Friday, June 30, 2023

गीता तत्त्वम् - 18 गीता में अर्जुन के 17 प्रश्न और प्रभु के उत्तर



  1. गीता तत्त्वम् - 18

गीता में अर्जुन के  प्रश्न

प्रश्न उठता है , संदेह से और

संदेह अविद्या का तत्त्व है     

दो शब्द⬇️

गीता तत्त्वम् भाग : 18  , ' गीता में अर्जुन के प्रश्न ' में यात्रा प्रारंभ करने से पहले कुछ अहम विषयों को भी देख लेना चाहिए जिनका संबंध श्री कृष्ण एवं महाभारत से है । श्रीमद्भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता दोनो महाभारत के अंश हैं ।  

शायद ही कोई हिंदू घर ऐसा मिले जिसमें गीता न हो और शायद ही कोई हिंदू ऐसा घर मिले जिसमें महाभारत ग्रंथ हो !ऐसा क्यों !  क्योंकि हिंदुओं की ऐसी मान्यता है कि आखिरी श्वास लेते हुए को यदि गीता सुना दिया जाय तो वह मोक्ष प्राप्त करता है और जिस घर में महाभारत ग्रंथ होता है इस घर में लड़ाई होती रहती है । अब जरा सोचिए कि हम कितने भ्रम में जी रहे हैं ! गीता महाभारत भीष्म पर्व अध्याय : 6.25 - 6.42 के रूप में है , बिना महाभारत ग्रंथ , गीता का कोई अस्तित्व ही नहीं बनता और हम महाभारत को घर में रखते हुए डरते हैं , है न हैरान करने वाली बात ? मनुष्य सभीं जीवों की चाल को समझता है लेकिन स्वयं अपनी चाल को नहीं समझता । 

महाभारत युद्ध कुरुक्षेत्र में घटित हुआ और 18 दिन चला जिसमें 18 अक्षौहिणी सेना युद्ध में भाग ली। एक अक्षौहिणी सेना में 2,18,700 सैनिक हुआ करते थे । इस प्रकार यदि सोचा जाए तो  युद्ध में प्रतिदिन दो लाख , अट्ठारह हजार और सात सौ योद्धाओं का दाह संस्कार भी किया जाता रहा 

होगा !  एक तरफ युद्ध चल रहा है और दूसरी तरफ इतनी बड़ी संख्या में मृतकों के दाह संस्कार भी हो रहे हैं , क्या ऐसा होना संभव भी है !  इतने सारे लोगों को सीमित समय में जलाने हेतु पर्याप्त मात्रा में लकड़ी की भी व्यवस्था करना कितना कठिन काम रहा होगा ! आप इस समस्या पर स्वयं सोचते रहना , हम आगे चलते हैं 🌷

प्रभु श्री कृष्ण से संबंधित अनेक घटनाओं में से दो घटनाओं को भी संक्षेप में देख लेते हैं ।

पहली घटना महाभारत युद्ध की है और दूसरी घटना यदुकुल संहार की है । ये दोनों घटनाएं जहां - जहां घटित हुई थी उन  क्षेत्रों की यहां गूगल नक्शे के ऊपर दो धर्म क्षेत्रों के रूप में दिखाया जा रहा । इन दो में पहला कुरुक्षेत्र है और दूसरा प्रभास क्षेत्र है । प्रभास क्षेत्र भागवत पुराण में धर्म क्षेत्र नाम से संबोधित किया गया है और यह क्षेत्र वर्तमान का काठियावाड़ क्षेत्र है जो अरब सागर का तटीय क्षेत्र है । कुरुक्षेत्र को सभीं धर्म क्षेत्र रूप में जानते ही हैं क्योंकि गीता का जन्म स्थान धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे है । प्रभास क्षेत्र से नाव द्वारा द्वारका जाया जाता था । इसी क्षेत्र में सरस्वती सागर से मिलती भी थी । 

सरस्वती तट पर कुरुक्षेत्र में अर्जुन को श्री कृष्ण गीता ज्ञान का उपदेश दिए थे और सरस्वती के तट पर प्रभास क्षेत्र में श्री कृष्ण उद्धव को तत्त्व ज्ञान दिए थे । दोनों ज्ञानी में केवल एक अंतर है ; प्रभास क्षेत्र में जब प्रभु ज्ञान दे रहे थे उस समय उनके ही परिवार में महाभारत हो रहा था , संपूर्ण यदुकुल का संहार ही रहा था और गीता ज्ञान महाभारत युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले दिया गया था । प्रभास क्षेत्र में प्रभु का दिया गया ज्ञान उनका आखिरी ज्ञान था , ज्ञान देने के बाद प्रभु भू लोक छोड़ स्वधाम चले गए थे और द्वारका सागर - गर्भ में समा गई थी ।

अब हस्तिनापुर सम्राट शंतनु की बंशावली को भी समझते हैं  ⬇️

ऊपर दिखाई गई बंशावली के स्पष्ट है कि दुष्यंत - शकुंतला पुत्र सम्राट भरत के बाद शंतनु 20वें हस्तिनापुर सम्राट थे । शंतनु के बाद 11वें सम्राट नेमिचक्र हुये । नेमिचक्र के समय गंगा जी हस्तिनापुर को बहा ले गयी थी और इस प्रकार हस्तिनापुर का अस्तित्व ही समाप्त हो गया था । नेमिचक्र प्रयाग के पास कौशाम्बी में जा बसे थे जो बाद में बुद्ध का तीर्थ स्थान बन गया । कौशाम्बी यमुना के तट पर स्थित है ।

सम्राट भरत अपनें पुत्रों में से किसी को अपना उत्तराधिकारी नही बनाया था क्योंकि उन्हें अपनें पुत्रों में से कोई भी योग्य नहीं दिख रहा था । अपनी प्रजा में से किसी एक सुयोग्य पुत्र को अपना पुत्र बना उसे हस्तिनापुर सम्राट घोषित किये थे । सम्राट भरत की सोच थी कि राजा बंश आधारित न हो कर कर्म एवं योग्यता आधारित होना चाहिए । इस प्रकार भरत भारत वर्ष में प्रजातंत्र की नीव डाली।

सम्राट भरत के बाद 20 वें सम्राट शंतनु हुए जो  सम्राट भरत के आदर्श को किसी विवशता के कारण नहीं चला पाए ।

शंतनु को गंगा तट पर  गंगा से प्यार हुआ और गंगा - शंतनु से भीष्म पैदा हुए । गंगा शंतनु को छोड़ गई और साथ पुत्र भीष्म को भी ले गई । एक दिन यमुना तट पर केवट पुत्री सत्यवती से मिलन हुआ और प्यार हो गया। सत्यवती के महारानी बनते ही हस्तिनापुर का भविष्य तेजी से पतन की ओर बढ़ने लगा और अंततः महाभारत युद्ध हुआ ।

सम्राट शंतनु का जीवन गंगा और यमुना के मध्य प्रेम प्रसंगों में उलझ कर रह गया था । 

महाभारत युद्ध के  उत्पत्ति तत्त्व मोह था । पहला मोह सम्राट धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था और दूसरा अर्जुन का मोह था । अर्जुन को  ऐसा दिख रहा था कि इस युद्ध से कुल धर्म और जाति धर्म का अंत हो जाने वाला है और ऐसा हुआ भी । प्रभु सब कुछ देखते हुए और जानते हुए भी अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे , क्योंकि युद्ध तो होना ही था , काल की गति को प्रभु को छोड़ और कौन जान सकता है ?

एक तरफ धृतराष्ट्र के पुत्र मोह के कारण कुरुक्षेत्र में एक ही परिवार , कुल , बंश के लोग ,उनके सगे - संबंधी युवा से बूढ़ों तक सभी एक दूसरे के शत्रु बन कर एक दूसरे को मारने और मरने के लिए आमने सामने खड़े हो कर युद्ध प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । दूसरी तरफ अर्जुन का मोह उन्हें युद्ध में न उतरने के लिए रोक रहा है । महाभारत युद्ध की जितनी तैयारी अर्जुन किये थे , उतनी तैयारी किसी और नें नहीं की थी । अर्जुन देवी - देवताओं जैसे इंद्र , शिव एवं दुर्गा आदि से दिव्यास्त्रों को प्राप्त करने  के बाद पूरी तैयारी और इच्छा शक्ति के साथ युद्ध में उतरे थे लेकिन दोनों पक्षों के लोगों को देखते ही मोह में ऐसे डूबे जैसे पानी में पत्थर का टुकड़ा डूब जाता है ।

धृतराष्ट्र का मोह युद्ध को आमंत्रित किया और अर्जुन का मोह युद्ध टालने की युक्ति की खोज कर रहा है , है न मोह के सम्मोहन का तिलस्म !

अब आगे की यात्रा में उतरते हैं ⬇️

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य ,युद्ध प्रारंभ होने के ठीक पहले अर्जुन और प्रभु श्री कृष्ण के मध्य हुए संवाद का ही नाम श्रीमद्भगवद्गीता है। 

गीता अध्याय - 1 में अर्जुन के 22 श्लोकों को सुनने के बाद गीता अध्याय - 2 के प्रारम्भ में (श्लोक - 2.2 ) प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं , 

" हे अर्जुन ! तुम्हें असमय में यह मोह कैसे हो गया ? "

 युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व प्रभु चाहते हैं कि अर्जुन मोह मुक्त हो कर युद्ध करे अन्यथा वह युद्ध हार जायेंगे ।अर्जुन को मोह मुक्त कराने हेतु प्रभु गीता के 700 श्लोकों में 574 श्लोकों के माध्यम से जो ज्ञान देते हैं , वह मोह मुक्ति की औषधि का काम करता है या नहीं , इस विषय पर आप बाद में सोचना , अभी निम्न तालिका को देखें ⬇️

गीता में श्लोकों का विवरण

⬇️

धृतराष्ट्र

संज्जय

अर्जुन

कृष्ण

श्लोक >

संख्या >

01

39

86

574

अर्जुन प्रभु की बातों में  चतुरता के साथ युद्ध न करने के उपाय खोजते रहते हैं  और प्रभु श्री उनकी अस्थिर बुद्धि को भ्रमित करके स्थिर करना चाहते हैं । महर्षि पतंजलि अपनें योग दर्शन के समाधि पाद में अस्थिर मन को स्थिर करने के 9उपाय बताए हैं जिनका मुख्य आधार अभ्यासऔर वैराग्य है । प्रभु भी गीता अध्याय - 6 में अस्थिर मन को स्थिर करने के लिए अभ्यास - वैराग्य को ही प्रमुख आधार बताते हैं । 

प्रभु कहते हैं , जब मेरे भांति -भांति के वचनों को सुनने के बाद तेरी बुद्धि मुझ पर स्थिर हो जाएगी तब तुम योगारूढ़ अवस्था में होओगे और सत्य को सम्मझ सकोगे ।

प्रभु श्री गीता में आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह ,भय और अहँकार , कर्म , कर्म योग , ज्ञान , ज्ञानयोग , समत्त्वयोग , अभ्यासयोग ,श्रद्धा , स्पृहा , भक्ति ,गुण विभाग और कर्म विभाग जैसे रहस्यों को भी स्पष्ट करते हैं । 

प्रभु श्री गीता में अपनें  साकार - निराकार और सगुण - निर्गुण स्वरूपों के संबंध में भी बताते हैं । 

प्रभु श्री अर्जुन को मन शांत रखने की कुछ योग विधियों को भी बताते हैं और अंततः ज्ञान योग के मूल तत्त्व आत्मा एवं ब्रह्म जैसे अव्यक्तातीत विषयों को भी व्यक्त करते हैं 

गीता में ऐसा नहीं दिखता कि अर्जुन मोह मुक्त हुए होंगे क्योंकि अंत तक वे प्रश्न करते हैं और प्रश्न उठना अस्थिर बुद्धि का लक्षण है । 

# अगले अंक में अर्जुन का पहला प्रश्न देखें #

~~~ ॐ ~~~ 

Monday, June 26, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 17 आत्मा


गीता तत्त्वम् - 17 : आत्मा 



अब हम गीता तत्त्वम् के 17 वें सोपान पर हैं जहां वेदांत दर्शन के मूल तत्त्व आत्मा जो अव्यक्त है उसे शब्दों में व्यक्त करने की अनुमति प्रभु से मांगते हैं। गीता में प्रभु स्वयं आत्मा को अव्यक्त कहते हैं और उसे व्यक्त करने की पूरी कोशिश भी करते हैं ।  प्रभु गीता में आत्मा को अप्रमेय कहते हैं और शब्दों में बांधना भी चाहते हैं । हमारे शब्द बहुत गरीब हैं , उनकी सीमाएं हैं एक सीमित असीमित को कैसे माप सकता है ! 

हमारी बुद्धि त्रिगुणी प्रकृति या माया से उत्पन्न पहला तत्त्व है । बुद्धि से तीन अहंकारों की उत्पत्ति है जिनसे 11 इन्द्रियाँ , पांच तन्मात्र उत्पन्न होते हैं और तन्मात्रों से उनके अपनें -अपनें महाभूत उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार त्रिगुणी से उत्पन्न जो होगा वश त्रिगुणी ही होगा क्योंकि हर कार्य में कारण भी होता है , ऐसा कोई कार्य नहीं जिसमें उसका कारण न हो । कारण निमित्त कारण या फिर उपादान कारण हो सकता है । 

अब हम सबसे कठिन बिषय आत्मा में उतरने की तैयारी में हैं । अतः भारतीय दर्शनों में झांकते हैं फिर गीता मध्यम से आत्मा को समझेंगे ।

भारतीय विभिन्न दर्शनों और उनकी मान्यताओं को ठीक से समझने के बाद फिर उनमें से वेदान्त दर्शन को कुछ गहराई से देखना होगा और तब आत्मा पर चर्चा करेंगे अतः पहले निम्न 10 भारतीय दर्द्धसनों में झांकते हैं ⬇️


भारतीय दर्शनों में आत्मा / परमात्मा मोक्ष को भी समझते हैं जो आत्मा की ओर बुद्धि को आत्मा केंद्रित होने में सहयोग कर सकते हैं 


दर्शन / मोक्ष की मान्यता 

आत्मा / परमात्मा की मान्यता

चार वाक्

मोक्ष मान्य है 

अनात्मवादी दर्शन , चेतनायुक्त देह ही आत्मा है। सुख जैसे मिले , प्राप्त करो। चार्वाक पुरुषार्थ मेंअर्थ +काम दो तत्त्व मानते हैं

बौद्ध दर्शन

मोक्ष मान्य है 

अनात्मवादी दर्शन : शरीरके बाद कुछ नहीं बचता । पञ्च स्कन्ध का संघात आत्मा है , चेतना का प्रवाह ही आत्मा है।

निर्वाणं परमं सुखं , मोक्ष पूर्ण शांत हो जाना है

जैन दर्शन

मोक्ष मान्य है 

आत्माको मानते हैं

अनंत चतुष्टय

●अनंत ज्ञान ●अनंत शक्ति ●अनंत दर्शन

#अनंत आनंद 


# निर्वाण में आत्मा अपने मूल स्वरुप में चली जाती है

●सांख्य

( कपिल )

और योग

( पतंजलि)

मोक्ष मान्य है 


सांख्य प्रकृति - पुरुष द्वैत्य बाद है

और आत्मा - परमात्मा शब्द नहीं हैं

पतंजलि योग में 

ईश्वर शब्द है आत्मा शब्द नहीं है

1 - न्याय 

( गौतम )

2 - वैषेशिक

( कणाद )

मोक्ष मान्य है

चैतन्य को आत्मा का आगंतुक गुण मानते हैं। मूलतः आत्मा अचेतन है लेकिन देह में आते ही चैतन्य हो जाता है 

पूर्व मीमांसा

(जैमिनी )

मोक्ष मान्य है 

पूर्व मीमांसा और न्याय के विचार एक जैसे हैं 

उत्तर मीमांसा

(वेदांत )

(बादरायण)

मोक्ष मान्य है 

ईश्वर - आत्मा - जीवात्मा ब्रह्म - माया आधारित यह दर्शन है । सांख्य को शंकर नहीं मानते । शंकराचार्य जगत् को मिथ्या ब्रह्म को सत्य मानते


विशिष्ट

अदैत्य बाद

रामानुजाचार्य

मोक्ष मान्य है 

वेदांत को मानते हैं लेकिन जगत् मिथ्या को नहीं मानते



भारतीय दर्शनों में आत्मा, परमात्मा और मोक्ष रहस्य के कुछ और ज्ञान⤵️

⚛️ जैन धर्म के अनुसार “अप्पा सो परमप्पा “, अर्थात  आत्मा ही परमात्मा है।

☸️ बुद्ध कहते हैं , " अप्प दीपो भव " अर्थात स्वयं दीप बनो  ।

✡️ आत्मा जब तक राग - द्वेष के रंग से रंगा है  , तब तक आत्मा कहलाता है और जब राग - द्वेष के विकारों से मुक्त हो जाता है , तब वह परमात्मा कहलाता है। यही परमात्मा एक अवस्था है , यही तीर्थंकर अवस्था है और यही ईश्वरत्व है। 

जैन दर्शन में भगवान अरिहंत ( केवली ) और सिद्ध 

(मुक्त आत्माएं ) को कहते हैं । 

हर आत्मा का स्वभाव भगवंता है और हर आत्मा में अनंत दर्शन , अनंत शक्ति , अनंत ज्ञान और अनंत सुख है ।  सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र के माध्यम से आत्मा के मौलिक स्वभाव को प्राप्त किया जाता है ।

कर्म प्रकृति के मौलिक कण होते हैं । जो कर्मों का हनन कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है , उन्हें अरिहंत कहते हैं ।  तीर्थंकर विशेष अरिहंत होते हैंजैन दर्शन में ज्ञान से अभिप्राय सम्यक् ज्ञान से है और यही प्रमाण है। जिस प्रकार से जीव एवं अजीव पदार्थ अवस्थित हैं, उस प्रकार से उसको जानना सम्यक् ज्ञान है।

आत्मा तत्त्व ज्ञान 

श्रीमद्भागवत पुराण : 11.19 + 11.22 में उद्धव प्रभु श्री कृष्ण से मूल तत्त्वों की संख्या जानना चाहते हैं जिनसे जड़ और चेतन की रचना हुई है । प्रभु श्री कृष्ण उत्तर में क्रमशः 4 , 6 , 7, 9 , 11 , 13 , 16 , 17 , 25 , 26 और 28 तत्त्व बताते हुए आगे कहते हैं कि ये संख्याएं विभिन्न तत्त्व ज्ञानियों द्वारा बताई गई हैं । ऊपर व्यक्त 11 श्रेणियों में  विभक्त तत्त्वों में आत्मा तत्त्व क्रमशः 4 , 11, 16 और 17 में दिया गया है शेष 7 श्रेणियों में आत्मा तत्त्व नहीं है । ध्यान रस्खें कि यह तत्त्वों की संख्याएं विभिन्न सामान्य तत्त्व ज्ञानियों द्वारा दी गयी हैं और वे जिसनी वेदांती हैं । 

ऊपर  दी गयी स्लॉइड में 

श्रीमद्भागवत पुराण स्कंध 2.4 - 2.5 - 2.6 , 

श्रीमद्भागवत पुराण स्कंध : 3.5 - 3.6 

श्रीमद्भागवत पुराण स्कंध : 3.26 और

श्रीमद्भागवत पुराण स्कंध :11.24 में क्रमशः ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल तथा प्रभु श्री कृष्ण द्वारा सृष्टि - उत्पत्ति संदर्भ में बताए गए तत्त्वों की संख्याएं क्रमशः 40 , 35 , 41 और 34 दी गयी हैं और  इन तत्त्वों में आत्मा तत्त्व नहीं है 

अभीं तक आत्मा तत्त्व ज्ञान में दी गयी सूचनाओं का सार यहां पुनः निम्न स्लॉइड में देख लें जो आगे की यात्रा को सुगम बना सकती हैं ⬇️

संदर्भ श्रोत ⬇️

तत्त्वों की संख्याएं

भागवत : 11.19

भागवत : 11.22

4 , 6 , 7, 9 , 11 , 13  16 , 17 , 25 , 26 , 28

भागवत स्कंध 

2 , 3 और 11

40 , 35 , 41 , 34

सांख्य दर्शन

25 


ऊपर स्लॉइड में सांख्य दर्शन में 25 तत्त्व को भी दिखाया गया है । सांख्य दर्शन द्वैत्यबादी दर्शन है । सांख्य में प्रकृति जड़ तत्त्व और पुरुष चेतन तत्त्व के संयोग से सृष्टि रचना बताई गई है ( कारिका - 3 और कारिका : 22 )। दोनों तत्त्व सनातन हैं और स्वतंत्र हैं । सांख्य में प्रकृति वेदांत दर्शन की माया जैसी त्रिगुणी है । प्रकृति , पुरुष प्रकाश से विकृत होती है और कारण - कार्य रूपों में 23 तत्त्वों की उत्पत्ति होती है । इन 23 तत्त्वों में बुद्धि , अहँकार और मन को चित्त कहते हैं । पुरुष चित्त केंद्रित होता है जिसे कैवल्य दिलाने में प्रकृति के तत्त्व मदद करते हैं । जबतक पुरुष अपनें मूल स्वरूप में अर्थात शुद्ध चेतन अवस्था में नही लौट जाता तबतक प्रकृति आवागमन चक्र में रहती है । पुरुष जब समझ जाता है कि वह चित्त नहीं , शुद्ध चेतन है तब प्रकृति भी अपनें मूल स्वरूप में आ जाती है जो तीन गुणों की साम्यावस्था है ।

ध्यान में रखना होगा कि चित्त से जुड़ते ही पुरुष चित्ताकार हो जाता है अर्थात चित्त माध्यम से संसार को समझता है अर्थात तीन गुणों से प्रभावित रहने लगता है अर्थात निर्गुणी से सगुणी में रूपांतरित हो जाता है लेकिन उसे अपनें मूल स्वरूप की स्मृति बनी रहती है पर प्रकृति प्रभाव में वह स्मृति बहुत प्रभावी नहीं रहती  । 

वेदांत दर्शन अद्वैत्यबादी दर्शन है । इस में ब्रह्म ,आत्मा , जीवात्मा और माया शब्दों के सहयोग से सृष्टि रचना समझी जाती है । ब्रह्म 

(काल , ईश्वर , प्रभु आदि शब्द ब्रह्म के पर्यायवाची शब्द समझना चाहिए ) एक सनातन शुद्ध चेतन ऊर्जा है जो सर्वत्र सम्पूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान है । जो कुछ सम्पूर्ण ब्रह्मांड में था , है और आगे होने वाला है सब का बीज रूप ब्रह्म है । 

ब्रह्म का अंश आत्मा है और ब्रह्म निर्मित माया वह माध्यम है जिससे और जिसमें ब्रह्म रचित संसार है। माया सर्वत्र विद्यमान त्रिगुणी माध्यम है।

 आत्मा जब देह में होता है तब उसे जीवात्मा कहते हैं । जीवात्मा त्रिगुणी पदार्थों का भोक्ता है और सगुणी है ; इस पर तीन गुणों का प्रभाव रहता है अर्थात माया सम्मोहित रहती है । जीव के भौतिक देह में जीवात्मा को छोड़ शेष सब माया है । ब्रह्म , माया माध्यम से संसार की रचना करता है , चलाता है और प्रलय भी करता है । संसार के आदि , मध्य और अंत का नियंत्रण ब्रह्म , काल के नाम से करता है । वेदांत दर्शन में एक नहीं  अनेक सिद्धांत सृष्टि उत्पत्ति के संबंध में हैं और विवादित हैं । सांख्य दर्शन गणित जैसा तथ्य प्रस्तुत करता है जहां कोई संदेह नहीं , कोई भ्रम नहीं और कोई शब्द जाल नहीं । 

जैसे एक मकड़ी जाल का निर्माण करती है , उसमें रहती है , अपना संसार उसी में बसाती है और अंत में जाल और जाल में उपस्थित सभी सूचनाओं को निगल जाती है ठीक वैसे ही माया से माया में संसार की स्थिति भी है ।

आत्मा को समझने से पूर्व लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर को भी समझना जरूरी है क्योंकि सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म से संबंधित है। 

लिङ्ग शरीर 

लिंग शरीर प्रकृति के विकृत तत्त्वों का समूह है जो आवागमन में तबतक रहता है जबतक कैवल्य नहीं मिल जाता । सूक्ष्म शरीर की मन्त्यता संख्या और वेदान्त दोनों दर्शनों में है । 

शंकराचार्य रचित विवेक चूणामणि में सूक्ष्म शरीर 10 इन्द्रियाँ + 05 महाभूत + 05 प्राण + चतुष्ठय ( मन , बुद्धि , अहँकार और चित्त ) अर्थात 24 तत्त्वों का समूह है । लिंग शरीर बार - बार स्थूल देह धारण करता रहता है जबतक इससे बद्ध पुरुष को कैवल्य नहीं मिल जाता ।


अब ध्यान योग्य सार ➡️ वेदांतदर्शन का प्रमुख श्रोत ब्रह्मसूत्र में सूक्ष्म शरीर में 17 तत्त्व बताए गए हैं (देखें ऊपर स्लाइड में ),भागवत में मन सहित पांच ज्ञान इंद्रियों के समूह को सूक्ष्म शरीर बताया गया है और आदि शंकराचार्य अपने विवेक चूणामणि में सूक्ष्म शरीर में 24 तत्त्वों को बताए हैं जबकि ब्रह्म सूत्र का भाष्य आदिशंकराचार्य जी लिखे हैं पर वहां इस विषय पर चुप हैं । वेदांत दर्शन में एक विषय पर इतनी हैं की उन मतों से आधार पर साधक की साधना यात्रा की गति धीमी पड़ जाती है और उसकी बुद्धि स्थिर नहीं हो पाती ।

 सांख्य दर्शन सूक्ष्म शरीर 18 तत्त्वों के समूह को कहताहै जिसे पतंजलि योग दर्शन भी स्वीकारता है । 

शंकराचार्य वेदांत  दर्शन के मूल आचार्य हैं । उनके दो निम्न सिद्धांतों पर आप गौर करना ….

1- जीवात्मा पुराने देह को त्याग कर नया देह धारण करता है। मृत्यु काल का सघन भाव उसकी जीवात्मा को वैसी योनि ढूढने को प्रेरित करता है। 

2 - सूक्ष्म शरीर नया पंच भूतीय स्थूक देह धारण करता है ।

यहां इन दो सिद्धांतों में निम्न बात पर ध्यान देना …

सूक्ष्म शरीर के तत्त्वों में 10 इन्द्रियाँ + 05 महाभूत + 05 प्राण + चतुष्ठय ( मन , बुद्धि , अहँकार और चित्त ) अर्थात 24 तत्त्वों का समूह है जिनमें जीवात्मा तत्त्व नहीं है फिर जीवात्मा नया शरीर कैसे धारण करेगा ? अर्थात यहां जीवात्मा तत्त्व तो नहीं है लेकिन वह है एक उपादान कारण के रूप में जिसकी ऊर्जा से ही शेष तत्त्व एकत्रित रहते हुए नई योनि की तलाश करते हैं । 

वेदांत दर्शन में ब्रह्म सूत्र , उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता को प्रस्थान त्रयी कहते हैं ; ये तीन वेदांत दर्शन के स्तंभ हैं ।  ऐसा समझा जाता है कि बादरायण ब्रह्म सूत्र के रचनाकार हैं । ब्रह्म सूत्र अध्याय - 4 ,पाद - 1 सूत्र - 2 लिंगाच्च है  । लिङ्ग का अर्थ है चिन्ह या प्रमाण । वेदों और वेदांत में लिङ्ग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है । सूक्ष्म शरीर के 17 तत्त्व हैं । 

शतपथ ब्राह्मण 5 - 2 - 2 - 3 में इन 17 तत्त्वों को सप्तदश प्रजापति कहा गया है । 

ब्रह्म सूत्र में लिङ्ग शरीर के 17 तत्त्व निम्न हैं 👇

>11 इन्द्रियाँ 

>01  बुद्धि 

> 05 वायु ( प्राण , अपान , व्यान , उदान , समान ) 

05 प्राणों के निवास स्थान ⬇️

➡️प्राण नाक के अगले भाग में रहता है

➡️ अपान गुदा में रहता है 

➡️ व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है

➡️ उदान गले में रहता है 

➡️ समान भोजन पचाता है 

🕉️ हिन्दू मान्यता में लिङ्ग पूजन प्रभु के प्रमाण स्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन है ।

ब्रह्म , माया , जीव , प्राण , ईश्वर , आत्मा , जीवात्मा , प्रकृति , पुरुष जैसे और कुछ क्षण वेदांत दर्शन में दिखते हैं जिनसे आकर्षित होना स्वाभाविक भी है लेकिन इनको विभिन्न वेदांत दर्शनों जैसा नीचे दिखाया जा रहा है , पाठक को स्पष्टता नहीं मिलती 

भारतीय वेदांत दर्शन निम्न प्रमुख 5 भागों में विभक्त है। आज स्थिति ऐसी है की किसी से आत्मा ब्रह्म की बात करें तो तुरंत मतभेद हो जाता है । जब उनसे पूछेंगे की आप जो कह रहे हैं उसका आधार क्या है तो लोग लड़ने लगते हैं । बहुत कम लोग जानते हैं कि उनकी सोच का आधार क्या है , ज्यादातर लोग भ्रमित हैं ।

1 - अद्वैत्य शंकर

ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है । जीव और ब्रह्म अलग अलग नहीं एक हैं । अज्ञान के कारण अपनें में स्थित ब्रह्म को जीव नहीं जान पाता।  

अपने ब्रह्म सूत्र में कहते हैं : अहम् ब्रह्मास्मि 

2- विशिष्ट अद्वैत रामानुजाचार्य ( 1017- 1137 ) यमुनाचार्य के शिष्य । जाती परंपरा के विरोधी हैं । भक्ति बाद के प्रमुख आचार्य हैं। ईश्वर ( ब्रह्म ) , जीव ( आत्मा ) और प्रकृति नित्य हैं ।

जगत और जीवात्मा दोनो कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं लेकिन ब्रह्म से उदभूत हैं और  संबंधित हैं अतः ब्रह्म एक होते हुए भी अनेक है । संख्य में पुरुष को अनंत कहा गया है ।

रामानुजाचार्य शंकर के मायाबाद का खंडन करते हैं । वे कहते हैं , जगत ब्रह्म से निर्मित है , मिथ्या नहीं है । रामानुज सगुण उपासक हैं। रामानुजाचार्य मयाबाद का खंडन करते हुए 7 तर्क देते हैं …

#ज्ञान द्रव्य है जो प्रत्यक्ष , अनुमान और शब्द से मिलता है।

# ब्रह्म या ईश्वर सगुण तत्त्व है । आत्मा और ब्रह्म में कुछ अंतर है लेकिन ब्रह्म का अंश है और ब्रह्म पर निर्भर है । जैसे अंश कभी पूर्ण नहीं हो सकता , वैसे आत्मा कभी ब्रह्म नहीं हो सकता । वे जीवात्मा के 3 प्रकार बताते हैं > बद्ध ( जीव से बद्ध ) , मुक्त ( ईश्वर सान्निध्य प्राप्त करने से ) , नित्य ( बैकुंठ में ईश्वर भक्ति  सेवा मेंरहना ) । 

प्रकृति तीसरा तत्त्व है जो जड़ है अचेतन है । पूर्ण संचित कर्म आधारित आत्मा और प्रकृति से सृष्टि रचना ईश्वर करते हैं ।

ध्यान रहे कि शंकर आत्मा - ब्रह्म को एक मानते हैं और माधवाचर्य दोनो को अलग अलग मानते हैंम

3 - द्वैत - अद्वैत्य निंबकाचार्य का मत 

यह मत द्वैत्य और अद्वैत्य दोनो स्वीकारता है । इसके मतावलंबी  कहते हैं द्वैत्य - अद्वैत्य एक दूसरे के बिना अधूरे हैं । आत्मा परमात्मा एक हैं । 

4  - शुद्ध अद्वैत्य बल्लभाचार्य  (1479 - 1531)

ये कृष्ण भक्त हैं और कृष्ण केवल एक तत्त्व को मानते हैं । यह अद्वैत्य से भिन्न मार्ग है ।

5 - द्वैत्य बाद श्री माधवाचार्य जी का 

# जीव और ब्रह्म दो अलग - अलग हैं ।

# अद्वैत्य दर्शन माधवाचार्य तथा विशिष्ट अद्वैत्य दर्शन रामानुजाचार्य का एक जैसे दर्शन हैं  ।

आग ब्रह्म के संबंध में गीता के निम्न श्लोक को देखें

गीता ब्रह्म को योनि बता रहा है और कृष्ण स्वयं को उस योनि में बीज रोपण करता स्वयं को बता रहे हैं जबकि वेदांत में ब्रह्म से ही सबकुछ है , है न भ्रम पैदा करने का बीज ? आब आगे ⬇️

🕉🕉️आत्मा , जीवात्मा , प्राण , ब्रह्म , माया , ईश्वर , प्रभु , महेश्वर , प्रकृति और पुरुष जैसे वेदांत दर्शन में बहुत से शब्द मिलते हैं जिनको समझने और समझने वाले दोनों भ्रम में रहते हैं । ऊपर व्यक्त 10 संबोधनों में से  माया और प्रकृति को छोड़ शेष 8 के संबंध में जो विस्तार मिलते हैं , उनको देखने से यही लगता है जैसे ये संबोधन किसी एक अव्यक्त , अति सूक्ष्म सर्वत्र व्याप्त , सनातन और  निराकार ऊर्जा के हैं संबोधन हैं  जो देश - काल के अनुसार अलग - अलग संबोधनों से व्यक्त किये जाते हैं  । संभवतः ऐसे व्यक्ति को खोजना सरल न होगा जो इन संबोधनों के संबंध में पूछे जाने पर यह कह सके कि मुझे सही -सही इन संबोधनों के संबंध में  पता नहीं है जबकि सच्चाई यह है कि वह स्वयकम द्वारा व्यक्त भावों से स्वयकम भी संतुष्ट नहीं दिखता । वेदांत दर्शन में माया और सांख्य -पतंजलि दर्शनों में प्रकृति दोनों एक के ही संबोधन है । माया निर्गुण -निराकार ऊर्जा से त्रिगुणी ऊर्जा है । माया सभीं उपलब्ध साकार , सगुण और जड़ -चेतन रूपों में व्याप्त सूचनाओं और निराकार , निर्गुण सर्वव्याप्त शुद्ध चेतन ऊर्जा के मध्य संपर्क माध्यम के रूप में है । माया से माया में निर्गुण - निराकार एवं शुद्ध चेतन ऊर्जा के प्रभाव में सबहिं सगुण -साकार सूचनाएं हैं । 

स्थूल रूप में परमात्मा , प्रभु और ईश्वर एक दूसरे के संबोधन हैं । महेश्वर , महाकाल जैसे शब्द व्यक्ति विशेष द्वारा रचित हैं जिनका साधना से ज्यादा गहरा संबंध नहीं लेकिन अपरा भक्ति में कामना पूर्ति के लिए देव पूजन से आकर्षित लोगों के लिए महेश्वर , महाकाल शब्दों का विशेष स्थान अवश्य है।  ईश्वर से ईश्वर में माया है माया से माया में सभी व्यक्त साकार त्रिगुणी सूचनाएं हैं । दूसरी तरफ ईश्वर से ईश्वर में ब्रह्म हैं , ईश्वर के एक कण जैसा आत्मा है जो निर्विकार निर्गुण ईश्वर के एक कण जैसा होता है । जब यह प्रभु प्रकाश कण देह या शरीर के  अंदर होता है तब उसे जीवात्मा कहते हैं और यह तीन गुणों के प्रभावित रहता हुआ देह में करता एवं सुख - दुःख का भोक्ता रूप में रहता है । अब देखते हैं गीता में आत्मा रहस्य को जो आज का प्रमुख बिषय है । 

अब सांख्य के लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर को समझते हैं  ⬇️

सांख्य में बुद्धि ,अहंकार , 11 इंद्रियां और 5 तन्मात्र के समूह को सूक्ष्म या लिंग शरीर कहा गया है । लिंग शरीर पुरुष को कैवल्य दिलाने के लिए यथा उचित अगली योनि की तलाश करता है लेकिन यहां भी पुरुष लिंग शरीर का तत्त्व नहीं क्योंकि पुरुष आवागमन नहीं करता , वह यथावत रहता है।ऐसा समझें , जैसे वेदांत में जीवात्मा है ठीक उसी तरह सांख्य का पुरुष है ।  जैसे जीवात्मा अनेक हैं वैसे पुरुष भी अनेक हैं । ध्यान रखना होगा कि आत्मा अनेक नहीं, जीवात्मा अनेक है । आत्मा शुद्ध निर्गुण चेतन , अकर्ता और अभोक्ता है लेकिन देह से मिलते ही सगुण एवं सविकार जीवात्मा बन जाता है। जो करता और भोक्ता है । अब आगे ⬇️


🕉️श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा

आत्मा संबंधित गीता श्लोक⤵️

2.13

2.17

2.18 

2.19

2.20

2.21

2.22

2.23

2.24

2.25

2.26

2.27

2.28

2.29

2.30

3.17

3.42

3.43

6.29

8.5

8.6

10.20

13.32

13.33

14.5

15.7

15.8

15.11

योग >

28

अब इन 28 श्लोकों के सार को समझते हैं ⤵️

गीता – 2.13

जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ; धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता ।

गीता  – 2.17

आत्मा अविनाशी , सर्वत्र एवं अब्यय है 

 गीता – 2.18

आत्मा अनाशिन और अप्रमेय है 

 गीता  – 2.19

नायं हन्ति न हन्यते [ आत्मा न मारता है न ही मारा जाता है ]

 गीता – 2.20

न हन्यते हन्यमाने शरीरे 

आत्मा देह समाप्त होने पर भी समाप्त नहीं होता

 गीता – 2.21

जो इस आत्मा को अविनाशी , नित्य , अजन्मा और अव्यय समझता है वह भला किसी को कैसे मरवाता होगा और मारता होगा !

गीता – 2.22

जैसे पुराने वस्त्रको त्याग कर मनुष्य नया वस्त्र धारण करता है वैसे आत्मा ( जीवात्मा ) भी नया  देह धारण करता है ।

गीता – 2.23

शस्त्रों से जो न काटा जा सके , अग्नि से जो न जलाया जा सके जल से जो न घुलाया जा सके, वायु से जो न सुखाया जा सके , वह आत्मा है 

गीता – 2.24

अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्य , अपरिवर्तनीय , अचल और सनातन , आत्मा है 

गीता – 2.25

अव्यक्त , अचिंत्य , अविकार्य , आत्मा के गुण हैं 

गीता : 2.26 - 2. 29

आत्मा न जन्म लेता है और न मरता है  सभी भूत जन्म पूर्व एवं मृत्यु पश्चात अव्यक्त हैं फिर मृत्यु पर शोक क्या करना !

गीता - 2.30

देहमें देही [ आत्मा ] अबैध्य है 

गीता - 3.17

आत्मा केंद्रित का कोई कर्तव्य नहीं होता

गीता - 3.42 + गीता - 3.43 ( काम संदर्भ )

इंद्रियों के ऊपर मन है , मन के ऊपर बुद्धि और बुद्धि के ऊपर आत्मा है अतः आत्मा केंद्रित को काम छू भी नहीं सकता

गीता - 6.29

समभाव सबको आत्मा से आत्मा में देखता है 

 गीता – 10.20

अहम् आत्मा ; सब के हृदय में आत्मा रूप में मैं हूँ , श्री कृष्ण कह रहे हैं 

गीता  – 13.32

यह अनादि निर्गुण , परम , अव्यय एवं द्रष्टा है 

 गीता – 13.33

आत्मा अति सूक्ष्म , सर्व ब्यापी , देह में अलिप्त है 

गीता  – 14.5

देह में आत्मा को तीन गुण रोक कर रखते हैं 

गीता : 8.5 + 8.6 + 15.7 + गीता – 15.8

अंत काल आने पर मनुष्य जिस भाव में रहता है , उसे अगले जन्म में  वैसी योनि मिलती है । प्रभु - स्मृति में आखिरी श्वास भरने वाला प्रभु को प्राप्त करता है । देह छोड़ रही आत्मा के संग मन सहित इंद्रियां भी होती हैं 

गीता – 15.11

हृदय में स्थित आत्मा को यत्नशील योगी समझते हैं लेकिन अज्ञानी यत्न करने पर भी नहीं समझते

आत्मा / जीवात्मा संबंधित कुछ रहस्यात्मक श्लोक

गीता सूत्र – 15.9

श्रोतं चक्षु : स्पर्शम् रसनं घ्राणं एव च 

अधिष्ठाय् मन : च अयं विषयान् उपसेवते 

 आत्मा 5 ज्ञानेन्द्रियों एवं मन के माध्यम से बिषयों का भोग करता है । यहाँ आत्मा को भोग कर्ता के रूप में बताया जा रहा है वास्तव में यह जीवात्मा है ।

गीता – 2.25

अब्यक्त : अयं अचिंत्य : अयं अविकार्य : अयं उच्यते ।

तस्मात् एवं विदित्वा एनम् न् अनुशोचितुम् अर्हसि ।।

 आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य और निर्विकार है

गीता  – 2.28

अव्यक्त – आदीनि भूतानि व्यक्त मध्यानि भारत ।

अव्यक्त निधनानि एव तत्र का परिदेवना ।।

 जो हैं सब अव्यक्त से व्यक्त हुए हैं और पुनः अव्यक्त में जा मिलेगे अतः जो अव्यक्त हो रहे हैं उनके लिए क्या शोक करना !

गीता – 10.10 - 10.11

सतत युक्त वाले अनन्य भक्तों को मैं तत्त्व ज्ञान देता हूं जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं । उन पर अनुग्रह करने के लिए उनके आत्मभाव में स्थित मैं उनके अज्ञान को तत्त्व ज्ञान से निर्मूल कर ज्ञान का प्रकाश भरता हूं

गीता – 10.20

अहम् आत्मा गुणाकेश सर्व भूत आशय – स्थित :।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानां अंत ; एव च ।।

श्री कृष्ण कह रहे हैं …

सबके हृदय में स्थित मैं आत्मा हूँ जो सबका आदि मध्य अंत का कारण है 

गीता  – 15.15

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट : 

मत्त : स्मृति : ज्ञानं अपोहनम् च 

वेदै : च सैर्वः अहम् एव वेद्य :

 वेदांत – कृत वेद वित् एव च अहम् 

श्री कृष्ण कह रहे हैं …

मैं सबके हृदय में स्थित सबके स्मृति , विस्मृति एवं ज्ञान का श्रोत हूँ 

गीता – 13.17

ज्योतिषाम् अपि तत् ज्योति : तमस : परम् उच्यते 

ज्ञानम् ज्ञेयम् ज्ञान गम्यम् हृदि सर्वस्य विष्ठितम् 

 श्री कृष्ण कह रहे हैं

 मैं सभी प्रकाश के श्रोतों में प्रकाश की ऊर्जा हूँ 

गीता – 18.60

स्वभाव जेन कौन्तेय विवद्ध : स्वेन कर्मणा 

कर्तुम् न इच्छसि यत् मोहात् करिष्यसि अवश : अपि तत् 

 जिस कर्म को तुम मोह के प्रभाव में नही करना चाह रहा  , उसको अपनें स्वाभाविक कर्म से बधा हुआ करेगा ।

गीता  – 18.61

ईश्वरः सर्व भूतानां हृत देशे अर्जुन तिष्ठति 

भ्रामयन् सर्व भूतानि यंत्र आरूढ़ानि मायया 

शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को ईश्वर अपनी माया से भ्रमण कराता हुआ सबके हृदय में स्थित है ।

गीता – 13.12

ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा अमृतं अश्नुते ।

अनादि मत् परम् ब्रह्म न् सत् न् असत् उच्यते ।।

जिसके जानने से परमानंद मिलता है वह अनादि परम ब्रह्म न सत् है न असत् 

आत्मा  की  यात्रा - एक देह से दूसरे देह में  कैसे होती है ⤵️

यहां देखिये गीता के निम्न श्लोकों को  ⬇️

8.5 , 8.6 , 15.8 

गीता सूत्र – 8.5

अंत काले च माम् एव समरन् मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति सः मत् भावं याति न् अस्ति अत्र संशयः

अंत समय में प्रभु सुमिरन के साथ जो प्राण त्यागता है वह प्रभु को प्राप्त होता है अर्थात वह आवागमन से मुक्त हो जाता है ।

गीता सूत्र – 8.6

यं यं वापि समरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तं एव एति कौन्तेय सदा तत् भाव भावितः ।।

अंत समय में जिस भाव से मनुष्य भावित रहता उसे वैसी अगली योनि मिलती है 

गीता सूत्र – 15.8

शरीरं यत् अवाप्नोती यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरः ।

गृहीत्वा एतानि संयाति वायु : गंधान् इव आशयात् 

देह छोड़ते समय ईश्वर के साथ मन सहित इन्द्रियाँ भी रहती हैं ।

 यहां जीवात्मा के लिए ईश्वर शब्द दिया गया है


गीता के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं ⤵️


मनुष्य के मन में भावों की गहराई उसके वर्तमान जीवन के साथ – साथ अगले जीवन को भी प्रभावित करती है / 

मनुष्य का जीवन जिस केंद्र पर गुजर रहा होता है वह अंत समय में भी उसी भाव से भावित रहता है । देह को छोड़कर जब जीव आत्मा गमन करता है तब उसके साथ उस ब्यक्ति का मन भी होता है । मन को कर्माशय भी कहते हैं । कर्माशय अर्थात जहां उसके कर्म बीज रूप में एकत्रित होते रहते हैं । वर्तमान जीवन का जब अंत आता है और तबतक अगर वह मनुष्य भोग तत्त्वों से मुक्त नहीं हुआ होता तब उसका मन आत्मा को विवश करता है ऐसे देह को खोजने के लिए जिस के माध्यम से वह अपनी अतृप्तता को पूरी कर सके । आवागमन चक्र की यात्रा मूलतः वैराग्य की यात्रा है । जबतक भोग तत्त्वों के प्रति वैराग्य नहीं उठता तबतक वह मनुष्य आवागमन चक्र में रहता हैं ; वह मनुष्य अर्थात उसकी जीव आत्मा । जो मौत के भय से भागता रहता है वह स्वयं को मुर्दा बना कर रखता है और वह जो मौत से मित्रता रखता है , कभीं मरता नहीं अपने देह को स्वयं त्यागता है / गीता मौत से दोस्ती करनें की कला से परिचय कराता है / अर्जुन को भय सता रहा है कि दोनों तरफ से आये सभीं नैजवान यहाँ कुछ ही समय में मारे जाने वाले हैं और इस प्रकार हमारे दोनों कुलों का अंत होनें वाला है , ऎसी परिस्थिति में अपनों के खून से भरी दरिया को पार करने के बाद यदि राज – सिंघासन मिलता भी है तो क्या यह संभव है कि उस राज्य सिंहासन को हम चैन से भोग सकेंगे ? प्रश्न सामयिक है और उचित भी लेकिन भोग की दृष्टि से , वैराग्य की दृष्टि से ।  युद्ध क्षेत्र ध्यान का उत्तम स्थान होता है जहां संसार के प्रति वैराज्ञ का होना अति आसान हो सकता है / प्रभु श्री कृष्ण स्थिति को समझते हुए अर्जुन को युद्ध का पूरा फ़ायदा पहुंचाना चाहते  हैं और चाहते हैं कि पांडव इस युद्ध से वैराज्ञ प्राप्ति के बाद राज्य की जिम्मेदारी संभालें और एक आदर्श स्थापित करें। पूरी महाभारत सुनने और देखने के बाद क्या ऐसा हुआ ?  महाभारत युद्ध के बाद क्या पांडव सुख -चैन से रह पाए ? ढेर सारे प्रश्न हैं जिनकी सोच में यही दिखता है कि महाभारत युद्ध यदि धर्म युद्ध था तो फिर द्वापर युग के बाद कलियुग नहीं सतयुग आना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं । एक बात अवश्य घटित हुई की  भारत से सभीं बुद्धि जीवी चाहे वे चिकित्सक को , युद्ध विज्ञान के वैज्ञानिक हों या अन्य बुद्धि जीवी हों सबके सब एक साथ समाप्त हो गए । भारत वर्ष से बुद्धि जीवियों का बीज ही समाप्त हो गया , यह कैसा धर्म युद्ध था ! 

 चिंता और चिता में कोई अंतर नहीं 

~~ ॐ ~~