* परायेको अपना और अपनेंको पराया बनानें की सोचमें जीवन सिमट कर रह जाता है और संसारकी हवा उस तरफ रुख भी नहीं होनें देती जहाँ न कोई अपना है न पराया ।
* जिस पल अपनें और परायेकी सोच बुद्धिसे निकल जाती
है ,मनुष्य बेचैन हो उठता है।
* वही बेचैनी होती है समत्व योगसे निर्विकार हुयी हमारी आँखेंमें ।
* इन आँखों से टपकती रहती हैं , आँसूकी बूँदें जो एक तरफ परमसे जुडी रहती हैं और दूसरी तरफ पृथ्वी पर स्थित भोग तत्त्वोंको सूचित करती रहती हैं कि आ ! और देख उसे, जिससे तुम , हम और संसारका अन्य दृश्य वर्ग है ।
●~~~ ॐ ~~~●
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