# मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है और इन्द्रयाँ एवं बुद्धि राजस अहंकार से हैं ।मन विकारों का पुंज है और मन के बृत्तियों का द्रष्टा बन जाना ब्रह्म से एकत्व स्थापित करता है और ऐसे योगी को कृष्ण गीता में ब्रह्मवित् योगी कहते हैं ।
# भागवत कहता है कि मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है और गीता में प्रभु कृष्ण कहते हैं - इन्द्रियाणां मनः अस्मि लेकिन मनुष्य और ओर परमात्मा के मध्य यदि कोई झीना पर्दा है तो वह है मन रूपी पर्दा । मन जब गुणोंके सम्मोहन में होता है तब मनुष्यकी पीठ प्रभुकी ओर रखता है और जब गुणातीत होता है तब एक ऐसे दर्पण का काम करता है जिस पर जो तस्बीर होती है वह प्रभुकी तस्बीर होती है ।
# मन को निर्मल रखना ध्यान कहलाता है औए ध्यान बिधियों के अभ्यास के माध्यम से मन को निर्मल रखा जाता है । ध्यान के दो चरण हैं ,पहले चरण में इन्द्रियों एवं उनके बिषयों के सम्बन्ध को समझना होता है । इन्द्रिय -बिषय संयोग भोग है और गुणों के प्रभाव में जो भी होता है उसे भोग कहते हैं । भोग सुख क्षणिक सुख होता है जिसमें दुःख का बीज पल रहा होता है ।
~~~ ॐ ~~~
Monday, February 24, 2014
मन की गणित
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