ओम् =====

Saturday, November 3, 2012

होश में या बेहोशी में ----

लोग कहते हैं ------
 मैनें अमुक पराये को अपना लिया है , क्या  यह सत्य है ?
क्या पराये  को अपनाया जा सकता है ?
क्या अपनों को पराया बनाया जा सकता है ?

अपनों को पराया बनाना ------
परायों को अपना बनाना ------
दोनों बातों में समान वजन है ; जो एक को कर लिया दूसरा उसके लिए कठिन नहीं
जो यह कहता है कि हमनें अमुक को अपना लिया लेकिन उसनें मुझे धोखा दिया ,
यह बात दिल की बात नहीं बाहर - बाहर की बात है ----
जो दिल से किसी  को अपनाता है उसके पास मैं और तूं दो नहीं रहते , अपनानें के साथ ही मैं तूं में बिलीन हो जाता है , फिर कौन बचा रहता है जो यह कहे कि , उसको मैं अपना लिया था लेकिन उसनें मुझे धोखा दिया ?
अपनाना कोई कृत्य नहीं , यह एक घटना है जो स्वतः घटती ,  पता तक नहीं चल पाता और जब यह पता चलता है कि  मैनें  अपना लिया है उसी घडी उसमें अपनानें  की ऊर्जा बदल जाती है / अपनाना एक प्रकार की साधना का फल है जिस पर कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहँकार की छाया तक नहीं पड़ती और जहाँ ऐसा आयाम हो वह स्थान तीर्थ होता है और वहाँ प्रभु को खोजा नहीं जाता , वहाँ सर्वत्र प्रभु ही  प्रभु दिखता है /
आप न कुछ अपनानें की  कोशिश करे न त्यागानें की , आप मात्रा उसे देखें जो आप के  साथ घटित हो रहा हो और ----
आप का जब यह अभ्यास सघन होगा तब आप कुछ और हो गए होंगे , मेरे जैसे बैठ कर ब्लॉग नहीं लिखेंगे , ब्लॉग में स्वय को घुला दिए होंगे जैसे गंगा गंगा सागर में स्वयं को घुला कर मुक्त हो जाती है /
==== ओम् ======

Wednesday, October 31, 2012

आइये देखते हैं स्वयं को -------

जो मिला हुआ है वह आज नहीं तो कल टल ही जायेगा 
लेकिन ----
जो हमनें  स्वयं ले रखा है उसका क्या होगा ?

जो गट्ठर हमारी पीठ पर रखा गया है वह तो समझो उतर ही रहा है 
लेकिन -----
जो हमनें स्वयं रखा है उसका क्या होगा ?

हम चिंतित हैं क्यों ? 
इसलिए नहीं कि हमारे पास वह नहीं जिसे हम चाहते हैं 
लेकिन----
 इस लिए कि वह  उनके पास क्यों है ?

मनुष्य दूसरे की गलती पर स्वयं को ताडित करता है , क्यों ?
जैसे यदि कोई हमें गाली दे दे तो हमारा  खून खौलनें लगता है , ऐसा क्यों ?
 यदि वह गाली दे रहा है हम उसे ले क्यों रहे हैं ,
 उसे यदि न लिया जाए तो वह वापिस जा कर उस ब्यक्ति के सीनें में चोट मारेगा 
लेकिन----
 हम ऐसा करनें का अभ्यास नहीं करते 

==== ओम् =====

Saturday, October 27, 2012

कभीं अकेले में ही सही सोचना ----

जीवन कितना लंबा है ....
जीवन कितना चौड़ा है ....
जीवन कितना गहरा है ....
जीवन की चौड़ाई को हम नित पल खीच - खीच कर बढानें  में लगे हैं लेकन जब जीवन की लम्बाई की सोच आती है तब हम बेचैन से होनें लगते हैं , ऐसा क्यों ?
जीवन की गहराई के सम्बन्ध में हमारा मन कभीं नही सोचता और हम अपनें जीवन के इन तीन आयामों में से मात्र एक पर टिके हुए जीवन गुजार रहे हैं /
सभीं यहाँ परम आनंद के आशिक हैं लेकिन जीवन का मात्र एक तिहाई आयाम को पकडे हुए चल रहे हैं , भला ऎसी स्थिति में कैसे परम आनंद की झलक मिल सकती है ? ऐसा जीवन तो  तनहा जीवन ही रहेगा / 
परम आनंद प्रभु का द्वार है , जो जीवन की गहराई में कहीं अनंत में जा कर परम  प्रकाश के माध्यम से दिखता है और वह भी कई शताब्दियों में किसी - किसी  को और एक हम हैं जो जीवन  की गहराई  के सम्बन्ध में कभीं सोचते ही नहीं , फिर हमें परम आनंद कैसे मिल  सकता है ?
जीवन की गणित आम गणित से भिन्न है , इस गणित पर गुरजिएफ के एक महान शिष्य एवं महान गणितज्ञ ओस्पेंसकी खूब सोचे हैं और सोचते - सोचते वे जरुर परम आनंद में पहुंचे होंगे /
जीवन की लम्बाई हमारे दो श्वासों के बीच की दूरी के एक अंश के बराबर होती है , जिसको हम कभीं नहीं देखना चाहते , क्योंकि बुद्ध कहते हैं - एक घंटा जो रोजाना अपनी प्राण - अपान वायुओं को देखता रहता है उसे निर्वाण प्राप्त हो सकता है और निर्वाण परम आनंद का द्वार है जहाँ से परम प्रकाश की अनुभूति होती है / 
हम अपनें जीवन की चौड़ाई को अपनें अहँकार की रस्सी से मापते हैं ; जितना बड़ा अहंकार उतना चौड़ा 
जीवन ; यह  एक ऐसा भ्रम है जो सीधे नरक के द्वार पर ले जा कर कहता है - जा , अब तेरी मंजिल आगयी /
जीवन का मजा लेना चाहते हो तो -----
आज से रोजाना कुछ समय के लिए अपनी यातो प्राण वायु को या  फिर अपान वायु को विचार रहित मन - बुद्धि से देखनें का अभ्यास प्रारम्भ करें , क्या पता यही आप को निर्वाण में पहुंचा दे ?
===== ओम् =====

Tuesday, October 23, 2012

जरा समझना ------

  • वे आप के साथ हैं या आप उनके ......
  • पुत्र आप के साथ है या  आप  पुत्र के साथ .....
  • पत्नी आप के साथ है या आप पत्नी के साथ ......
  • परिवार आप के साथ है या आप परिवार के साथ .....
  • आप अपनी सोच के गुलाम हैं या आप की सोच आप की ......
  • आप इंद्रियों के गुलाम हैं या इन्द्रियाँ आप की ......
  • आप अपनें मन के संग हैं या मन आप के संग ......
  • आप परमात्मा को खोज रहे हैं या परमात्मा आप को ......
  • आप से परमात्मा है या परमात्मा से आप ......
  • आप के संग परमात्मा है या परमात्मा के संग आप .......
  • आप प्रकृति से हैं या प्रकृति आप से .......
सोच - सोच के सोच में आयी स्थिरता के आइनें में कभीं झांकना ,
वहाँ जो दिखेगा , उस से और उस में यह ब्रह्माण्ड है

==== ओम् ========

Sunday, October 7, 2012

जरा रुकना बश दो घडी

  • कौन दुखी रहना चाहता है ?
  • यहाँ कितने सुखी हैं , तन एवं मन से ?
  • कितनें अपने दुःख का कारण स्वयं को समझते हैं ?
  • कितनें अपनें दुःख को समझते हैं ?
  • कितनें औरों के दुःख को समझते हैं ?
  • कितनें औरों के दुःख  को देख कर आनंदित होते हैं ?
  • कितनें दुःख की मूल को देखना चाहते हैं ?
  • कितनें सच्चाई को समझना चाहते हैं ?
  • कितनें दूसरों को दुखी कर के सुख का अनुभव करते हैं ?
  • कितनें दूसरों के दुःख को अपनें दुःख की भांति देखते हैं ?
यहाँ हम क्या सोच रहे हैं ? क्या कर रहे हैं ? हमें स्वयं को पता न भी हो सकता है लेकिन कोई तो है ------
जो सब पर बराबर नजर डाले हुए है और जहाँ एक दिन सबको पहुँचना है और पहुँच कर अपनें किये गए का जबाब भी देना  है , जहाँ कोई तर्क - वितर्क की कोई संभावना नहीं , जहाँ चेहरा देख कर दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया जाता है /
समय किसी का इन्तजार नहीं करता , दो घडी कभीं अकेले में बैठ कर सोचना कि ........
जिनके लिए इतनी गति से भाग रहे हो क्या वे आप के साथ चिता जलनें तक भी रुक पायेंगे ?
==== ओम् =======

Tuesday, October 2, 2012

जीवन दर्शन - 58

क्रोध और मोह की उर्जा देह में कंपन पैदा करती है
क्रोध - ऊर्जा की आवृति प्रति सेकण्ड अधिक होती है
मोह - उर्जा इन्द्रियों को सुखाता है
क्रोध - उर्जा नाश की ओर ले जाता है
कामना में जब गहरा अहँकार होता है तब जब वह कामना दूटती है , क्रोध उठता है
कमजोर अहँकार की कामना  - ऊर्जा मोह में बदल जाती है
कामना देह की कोशिकाओं में फैलाव लाता है
मोह कोशिकाओं को सिकोड़ता है
मोह का अहंकार बाहर से नही दिखता , यह अंदर सिकुड़ा रहता है
कामना का अहँकार बाहर परिधि पर छाया रहता है
==== ओम् ========

Friday, September 21, 2012

Kabhi - kabhi inko bhi samajhe

1- kaun khush nahi rahana chaahataa
2- kaun chaahataa hai ki uski aankho se boonde tapakatii rahen
Lekin--------
Yahaan kitane log aur kitanii ghadii khushii me gujaar rahe hain
Psnnch logo se khushii kii paribhashaa poochhana , ho sakta hai aap ko paanch se bhii kuchh adhik paribhaashaayen mile .
Manushya apane man kaa gulasm hai aur man ke paas sandeh ke alawaa aur kuchh nahiin
Atah ....
Apane man ko pahale samajhe aur jb man kii samajh pakki hojaayegi tb aap ko kisii kii paribhshaa kr sambsndh me nahi sochana hogaa
Kyonk.....
Tb aap datya me honge
#####  OM #####

Tuesday, September 11, 2012

Jaraa Dekhana

Sansaar me kyaa nahi jo manushya ki pakad se pare ho lekin itanii samarth ke baawajood bhi manushya kiskii koj me khoyaa huaa hai ?
:::::: om :::::

Thursday, July 26, 2012

जीवन दर्शन - 55

  • क्रोध एवं मोह दोनों में देह में कंपन होता है
  • क्रोध के कंपन की आबृति मोह के कंपन की आबृति से अधिक होती है
  • क्रोध का केंद्र मुह में जबड़ों में होता है
  • मोह का केन्द्र है नाभि
  • मोह जोडनें की उर्जा रखता है
  • क्रोध में तोड़ने की उर्जा होती है
  • कामना , क्रोध में धनात्मक अहँकार होता है
  • मोह में नकारात्मक अहँकार होता है
  • मोह एक प्रकार की कामना ही है लेकिन इसका केंद्र है तामस गुण
  • कामना काम ऊर्जा का रूपांतरण है और इसका केंद्र है राजस गुण
===== ओम् ======

Monday, June 11, 2012

जीवन दर्शन 54

  • बुद्ध पुरुष सुख एवं दुःख दोनों का चिकित्सक होता है

  • बुद्ध पुरुष न सुख देते हैं न दुःख

  • बुद्ध पुरुष उस आयाम में पहुंचाते हैं जहाँ से एक तरफ सुख औए एक तरफ दुःख दिखते हैं

  • बुद्ध पुरुष सुख एवं दुःख दोनों का द्रष्टा बनाते हैं

  • बुद्ध पुरुष वह रोशनी देते हैं जिससे सुख एवं दुःख दिखते हैं

  • बुद्ध पुरुष को खोजा नही जा सकता

  • बुद्ध पुरुष कहीं नहीं हैं और सर्वत्र हैं

  • बुद्ध पुरुष को देखनें की रोशनी ध्यान से मिलती है

  • ध्यान की गहराई में जब चेतना आत्मा को छूटी है तब उस घडी कोई बुद्ध वहाँ दिखते हैं

  • बुद्ध बताना तो वह सब चाहते हैं जिनकी अनुभूति उनको हुयी होती है

  • लेकिन …....

**इंद्रियों के माध्यम से अपनी अनुभूति ब्यक्त करनें की कोशिश अधूरी ही रहती है

**परम अनुभूति को इंद्रियों से ब्यत किया नही जा सकता

**परम सत्य ब्यक्त होते ही असत्य बन जाता है

**सत्य में वह जीता है जो गुणातीत होता है

**गुणातीत परम तुल्य होता है

**परम तुल्य योगी को जो समझता है वह स्वयं गुणातीत योगी ही होता है

**दो बुद्ध कभीं आपस में बातें नहीं करते

वे धन्य हैं जो बुद्ध - ऊर्जा क्षेत्र में रहते हैं

बुद्ध ऊर्जा क्षेत्र हैं - जैसे - कर्बला , काशी , मक्का , मानसरोवर , कैलाश , जेरुसलेम , द्वारका , उज्जैन , हरिद्वार , केदारनाथ , बद्रीनाथ , 51 शक्ति पीठें , 11 ज्योतिर्लिंगम के स्थान आदि

====ओम्=======



Sunday, June 3, 2012

जीवन दर्शन 53

  • आत्मा यदि मात्र बुद्धि की उपज है तो फिर उस ब्यक्ति की बुद्धि कैसी रही होगी जिसनें आत्मा के सम्बन्ध में सोचा होगा?

  • गीता में श्री कृष्ण कहते हैं,आत्मा के रूप में मैं सबके दृदय में रहता हूँ और इसके माध्यम से सब का आदि मध्य एवं अंत मैं ही हूँ

  • गीता में प्रभु यह भी कहते हैं,आत्मा मेरा ही अंश है

  • अगर आत्मा शब्द का जन्म न हुआ होता तो परमात्मा शब्द भी न होता

  • प्रभू का एक जीव-माध्यम सर्वत्र फैला हुआ है,सम्पूर्ण ब्रहांड में जो प्राण ऊर्जा का माध्यम है

  • प्रभु का यह माध्यम तीन गुणों के माध्यम माया के साथ है

  • माया से माया में दो प्रकृतिया हैं;अपरा एवं परा

  • अपरा साकार प्रकृति है जिसमें पञ्च महाभूत,मन,बुद्धि एवं अहँकार होते हैं

  • परा प्रकृति आत्मा माध्यम का बाहरी झिल्ली होती है जिसको चेतना कहते हैं और जिसके माध्यम से जीव एवं प्रकृति का मिलन होता है और यह मिलन ही नये जीव को संसार में ले आता है

  • यदि प्रकाश का अति शूक्ष्म कण फोटान हो सकता है तो फिर परमात्मा का अति शूक्ष्म कण आत्मा क्यों नहीं हो सकता?

  • विज्ञान के पास आज तक कोई कैसा ऊर्जा का श्रोत नहीं उपलब्ध जो अनादि हो और आत्मा जीव के देह में ऊर्जा का एक ऐसा श्रोत है जो अनादि है और जो देह समाप्ति पर मन एवं इंद्रियों को ले कर अन्य नया देह की तलाश भी करता है

  • देह में स्थित यह आत्मा का एक सीमित रूप जीवात्मा कहलाता है

  • आत्मा निर्गुणी है और जीवात्मा को निर्गुणी नहीं कह सकते क्योंकि यह मन एवं इंद्रियों के माध्यम से बिषयों सम्बंधित रहता है

  • जिसकी जीवात्मा इतनी निर्विकार हो गयी होती है जिसको जीवात्मा न कह कर आत्मा कहना असंगत न होगा,वह परा भक्त परम-गति प्राप्त करता है और वह देह में निर्गुण परम तुल्य होता है

  • भोगी जो भी करता है उसका हर कृत्य उसकी जीवात्मा को और विकारों से भरता रहता है और योगी के सभीं कृत्य उसकी जीवात्मा को और निर्मल करते रहते हैं

  • योग – साधना का अर्थ है जीवात्मा को निर्मल करना और निर्मल स्थिति में जीवात्मा वह दर्पण होता है जिसपर प्रभु दिखते हैं लेकिन देखनें वाला भोगी नहीं योगी ही होता है

=====ओम्======




Tuesday, May 29, 2012

जीवन दर्शन 52

  • हमारी स्मृतियाँ हमें गुमराह होनें से बचा सकती हैं

  • हमारी स्मृतियाँ हमें आसुरी मार्ग पर ले जा सकती हैं

  • हमारी स्मृतियाँ हमें प्रभु से जोड़ सकती हैं

  • इस पल से पहले की स्मृतियाँ ही हमारे इस पल की रूप-रेखा बनाती हैं

  • स्मृतियों किसी को प्रिय – अप्रिय बनाती हैं

  • स्मृतियाँ हँसाती-रुलाती हैं

  • जैसे कल का संचित धन आज के भोजन का साधन बनता है वैसे कल की स्मृतियाँ आज के मन की भोजन – माध्यम हैं

  • बुद्ध सिखाते थे,आलय विज्ञान;इस विज्ञान में मनुष्य के जन्म – जन्मान्तर की स्मृतियों में वापिस ले जानें की ब्यवस्था है और इस प्रकार सृष्टि के प्रारम्भ से ले कर आजतक की स्मृतियों से गुजरनें वाला अंत में स्मृति रहित हो जाता था और उसका मन एक दर्पण सा बन जाता था जिस पर प्रकृति का निर्माता प्रभु दिखनें लगता था और वह योगी तब आंखे बंद करके ध्यान में डूबा प्रभु में हुआ करता था

  • स्मृतियाँ एक तरफ मुक्ति के द्वार हैं और दूसरी तरफ नर्क का द्वार भी

  • भोग – तत्त्वों के सम्मोहन में बसे ब्यक्ति की स्मृतियाँ उसे नर्क में बसानें का यत्न करती रहती हैं

  • और भोग तत्त्वों का सम्मोहन जिस पर नहीं होता उसकी स्मृतियाँ प्रभु के मार्ग को दिखाती हैं

    ==== ओम्======



Saturday, May 26, 2012

जीवन दर्शन 51

क्या कभीं आप ऐसा सोचते हैं कि …....

  • आज आप जिन गलियों में किसी की उंगली पकड़ कर उसे घुमा रहे हैं [ अपनें बेटे को / बेटी को ] उन गलियों में कभीं आप को भी आपकी उंगली पकड़ कर कोई घुमाता रहा है /

  • जिस घर में आज आप किसी को दुल्हन [ पुत्र की पत्नी ] शब्द से संबोधित करते हैं उसी घर में किसी दिन उसी शब्द से कोई आप को संबोधित करता रहा है /

  • जिस घर में आप किसी को पानी लानें को कह रहे हैं उसी घर में किसी दिन कोई आप को पानी लानें को कहता था /

  • जिस घर का मालिक कल कोई और था आज उसी घर का मालिक आप है /

  • आज जिस संपदा का मालिक आप हैं कल उस का मालिक कोई और होगा /

  • कल आप किसी के पुत्र / पुत्री थे , आज को आप का पुत्र / पुत्री है और आनें वाला कल आप को किसी का दादा / दादी बनानें वाला है /

  • किसी दिन किसी की गोदी में आप होते थे और आज आप की गोदी में कोई और है /

ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जो आप को आकर्षित कर सकते हैं , आप की सोच की दिशा बदल सकते हैं लेकिन आप इब संवेदनशील तथ्यों की ओर पीठ किये हुए हैं / आप ज़रा सोचना ऎसी बातों को यदि आप समयानुकूल सोचते रहे को क्य आप में कभीं अहँकार आ सकता है ?

ऊपर की स्मृतियाँ आप को समभाव में रखती हैं

और

गीता कहता हैं-------

समभाव मुक्ति का द्वार है//

===== ओम्======



Thursday, May 17, 2012

जीवन दर्शन 50

  • देह की और ब्रहमांड की बनावटें एक सी हैं,वेद कहते हैं

  • देह,ह्रदय में बसे ब्रह्म की तलाश का माध्यम है और ब्रह्माण्ड की तलाश मन की तलाश है

  • ब्रह्माण्ड की रिक्तता में ब्रह्म प्रतिबिंबित होता है

  • मन की रिक्तता में ह्रदय में बसा ब्रह्म दिखता है

  • मन में कभीं दो सूचनाएं एक साथ नहीं रह सकती

  • मन कभीं स्वयं के संबंधमें नहीं विचार करता

  • मन जिस घडी स्व पर केंद्रित हो जाता है वह घडी रूपांतरण की घडी होती है

  • वह जो इस घडी को चूक गया , चूक गया और जो पकड़ लिया वह पार गया

  • भोग और भगवान एक साथ एक मन में नहीं बस सकते

  • लेकिन भोग के प्रति उठा होश प्रभु से परिपूर्ण कर देता है

  • मन को बाहर से अंदर की दिशा देना ही ध्यान है

  • जब मन बाहर न भाग कर अंदर रमता है तब वैराज्ञ आगमन होता है

  • वैराज्ञ निर्वाण का द्वार है

  • निर्वाण प्राप्ति ही परम गति है

  • परम गति का अर्थ है आवागमन स मुक्त हो कर प्रभु में समा जाना

=====ओम्======



Tuesday, May 15, 2012

जीवन दर्शन 49

यहाँ सभीं अपनें को आजाद समझते हैं , लेकिन … ...

हैं सभीं गुलाम , जैसे … ...

कोई ममता का गुलाम है

कोई कामना का गुलाम ही

कोई अहँकार का गुलाम है

कोई सौन्दर्यता का गुलाम है

कोई भोजन का गुलाम है

कोई लोभ का गुलाम है

कोई भय का गुलाम है

कोई पत्नी का गुलाम है

कोई पति का गुलाम है

कोई अपनें धार्मिक गुरु का गुलाम है इसलिए की जो संपदा उसके पास है वह कहीं सरक न जाए

कोई अपनें ब्यापार का गुलाम है

कोई मंदिर का गुलाम बन कर धन का स्वामी कुबेर बनना चाहते है

धन – धान्य , परिवार , वासना , अहँकार और सात्त्विक , राजस एवं तामस गुणों के तत्त्वों के सभीं गुलाम है लेकिन स्वयं को आजाद समझ कर सीना तान कर रह रहे हैं और उनका यहीं भ्रम उनको ज़िंदा भी रख रखा है / जिस दिन यह बोध हो जाता है कि हम उसकी गुलामी कर रहे हैं जो दो कौडी के हैं , जो मुझे नरक की ओर खीच रहे हैं उसी घडी रुपानारण हो उठता है और सत्य की किरण उस मनुष्य केसभीं नौ द्वारों को प्रकाशित कर देती हैंऔर वह ब्यक्ति परम आजाद हो कर चल पड़ता है परम धाम की ओर /

वह जिसकी पीठ भोग – संसार की ओर हो और नजरें अनंत में ठहरी हों वह है तिर्थंकर/ /

====ओम्=====


Thursday, May 10, 2012

जीवन दर्शन 48

  • बुद्धि से उपजी बात को प्रकट करनें के एक नहीं अनेक ढंग हैं

  • ह्रदय में उपज रही बात को प्रकट करनें का कोई ढंग नहीं

  • बुद्धि की बात को लोग सुनते से दिखते हैं और उसमें अपनें स्वार्थ की बात खोजते रहते हैं

  • ह्रदय की बात कहनें - सुननें की नहीं यह तो एक धारा है जो इसमें उतरा , बह गया

  • ह्रदय के भाव को जो भाषा में ढालना चाहा दुखी हुआ

  • मीरा को भी कहना ही पड़ा,अब मैं नाचैव बहुत गोपाल

  • आप मंदिर जा रहे हैं ? क्या कुछ देना है ? या कुछ लेना है ? इस बात को भी सोचना

  • जो आप देनें के लिए अपनें पास रखे हैं उसको देखना और जो पाना चाहते हैं उसको देखना

  • एक कौडी दे कर सम्राट बनना चाहते हो?

  • मनुष्य क्यों प्रभु को इतना बेवकूफ समझता है ?

  • मनुष्य प्रभु को भी क्यों धोखा देता रहता है?

  • इस पृथ्वी पर प्रभु के नाम का जितना फैला हुआ ब्यापार है उतना और किसी बस्तु का नहीं

  • पुरानें मंदिर पृथ्वी में समा रहे हैं और नये सर उठाये ऊपर उठ रहे हैं

  • नये मंदिर पुरानों को क्यों नही देखते?

  • एक तरफ लोग नयी मूर्तियों की रचना में लगे हैं और दूसरी तरफ लोग पुरानी मूर्तियों की तस्करी कर रहे हैं

  • एक तरफ कुछ लोग मंदिरों के आकार प्रकार को नया रूप दे रहे हैं और दूसरी तरफ कुछ लोग शास्त्रों को रूपांतरित करने में लगे हुए हैं

  • मनुष्य धर्म – कर्म सब को बदल रहा है लेकिंन स्वयं को?

  • ===== ओम् ======


Monday, May 7, 2012

जीवन दर्शन 47

  • नयी पीढ़ी पुरानीं पीढ़ी से परेशान है
  • नयी पीढ़ी यह कहते नहीं थकती की हमारे पुर्बज कितनें भले थे
  • हम क्यों उनकी प्रशंशा करते हैं जो गुजर गए हैं?
  • नयी और पुरानी पीढ़ियों में कटुआ का कारण क्या हो सकता है?
  • भाई – भाई में कटुता कब और कैसे आती है ?
  • भाई – भाई का बचपन में उगा प्यार ब्याह के बाद धीरे - धीरे क्यों सिकुड़ने लगता है ?
  • माँ-बेटे के मध्य बेटे की पत्नी क्यों दीवार बन जाती है?
  • भारत में नयी पीढ़ी किधर जा रही है?
  • आज लोग बिना कुछ किये मस्त भोग जीवन क्यों गुजारना चाह रहे हैं?
  • आज कलियुग समाप्त हो चुका है और भोग युग अपनी पंख ठीक से फैला रहा है
  • आज क्यों अपनें अपनों से दूर हो रहे हैं और पराये अपनें बन रहे हैं?
  • आज लोग अपनी सास को माँ और ससुर को डैड कहते हैं और अपनें माँ-पिता को?
  • आज भारत में खान – पान,रहन सहन सबकुछ पश्चिमी हो चुका है तो क्या सोच भारतीय हो
    सकती है?
==== ओम् =====

Thursday, May 3, 2012

जीवन दर्शन 46

वह रो रहा था …...
आखिर वह क्यों रो रहा होगा?एक नहीं अनेक भ्रमित मन – बुद्धि में प्रश्न उठनें लगे थे और मुझसे रहा न गया और मैं उसके पास जा कर पूछ ही लिया--------
एक सून सान जगह थी , जहाँ दूर – दूर तक किसी जीव के होनें की कोई खबर न मिल रही थी , एक झाड में अकेले छुपके बैठ कर कोई सिसक – सिसक कर रो रहा था जिसकी पीठ तो थी संसार की ओर और आँखें झाड की सघनता में जैसे किसी की तलाश में खोई हुयी हों और प्राप्ति न मिलनें के करण रह - रह कर उनसे बूँदें टपक रही थी / मैं उस सज्जन से पूछा -------
भाई आप लगते तो हो सभ्य ब्यक्ति ; पढ़े लिखे संपन्न लेकिन यह बात नहीं समझ में आ रही की आप यहाँ जंगल में अकेले इन कटीली झाड में बैठ कर रो क्यों रहे हो ? मैं आपकी रुलाई की गंभीरता को सह न सका और यहाँ आ कर आप के दुःख का कारण जानना चाहता हूँ , मैं आप के दुःख को समझ कर उसे दूर तो नहीं कर सकता पर पर आप के साथ उसे हलका जरुर कर सकता हूँ / वह ब्यक्ति पीछे देखा और बैठनें का इशारा दिया / मैं बैठ गया , वह मेरी तरफ मुह किया और अपनी दास्तान बतानें लगा , कुछ इस प्रकार -----
वह एक वैज्ञानिक था जिसने कपड़ों का निर्माण किया था आज से हजारों साल पहले / वह वैज्ञानिक कहता है , भाई ! आज से हजारों साल पहले मनुष्य भी जंगलों में लंगूरों की भांति पेड़ों पर रहा करते थे , उनमें से एक मैं भी था / एक दिन मैं सोचा कि क्यों हम लोग नंगे बदन रहते हैं , क्यों न कोई ऎसी ब्यवस्था हो जिसे हम सब अपनें तन को ढक कर रख सकें ? मेरा प्रयाश सफल हुआ और मैं कपड़ा बनानें में कामयाब हो गया और कुछ साल बाद मेरी मौत हो गयी / आज हजारों साल बाद प्रभु का आदेश मिला कि तूं जा मृत्यु लोक और वहाँ लोग क्या कर रहे हैं इस बिषय पर आकडें इकठा
कर / मै पृथ्वी पर आ कर भ्रमित हो गया की यह पृथ्वी क्या वही पृथ्वी है जहाँ मैं आज से हजारों साल पहले हुआ करता था ? जहाँ शहर शब्द न था सम्पूर्ण पृथ्वी जंगल मय थी लेकिन आज … ... ?
वह वैज्ञानिक कहता है-------
मैं वस्त्र का निर्माण किया था तन ढकनें के लिए
लेकिन
आज लोग इसका प्रयोग तन दिखानें के लिए कर रहे हैं,फिर तूं सोच मैं रोऊँ न तो
और क्या करूँ?
====ओम्======

Friday, April 27, 2012

जीवन दर्पण 45

  • जब आप क्रोध में हों तब देखना उसके होनें के कारण को,कारण आप स्वयं नहीं कोई और होगा

  • भोग - तत्त्वों एवं क्रोध का आपसी गहरा सम्बन्ध है

  • राजस गुणों के तत्त्वों के साथ धनात्मक अहंकार होता है जो स्पष्ट दिखता है

  • तामस गुण का अहँकार सिकुड़ा हुआ समय के इन्तजार में केंद्र में झुप कर रहता है

  • भोग तत्त्वों में अहँकार की उम्र सबसे कम होती है

  • अहँकार की अनुपस्थिति में सत् का बोध होता है

  • सत् वह है जो संसार के बोध के साथ प्रभुमय बनाए

  • भोग तत्त्वों एवं अहँकार के सम्मोहन के प्रभाव से जो बच रहता है वह है ज्ञानी

  • ज्ञानी प्रभु के सम्बन्ध में चुप रहता है

  • लाओत्सू कहते हैं , सत् ब्यक्त करनें पर असत्य बन जाता है "

  • अपनें को दर्पण में क्या देखते हो स्वयं के मन को दर्पण बनाओ

===== ओम्======



Friday, April 20, 2012

जीवन दर्शन 44

  • वह क्या है जो स्वयं में भय है ?

  • क्या वह मौत तो नहीं?

  • वह जो प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल चलता है वह मौत की ओर जाता है

  • वह जो प्रकृति के अनुकूल चल रहा है उसे मौत से भय नहीं होता

  • मौत एक ऐसा परम सत्य है जिसको कोई नहीं नक्कार सकता

  • परमात्मा है , ऐसा कहना विवाद रहित नहीं हो सकता

  • लेकिन मौत है , ऐसा कहना विवाद रहित जरुर है

  • वह जो मौत से दूर भागता है,मौत से उतना नजदीक होता जाता है

  • तन की मौत तो सबकी होती है

  • लेकिन मन की मौत होना असंभव है

  • गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , इंद्रियों में मन मैं हूँ "

  • मन एक माध्यम है जो एक तरफ अमरत्व से जुड़ा है और दूसरी तरफ मौत से

  • मन का जो गुलाम है वह मौत से दूर नहीं रह सकता

  • वह जिसके इशारे पर उसका मन चलता हो उसकी मित्रता मौत से होती है

  • भोगी मौत का बैरी है और योगी मित्र

  • प्रभु में डूबा हुआ योगी मौत को देख सकता है जैसे जुन्नैद

===== ओम्======




Tuesday, April 17, 2012

जीवन दर्शन 43

  • न हम किसी को हसते देख सकते हैं और न रोते

  • आखिर हम किसी को कैसा देखना चाहते हैं ?

  • हसने और रोने के मध्य की स्थिति को क्य समभाव नहीं कह सकते?

  • क्या गीता का मूल आधार समभाव नहीं?

  • जब हम किसी को हसते देखते हैं तब तुरंत पूछते हैं , “ भाई क्या बात है बहुत हस रहे हो ? “

  • जब हम किसी को रोते देखते हैं तब भी कारण जानना चाहते हैं , क्यों ?

  • कारण जाननें से हमें क्या मिलता है?

  • जो हसता है उसके पीछे कोई कारण होता है

  • जो रोता है उसके पीछे भी कोई कारण होता है

  • जो उसके हसने - रोने के करण को जानना चाहता है उसके जानने के पीछे भी कोई कारण होता है

  • क्या कारण रहित रोना नहीं हो सकता?

  • क्या कारण रहित हसना नहीं हो सकता?

  • जिस हसी के पीछे कोई गहरा कारण होता है वहाँ अहँकार भी होता है

  • जिस रोने के पीछे जितना गहरा कारण होगा वहाँ उतना गहरा मोह हो सकता है

  • मोह में नकारात्मक अहँकार होता है

  • वह हसी जिसमें अहँकार न हो और भोग तत्त्वों की छाया न हो,परम से जोड़ती है

  • कारण रहित रोना सत् से जोड़ता है

  • हमें लोगों की इतनी गहरी चिंता क्यों रहती है?

  • हम कब और कैसे स्व पर केंद्रित हो सकेंगे?

  • ध्यान एक मार्ग है जहाँ न हसी है , न रुदन और उससे जो निकलता है वह सब का आदि है

  • सकारण ध्यान ध्यान नहीं,दिखावा होता है

  • ध्यान से मनुष्य स्वयं को पहचाननें लगता है

  • स्व की पहचान में परमेश्वर बसता है

==== ओम्=======





Sunday, April 15, 2012

जीवन दर्शन 42

  • मुह से चुप होना अति सरल है और मन से चुप होना साधना है

  • मुह से चुप होते ही मन की रफ्तार तेज हो जाती है

  • मुह से मौन रहनें का अभ्यास मन से मौन रहनें की स्थिति में पहुंचा सकता है

  • मुह से चुप रहनें की आदत डालनें से मनोविज्ञान बदलता है

  • मनोविज्ञान में आ रहे बदलाव को गंभीरता से समझने की जरुरत होती है

  • यदि अहँकार मुह से मौन बना रहा हो तो इसे समझिए ; यह खतरनाक स्थिति में ले जा सकता है

  • लोग कभीं कभी मौन रहनें का व्रत लेते हैं , यह अभ्यास – योग का एक चरण है

  • जब आप मौन व्रत में हों तब स्वयं को निहारते रहिये

  • हठात इंद्रियों को रोकना अहंकारी बना सकता है

  • इंद्रियों की मित्रता परम सत्य का द्वार खोल सकती है

  • मौन होना अर्थात शब्द रहित होना

  • शब्द रहित होना अर्थात भाव रहित होना

  • और भावातीत की स्थिति ही ब्रह्म की स्थिति है

  • ब्रह्म की अनुभूति जब घटित होती है उस काल में वह साधक स्वयं ब्रह्म हो गया होता है

  • भावातीत की स्थिति में साधक समाधि में पहुंचा होता है

    और

  • वह संसार का द्रष्टा होता है

==== ओम्======




Friday, April 13, 2012

जीवन दर्शन - 41

योगी,ज्ञानी,संन्यासी,वैरागी,कर्म – योगी,सांख्य – योगी,भक्त ये सब एक के संबोधन हैं

वह योगी है जिसका बसेरा भोग संसार में नहीं प्रभु में होता है

योगी भोग का द्रष्टा होता है

योग का मार्ग भोग से गुजरता है

भोग में उठा होश ही योग है

योगी बुद्धि स्तर पर बनना अति आसान पर ह्रदय से योगी होना प्रभु का प्रसाद है

योग का अर्थ है ब्यक्ति विशेष की चेतना का परम चेतना से जुडना

तन स्तर पर जो योग होते हैं वे तन साधना के उपाय भर हैं

तन साधना से मन साधना संभव है लेकिन तन साधना में अहँकार भी साथ साथ सघन होता रहता है

तन साधना स्थिर-प्रज्ञ बना सकती है अगर कहीं किसी स्तर पर साधना में अहंकार का प्रवेश

न हो तब

साधना से ह्रदय का कपाट खुलता है और बुद्धि परम सत्य का द्रष्टा बनी रहती है

ह्रदय के कपाट के खुलनें से संसार का रहस्य दिखता है

ह्रदय साधना का नाभिकेंद्र है ; जहाँ प्रभु - आत्मा का निवास होता है

ह्रदय चक्र जब खुलता है तब स्व का बोध होता है,स्व का बोध तत्त्व – वित् बनाता है

तत्त्व वित् आत्मा से आत्मा में समभाव में जहाँ होता है वहीं परमात्मा होता है

तत्त्व – वित् हजारों साल बाद कभीं कभीं बुद्ध – महाबीर जैसे अवतरित होते हैं

तत्त्व – वित् पंथ का निर्माण नहीं करते , देह स्तर पर उनके जानें के बाद बुद्धि जीवी मार्ग का निर्माण करते हैं और उस मार्ग का ब्यापार चलाते रहते हैं /


====ओम्=======


Wednesday, April 11, 2012

जीवन दर्शन 40

न हसना बुरा है न रोना

न न रोना बुरा,न न हसना

अच्छा और बुरा की सोच गुण प्रभावित बुद्धि की उपज है

गुण प्रभावित बुद्धि पर सत् का प्रतिबिम्ब नहीं बनता

निर्विकार बुद्धि में सत्य के अलावा और कुछ नहीं होता

हंसी और रोना दोनों एक जगह पहुंचाते हैं

हसना और रोना दो अलग – अलग मार्ग दिखते हैं लेकिन ऐसा है नहीं

हसना और रोना एक ऊर्जा के दो रूप हैं भौतिक स्तर पर मात्र

हसना और रोना दो अलग – अलग भाव हैं

भाव भावातीत से हैं

भावातीत और कोई नहीं परमात्मा है

भाव से भाव की उत्पत्ति कैसे संभव है ?

गीता कहता है-----

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः गीता - 2.16

====ओम्=====


Monday, April 9, 2012

जीवन दर्शन - 39

जानना होनें की पौधशाला है

होना अर्थात प्रकृति के रहस्यों में बसना

प्रकृति के दिल की धडकन वह सुनता है जो होश मय होता है

बुद्धि स्तर पर जाननें में अहँकार हो सकता है

बुद्धि स्तर की समझ संदेह मुक्त नहीं भी हो सकती

बुद्धि स्तर पर जानना जब ह्रदय में पहुँचता है तब होश उठता है

ह्रदय की अनुभूति में संदेह का होना संभव नहीं

बुद्धि स्तर की समझ दो पर आधारित होती है

जहाँ एक के दो विकल्प हों वहाँ संदेह का होना अनिवार्य होता है

संदेह जब श्रद्धा में बदलता है तब बुद्धि की सोच ह्रदय में पहुंचती है

श्रद्धा परम सत्य का द्वार है

श्रद्धा और संदेह दोनों एक साथ एक बुद्धि में नहीं रह सकते

संदेह से विज्ञान और श्रद्धा से परमात्मा का रहस्य उजागर होते हैं

भक्ति का प्रारम्भ श्रद्धा से है

विज्ञान का प्रारम्भ संदेह से होता है

जितना गहरा संदेह होगा उतनी गहरी विज्ञान की बात निकल सकती है

श्रद्धा की गहराई में प्रभु बसता है


======ओम्=========