Friday, August 21, 2015

कतरन - 17

* कतरन -17 *
1 - परोपकारकी बातें करनें वाला मनुष्य स्वयंकी चाहको पूरा करनें में कौनसी कसर छोड़ रहा है ?
2 - सुरक्षा एक कारण है कि सभीं जीव झुण्ड
(परिवार )में रहते हैं और ज्योंही अपनें परिवार से अलग हो जाते हैं , उनमें अधिकाँश किसी और जीवका भोजन बन जाते हैं । क्या कारण हो सकता है कि आज मनुष्य परिवार में रहना पसंद नहीं कर रहा ?
3 - जो बुद्धि लालच की गुलाम है , उसे सभीं अपनें दिखते हैं , जबतक कुछ पानें की उम्मीद होती है पर ज्योंही उम्मीद टूटती है , सारा नक्शा बदल जाता है ।
4 - देखो सबको पर देखनें से अपनीं शांति न खोओ ,आपके पास जो है , उसे ही प्रभूका प्रसाद समझ कर मस्त रहो।
5 - आपके पास 11 इन्द्रियाँ , मन और अहंकार हैं जो आपको मस्त नहीं रहनें देना चाहते और इन सबके ऊपर एक वह परम ऊर्जा भी है जिसे जीवात्मा कहते हैं और जिसका देह में , हृदय केंद्र है ,वह मस्त रखना चाहती है । इस समीकरण को संतुलित करता है ,
ध्यान ।
~~~ ॐ ~~~

Wednesday, June 17, 2015

कतरन - 16

* मौनका आकर्षण अतुल्य है
* मौनका आकर्षण ध्यानकी गहराई के साथ सघन होता चला जाता है ।
* ध्यानकी गहराई के प्रवेश द्वार पर पहले जो प्रसाद मिलता है यह है मौन ।
* मौन जब पकता है तब वह ध्यानीको द्रष्टा - साक्षी बना देता है ।
* मौन सत्यका बसेरा है ।
* मौन घटित होनें पर अंतः करण निर्विकार अवस्था में शुद्ध हीरे की तरह विकिरण द्वारा जो किरणें फैलाता रहता है , वे किरणें चरों तरफ एक परम ऊर्जा का क्षेत्र निर्मित करती हैं । वह जो जगना चाह रहा होता है , वह इस ऊर्जा क्षेत्र से आकर्षित होता चला जाता है । उसका यह आकर्षण उसे मौनी बना देता है ।
~~~ ॐ ~~~

Friday, June 5, 2015

कतरन - 15 जन्म से जो कर्म ...

1 - जन्मसे जो कर्म मिला है वह तो परिवर्तनीय है लेकिन कर्म से जो जन्म मिला है उसे तो जीना ही
पडेगा ।
2 - जो जहाँ से आता है उसे देर - सबेर वहीँ लौटना ही पड़ता है । उस स्थानको गीत : 2.28 अब्यक्तकी संज्ञा देता है ।
3 - हमसब का वर्तमान एक यात्रा है पर ऐसी सोच रखता कौन है ? जो ऐसी सोच से तृप्त है , वह है ,
बैरागी ।
4 - जो मजा रिश्ता बनानें में मिलता है वह मजा रिश्ता बना कर जीनें में नहीं रह पाता लेकिन ऐसी बात उनसे सम्बंधित है जो बासनाके सम्मोहन में रिश्ते जोड़नें में जल्दी करते हैं । भक्त और मालिक का आपसी संबंध जिसे रिश्ता तो नहीं कहा जा सकता , तबतक बना रहता है जबतक दोनों आमनें - सामनें होते हैं लेकिन वह वक़्त भी आ ही जाता है जब भक्त अपनें मालिक में समा जाता है ।
5 - दूसरे के जीवन पर अपनीं आँख न गड़ाओ , तुझे जो मिला है , इसका मज़ा लो ।
~~~ ॐ ~~~

Saturday, May 23, 2015

कतरन - 14 ( संसारकी हवा हमें कहाँ से कहाँ ले जाती है )

* मनुष्यके माथेसे पसीना टपकने लगता है और धीरे - धीरे भोगकी सोचकी सघनता गहरानें लगती है ।
* मनुष्यके अपनें भोग - सुखमें परम सुखको पकड़ने की प्यास हर भोग - क्षणके साथ और तिब्र हो जाती है । * अपनें और परायेके बीचकी दूरी बढ़नें लगती है ।
* अहंकार कामना पूर्तिके लिए कहाँ - कहाँ चक्कर नहीं लगवाता ।
* जैसे दुःख निवारण हेतु जल्दी - जल्दी दवा और हकीम बदले जाते हैं वैसे कामना पूर्ति हेतु देवताओं एवं गुरुओंको हम बदलनें लगते हैं ।
<> और यह भ्रमित भोग - सुख में परम सुख की तलाश हमें कहाँ - कहाँ नहीं भगाती ? जितना हम भागते हैं - परम सुख मुझसे उतना और दूर होता दिखनें लगता है ।
* हम आँखें बंद करने अपनीं हर कामयाबी पर स्वयं अपनीं पीठ ठोकने में कभीं नहीं चूकते ।
* हम यह समझनें में कभीं नहीं चूकते कि हमारी कामयाबी हमारे अथक श्रमका फल है और नाकामयाबीका कारण मैं नहीं वह है ।
* संसारकी हवाके प्रभावमें हम इतनीं बेहोशीमें आ जाते हैं कि लोगोंको धोखा देते - देते इतने आदी हो जाते हैं कि फिर अपनेंको भी धोखा देनें लगते हैं ।
* हम जब स्वयंको धोखा देनें में पक जाते हैं तब परमात्माको भी धोखा देनें लगते हैं ।
* संसारकी हवा हमारे होशके ऊपर बेहोशीकी चादर धीरे - धीरे ऐसे चढ़ाती चली जाती है कि आगे चल कर यही चादर कफ़न बन जाती है और हम होश खोजते - खोजते बेहोशी में दम तोड़ देते हैं ।
* भोगके क्षणिक सुखमें परम सुखकी तलाश की यात्रा भोगके सम्मोहन के कारण अधूरी ही रह जाती है और पुनः जन्म से यह यात्रा फिर शुरू हो जाती है ।
~~~ॐ ~~~

Wednesday, May 13, 2015

कतरन - 13

* दूसरोंके घरके दरवाजोंमें वे झाँकनेका प्रयत्न करते रहते हैं , जिनके लिए उनके अपनें घरका दरवाजा बंद हो गया होता है ।
* अपनीं गन्दगी छिपानेंके चक्करमें हम दूसरों को गंदा बनानें में कोई कसर नहीं छोड़ते।
* किसी की हिम्मत नहीं जो मेरे सामनें मेरी बुराईकी किताब खोल सके लेकिन जो खोलनें में समर्थ दिखते हैं , उनसे हम दूरी बनाकर रहते हैं ।
* सच्चाई को कहना बहुत आसान है लेकिन सुनना बहुत कठिन ।
* प्रकृति की तरफसे सबको सरल जीवन मिला हुआ है लेकिन मनुष्य सरल जीवन जीनें का आदी नहीं । ~~~ ॐ ~~~

Friday, May 8, 2015

कतरन - 12

कतरन -12
जरा सोचना :----
# नदियोंके साथ ---- # पहाड़ोंके साथ --- # जंगलोंके साथ --- # पेड़ोंके साथ ---- # समुद्रके साथ ---- # पशुओंके साथ ---
और अब
अंतरिक्षके साथ --- अपनें परिवार के साथ एवं स्वयं अपनें साथ --- हम सब क्या कर रहे हैं ?
# प्रकृति प्रभुको देखनेंका आइना है ।
* वैज्ञानिक , दार्शनिक , कवि , लेखक , ऋषि और अन्य सत्यके खोजी एक प्रभुके अनेक रूपों में देखा और उपनिषद्के ऋषियोंनें यह भी नहीं , वह भी नहीं अर्थात नेति - नेति के माध्यम से सबको ऐसे मार्ग पर रखना चाहा जो प्रकृति दर्पण पर ही हम सबका ध्यान केंद्रित रखती है।
# और#
आज हम सब इस प्रकृति - दर्पणके अस्तित्व को ही समाप्त करनें पर जुटे हुये हैं । # फ्रेडरिक नितझे आज से 60 साल पहले मनुष्यके मनोविज्ञानके रुखको भाफ गया और एक दिन बोल उठा कि :----
" प्रभु मर चुका है , उसे हम सब मार चुके हैं अब वह कभीं नहीं उठेगा और हम सब आजाद हैं ।
~~~ ॐ ~~~

Monday, April 13, 2015

कतरन -11

* जीवनके हर पलको रंगों नहीं , उसके हर पलके रंग को देखो और जब प्यारसे देखनेंका गहरा अभ्यास हो उठेगा तब जीवनके हर पलसे टपकते रंगों के प्रति होश उठनें लगेगा जो अन्तः करण में निर्विकार ऊर्जा को भरनें लगेगाऔर वह पल दूर न होगा जब आप की पीठ भोग संसार की ओर होगी तथा आँखों में जो होगा उसकी ही तो खोज केलिये मनुष्य योनि मिली
हुयी है ।
# जीवन सभीं जी रहे हैं : कुछका जीवन उनकी पीठ पर लदा हुआ है और जो ऐसे हैं , वे अपनें जीवनको देख नहीं पाते एवं कुछको उनका जीवन प्रभुके प्रसाद रूप में मिला होता है । प्रसाद रूप में मिला जीवन वाला जहाँ एक पलके लिए भी खड़ा हो जाता है, उड़ घडीके लिए वह स्थान तीर्थ जैसा हो उठता है।
* जिसको जैसा जीवन मिलता है ,उसे उसका मजा लेना चाहिये , दूसरे जैसा जीवन जीनें की चाह कभीं चैन से न रहनें देगी ।।
~~~ॐ ~~~

Wednesday, March 18, 2015

कतरन - 10

* अपना -अपना करते -करते हम स्वयं, अपनों के मध्य पराये बन जाते हैं और जब सत्यका आभाष होता है तबतक़ बहुत देर हो चुकी होती है । 
* परायेको अपना और अपनेंको पराया बनानें की सोचमें जीवन सिमट कर रह जाता है और संसारकी हवा उस तरफ रुख भी नहीं होनें देती जहाँ न कोई अपना है न पराया । 
* जिस पल अपनें और परायेकी सोच बुद्धिसे निकल जाती 
है ,मनुष्य बेचैन हो उठता है। 
* वही बेचैनी होती है समत्व योगसे निर्विकार हुयी हमारी आँखेंमें ।
 * इन आँखों से टपकती रहती हैं ,  आँसूकी बूँदें जो एक तरफ परमसे जुडी रहती हैं और दूसरी तरफ पृथ्वी पर स्थित भोग तत्त्वोंको सूचित करती रहती हैं कि आ ! और देख उसे, जिससे तुम , हम और संसारका अन्य दृश्य वर्ग है । 
●~~~ ॐ ~~~●

Saturday, March 14, 2015

कतरन - 9

सोच - सोच कर ----
* सोच - सोच कर जब बुद्धि - मन उपराम की स्थिति में आते हैं तब उसकी मामूली सी झलक मिलती है ।
* उसकी परीक्षा में कोई - कोई और कभीं - कभीं औअल आता है ज्यादातर लोग असफल ही होते हैं पर कुछेक कक्षोन्नति दर्जे में सफल होनें में कामयाब हो पाते हैं ।
* उसकी परीक्षा ऐसी होती है जिसकी कोई पूर्व सूचना नहीं होती और ज्यादातर लोग बिना तैयारी इम्तहान देते हैं तथा इम्तहानके बाद भी बहुत कमको यह पता चलता है कि उसका इम्तहान हो चूका है ।
* यात्राका मज़ा तब मिलता है जब तन यात्रा पर हो और मन शांत हो कर यात्राका द्रष्टा बन गया हो ।
* संसारमें भोगकी यात्रा सुख - दुःखकी यात्रा है और इन दो तत्त्वोंके मध्यसे जो समभावकी यात्रा है ,वह है परमकी यात्रा ।
●~~~ ॐ ~~~●

Saturday, March 7, 2015

कतरन - 8

* मुझे 16 सालसे अधिक यह समझनें और महसूश करनें में लगे कि खूनके रिश्ते रेशमके धागे जैसे मजबूत और सूक्ष्म बंधन हैं जो ध्यानकी गहराई में उतरनें नहीं देते ।
* जब सोचता हूँ कि बुद्ध आधी रातको पत्नीके प्रसव वेदनाकी चीख सुन कर और नवजात पुत्रकी पहली आवाज सुनकर कैसे वैराज्ञ में उतरे होंगे ? तब मुझे कुछ - कुछ ऐसा लगनें लगता है कि उस समय वे अपनें जन्मकी स्मृति में पहुँच गए होंगे जहाँ एक जंगल में उनकी माँ प्रसव वेदना में चीख रहे होंगी और प्रसवके बाद शिशु रूपमें बुद्ध रो रहे होंगे ।बुद्ध बाद में आलय विज्ञानकी खोज की जिसे महावीर जाति स्मरण नाम दिया था ।यह विज्ञान एक ध्यानकी विधि है जिसमें अपनीं चेतनाको अपनें पिछले जन्मों तक के अनुभवों में पहुँचाया जाता है ।वर्तमान जीवनके अनुभव से गर्भके अनुभव तक और गर्भके अनुभवसे गर्भमें आनेंके अनुभव तक और इस प्रकार अपनें पिछले जन्मोंनके जीवनोंके अनुभवोंमें पहुँचना ही आलय विज्ञान है ।बुद्ध का बेटा 16 साल इंतजारके बाद पैदा हुआ , ऐसी परिस्थिति में बुद्धको उसका जन्म रेशम के सूक्ष्म धागे जैसे स्नेहके बंधनसे बध जाना था लेकिन हुआ उल्टा , वे बंधन मुक्त होकर वैराग्य में पहुँच गए ।
* वक़्त या काल की अपनीं नज़ाकत है ; एक तरफ ख़ुशीके लड्डू रख देता है और दूसरी तरह दिलको गमकी आँसू से भर देता है ,ऐसी स्थिति में जो होता है , वह क्या करे ?
* आये दिन शुभ कामनाएं मिलती रहती हैं जैसे होली ,दशहरा , दीपावली , शिव रात्रि ,बसंत पंचमी ,गुरु पर्व , ईद , बड़ा दिन आदि -आदि । आखिर इतनी सारी शुभ कामनाएं जाती कहाँ हैं , हम तो दिन प्रति दिन घटते ही जा रहे हैं ?
* भारत दुनिया भरके पर्वोंको मनाता है ,जितनें पर्व भारत में मनाये जाए हैं उतनें पर्व संभवतः पृथ्वीके किसी और भागमें नहीं मनाये जाते होंगे लेकिन इन पर्वोंका लोगोंके दिल पर कोई असर नहीं दिखता ।
* पर्वों का मनाना ध्यानका एक माध्यम हुआ करता था पर अब क्षणिक मनोरंजनका साधन बन कर सिकुड़ सा गया है ।
●~~~ ॐ ~~~●

Wednesday, March 4, 2015

कतरन - 07

* मनुष्यके अन्दर दो ऐसे स्पेस हैं जहां भाव पैदा होते रहते हैं - मन और हृदय ।
* मनके भावको जो भाषा में ढ़ालनेका यत्न करते हैं ,कवि बन कर रह जाते हैं
> और <
* जो हृदयके भावोंकी धारामें बहनेंका अभ्यास कर लेते हैं , वे नानक -मीरा जैसे भक्त बन कर एक दिन बहते - बहते परम सागरमें पहुँच कर स्वयं परम सागर बन जाते हैं ।
●~~~ ॐ ~~~~●

Monday, March 2, 2015

कतरन - 6

मर्म और मलहम 
 <> क्या रिश्ता है , इन दोनों में ? 
* वह जो मर्मको समझता है , वहीं सही मलहम लगानेंकी तकनीकको समझ सकता है । 
* जितनें मरहम लगानें वाले आपको मिलेंगे , उनमें शायद ही कोई ऐसा मिले जो अपनें दिल से चोट की गाम्भीरताको पकड़नेकी कोशिश भी करता हो , वरना तो , चोट पर मिर्च छिड़कनेंके बहानें ही लोग मरहमकी डिब्बी लेकर आपके पास आते हैं । 
* चोटकी गंभीरताको दिल से समझना , और आँखें बंद करके दिलसे उस चोटको सहलाना, मरहम लगानेंसे उत्तम परिणाम देता है । 
* वह जो मर्मको समझता है , उसे भौतिक मरहम की कोई जरुरत नहीं । 
* चोटकी गंभीरताको देखते ही हृदय से उपजे और आँखोंसे टपके दो बूँद आँसू , परम मरहम का काम करते हैं । 
~~~ ॐ ~~~

Monday, February 16, 2015

कतरन - 5

* मनुष्यके पास आज क्या नहीं हैं ? लेकिन फिरभी वह दिन प्रति दिन बाहर से फैलता और अन्दरसे सिकुड़ता जा रहा है , आखिर यह घटना मनुष्यको कहाँ पहुचाना चाह रही है ?
* आज जितनी दुकानें योग -ध्यान से सम्बंधित खुलती जा रही हैं , आयुर्वेदका जितना फैलाव हो रहा है और इन सब में मनुष्यकी जितनी दिलचस्बी बढ़ती सी दिख रही है , उसके हिसाब से तो :--
** मनुष्यको अन्दर से फैलना चाहिए था और बाहरसे सिकुड़ना चाहिए था पर हो रहा है सब उल्टा ,आखिर क्यों ?
** जब अहंकारकी सघनता बढती है ,तब मनुष्य बाहर से फैलता है और जब मनुष्यकी बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि न रह कर अनिश्चयात्मिका बुद्धि हो जाती है तब मनुष्य अन्दरसे सिकुड़नें लगता है --- अर्थात  -
# इस समय मनुष्य अहंकार और संदेहका गुलाम होता जा रहा है और मोह एवं भयमें अपनी पक्की बस्ती वना रहा है और यदि ऐसा है तो आयुर्वेद एवं ध्यान का बढ़ता विस्तार बाहर - बाहरसे तो प्रभावी सा दिखता रहेगा पर मनुष्य उनको दिल से स्वीकारनें में समर्थ नहीं हो सकेगा ।ऐसी परिस्थिति में योग , ध्यान और आयुर्वेद क्या कर सकते हैं जब मनुष्य स्वयंको बदलना ही नहीं चाह रहा ? # जैसे - जैसे भौतिक ज्ञान बढ़ रहा है ,मनुष्य की बेचैनी बढती जा रही है जबकि बेचैनी घटनी चाहिए थी ।ऐसी जानकारी जो बेचैनी को बढाती हो , उसे ज्ञान नहीं अज्ञान कहते हैं ।
# जैसा बीजोगे , वैसा काटोगे ।
~~~ ॐ ~~~