Monday, February 24, 2014

मन की गणित

# मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है और इन्द्रयाँ एवं बुद्धि राजस अहंकार से हैं ।मन विकारों का पुंज है और मन के बृत्तियों का द्रष्टा बन जाना ब्रह्म से एकत्व स्थापित करता है और ऐसे योगी को कृष्ण गीता में ब्रह्मवित् योगी कहते हैं ।
# भागवत कहता है कि मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है और गीता में प्रभु कृष्ण कहते हैं - इन्द्रियाणां मनः अस्मि लेकिन मनुष्य और ओर परमात्मा के मध्य यदि कोई झीना पर्दा है तो वह है मन रूपी पर्दा । मन जब गुणोंके सम्मोहन में होता है तब मनुष्यकी पीठ प्रभुकी ओर रखता है और जब गुणातीत होता है तब एक ऐसे दर्पण का काम करता है जिस पर जो तस्बीर होती है वह प्रभुकी तस्बीर होती है ।
# मन को निर्मल रखना ध्यान कहलाता है औए ध्यान बिधियों के अभ्यास के माध्यम से मन को निर्मल रखा जाता है । ध्यान के दो चरण हैं ,पहले चरण में इन्द्रियों एवं उनके बिषयों के सम्बन्ध को समझना होता है । इन्द्रिय -बिषय संयोग भोग है और गुणों के प्रभाव में जो भी होता है उसे भोग कहते हैं । भोग सुख क्षणिक सुख होता है जिसमें दुःख का बीज पल रहा होता है ।
~~~ ॐ ~~~

Monday, February 17, 2014

तेरी मेरी कहानी

1- तेरी , मेरी और सबकी एक ही कहानी है हम लोग इसे समझ नहीं पाते और इसे अलग - अलग रंग देनें लगते हैं ,ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इस लिए होता है कि हम सब माया सम्मोहित ब्यक्ति हैं । योगी इस माया रहस्य को समझता है और इस रहस्य के माध्यम से मायापति से एकत्व बनाए रहता है ।
2- कभीं एकांत में बैठ कर सोचना , क्या खोज रहे थे और क्या मिला ? इस बिषय पर गहरी सोच आपको वहाँ पहुँचा सकती है जहाँ भोग - योग का संगम है और जिसके आगे परम सत्य की गंगा बहती हैं ।
3- जो कोई आपको याद करता है ,उसमें उसका अपना गहरा स्वार्थ होता है , जब आपको इस सत्यका पता चलता है तबतक काफी देर हो गयी होती है और आप मायूस हो कर रह जाते हैं ।
4- हम अपनें जीवन को खूब फैला रहे हैं कभीं -कभीं फैलाते -फैलाते ऐसा लगनें लगता है कि हम तो इसे फैला रहे है पर यह फैलनें की जगह सिकुड़ता जा रहा है और जब यह सोच आती है तब हमारे ऊपर जो गुजरती है उसे सोचनें की हिम्मत मुझमें नहीं आपाती ।वह जो हिम्मत जुटा पाता है वह माया संचालित जीवन -रहस्य को समझ जाता है और प्रभु केन्द्रीय हो उठता है ।
~~ हरि ॐ ~~

Monday, February 10, 2014

संसार और हम

** संसारकी हवाको कौन पहचानता है **
1- संसार एक रंगमंच है जहाँ सबको एक बराबर मौका मिलता है ,स्वयंके असली चहरे को पहचाननेंको और स्वयंकी जब ठीक - ठीक पहचान हो जाती है तब वह ब्यक्ति उस परमको समझ जाता है जिससे और जिसमें इस संसार रंगमंचका अस्तित्व है ।
2 - हम संसारका किनारा खोजनेंमें अपनें जीवनके आखिरी किनारे पर जा पहुँचते हैं पर संसारका किनारा कहाँ मिलता है ? मिले तो तब जब हो ।
3- यहाँ कुछ खोजनें की क्या जरुरत , जो मिला हुआ है क्या वह कम है ? भविष्य की खोज में हम जीवित वर्तमान को मुर्दा बना देते हैं ।
4- खोज चाह की रस्सी है , जितनी बड़ी चाह होगी उसकी रस्सी ( खोज ) भी उतनी लम्बी होगी ।
5- कामना में रस है जो अग्नि का रुप लेलेता है उस समय जब कामना टूटने का भय होता है।
~~~ ॐ ~~~