बुद्धि से उपजी बात को प्रकट करनें के एक नहीं अनेक ढंग हैं
ह्रदय में उपज रही बात को प्रकट करनें का कोई ढंग नहीं
बुद्धि की बात को लोग सुनते से दिखते हैं और उसमें अपनें स्वार्थ की बात खोजते रहते हैं
ह्रदय की बात कहनें - सुननें की नहीं यह तो एक धारा है जो इसमें उतरा , बह गया
ह्रदय के भाव को जो भाषा में ढालना चाहा दुखी हुआ
मीरा को भी कहना ही पड़ा,अब मैं नाचैव बहुत गोपाल
आप मंदिर जा रहे हैं ? क्या कुछ देना है ? या कुछ लेना है ? इस बात को भी सोचना
जो आप देनें के लिए अपनें पास रखे हैं उसको देखना और जो पाना चाहते हैं उसको देखना
एक कौडी दे कर सम्राट बनना चाहते हो?
मनुष्य क्यों प्रभु को इतना बेवकूफ समझता है ?
मनुष्य प्रभु को भी क्यों धोखा देता रहता है?
इस पृथ्वी पर प्रभु के नाम का जितना फैला हुआ ब्यापार है उतना और किसी बस्तु का नहीं
पुरानें मंदिर पृथ्वी में समा रहे हैं और नये सर उठाये ऊपर उठ रहे हैं
नये मंदिर पुरानों को क्यों नही देखते?
एक तरफ लोग नयी मूर्तियों की रचना में लगे हैं और दूसरी तरफ लोग पुरानी मूर्तियों की तस्करी कर रहे हैं
एक तरफ कुछ लोग मंदिरों के आकार प्रकार को नया रूप दे रहे हैं और दूसरी तरफ कुछ लोग शास्त्रों को रूपांतरित करने में लगे हुए हैं
मनुष्य धर्म – कर्म सब को बदल रहा है लेकिंन स्वयं को?
===== ओम् ======
Thursday, May 10, 2012
जीवन दर्शन 48
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