Tuesday, November 29, 2022

उद्धव की ब्रज यात्रा , गोपियों से वार्ता और भ्रमर गीत भागवत आधारित

उद्धवजी कौन हैं ? 👍ब्रह्मा पुत्र ऋषि अंगिरा के पुत्र एवं देवताओं के पुरोहित बृहस्पति जी के शिष्य हैं , उद्धव जी। बृहस्पतिजीकी पत्नी तारा और ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र चन्द्रमा से बुध का जन्म होता है । बुध से त्रेतायुग के प्रारम्भ में पुरुरवा का जन्म होता है । पुरुरवा से चंद्र बंश प्रारम्भ होता है । इस कुल में 28 वे द्वापर के अंत में प्रभु श्री कृष्ण और बलराम जी का जन्म होता है । 👍उद्धव जी वृष्णि बंशी हैं और कृष्ण से उम्रमें बड़े हैं । कृष्ण अवतार पूर्व उद्धवजी जब 05 वर्ष के थे , कृष्ण की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाया करते थे । √ 👍उद्धवजी जब बृहस्पति जी से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब बृहस्पति बता दिए थे कि निकट भविष्यमें तुम्हाते ही कुल में कृष्ण अवतार होने वाला है । तुम शौभाग्यशाली हो कि तुमको उनके संग रहने का सुअवसर मिलेगा ।√ 👌 उद्धव जी जो निर्गुण , निराकार उपासक हैं , कृष्ण के मथुरा के साथी और परम मित्र एवं सलाहकार हैं । देखने में उद्धब कृष्ण जैसे ही दिखते भी हैं । उद्धव जी की स्मृति में गुरु बृहस्पति जी की यह बात कि कृष्ण जो तुम्हारे कुल में अवतरित होनेवाले हैं वे परम् ब्रह्म हैं , हर पल बनी रहती है अतः अपने मित्र एवं सखा , साकार - सगुण कृष्ण में निराकार - निर्गुण परब्रह्म दिखते रहते हैं । उद्धवकी ब्रज यात्रा कान्हा जी उद्धव को संबोधित करते हुए कहते हैं , उद्धव भैया ! आप ब्रज जाओ , वहाँ मेरे पिता - माता ; नंदबाबा और यशोदा मैया हैं । इस समय मेरी अनुपस्थिति के कारण वे दुःखी हैं । आप अपनें ब्रह्म - ज्ञान से उन्हें मोह बंधन स्व मुक्त करा सकते हैं । दूसरी तरफ ब्रज की गोपियाँ मेरे विरह –पीड़ा में डूबी हुई हैं । तुम उन्हें भी अपनें ब्रह्म - ज्ञान एवं मेरा सन्देश सुनाकर वेदनामुक्त कर सकते हैं । गोपियाँ मुझे अपनी आत्मा समझती हैं । मैं अक्रूरजी के संग मथुरा आते समय उन सबको कहा था कि मैं अपना कार्य पूरा करके लौट आऊंगा लेकिन यह अभीं संभव नहीं दिख रहा । इस समय उन्हें मेरा यह दिया गया बचन ही उनके जीने का आधार बना हुआ है । वे केवल इस लिए जी रही हैं कि एक दिन मैं उनसे मिलने ब्रज अवश्य आऊँगा । प्रातः काल में उद्धव जी कान्हा का सन्देश ले कर अपनें स्वर्ण रथ से गोकुल से ब्रज की यात्रा करते हैं और सायंकाल गोधूलि के समय नन्द बाबा के घर पहुंचते हैं । यहाँ आप समझ सकते हैं कि मथुरा से गोकुल की दूरी क्या रही होगी जबकि वर्तमान में यह दूरी लगभग 10 किलो मीटर है । उद्धव जी की नन्द बाबा - माँ यशोदा के संग ब्रज की पहली रात.. नन्द बाबा वार्ता प्रारम्भ करते हुए कहते हैं , कृष्ण कभी हम सबको स्मरण करते हैं ? यशोदा जी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - यह , उनकी माँ हैं जो हर पल अपने कान्हा की स्मृति में डूबी रहती हैं । कान्हा के स्वजन संबंधी , सखा और अन्य ब्रज बासी उनको अपना स्वामी और सर्वस्व मानते हैं और उनकी स्मृति से बहार निकलना नहीं चाहते । क्या कान्हा वहाँ मथुरा में ब्रज की गौओं को , वृन्दाबन और गिरिराज को कभीं स्मरण करते हैं ? आप यह तो बताइए कि क्या हमारे गोविंद अपने सुहृद - बांधवों को देखने के लिए एक बार भी यहाँ आएंगे ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम सब उनकी सुघड़ नासिका , मधुर हास्य , और मनोहर चितवन से युक्त मुख - कमल देख तो लेते ! कान्हा एक बार नहीं अनेक बार हम सबकी रक्षा की है । उद्धवजी ! उनका हृदय उदार और शक्ति अनंत है । इस प्रकार नन्द बाबा सारी रात कृष्णकी सारी लीलाओं को सुनाते रहे । उद्धवजी ! अब हम सब उनकी स्मृतियों में इतने तन्मय रहते हैं कि हम सबसे कोई काम - काज होता ही नहीं । जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है जिसमें कृष्ण जल - क्रीड़ा करते थे , यह वही गिरिराज है जिसे कृष्ण 7 वर्ष की उम्र में इंद्र कोप के कारण अति बृष्टि से हम सब ब्रज बासियों की रक्षा करने हेतु अपनी एक उंगली पर 07 दिन उठाये रखे थे , यह वही वन प्रदेश हैं जहाँ कृष्ण गौएँ चराते हुए बासुरी बजाया करते थे , और ये वे ही स्थान हैं , जहाँ वे अपने मित्रों के साथ अनेकों प्रकारके खेल खेला करते थे , तब उनकी स्मृतियों में हम ब्रज बासी खो जाया करते हैं । उद्धव जी ! आपको आश्चय होगा यह देख कर कि कान्हा के पैरों के निशान आज भी ब्रज की धरती पर वैसे ही पड़े हैं जैसे मानों कान्हा आज ही यहाँ चले हों और इन चिन्हों को देखने से हम सब का मन कृष्णमय बना रहता है । निःसंदेह हम बलराम - कृष्णको देवशिरोमणि मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यहाँ देवताओं के बहुत बड़े प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु अवतरित हुए हैं , स्वयं गर्गाचार्य जी मुझे यह बात बताई थी । रात भर नंदबाबा उद्धव जी को कान्हा की बाल लीलाओं को सुनाते रहे और वहाँ माँ यशोदा जी पूर्ण शांत भाव में बातें सुनती रही । बाल लीलाओं को सुनते हुए माँ के आंसू टपक रहे थे । माँ यशोदा और नंदबाबा के कृष्ण अनुराग को देखते हुए उद्धव जी कहते हैं , इसमें कोई संदेह नहीं कि आप दोनों जीवधारियों में परम् भाग्यवान हैं । कृष्ण तो परम् ब्रह्म परमात्मा है , सबका आदि , मध्य और अंत हैं और समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए है । उसके प्रति आप दोनों का वात्सल्य भाव - पुत्र भाव का होना , आप दोनों को भाग्यवान बनाता है । जो जीव अपने अंत समय में शुद्ध मन से कृष्ण पर केंद्रित हो जाता है , वह परमगति को प्राप्त करता है । √ कान्हा भगवान् हैं ; जो भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करते हैं , जो सबकी आत्मा हैं और जो इस समय मनुष्य देह धारण करके पृथ्वी का भार उतारने हेतु हम सबके मध्य लीलाएँ कर रहे हैं । उद्धवजी आगे कहते हैं , कंस बध के ठीक बाद , वे आप दोनों एवं अन्य ग्वालों को मथुरा से ब्रज लौटने को कहे थे और यह भी कहे थे की मैं यहाँ मथुरा में अपना कार्य पूरा करके शीघ्र ही आप सब से मिलने ब्रज आऊँगा अतः वे निकट भविष्य में आप सबसे मिलने के लिए यहाँ आनेवाले हैं । अब कुछ ही दिनों की ही तो बात है , जब कान्हा आप सबके मध्य होंगे और आप सब को आनंदित करेंगे । उनका कोई प्रिय - अप्रिय नहीं । वे सबमें और सबके प्रति समान हैं । उनकी दृष्टि में कोई न तो उत्तम है और न कोई अधम । उनकी कोई माता नहीं , पिता नहीं , पत्नी नहीं और कोई पुत्र नहीं । न कोई अपना है न पराया है । वे देह रहित , जन्म - मृत्यु से परे हैं । प्रभु तो अजन्मा हैं , निर्गुण हैं , गुणातीत होते हुए भी लीला के लिए खेल - खेल में गुणों को स्वीकारते हैं । कर्म करता तो गुण हैं पर अहँकार के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को करता समझता रहता है । संपूर्ण ब्रह्मांड की सूचनाएं उन्ही से तो हैं ! बातों - बातों में रात सरक गयी और सूर्योदय होने को है । कुछ गोपियों को नंद बाबा के द्वार पर एक स्वर्ण रथ दिखाई देता है । वे आपस में उस रथ के संबंध में एक दूसरे से पूछती हैं । एक कहती है , हो न हो वह अक्रूर ही क्यों न हो ! वे आपस में इस प्रकार बातें कर ही रही थी कि उद्धव जी नंद द्वार पर खड़े उन्हें दिख गए । उद्धव - गोपियों की बातचीत और भ्रमर गीत गोपियाँ यह देख कर विस्मृत हो गयी कि इस व्यक्ति की आकृति - भेषभूसा कान्हा से मिलती - जुलती है ; घुटनो तक लंबी भुजाएँ , नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र शरीर पर पीताम्बर गले में कमल पुष्प माला धारण किये हुए , कानों में मणि जटित कुंडल झलक रहे हैं । गोपियाँ कहती है , यह पुरुष तो कान्हा जैसा ही दिखता है , आखिर है , कौन ? कहाँ से आया होगा ! इस उत्सुकता में गोपियाँ उन्हें घेर लेती हैं । जब गोपियों को पता चला कि ये कान्हा के दूत हैं और कान्हा के सन्देश को लाये हैं तब सभी गोपियाँ विनम्र भाव में उनका सत्कार करती हैं , एकांत में उद्धव को बैठा कर उनसे बाते करती हैं । उद्धवजी ! ऐसा पता चला है कि आप कान्हा के पार्षद हैं और उनका कोई संदेश ले कर आप यहां पधारे हैं । गोपियाँ उद्धव से बात करते - करते कान्हा की स्मृति में सुध -बुध खो बैठती हैं । भ्रमर का आगमन >कान्हा के बचपन की लीलाओंका गुणगान करती - करती गोपियाँ कृष्ण प्रेम में डूब जाती हैं। एक गोपिका के पैरों के चारों तरफ एक भौरा गुनगुनाते हुए चक्कर लगाते हुए दिख पड़ता है । वह गोपिका सोचती है , हो सकता है कान्हा मुझे रूठी हुई समझकर मुझे मनाने हेतु भौरे के रूप में कोई दूत भेजा हो ! वह गोपी भौरे से कहती है - रे मधुप ! तूँ कपटी का सखा है , तूँ हमारे पैरों को न छू । तुम्हारा और कान्हा का रंग एक सा है । जैसे तूँ पुष्प - रस ले कर उड़ जाया करता है , पुष्पों से प्यार नहीं करता वैसे ही तेरा मित्र भी है । अरे भ्रमर ! हम तो ठहरी वनवासिनी , हमारे पास तो घर - द्वार भी नहीं है । तूँ हम सबके सामने यदुबंश शिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत - सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब हम सबको मनानेके लिए ही तो है ? परंतु नहीं - नहीं , वे हमारे लिए कोई नए नहीं हैं , हमारे लिए तो जाने पहचाने पुराने हैं । तेरी चापलूसी हम सबके सामने नहीं चलेगी , तूँ यहाँ से चला जा । तूँ कान्हा की मथुरा की सहेलियों के सामने जा कर उनका गुणगान कर , वे नयी हैं , कान्हा की लीलाओं के परिचित कम हैं और इस समय वे कृष्ण की प्यारी भी हैं । कान्हा उनके हृदय की पीड़ा को मिटा चुके हैं अब वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी । तुम्हारी चापलूसी से प्रसन्न हो कर तुम्हें मुहमागा पुरस्कार भी देंगी । भौरे! तूँ ऐसा क्यों कह रहा है कि कान्हा हमारे लिए छटपटा रहे हैं ? त्रिलोक में ऐसी कौन सी स्त्री है जो उन्हें नहीं चाहती होगी ? स्वयं लक्ष्मी जी भी उनकी चरणरज की सेवा करती है फिर कान्हा के सामने हम वनवासिनियाँ किस गिनती में आती हैं । तूँ उनके पास जा कर कहना कि तुम्हारा नाम उत्तमश्लोक है । अच्छे - अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गुणगान करते हैं , परंतु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम हम दीनों पर दया करो , यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम्हारा उत्तमश्लोक नाम झूठा पड़ जायेगा । अरे मधुप ! तुम मेरे पैरों पर अपना सिर मत टेक । में जानती हूँ कि तुम अनुनय - विनय करने में क्षमा - याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है , तुम कान्हा से ही यह सब सीखा है कि रूठे को कैसे मनाया जाता है ? पूरा प्रशिक्षण दे कर श्री कृष्ण तुमको यहाँ भेजा है । तुम इतना समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेवाली । तूँ हमें देख , हमने कान्हा के लिए ही अपनें पति , पुत्र - पुत्रियाँ एवं परिवार का त्याग कर रखा है ! लेकिन वह कान्हा निर्मोही हमें त्याग कर मथुरा चला गया । रे मधुप ! जब वे राम बने थे , तब कपिराज बालि को छिप कर बड़ी निर्दयता से मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामबश उनके पास आई थी और वे अपनी स्त्री के बश में हो कर उसके नाक - कान काट दिए थे । हमें कान्हा क्या किसी भी कालू वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । अब तुम कहोगे की फिर तुमलोक उसे क्यों चाहती हो , क्यों नहीं छोड़ देती ? तो सुन ! एक बार जो उसका हो गया , वह उसे नहीं छोड़ सकता ।जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली - भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उनके जाल में फँस कर मारी जाती हैं वैसे हम भोली - भाली गोपियाँ भी उस छलिये कृष्ण की कपतभरी मीठी - मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य समान मान बैठीं और उससे बध गयी । रे भौरे ! अब तुम इस विषय पर आगे और कुछ न कह । उद्धव कहते हैं , अहो गोपियों ! तुम कृत्य - कृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । तुम पूजनीय हो । तुम सभीं प्रेमा भक्ति से वह सब पा लिया है जिसे बड़े - बड़े ऋषि - मुनि के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है । कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र , पति , देह , स्वजन और घरों को छोड़ कर पुरुषोत्तम कृष्ण को जो सबके परम् पति हैं , उन्हें अपने पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों ! कृष्ण वियोग से , तुम इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है जो सभीं बस्तुओं के रूप में उनका दर्शन करता है । उद्धव गोपियों को प्रभु का संदेश सुनाते हैं प्रभु श्री कृष्ण अपनें सन्देश में कह रहे हैं , " मैं सबका आत्मा हूँ और सबमें अनुगत हूँ , इसलिए मुझसे किसी का वियोग होना संभव नहीं । जैसे संसार की सभीं वस्तुओं में पांच भूतों की उपस्थिति है वैसे मैं मन , प्राण , पांच भूत , इन्द्रिय और बिषयों का आश्रय हूँ , वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ । मैं अपनी माया द्वारा भूतों , बिषयों और इंद्रियों आदि का आश्रय और उनका निमित्त भी बन जाता हूँ । आत्मा , माया और माया के कार्य से पृथक है । कोई गुण आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता ( गीता 14.5 : तीन गुण आत्मा को देह में बाध कर रखते हैं )। मनुष्य को इन्द्रिय बिषयों से आसक्त नहीं होना चाहिए ,भक्ति , तप , योग और ज्ञान का लक्ष्य है मेरी प्राप्ति । मैं तुम सबसे दूर इसलिए हूँ जिससे तुम सबका मन वियोग माध्यम से मुझसे जुड़ा रहे । गोपियाँ उद्धव की कृष्ण संदेश को सुनते - सुनते सविकल्प समाधि में उतर जाती हैं " गोपियाँ उद्धव द्वारा प्रभु के संदेश को सुनाने के बार कह रही हैं , उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइए कि जिस प्रकार हम सब उनके प्यार में डूबी रहती हैं , क्या वे भी हमसे इतना ही प्यार करते हैं और क्या हम जैसा कृष्ण प्यार मथुरा की स्त्रियों में भी है ? √√√ उद्धवजी ! क्या कभी कृष्ण उस रात्रि का स्मरण भी करते हैं जब वे हम सबके साथ वृन्दाबन में रास - महारास की लीला खेल रहे थे ? √√ उद्धवजी ! हम सब तो उनकी ही विरह की अग्नि में जल रहे है । इंद्र जैसे बन को जल बरसा कर हरा भरा करते हैं वैसे क्या कृष्ण अपनें स्पर्श से हमें जीवन दान देंगे ? √√√ गोपियों में से एक गोपी कह रही है , अरी सखी ! अब तो वे दुश्मन को मार कर राज्य पा लिए हैं । सभीं उनके सुदृढ़ बने हुए हैं । अब वे बड़े - बड़े नरपतियों की कुमारियों से ब्याह करेंगे , अब हम गँवारिनो के पाद क्यों आएंगे ?√√√ एक अन्य गोपी कह रही है , नहीं सखी , महात्मा कृष्ण तो स्वयं लक्ष्मी पति हैं हैं ग्वालिनों एवं अन्य राजकुमारियों से उनका क्या प्रयोजन ,? वे तो कामना मुक्त महात्मा हैं । गोपियाँ कह वही हैं , वेश्या पिंगला कहती है , संसार में किसी से आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है पर यह जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा को नहीं त्याग सकते ! हमारे प्यारे श्यामसुंदर हमसे एकांत में जो मीठी - मीठी प्रेम की बातें की हैं उन्हें छोड़ने का , भुलाने की बात हम सोच भी कैसे कर सकती हैं ! स्वयं। लक्ष्मी जी उनके अंग - अंग में लिपटी पड़ी हैं , उन्हें पल भर के लिये नहीं छोड़ती । √√√ गोपियाँ उद्धव को ब्रज दर्शन करा रही हैं और कह रही हैं , उद्धवजी ! यह वह नदी है जिसमे वे विहार करते थे । यह वह पर्वत है जिसके शिखर पर चढ़ कर वे बासुरी बजाते थे , वे ही ये बन हैं जिनमें रात्रि के समय रास लीला किये थे । ये वे गौएँ हैं जिनको चराने के लिए वे सुबह - शाम हम लोगों को देखते हुए जाते - आते थे । यहाँ के कण - कण पर उनके हस्ताक्षर हैं । उद्धव जी हम सबको क्या उन्हें भूलना संभव हो सकता है ? कान्हा की हँस जैसी चाल , उन्मुक्त हास्य , विलास पूर्ण चितवन , मधुमयी वाणी - आह ! उन सब ने हमारा चित चुरा लिया है । हमारे मन बश में नहीं फिर हम उन्हें कैसे भूलें ! उद्धव जी गोपियीं की विरह- व्यथा मिटाने हेतु वहाँ कई माह रहते हैं , और अकेले ब्रज भ्रमण करते हैं । प्रभु के परम् प्रिय उद्धव जी कभीं नदी तट पर जाते , कभीं बनो में विहरते और कभीं गिरिराज पर भ्रमण करते और कभीं फूलों से भरे वृक्षों में ही रम जाते । उद्धव गोपियों को ब्रह्म ज्ञान से प्रेमा भक्ति से मुक्त कराने मथुरा से ब्रज आये हुए हसीन लेकिन गोपियों की संगति से उनका ब्रह्म ज्ञान गोपियों के कृष्ण प्रेमाभक्ति में बदल जाता है ब्रज भूमि और कान्हा के पद चिह्नों को खोजते फिर रहे हैं । उद्धव कह रहे हैं , इस धरा पर केवल इन गोपियों के शरीर धारण करना ही सर्व श्रेष्ठ है क्योंकि ये सर्वात्मा प्रभु श्री कृष्ण के परम् प्रेममय दिव्य भाव में स्थित हैं । प्रेम की यह उच्चतम स्थिति सभी साधनाओं का परम् लक्ष्य है । कहाँ ये बनचरी आचार - ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानंद भगवन् श्री कृष्ण में यह उनका अनन्य प्रेम ! बुद्धि से नहीं हृदय से कृष्ण के परम् विधुद्ध प्रेम - रस टपकता है। मेरे लिए तो सबसे उत्तम बात यही होगी कि मैं इस वृन्दाबन में कोई झाड़ी , कोई औषधि , कोई जड़ी - बूटी और कोई लता ही बन जाऊँ । अहा ! यदि ऐसा संभव हुआ तो मुझे इन व्रजांगनाओं की चरण धूलि निरंतर सेवन करने हेतु मिलती रहेगी । धन्य हैं , ये गोपियाँ । ज्ञानयोग साधना में जब बुद्धि हृदय में लीन हो जाती है तब गोपियों जैसी प्रेमा भक्ति हृदय में अंकुरित होती है । ज्ञान योग , कर्म योग अथवा साधना के अन्य श्रोतों का प्रारम्भ तो बुद्धि आधारित होता है जिसे अपरा साधना कहते हैं । जब अपरा साधना गहराती है तब बुद्धि हृदय में ऐसे अपनें को लीन कर लेती है जैसे सागर में गंगा स्वयं को लीन कर लेती हैं और यहाँ से परा साधना प्रारम्भ हो कर कैवल्य में पहुँचाती है । परा अर्थात जिसे मन सहित 11 इंद्रियों और बुद्धि - अहँकार के पकड़ना संभव न हो । कई माह ब्रजमें रह करअब उद्धव मथुरा लौट रहे हैं उद्धव जी गोपियों , ग्वालों , नंदबाब और माँ यशोदा को प्रणाम करके मथुरा लौटने की आज्ञा प्राप्त करते हैं । जब उद्धव आये थे तब ब्रह्म ज्ञानी थे और जब कई माह ब्रज में रहने के बाद लेत रहे हैं तब भक्त उद्धव बन कर लौट रहे हैं । माँ यशोदा तो चुप थी लेकिन अपनें आंसू को छिपा नहीं पा रही थी पर नन्द बाबा , कृष्ण के प्रेमी ग्वाले एवं गोपियाँ कहती हैं , उद्धवजी ! हमें मोक्ष की चाह नहीं , हम सदैव कृष्ण - भक्ति में डूबे रहना चाहते हैं । उद्धवजी मथुरा लौट आते हैं और प्रभु श्री को प्रणाम करके ब्रज निवासियों की कृष्ण - भक्ति को स्पष्ट करना चाहते हैं , पर कर नहीं पाते , उनका गला भर रहा होता है और अपनी आंसू से अपनें ब्रज अनुभव को व्यक्त करते हैं । ~~ ॐ इति ~~ ब्रह्मा पुत्र ऋषि अंगिरा के पुत्र एवं देवताओं के पुरोहित बृहस्पति जी के शिष्य हैं , उद्धव जी। बृहस्पतिजीकी पत्नी तारा और ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र चन्द्रमा से बुध का जन्म होता है । बुध से त्रेतायुग के प्रारम्भ में पुरुरवा का जन्म होता है । पुरुरवा से चंद्र बंश प्रारम्भ होता है । इस कुल में 28 वे द्वापर के अंत में प्रभु श्री कृष्ण और बलराम जी का जन्म होता है । 

👍उद्धव जी वृष्णि बंशी हैं और कृष्ण से उम्रमें बड़े हैं । कृष्ण अवतार पूर्व उद्धवजी जब 05 वर्ष  के थे , कृष्ण की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाया करते थे । √

👍उद्धवजी जब बृहस्पति जी से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब बृहस्पति बता दिए थे कि  निकट भविष्यमें तुम्हाते ही कुल में कृष्ण अवतार होने वाला है । तुम शौभाग्यशाली हो कि तुमको उनके संग रहने का सुअवसर मिलेगा  ।√

👌 उद्धव जी जो निर्गुण , निराकार उपासक हैं , कृष्ण के मथुरा के साथी और परम मित्र एवं सलाहकार हैं । देखने में उद्धब कृष्ण जैसे ही दिखते भी हैं । उद्धव जी की स्मृति में गुरु बृहस्पति जी की यह बात कि कृष्ण जो तुम्हारे कुल में अवतरित होनेवाले हैं वे परम् ब्रह्म हैं , हर पल बनी रहती है अतः अपने मित्र एवं सखा , साकार - सगुण कृष्ण में निराकार - निर्गुण परब्रह्म दिखते रहते हैं । 

उद्धवकी ब्रज यात्रा

कान्हा जी उद्धव को संबोधित करते हुए कहते हैं , उद्धव 

भैया ! आप ब्रज जाओ , वहाँ मेरे पिता - माता ; नंदबाबा और यशोदा मैया हैं । इस समय मेरी अनुपस्थिति के कारण वे दुःखी हैं । आप अपनें ब्रह्म - ज्ञान से उन्हें मोह बंधन स्व मुक्त करा सकते हैं । दूसरी तरफ ब्रज की गोपियाँ मेरे विरह –पीड़ा में डूबी हुई हैं । तुम उन्हें भी अपनें ब्रह्म - ज्ञान एवं मेरा सन्देश सुनाकर वेदनामुक्त कर सकते हैं । गोपियाँ मुझे  अपनी आत्मा समझती हैं । मैं अक्रूरजी के संग मथुरा आते समय उन सबको कहा था कि मैं अपना कार्य पूरा करके लौट आऊंगा लेकिन यह अभीं संभव नहीं दिख रहा । इस समय उन्हें मेरा यह दिया गया बचन ही उनके जीने का आधार बना हुआ है । वे केवल इस लिए जी रही हैं कि एक दिन मैं उनसे मिलने ब्रज अवश्य आऊँगा । 

प्रातः काल में उद्धव जी कान्हा का सन्देश ले कर अपनें स्वर्ण रथ से गोकुल से ब्रज की यात्रा करते हैं और सायंकाल गोधूलि के समय नन्द बाबा के घर पहुंचते हैं । यहाँ आप समझ सकते हैं कि मथुरा से गोकुल की दूरी क्या रही होगी जबकि वर्तमान में यह दूरी लगभग 10 किलो मीटर है ।

उद्धव जी की  नन्द बाबा - माँ यशोदा के संग ब्रज की पहली रात..

नन्द बाबा वार्ता प्रारम्भ करते हुए कहते हैं , कृष्ण कभी हम सबको स्मरण  करते हैं ? यशोदा जी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं - यह , उनकी माँ हैं जो हर पल अपने कान्हा की स्मृति में डूबी रहती हैं । कान्हा के  स्वजन संबंधी , सखा और अन्य ब्रज बासी उनको अपना स्वामी और सर्वस्व मानते हैं और उनकी स्मृति से बहार निकलना नहीं चाहते । क्या कान्हा वहाँ मथुरा में ब्रज की गौओं को , वृन्दाबन और गिरिराज को कभीं स्मरण करते हैं ? 

आप यह तो बताइए कि क्या हमारे गोविंद अपने सुहृद - बांधवों को देखने के लिए एक बार भी यहाँ आएंगे ?

 यदि वे यहाँ आ जाते तो हम सब उनकी सुघड़ नासिका , मधुर हास्य , और मनोहर चितवन से युक्त मुख - कमल देख तो लेते ! कान्हा एक बार नहीं अनेक बार हम सबकी रक्षा की है । उद्धवजी ! उनका हृदय उदार और शक्ति अनंत है ।

इस प्रकार नन्द बाबा सारी रात कृष्णकी सारी लीलाओं को सुनाते रहे । 

उद्धवजी ! अब हम सब उनकी स्मृतियों में इतने तन्मय रहते हैं कि हम सबसे कोई काम - काज होता ही नहीं ।

जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है जिसमें कृष्ण जल - क्रीड़ा करते थे , यह वही गिरिराज है जिसे कृष्ण 7 वर्ष की उम्र में इंद्र कोप के कारण अति बृष्टि से हम सब ब्रज बासियों की रक्षा करने हेतु अपनी एक उंगली पर  07 दिन उठाये रखे थे , यह वही वन प्रदेश हैं जहाँ कृष्ण गौएँ चराते हुए बासुरी बजाया करते थे , और ये वे ही स्थान हैं , जहाँ वे अपने मित्रों के साथ अनेकों प्रकारके खेल खेला करते थे , तब उनकी स्मृतियों में हम ब्रज बासी खो जाया करते हैं । उद्धव जी ! आपको आश्चय होगा यह देख कर कि कान्हा के पैरों के निशान आज भी ब्रज की धरती पर वैसे ही पड़े हैं जैसे मानों कान्हा आज ही यहाँ चले हों और इन चिन्हों को देखने से  हम सब का  मन कृष्णमय बना रहता है । 

निःसंदेह हम बलराम - कृष्णको देवशिरोमणि मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यहाँ देवताओं के बहुत बड़े प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु अवतरित हुए हैं , स्वयं गर्गाचार्य जी मुझे यह बात बताई थी । रात भर नंदबाबा उद्धव जी को कान्हा की बाल लीलाओं को सुनाते रहे और वहाँ माँ यशोदा जी पूर्ण शांत भाव में बातें सुनती रही । बाल लीलाओं को सुनते हुए माँ के आंसू टपक रहे थे ।

माँ यशोदा और नंदबाबा के कृष्ण अनुराग को देखते हुए उद्धव जी कहते हैं , इसमें कोई संदेह नहीं कि आप दोनों जीवधारियों में परम् भाग्यवान हैं । कृष्ण तो परम् ब्रह्म परमात्मा है , सबका आदि , मध्य और अंत हैं और समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए है । उसके प्रति आप दोनों का वात्सल्य भाव - पुत्र भाव का होना , आप दोनों को भाग्यवान बनाता है । 

जो जीव अपने अंत समय में  शुद्ध मन से कृष्ण  पर केंद्रित हो जाता है , वह परमगति को प्राप्त करता है । √

 कान्हा भगवान् हैं ; जो भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करते हैं , जो सबकी आत्मा हैं और जो इस समय मनुष्य देह धारण करके पृथ्वी का भार उतारने हेतु हम सबके मध्य लीलाएँ कर रहे हैं । उद्धवजी आगे कहते हैं , कंस बध के ठीक बाद , वे आप दोनों एवं अन्य ग्वालों को मथुरा से ब्रज लौटने को कहे थे और यह भी कहे थे की मैं यहाँ मथुरा में अपना कार्य पूरा करके  शीघ्र ही आप सब से मिलने ब्रज आऊँगा अतः वे 

निकट भविष्य में आप  सबसे मिलने के लिए यहाँ आनेवाले 

हैं । अब कुछ ही दिनों की ही तो बात है , जब कान्हा आप सबके मध्य होंगे और आप सब को आनंदित करेंगे ।

उनका कोई प्रिय - अप्रिय नहीं । वे सबमें और सबके प्रति समान हैं । उनकी दृष्टि में कोई न तो उत्तम है और न कोई अधम । उनकी कोई माता नहीं , पिता नहीं , पत्नी नहीं और कोई पुत्र नहीं । न कोई अपना है न पराया है । वे देह रहित , जन्म - मृत्यु से परे हैं ।  प्रभु तो अजन्मा हैं , निर्गुण हैं , गुणातीत होते हुए भी लीला के लिए खेल - खेल में गुणों को स्वीकारते हैं । कर्म करता तो गुण हैं पर अहँकार के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को करता समझता रहता है । 

संपूर्ण ब्रह्मांड की सूचनाएं उन्ही से तो हैं ! बातों - बातों में रात सरक गयी और सूर्योदय होने को है । 

कुछ गोपियों को  नंद बाबा के द्वार पर एक स्वर्ण रथ दिखाई देता है । वे आपस में उस रथ के संबंध में एक दूसरे से पूछती हैं । एक कहती है , हो न हो वह अक्रूर ही क्यों न हो ! वे आपस में इस प्रकार बातें कर ही रही थी कि उद्धव जी नंद द्वार पर खड़े उन्हें दिख गए । 

उद्धव - गोपियों की बातचीत और भ्रमर गीत

गोपियाँ यह देख कर विस्मृत हो गयी कि इस व्यक्ति की आकृति - भेषभूसा कान्हा से मिलती - जुलती है ; घुटनो तक लंबी भुजाएँ , नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र शरीर पर पीताम्बर गले में कमल पुष्प माला धारण किये हुए , कानों में मणि जटित कुंडल झलक रहे हैं । 

गोपियाँ कहती है , यह पुरुष तो कान्हा जैसा ही दिखता है , आखिर है , कौन ? कहाँ से आया होगा ! इस उत्सुकता में गोपियाँ उन्हें घेर लेती  हैं । 

जब गोपियों को पता चला कि ये कान्हा के  दूत हैं और कान्हा के सन्देश को लाये हैं  तब सभी गोपियाँ विनम्र भाव में उनका सत्कार करती हैं , एकांत में उद्धव को बैठा कर उनसे बाते करती हैं ।

उद्धवजी ! ऐसा पता चला है कि आप कान्हा के पार्षद हैं और उनका कोई संदेश ले कर आप यहां पधारे हैं । गोपियाँ उद्धव से बात करते - करते कान्हा की स्मृति में सुध -बुध खो बैठती हैं । 

भ्रमर का आगमन >कान्हा के बचपन की लीलाओंका गुणगान करती - करती गोपियाँ कृष्ण प्रेम में डूब जाती हैं। एक गोपिका के पैरों के चारों तरफ एक भौरा गुनगुनाते हुए चक्कर लगाते हुए दिख पड़ता है । वह गोपिका सोचती है , हो सकता है कान्हा मुझे रूठी हुई समझकर मुझे मनाने हेतु भौरे के रूप में कोई दूत भेजा हो ! 

वह गोपी भौरे से कहती है - रे मधुप ! तूँ कपटी का सखा है , तूँ हमारे पैरों को न छू । तुम्हारा और कान्हा का रंग एक सा है । जैसे तूँ पुष्प - रस ले कर उड़ जाया करता है , पुष्पों से प्यार नहीं करता वैसे ही तेरा मित्र भी है । अरे भ्रमर ! हम तो ठहरी वनवासिनी , हमारे पास तो घर - द्वार भी नहीं है । तूँ हम सबके सामने यदुबंश शिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत - सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब हम सबको मनानेके लिए ही तो है ? परंतु नहीं - नहीं , वे हमारे लिए कोई नए नहीं हैं , हमारे लिए तो जाने पहचाने पुराने हैं । तेरी चापलूसी हम सबके सामने नहीं चलेगी , तूँ यहाँ से चला जा । तूँ कान्हा की मथुरा की  सहेलियों के सामने जा कर उनका गुणगान कर , वे नयी हैं , कान्हा की  लीलाओं के परिचित कम हैं और इस समय वे कृष्ण की प्यारी भी  हैं । कान्हा  उनके हृदय की पीड़ा को मिटा चुके हैं अब वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी । तुम्हारी चापलूसी से प्रसन्न हो कर तुम्हें मुहमागा पुरस्कार भी देंगी ।

भौरे! तूँ ऐसा क्यों कह रहा है कि कान्हा  हमारे लिए छटपटा रहे हैं ? त्रिलोक में ऐसी कौन सी स्त्री है जो उन्हें नहीं चाहती होगी ? स्वयं लक्ष्मी जी भी उनकी चरणरज की सेवा करती है फिर कान्हा के सामने हम वनवासिनियाँ किस गिनती में आती हैं ।

तूँ  उनके पास जा कर कहना कि तुम्हारा नाम उत्तमश्लोक 

है । अच्छे - अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गुणगान करते हैं , परंतु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम हम दीनों पर दया करो , यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम्हारा उत्तमश्लोक नाम झूठा पड़ जायेगा । 

अरे मधुप ! तुम मेरे पैरों पर अपना सिर मत टेक । में जानती हूँ कि तुम अनुनय - विनय करने में क्षमा - याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है , तुम कान्हा से ही यह  सब सीखा है कि रूठे को कैसे मनाया जाता है ? पूरा प्रशिक्षण दे कर श्री कृष्ण तुमको यहाँ भेजा है । तुम इतना समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेवाली । 

तूँ हमें देख , हमने कान्हा के लिए ही अपनें पति , पुत्र - पुत्रियाँ एवं परिवार का त्याग कर रखा है ! लेकिन वह कान्हा निर्मोही हमें त्याग कर मथुरा चला गया । 

रे मधुप ! जब वे राम बने थे , तब कपिराज बालि को छिप कर बड़ी निर्दयता से मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामबश उनके पास आई थी और वे अपनी स्त्री के बश में हो कर उसके नाक - कान काट दिए थे । हमें कान्हा क्या किसी भी कालू वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । अब तुम कहोगे की फिर तुमलोक उसे क्यों चाहती  हो , क्यों नहीं छोड़ देती ?

 तो सुन ! एक बार जो उसका हो गया , वह उसे नहीं छोड़ सकता ।जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली - भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उनके जाल में फँस कर मारी जाती हैं वैसे हम भोली - भाली गोपियाँ भी उस छलिये कृष्ण की कपतभरी मीठी - मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य समान मान बैठीं और उससे बध गयी ।

रे भौरे ! अब तुम इस विषय पर आगे और कुछ न कह । 

उद्धव कहते हैं , अहो गोपियों ! तुम कृत्य - कृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । तुम पूजनीय हो । तुम सभीं प्रेमा भक्ति से वह सब पा लिया है जिसे बड़े - बड़े ऋषि - मुनि के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है । कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र , पति , देह , स्वजन और घरों को छोड़ कर पुरुषोत्तम कृष्ण को जो सबके परम् पति हैं , उन्हें अपने पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों ! कृष्ण वियोग से , तुम इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है  जो सभीं बस्तुओं के रूप में उनका दर्शन करता है । 

उद्धव गोपियों को प्रभु का संदेश सुनाते हैं 

प्रभु श्री कृष्ण अपनें सन्देश में कह रहे  हैं , "  मैं  सबका आत्मा हूँ और सबमें अनुगत हूँ , इसलिए मुझसे किसी का वियोग होना संभव नहीं । जैसे संसार की सभीं वस्तुओं में पांच भूतों की उपस्थिति है वैसे मैं मन , प्राण , पांच भूत , इन्द्रिय और बिषयों का आश्रय हूँ , वे मुझमें हैं और मैं उनमें 

हूँ । मैं अपनी माया द्वारा भूतों  , बिषयों और इंद्रियों आदि का आश्रय और उनका निमित्त भी बन जाता हूँ । आत्मा , माया और माया के कार्य से पृथक है । कोई गुण आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता ( गीता 14.5 : तीन गुण आत्मा को देह में बाध कर रखते हैं )।  मनुष्य को इन्द्रिय बिषयों से आसक्त नहीं होना चाहिए ,भक्ति , तप , योग और ज्ञान का लक्ष्य है मेरी प्राप्ति । मैं तुम सबसे दूर  इसलिए हूँ जिससे तुम सबका मन वियोग माध्यम से मुझसे जुड़ा रहे । गोपियाँ उद्धव की कृष्ण संदेश को सुनते - सुनते सविकल्प समाधि में उतर जाती हैं " 

गोपियाँ उद्धव द्वारा प्रभु के संदेश को सुनाने के बार कह रही हैं , उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइए कि जिस प्रकार हम सब उनके प्यार में डूबी रहती हैं , क्या वे भी हमसे इतना ही प्यार करते हैं और क्या  हम जैसा कृष्ण प्यार मथुरा की स्त्रियों में भी है ? √√√

उद्धवजी ! क्या कभी कृष्ण उस रात्रि का स्मरण भी करते हैं जब वे हम सबके साथ वृन्दाबन में रास - महारास की लीला खेल रहे थे ? √√

उद्धवजी ! हम सब तो उनकी ही विरह की अग्नि में जल रहे है । इंद्र जैसे बन को जल बरसा कर हरा भरा करते हैं वैसे क्या कृष्ण अपनें स्पर्श से हमें जीवन दान देंगे ? √√√

गोपियों में से  एक गोपी कह रही है , अरी सखी ! अब तो वे दुश्मन को मार कर राज्य पा लिए हैं । सभीं उनके सुदृढ़ बने हुए हैं । अब वे बड़े - बड़े नरपतियों की कुमारियों से ब्याह करेंगे , अब हम गँवारिनो के पाद क्यों आएंगे ?√√√

एक अन्य  गोपी कह रही  है , नहीं सखी , महात्मा कृष्ण तो स्वयं लक्ष्मी पति हैं हैं ग्वालिनों एवं अन्य राजकुमारियों से उनका क्या प्रयोजन ,? वे तो कामना मुक्त महात्मा हैं । गोपियाँ कह वही हैं , वेश्या पिंगला कहती है , संसार में किसी से आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है पर यह जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा को नहीं त्याग सकते !

हमारे प्यारे श्यामसुंदर हमसे एकांत में जो मीठी - मीठी प्रेम की बातें की हैं उन्हें छोड़ने का , भुलाने की बात हम सोच भी कैसे कर सकती हैं ! स्वयं। लक्ष्मी जी उनके अंग - अंग में लिपटी पड़ी हैं , उन्हें पल भर के लिये नहीं छोड़ती । √√√

गोपियाँ उद्धव को ब्रज  दर्शन करा रही हैं और कह रही 

हैं , उद्धवजी ! यह वह नदी है जिसमे वे विहार करते थे । यह वह पर्वत है जिसके शिखर पर चढ़ कर वे बासुरी बजाते थे , 

वे ही ये बन हैं जिनमें रात्रि के समय रास लीला किये थे । ये वे गौएँ हैं जिनको  चराने के लिए वे सुबह - शाम हम लोगों को देखते हुए जाते - आते थे । यहाँ के कण - कण पर उनके हस्ताक्षर हैं । उद्धव जी हम सबको क्या उन्हें भूलना संभव हो सकता है ?

कान्हा की हँस जैसी चाल , उन्मुक्त हास्य , विलास पूर्ण चितवन , मधुमयी वाणी - आह ! उन सब ने हमारा चित चुरा लिया है । हमारे मन बश में नहीं फिर हम उन्हें कैसे भूलें ! 

उद्धव जी गोपियीं की विरह- व्यथा मिटाने हेतु वहाँ कई  माह रहते हैं , और अकेले ब्रज भ्रमण करते हैं ।

प्रभु के परम् प्रिय उद्धव जी कभीं नदी तट पर जाते , कभीं बनो में विहरते और कभीं गिरिराज पर भ्रमण करते और  कभीं फूलों से भरे वृक्षों में ही रम जाते । 

उद्धव गोपियों को ब्रह्म ज्ञान से प्रेमा भक्ति से मुक्त कराने मथुरा से ब्रज आये हुए हसीन लेकिन गोपियों की संगति से उनका ब्रह्म ज्ञान गोपियों के कृष्ण प्रेमाभक्ति में बदल जाता है ब्रज भूमि और कान्हा के पद चिह्नों को खोजते फिर रहे हैं ।

उद्धव कह रहे हैं , इस धरा पर केवल इन गोपियों के शरीर धारण करना ही सर्व श्रेष्ठ है क्योंकि ये सर्वात्मा प्रभु श्री कृष्ण के परम् प्रेममय दिव्य भाव में स्थित हैं । प्रेम की यह उच्चतम स्थिति सभी साधनाओं का परम् लक्ष्य है । 

कहाँ ये बनचरी आचार -  ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानंद भगवन् श्री कृष्ण में यह उनका अनन्य प्रेम ! बुद्धि से नहीं हृदय से कृष्ण के परम् विधुद्ध प्रेम - रस टपकता है। 

मेरे लिए तो सबसे उत्तम बात यही होगी कि मैं इस वृन्दाबन में कोई झाड़ी , कोई औषधि , कोई जड़ी - बूटी और कोई लता ही बन जाऊँ । अहा ! यदि ऐसा संभव  हुआ तो मुझे इन व्रजांगनाओं की चरण धूलि निरंतर सेवन करने हेतु मिलती रहेगी । धन्य हैं , ये गोपियाँ । 

ज्ञानयोग साधना में जब बुद्धि हृदय में लीन हो जाती है तब गोपियों जैसी प्रेमा भक्ति हृदय में अंकुरित होती है । ज्ञान योग  , कर्म योग अथवा साधना के अन्य श्रोतों का प्रारम्भ तो बुद्धि आधारित होता है जिसे अपरा साधना कहते हैं । जब अपरा साधना गहराती है तब बुद्धि हृदय में ऐसे अपनें को लीन कर लेती है जैसे सागर में गंगा स्वयं को लीन कर लेती हैं और यहाँ से परा साधना प्रारम्भ हो कर कैवल्य में पहुँचाती है । परा अर्थात जिसे मन सहित 11 इंद्रियों और बुद्धि - अहँकार के पकड़ना संभव न हो । 

कई माह ब्रजमें रह करअब उद्धव मथुरा लौट रहे हैं

उद्धव जी गोपियों , ग्वालों , नंदबाब और माँ यशोदा को प्रणाम करके मथुरा लौटने की आज्ञा प्राप्त करते हैं । जब उद्धव आये थे तब ब्रह्म ज्ञानी थे और जब कई माह ब्रज में रहने के बाद लेत रहे हैं तब भक्त उद्धव बन कर लौट रहे हैं ।

माँ यशोदा तो चुप थी लेकिन अपनें आंसू को छिपा नहीं पा रही थी पर नन्द बाबा , कृष्ण के प्रेमी ग्वाले एवं गोपियाँ कहती हैं , उद्धवजी ! हमें मोक्ष की चाह नहीं , हम सदैव कृष्ण - भक्ति में डूबे रहना चाहते हैं । उद्धवजी मथुरा लौट आते हैं और प्रभु श्री को प्रणाम करके ब्रज निवासियों की कृष्ण - भक्ति को स्पष्ट करना चाहते हैं , पर कर नहीं पाते , उनका गला भर रहा होता है और अपनी आंसू से अपनें ब्रज अनुभव को व्यक्त करते हैं । 

~~ ॐ इति ~~

Thursday, November 10, 2022

सांख्य दर्शन और पतंजलि दर्शन में चित्त का स्वरुप क्या है ?

" चित्त की 05 अवस्थाएँ हैं - क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु । सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्रता भूमि में होता है लेकिन ज्योंही चित्त निरु अवस्था में आता है असम्प्रज्ञात समाधि घटित हो जाती है । असम्प्रज्ञात समाधि में संस्कार बच रहते हैं । धर्ममेघ समाधि से संस्कारों का प्रतिप्रसव हो जाता है । यह अवस्था कैवल्य का द्वार खोलती है । " 👌 भोग , वैराग्य , समाधि और कैवल्य प्राप्ति का हेतु , चित्त है अतः चित्त को ठीक - ठीक समझना चाहिए । 👌 पुरुष प्रकाश से त्रिगुणी प्रकृति की साम्यावस्था विकृत होने से सृष्टि उत्पत्ति के पहले तत्त्व महत् ( बुद्धि ) की उत्पत्ति होती है । 👌 बुद्धि से सात्त्विक , राजस और तामस अहंकारों की उत्पत्ति होती है । 👌 सात्त्विक अहंकार से मन सहित 05 कर्म और 05 ज्ञान इंद्रियों की उत्पत्ति होती है । तामस अहंकार से पञ्च तन्मात्र और तन्मात्रों से उनके अपने - अपने महाभूतों की उत्पत्ति होती हैं । 👌 बुद्धि , अहंकार और मन को अंतःकरण तथा चित्त कहते हैं और 10 इन्द्रियाँ बाह्य करण कहलाती हैं । 💐 इस प्रकार ब्रह्मांड की सभीं जड़ - चेतन सूचनाएं प्रकृति - पुरुष और प्रकृति के 23 तत्त्वों के योग से होती है । 💐 चित्त अर्थात बुद्धि , अहंकार और मन माध्यम से अकर्ता पुरुष प्रकृति से जुड़ते ही कर्ता बन जाता है । चित्त , वह प्रकृति निर्मित पिजड़ा है जिसमें शुद्ध चेतन पुरुष अपने मूल स्वरूप से चित्त स्वरूपाकार हो जाता है । प्रकृति , पुरुष को देखने के बाद उसे मुक्त करना चाहती है और स्वयं भी अपने विकृत स्वरूप से मूल स्वरूप (गुणों की साम्यावस्था ) में लौट आना चाहती है । पुरुष ऊर्जा मुक्त चित्त पूर्ण रूप से अचेतन ( जड़ ) होता है जिसके कारण वह स्वयं को भी नहीं जानता । जब पुरुष को बोध हो जाता है कि वह चित्त नहीं , अपितु शुद्ध चेतन है तब वह कैवल्य मुखी हो जाता है । 💐 प्रकृति से जुड़ने से लेकर कैवल्य प्राप्ति तक की योगी के अंदर स्थित पुरुष की यात्रा योगी के एक जन्म में भी तय हो सकती है और अनेक जन्म भी लेने पड़ सकते हैं । प्रकृति के 23 तत्त्वों में पंच महाभूतों को छोड़ कर शेष 18 तत्त्वों को लिङ्ग या सूक्ष्म शरीर कहते हैं । यही लिङ्ग शरीर , पुरुष कैवल्यार्थ बार - बार शरीर धारण करता रहता है । बिना पंच महाभूत लिङ्ग शरीर सुक्षं और अस्थिर होता है । अब आगे ⤵️ 1 - चित्त प्रकृति - पुरुष संयोग भूमि है । 2 - चित्त प्रकृति के तीन तत्त्वों (बुद्धि अहंकार और मन ) से है । 3 - प्रकृति त्रिगुणी और जड़ है अतः चित्त भी त्रिगुणी एवं जड़ है । 4 - प्रकृति जड़ , अविद्या , त्रिगुणी , विकारों की जननी , जगत का आदि कारण , सक्रिय , पुरुष बंधन का कारण , देश - काल में सीमित , भोग्या , सनातन और एक है जबकि पुरुष प्रकृति के ठीक विपरीय है । अब आगे ⤵️ कारिका : 29 - 31 ◆ चित्त के तत्त्व मन की असामान्य वृत्ति संकल्प है , बुद्धि की असामान्य वृत्ति ज्ञान है और अहंकार की असामान्य वृत्ति अभिमान है । ◆ जो इन्द्रिय अंतःकरण (चित्त ) से जुड़ती है उसे चतुष्टय कहते हैं। दृश्य बिषयों में इन चारों की वृत्ति कभीं एक साथ तो कभीं क्रमशः भी होती है । ◇ अदृश्य बिषयों में अंतःकरण ( चित्त ) की वृत्ति इंद्रिय आधारित होती है जैसे अदृश्य रूप के चितन में चक्षु आधारित वृत्ति होगी । अदृश्य गंध की अनुभूति घ्राण इन्द्रिय आधारित होती है । ◆ मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी -अपनी वृत्तियों को जानते हैं । ◆ इन सभीं वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है । सांख्य कारिका : 32 - 33 > ★ जैसा पहले बताया जा चुका है 13 करणों में 10 इन्द्रियाँ , बाह्य कारण हैं और मन , बुद्धि एवं अहँकार अंतःकरण हैं । ● बाह्य करण (10 इन्द्रियाँ ) केवल वर्तमान काल के बिषयों को ग्रहण करते हैं । ● अंतःकरण ( बुद्धि , अहँकार , मन ) तीनों कालों के बिषयों को ग्रहण करते हैं । सांख्य कारिका : 23 ( बुद्धि ) महत् ( बुद्धि ) के सात्त्विक और तामस रूप ◆ 04 सात्त्विक रूप >धर्म , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वर्य ◆ 04 तामस रूप >अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य , अनैश्वर ( बुद्धि के 04 सत्त्विक रूप और 04 तामस रूप भाव कहलाते हैं । प्रकृति इन 08 भावों में से 07 भावों से बधी होती है लेकिन जब उसे पुरुष ऊर्जा के प्रभाव में ज्ञान प्राप्ति होती है तब इन 07 भावों से मुख्य हो कर अपनें मूल स्वरूप में लौट जाती है । कारिका : 24 +25 (अहँकार ) ● अभिमान ही अहँकार है । 11 इन्द्रियां और 05 तन्मात्र अहँकार के कार्य हैं । इनमें 11 इन्द्रियाँ सत्त्विक अहँकार के कार्य हैं और 05 तन्मात्र तामस अहँकार के कार्य हैं । राजस अहँकार कोई तत्त्व उत्पन्न नहीं करता अपितु शेष दो अहंकारों को तत्त्व उत्पत्ति में सहयोग करता है । ◆ प्रकृति के 23 तत्त्वों में हर पल सात्त्विक , राजस और तामस गुण होते हैं । जब एक गुण प्रभावी होता है तब अन्य दो गुण कमजोर हो गए होते हैं , इस प्रकार हर पल इन तीन गुणों की मात्राएं घटती - बढ़ती रहती हैं । ◆ मूलतः गुणों की साधना ही चित्त की साधना है । जब चित्त निर्गुणी होता है तब विवेक की लहर उठने लगती है और चित्ताकार पुरुष अपने मूल स्वरूप में आ जाता है । चित्त वृत्तियाँ ( पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 5 - 11 ) > वृत्ति उन हेतुओं को कहते हैं जो चित्त में सोच की लहर उत्पन्न करते हैं । चित्त की 05 वृत्तियां हैं जो क्लिष्ट - अक्लिष्ट दो रूपों में होती हैं । क्लिष्ट दुःख से जोड़ती हैं और अक्लिष्ट सुख से । सात्त्विक गुण की वृत्तियों से प्रभावित चित्त - वृत्तियाँ सुख की जननी हैं और इन्हें अक्लिष्ट कहते हैं । राजस - तामस गुणों से प्रभावित चित्त - वृत्तियाँ , दुःख की जननी हैं जिन्हें क्लिष्ट कहते हैं । चित्त की पहली वृत्ति प्रमाण तीन प्रकार की होती है ; प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम ( शब्द और आप्त वचन भी कहते हैं )। पांच ज्ञान इंद्रियों से बिषय बोध का होना , चित्त की प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्ति कहलाती है । अनुमान में बिषय अनुपस्थित रहता है लेकिन उससे सम्बन्धित चिन्हों से उसे जानते हैं जैसे दूर कहीं धुआं देख कर वहां अग्नि होने का अनुमान लगाना । आगम को आप्त वचन और शब्द भी कहते हैं । जिस बिषय का बोध प्रत्यक्ष एवं अनुमान से संभव नहीं , उसके बारे में उपलब्ध सर्वमान्य ग्रंथों एवं संदर्भों के आधार पर उस बिषय पर सोचने से, आगम चित्त वृत्ति पैदा पैदा होती है । चित्त की दूसरी वृत्ति विपर्यय : विपर्यय का अर्थ है अज्ञान या अविद्या । जो बिषय जैसा है , उसे वैसा न समझ कर उसके विपरीत समझना , विपर्यय है अर्थात सत को असत , और असत्य को सत समझना , विपर्यय है । चित्त की तीसरी वृत्ति विकल्प : विकल्प के संबंध में समाधि पाद सूत्र : 09 को देखें - शब्द ज्ञान अनुपाती वस्तु शून्यो विकल्प: अर्थात वस्तु की अनुपस्थित में उस बिषय के सम्बन्ध में शब्द ज्ञान के आधार पर सोचने से चित्त में विकल्प वृत्ति पैदा होती है । देवता , भूत - प्रेत आदि के सम्बन्ध में जानना मात्र शब्द - ज्ञानसे संभव है । शब्द ज्ञान वह ज्ञान है जो शास्त्र आदि सर्वमान्य ग्रंथों से प्राप्त होता है । चित्त की चौथी और पांचवीं वृत्ति निद्रा और स्मृति के संबंध में निम्न समाधि पाद सूत्र : 10 +11को देखें👇 " अभाव प्रत्यय आलंबना वृत्ति : निद्रा " निद्रा में बिषय आलंबन का अभाव होता है । कभीं - कभीं हम जब सो कर उठते हैं तब कहते हैं कि आज बहुत प्यारी नींद आयी , समय का पता तक न चला अर्थात उस नींद में भी चित्त की कोई वृत्ति सक्रिय थी जो मीठी नींद की स्मृति को जगने के बाद प्रकट कर रही होती है , वही चित्त की निद्रा वृत्ति है । स्मृति चित्त वृत्ति > पूर्व अनुभव किये हुए विषयों के सम्बन्ध की सोच का समय पर चित्त पटल पर प्रगट हो जाना , स्मृति है । चित्त की भूमियाँ > चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः अब चित्त की 05 भूमियों को समझते हैं । 1- क्षिप्ति : चित्त की यह भूमि योगमें एक बड़ी रुकावट है । विचारों का तीव्र गति से बदलते रहना , चित्त की क्षिप्त अवस्था होती है । 2 - मूढ़ :मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है । अज्ञान - अविद्या में डूबा हुआ चित्त , ज्ञान को अज्ञान , असत्य को सत्य समझने वाला चित्त मूढ़ अवस्था ( भूमि ) में होता है । इस अवस्था में चित्त तामस गुण से प्रभावित रहता है । 3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है है । इस प्रकार रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चित्त की चंचलता अवरोध उत्पन्न करती रहती है लेकिन इस अवस्था में भी कभीं - कभीं समाधि लग जाती है । 4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता है । एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना होता रहता है । 5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है । जब सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है तब चित्त चित्त निरु भूमि में होता है । असम्प्रज्ञात समाधि आलंबन मुक्त समाधि होती है । यहां इस अवस्था तक संस्कार शेष रह जाते हैं जो धर्ममेघ समाधि मिलते ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा योगी कैवल्य में प्रवेश कर जाता है । यह अवस्था सिद्ध योगियों की होती हैं और इस अवस्था को चित्त की पूर्ण शून्यावस्था भी कहते हैं । चीत्त की 05 अवस्थाएँ हैं ; क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु । सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्रता भूमि में होता है लेकिन ज्योंही चित्त निरु अवस्था में आता है असम्प्रज्ञात समाधि घटित हो जाती है । असम्प्रज्ञात समाधी तब संस्कार रहते हैं जिनका प्रतिप्रसव होने रबधर्ममेघ समाधि लगती है जो कैवल्य का द्वार खोलती है । व्युत्थान और निरोध चित्त के 02 धर्म हैं : चित्त की 05 भूमियों (क्षिप्ति + मूढ़ + विक्षिप्त + एकाग्रता और निरु ) में प्रारंभिक तीन नीचे की या भोग की भूमियाँ हैं और अंतिम दो उच्च (योग सिद्धि की ) भूमियाँ होती हैं । योग साधना में चित का ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की भूमियों में उतरना - चढ़ना या चढ़ना - उतरना चित्त का व्युत्थान धर्म है और चित्त का अंतिम दो भूमियों पर टिके रहना निरोध धर्म है । चाहे साधना का कोई मार्ग क्यों न हो सबका एक ही लक्ष्य होता है और वह है चित्त को व्युत्थान धर्म से निरोध धर्म पर स्थिर रखना । जब चित्त राजस - तामस गुणों की वृत्तियों से बधा रहता है तब वह अपने व्युत्थान धर्म में होता है और जब यह सात्त्विक गुण से बध जाता है तब निरोध धर्म में होता है । निरोध धर्म में स्थित चित्त में कुछ सात्त्विक आलंबन सम्बंधित वृत्तियां उठती रहती है और कुछ उठी हुई वृत्तियां समाप्त होती रहती हैं , इस प्रकार चित्त सात्त्विक गुण आलंबन में सक्रिय रहता है । यहाँ ध्यान में रखना होगा की तामस - राजस गुणों से मुक्त चित्त अब निरोध धर्म में स्थित रहता तो है लेकिन साधना जैसे - जैसे आगे चलती रहती है , यह सत्त्विक गुण रूपी बंधन से भी चित्त को मुक्त होना पड़ता है । धर्म के संबंध में विभूति पाद सूत्र - 14 में बताया गया है , " धर्म वह जो भूत , वर्तमान और भविष्य , तीनों कालों में रहता हो और तीन काल ही धर्म हैं । बिना धर्मी ,धर्म की कोई सत्ता नहीं और चित्त को धर्मी कहते हैं । विभूति पाद सूत्र - 11: जब चित्त एक आलंबन पर ऐसे स्थिर हो जाय कि उस पर देश - काल की पकड़ समाप्त हो जाय तब उस स्थिति को चित्तका समाधि परिणाम कहते हैं । चित्त के 03 परिणाम ; 1 - निरोध , 2 - समाधि 3 - एकाग्रता 1- निरोध : इसके संबंध में चित्त के धर्म में बताया जा चुका है । इस संदर्भ में अब देखते हैं विभूति पाद सूत्र :10 ⬇️ " तस्य प्रशांत वाहिता संस्कारात् " अर्थात निरोध संस्कार में जब चित्त स्थिर हो जाता है तब चित्तमें प्रशांत ऊर्जा की धारा बहने लगती है । ( निरोध , चित्त के 03 परिणामों में से एक परिणाम और 02 धर्मों में से 01 धर्म भी है ) 2 - समाधि :विभूति पाद सूत्र : 3 में समाधि की परिभाध देखें " तत् एव अर्थ मात्र निर्भासम् स्वरूप शून्यम् इव समाधि " साधना में जब आलंबन का स्वरूप शून्य हो जाय और आलंबन अर्थमात्र रह जाय तब इस स्थिति को सम्प्रज्ञात समाधि कहते है । कैवल्य पाद सूत्र : 01 में महर्षि सिद्धि प्राप्ति के 05 कारण बताते हैं ; जन्म , औषधि , मंत्र , तप और समाधि । 3 - एकाग्रता :एकाग्रता चित्त की 05 भूमियों में से एक भूमि और चित्त के 03 परिणाम में से एक परिणाम भी है । एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना लगा रहता है । चित्त जब किसी सात्त्विक आलंबन से बध कर समयातीत अवस्था में आ जाता है तब वह चित्त की स्थिति एकाग्रता परिणाम कहलाती है । चित्त की यह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि से आगे की है जिसमें असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है । पतंजलि समाधि पाद सूत्र 33 - 41 > चित्त शांत करने के उपाय 1 - भावनाओं पर नियंत्रण करना 2 - बाह्य कुम्भक का अभ्यास करना 3 - स्थूल सात्त्विक आलंबन पर ध्यान करने का अभ्यास 4 - ज्योति पर एकाग्रता का अभ्यास करना 5 - वीत रागियों की संगति में रहना या उनको सुनना 6 - सत्त्विक बिषय सम्बंधित स्वप्न पर चित को स्थिर रखने का अभ्यास 7 - स्वरूचि आधारित किसी सात्त्विक आलंबन पर ध्यान करना पूर्णशान्त चित्त वाला सूक्ष्म वस्तु से अनंत तक पर स्व संकल्प से चित्त को एकाग्र कर सकता है । शांत निर्मल चित्त पारिजात मणि जैसा पारदर्शी होता है। चित्त सम्बंधित साधन पाद के सूत्र सूत्र : 1 - 14 तक > क्लेष , कर्माशय की जड़ हैं और समाधि भाव उठते ही क्लेश तनु ( क्षीण ) अवस्था में आ जाते हैं । 👉कर्म आशय अर्थात कर्म जहाँ एकत्रित होते हैं अर्थात चित्त का अंग - मन । 👉कर्म से संस्कार बनते हैं जो कर्माशय ( मन ) में एकत्रित होते रहते हैं । 👉ध्यान से वर्तमान में तथा अगले जन्म में भोगे जानेवाले सभीं पाप - कर्म निर्मूल होते रहते हैं । ● क्लेश के प्रकार : अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष , अभिनिवेश ◆ सत् को असत् समझना ,अविद्या है । ◆ दृग - दृश्य का एक होना अस्मिता है ◆ सुख अनुशयी , राग है ◆ दुःख अनुशयी , द्वेष है ◆ मृत्यु भय को अभिनिवेश कहते हैं ● क्रियायोग से क्लेश नष्ट होते हैं ★ तप , स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधानि का अभ्यास , क्रियायोग है ● ध्यान से क्लेश नष्ट होते हैं ● जब तक क्लेशों की जड़े हैं ,आवागमन से मुक्त होना संभव नहीं ◆★ हृदय - संयम साधना से चित्त को जाना जाता है । संयम समाधि के बाद की स्थिति होती है । पतंजलि अष्टांग योग साधना में आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान , धारणा और सम्प्रज्ञात समाधि सिद्धि के बाद संयम की स्थिति मिलती है । जब धारणा , शयन और समाधि एक साथ घटित होती हैं तो उसे संयम कहते हैं । संयम सिद्धि से असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है जिसे निराकार समाधि ( निर्बीज समाधि ) कहते हैं । असम्प्रज्ञात समाधि के बाद कैवल्य और कैवल्य ही मोक्ष है । संयम सिद्धि से विभिन्न प्रकार की सिद्धियां मिलती हैं जिनको विभूति पाद में सूत्र : 16 - 49 में 45 सिद्धियों के सम्बन्ध में बताया गया है ◆ ऐसा योगी जिसे अपने चित्त का बोध हो चुका होता है , वह जब चाहे अपने चित्त को पर काया में प्रवेश करा सकता है। ◆ऐसा योगी जो अपनी इंद्रियों को जीत लिया है , वह अपने मन की गति से अपनी काया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज सकता है ।√√√££ कैवल्य पाद में चित्त ⬇️ कैवल्य पाद सूत्र : 4+ 5 > अस्मिता से निर्मित चित्त संकल्प अर्थात अस्मिता से निर्मित चित्त ,निर्माण चित्त कहलाता है । सूत्र : 4 +5 का सीधा संबंध सूत्र : 2 से हैं जहाँ महर्षि कहते हैं , " सिद्धि प्राप्त योगी अपनें संकल्प मात्र से कोई भी रूप धारण कर सकता है । वह एक समय में कई रूपों में स्वयं को प्रकट भी कर सकता है " ऐसी स्थिति में उसके हर देह में अलग - अलग चित्त होते हैं जो उसके मूल चित्त से नियंत्रित होते रहते हैं । कैवल्य पाद सूत्र : 6 ◆ ध्यान से निर्मित चित्त क्लेश - वासना मुक्त होता है । कैवल्य पाद सूत्र : 15 "चित्त भेद के कारण एक वस्तु अनेक रूपों में दिखती है " इस बात को ऐसे समझते हैं । एक वस्तु को यदि एक से अधिक लोग देखते हैं तो उस वस्तु के सम्बन्ध में उनकी अपनीं - अपनीं राय अलग - अलग उनके चित्तों के भेद के कारण होती है । कैवल्य पाद सूत्र : 17 : संसार और चित्त चित्त को संसार को समझने के लिए उसे संसार का प्रतिविम्ब चाहिए । बिना प्रतिविम्ब चित्त उसे समझ नहीं सकता । चित्त वस्तु को उसके प्रतिविम्ब से समझता है । कैवल्य पाद सूत्र : 18 > चित्त और पुरुष पुरुष अपरिणामी ( अपरिवर्तनीय ) है और चित्त परिणामी (परिवर्तनशील ) एवं वृत्तियों का स्वामी भी है । कैवल्य पाद सूत्र : 19+ 20 > चित्त जड़ है । चित्त को न स्वयं का और न अन्य किसी का बोध होता है । पुरुष के लिए चित्त एक दर्पण जैसा होता है । चित्त पर संसार की वस्तु / बिषय का प्रतिविम्ब बनता है जिसे देख कर पुरुष उन्हें समझता है । कैवल्य पाद सूत्र : 21:( इसे सूत्र : 4 - 5 के साथ देखें ) चित्त अनेक हैं । एक चित्त दूसरे चित्त का दृश्य होता है और अन्य का द्रष्टा भी होता है । 【 कैवल्य पाद सूत्र : 4+ 5 > अस्मिता से निर्मित चित्त संकल्प अर्थात अस्मिता से निर्मित चित्त ,निर्माण चित्त कहलाता है । सूत्र : 4 +5 का सीधा संबंध सूत्र : 2 से हैं जहाँ महर्षि कहते हैं , " सिद्धि प्राप्त योगी अपनें संकल्प मात्र से कोई भी रूप धारण कर सकता है । वह एक समय में कई रूपों में स्वयं को प्रकट भी कर सकता है " ऐसी स्थिति में उसके हर देह में अलग - अलग चित्त होते हैं जो उसके मूल चित्त से नियंत्रित होते रहते हैं ।】 कैवल्य पाद सूत्र : 24 अनेक वासनाओं से चित्त विचित्त होने के साथ संहत और परार्थ भी है । संहत अर्थात मिलजुल कर कार्य करनेवाला और परार्थ का अर्थ है , जो दूसरों के लिए कार्य करे । ~~~~|ॐ | ~~

Saturday, October 29, 2022

सांख्य दर्शन का कार्य , कारण और करण सिद्धान्त सृष्टि उत्पत्ति का मूल सिद्धांत भी है

सांख्य दर्शन में कार्य और कारण और करण सिद्धांत सर्ग ( संसार की उत्पत्ति ) का रहस्य है कार्य , कारण और करण को मिट्टी से निर्मित घड़े के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है । यहाँ घड़े के होने में मिट्टी कार्य और कारण दोनों है और घड़ा मिट्टी का कार्य है । जो पैदा करे उसे कारण और जो पैदा हो , उसे उस कारण का कार्य कहते हैं । कारण दो प्रकार के हैं ; निमित्त और उपादान ; मिट्टी के घडे के निर्माण के लिए मिट्टी और घड़ा बनानेवाला कुम्हाड दो प्रमुख तत्त्व हैं। इन दो में कुम्हाड निमित्त कारण है और मिट्टी उपादान कारण है । अब करण को विस्तार से समझते हैं 👇 सांख्य में करण : करण का शब्दार्थ है , कर्ता अर्थात करनेवाला , क्रिया का आश्रय या माध्यम । सांख्य दर्शन में निम्न 25 तत्त्व हैं जिनसे सृष्टि रचना है और उनमें 12 करण हैं । पुरुष , प्रकृति एवं प्रकृति के कार्य रूप में बुद्धि ( महत् ), अहंकार , मन , 05 ज्ञान इन्द्रियाँ , 05 कर्म इन्द्रियाँ , 05 तन्मात्र और तन्मात्रों के कार्य रूप में 05 महाभूत , सांख्य दर्शन के ये 25 तत्त्व हैं । इन 25 तत्त्वों में बुद्धि ,अहंकार , मन और 10 इंद्रियों को करण कहते हैं तथा 13 करणों में बुद्धि , अहंकार और मन को अंतः करण और शेष 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते हैं। 13 करणों में बुद्धि और अहंकार कार्य - कारण भी हैं तथा 10 इन्द्रियाँ केवल कार्य हैं । 👌 करण के निम्न तीन कार्य 👇 1 - आहरण (लेना या ग्रहण करना ) 2 - धारण करना 3 - प्रकाशित करना ( ज्ञान देना ) 💮05 कर्म इन्द्रियाँ ग्रहण एवं धारण दोनों करती हैं 💮05 ज्ञान इंद्रियाँ केवल प्रकाशित करती हैं । 💐 इन 05 कर्म इन्द्रियों एवं ज्ञान इन्द्रियों के अपनें - अपनें कार्य हैं और ये कार्य ऊपर व्यक्त 03 भागों ( आहरण , धारण और प्रकाशित करना ) में विभक्त हैं । 👉मन , बुद्धि और अहंकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनीं - अपनीं वृत्तियों को जानते हैं । 👉मन , बुद्धि और अहंकार की सभी वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य है । करण स्वयं ही प्रवृत्त होते हैं , किसी से नियंत्रित होकर नहीं प्रवृत्त होते । 💐 बाह्य करण केवल वर्तमान काल के बिषयों को ग्रहण करते हैं जबकि अंतःकरण ( बुद्धि ,मन और अहंकार (तीनों कालों के बिषयों को ग्रहण करते हैं । 🐦 05 कर्म इन्द्रियों में वाक् इन्द्रिय का केवल शब्द बिषय है , शेष 04 कर्म इन्द्रियाँ , पांच बिषयों ( शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध ) वाली है । उदाहरण देखिए 👉 जैसे हाँथ एक घड़े को ग्रहण करता है जिसमें सभीं 05 बिषय हो सकते हैं और पैर सभीं 05 बिषयों से युक्त पृथ्वी पर चलता है । 💐 13 करणों ( बुद्धि + अहँकार + मन + 10 इंद्रियाँ ) में अंतःकरण ( बुद्धि , अहंकार और मन ) द्वारि (स्वामी ) हैं और अन्य 10 ( 10 इन्द्रियाँ ) द्वार हैं क्योंकि मन - अहंकार से युक्त बुद्धि तीनों कालों के बिषयों का अवगाहन ( गहरा चिंतन ) करती है । 💐 तीनों अंतःकरण स्वेच्छा से अगल - अलग द्वारों ( 10 इन्द्रियों ) से अलग - अलग बिषय ग्रहण करते हैं । 💐 सभीं इंद्रियाँ तथा अहंकार दीपक की भांति हैं और एक दूसरे से भिन्न गुण वाले हैं । जैसे दीपक अपनी परिधि में स्थित सभीं बिषयों को प्रकाशित करता है वैसे 12 करण ( 11 इंद्रियां + अहंकार ) सम्पूर्ण पुरुषार्थ ( धर्म + अर्थ + काम + मोक्ष ) को प्रकाशित करके बुद्धि को समर्पित करते हैं । 💐 पुरुष के सभीं उपभोग की व्यवस्था बुद्धि करती है और वही बुद्धि प्रधान ( प्रकृति ) और पुरुष के सूक्ष्म भेद को विशेष रूप से जानती है । 【यहाँ ध्यान रखना होगा कि पुरुष - प्रकाश के प्रभाव में प्रकृति की साम्यावस्था विकृत होती है और बुद्धि ( महत् ) पहले तत्त्व के रूप में उत्पन्न होती है / 05 महाभूत सात्त्विक गुण के प्रभाव में शांत स्वरूप और सुख स्वरूप में होते हैं । 🐥 पञ्च महाभूत राजस गुण के प्रभाव में घोर ( दुःख ) स्वरुप में होते हैं । 🐔 पञ्च महाभूत तामस गुण के प्रभाव में मूढ़ भाव स्वरूप में होते हैं । 【 ध्यान रखना होगा कि तीन गुण पञ्च भूतों के स्वभाव को परिवर्तित करते रहते हैं और ये तीन गुण हमारे देह में हर पल बदल रहे हैं । एक गुण अन्य दो को दबा कर प्रभावी होता है 】

Saturday, October 15, 2022

तीर्थों की पञ्च कोसी परिक्रमा पञ्च कोषीय साधना का एक पवित्र मार्ग है

काशी का पञ्च कोसी परिक्रमा को यहाँ दिखाया गया है जिसे गूगल सर्च के प्राप्त किया गया है । इस परिक्रमा में पहले दिन की मणिकर्णिका से कर्मदेश्वर मंदिर तक की यात्रा में अन्नमय कोष की साधना सिद्ध करने की यात्रा होती है । दूसरे दिन की यात्रा में

Saturday, October 8, 2022

हरिद्वार में सप्त श्रोत को देखें

श्रीमद्भागवत पुराण में सप्त श्रोत वह स्थान है जहाँ सप्त ऋषियों के लिए गंगा जी 07 धाराओं में विभक्त हो गयी हैं । यह वह स्थान है जहाँ धृत राष्ट्र और गांधारी ध्यान माध्यम से अपनें - अपनें शरीर को त्यागे थे । आज यह पवित्र स्थान गायत्री परिवार , सप्त ऋषि आश्रम और सप्त ऋषि मंदिर के नाम से जाना जाता है । आइये गूगल मैप की मदद से इस पवित्रम् क्षेत्र का दर्शन करते हैं

Sunday, October 2, 2022

शुक्ल यजुर्वेद का मन्त्र : 1.1

इसके पहले ऋग्वेद के पहले मन्त्र में अग्नि प्रार्थना को देखा गया और अब शुक्ल यजुर्वेद के पहले मन्त्र में सविता देवता की प्रार्थना देखिये । सूर्योदय के ठीक पहले पूर्व दिशा में आकाश में जो दृश्य बनता है, वह सविता देव हैं । त्रिपदी गायत्री में सविता के सम्बन्ध में बताया गया है । अब देखिये यजुर्वेद मन्त्र : 1.1 और उसका शब्दार्थ नहीं भवार्थ को ⬇️

Tuesday, September 27, 2022

भ्रमर गीत के हारिल पक्षी से मिलिए

जब ब्रज में उद्धव जी ब्रह्म ज्ञान देने गोपिकाओं से मिलते हैं तब एक गोपिका कहती है ⬇️ हमारै हरि हारिल की लकड़ी अब इस हारिल से परिचय करते हैं ⬇️