Monday, June 5, 2023

गीता तत्त्वम् भाग - 11 भोग एक सहज मध्यम है


 

गीता तत्त्वम् - 11

    भोग में उठा होश , 

                 प्रभु से जोड़ता है                                    

भोग और योग में क्या भेद है ?

तीन गुणों एवं अहंकार के प्रभाव में इंद्रियों एवं उनके विषयों के संयोग से मिलने वाले फल को भोग कहते हैं ।भोग का सुख क्षणिक होता  है।

भोगे भोग तत्त्वों के प्रति उठा होश वैराग्य में पहुंचाता है जिसे योगारूढ़ की अवस्था भी कहते हैं । वैराग्य में योगी माया का दृष्टा बन जाता है और प्रभु से एकत्व स्थापित हो जाता है 

अब आगे चलते हैं ⤵️


वेद प्रवृति परक और निवृति परक - दो प्रकार के कर्मों की चर्चा करते हैं । ऐसे कर्म को कर्म बंधनों के कारण होते हैं , उन्हें प्रवृत्ति परक कर्म कहते हैं और जो भोग से जोड़ते हैं । ऐसे कर्म जो  प्रभु से जोड़ते हैं ,उन्हें निवृत्ति परक कर्म कहते हैं । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रवृत्ति परक कर्म भोग कर्म होते हैं और निवृत्ति परक कर्म योग कर्म होते हैं । अब इसे भी समझते हैं ⬇️

नित्य भोजन करना ,  जल पीना , सोना और इस प्रकार के अन्य सहज कार्य हम - आप के दैनिक जीवन के अभिन्न अंग हैं लेकिन क्या हम - आप कभीं यह भी सोचते हैं कि आखिर यह सब हम सब के अंदर बैठा कौन और क्यों कर रहा है ? जी नहीं , हम सब इस विषय के संबंध में गहराई से कभीं नहीं सोचते क्योंकि यह सब करने का अभ्यास हम सब को गर्भ से है । गर्भ में मां के माध्यम से यह सब हम सब करते रहे हैं और जन्म के बाद इन कार्यों को करने का हम सब का अभ्यास स्वतः हो गया होता है अतः इनके होने के बुनियादी कारणों के संबंध में हमारी बुद्धि रुचि नहीं

 लेती ।

यहां हम ऊपर व्यक्त विषय को संक्षेप में दो सिद्धांतों के आधार पर समझने की कोशिश कर रहे हैं - पहला सिद्धांत द्वैत्य बादी सांख्य दर्शन का सिद्धांत है और दूसरा अद्वैत्य बादी वेदांत दर्शन का सिद्धांत है। 

सांख्य में प्रकृति ( जड़ तत्त्व ) और पुरुष ( चेतन तत्त्व ) के संयोग से हम हैं । प्रकृति अपनें 23 तत्त्वों ( 11 इंद्रियां , बुद्धि , अहंकार , 5 तन्मात्र और 5 महाभूतों ) के मध्यम से प्रकृति स्वरूपाकार पुरुष को उसके शुद्ध चेतन स्वरूप में लौटने के लिए सहयोग करती है जिससे प्रकृति को वह समझ कर कैवल्य की प्राप्ति कर सके । जब प्रकृति का यह कार्य पूर्ण हो जाता है तब विकृत त्रिगुणी प्रकृति अपनें साम्यावस्था में आ जाती है ।

वेदांत दर्शन में शुद्ध चेतन ब्रह्म से ब्रह्म में त्रिगुणी माया है। माया से माया में त्रिगुणी देह और देह में ब्रह्मांश रूप में आत्मा है जिसे शरीर में होने के कारण जीवात्मा कहते हैं । मनुष्य योग साधना से गुणातीत की अवस्था प्राप्त करता है जिसे पुरुषार्थ शून्यावस्था अवस्था भी कहते हैं और वही अवस्था कैवल्य की कहलाती हैं।  जीवात्मा देह माध्यम से माया के रहस्य के अनुभव से तृप्त हो कर माया मुक्त हो जाती है , उसका ब्रह्म से एकत्व स्थापित हो जाता है और इस प्रकार जीवात्मा ब्रह्म में विलीन हो कर ब्रह्म बन जाती है । 

सांख्य और वेदांत सिद्धांत मूलतः एक जैसे ही है केवल शब्दों का हेर - फेर है । 

दोनो सिद्धांतो के आधार देह अर्थात प्रकृति या माया पुरुष या जीवात्मा के लिए भौतिक आधार है क्योंकि बिना देह आलंबन जीवात्मा के अस्तित्व को समझना बहुत कठिन हो जाता है । देह पांच महाभूतो के बिना संभव नहीं । देह में पांच महाभूतों में संतुलन बनाए रखने के कारण हमें समय - समय कुछ सहज कर्म जैसे भोजन करना , जल ग्रहण करना , श्वास लेना आदि करते रहना पड़ता है । देह में पांच महा भूतों का सम्यक संतुलन बने रहने से देह में स्थित देही (पुरुष या जीवात्मा ) के भोग के टूल्स (tools) की कार्य कुशलता यथावत बनी रहती है और देह में स्थित पुरुष को कर्म बंधनों को समझने का सम्यक अवसर मिलता रहता है । हमारे देह में भोक्ता पुरुष है और अहंकार के प्रभाव में हम स्वयं को भोक्ता समझते रहते हैं जो एक बहुत जटिल भ्रम है । 

कर्म बंधन या भोग बंधन  के माध्याम से पुरुष स्वयं को प्रकृति ही समझ बैठता है और ये बंधन निम्न हैं⤵️

आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य और अहंकार । इन 09 कर्म बंधनों में से प्रथम 08 तीन गुणों की वृत्तियाँ हैं और अहंकार स्वतंत्र बंधन है। योग साधना में यहां व्यक्त नौ बंधनों के प्रति होश बनाए रखने का अभ्यास किया जाता है जिससे अंततः वैराग्य मिल जाता है । वैराग्य अवस्था में पुरुष को अपने मूल स्वरूप का बोध हो जाता है फलस्वरूप वह प्रकृति से मुक्त हो कर कैवल्य प्राप्त कर लेता है ।√√√π

अब ऊपर व्यक्त सिद्धांत के आधार पर गीता के कुछ श्लोकों को समझने की कोशिश करते हैं ।

गीता में इन्द्रिय – बिषय के सहयोग से कामना की ऊर्जा  के साथ जो कुछ भी होता है वह भोग है //

यहाँ देखें गीता के निम्न श्लोकों को ⤵️

  2.14 , 5.22 , 5.23 , 16.21 , 18.38 , 18.48

गीता – 2.14

इन्द्रिय एवं बिषय के सहयोग से जो होता है और उस से जो सुख – दुःख मिलते हैं वे क्षणिक होते हैं , उनसे अशांत नहीं होना चाहिए ।

गीता  – 5.22

तीन गुणों के प्रभाव में इन्द्रिय – बिषय संयोग से जो भी होता है वह भोग है , जिससे बुद्ध पुरुष मोहित नहीं होते ।

गीता – 5.23

काम – क्रोध से अछूता सुखी रहता  है ।

गीता  – 16.21

काम , क्रोध एवं लोभ नर्क के द्वार हैं ।

गीता  – 18.38

भोग , भोग के समय अमृत सा भासता है लेकिन उस भोग का परिणाम बिष जैसा होता है ।

गीता  – 18.48

सभीं कर्म दोषयुक्त होते हैं पर सहज कर्मों का त्याग उचित नहीं । जीने के लिए जो करना आवश्यक होता है , उन्हें सहज कर्म कहते हैं । √√√


कामना , क्रोध , अहंकार और लोभ  

यहां गीता के निम्न श्लोकों को देखते हैं ⬇️

2.55

4.12

4.19

420

6.1

6.2

6.4

610

18.2

18.17

18.54

270

2.71

720

7.22

2.56

410

2.62

2.63

16.21

3.27

14.12

5.19

5.23

गीता  – 2.55

कामना रहित स्थिर – प्रज्ञ होता है ।

गीता  – 4.12,7.20,7.22

देव – पूजन से कामनापूर्ति होती है ।

गीता  – 4.19,4.20

कर्म फल की चाह एवं संकल्प की अनुपस्थिति ज्ञानी के लक्षण हैं ।

गीता – 6.1

संन्यासी के कर्म कर्म फल के अभाव में होते रहते हैं। 

गीता – 6.2

संकल्प धारी योगी नहीं हो सकता ।

गीता – 6.4

कर्म में आसक्ति - संकल्प की अनुपस्थिति योगारूढ़ बनाती है ।

गीता  – 6.10

कामना रहित एकान्तबासी योगी होता है ।

गीता  – 18.2

कामना रहित कर्म , कर्म संन्यासी के होते हैं ।

गीता – 18.17

अहंकार रहित व्यक्ति के लिए कोई कर्म बंधन नहीं ।

गीता  – 18.54

कामना रहित परा - भक्ति में होता है

गीता  – 2.70

मन में उठती कामनाओं का जो द्रष्टा होता है वह स्थिर – प्रज्ञ होता है ।

गीता – 2.71

स्पृहा , कामना , ममता , अहंकार रहित स्थिर – प्रज्ञ होता है ।

गीता – 2.56

राग , भय एवं क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।

गीता – 4.10

गीता  : 2.62 - 2.63

मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना और कामना का रूपांतरण क्रोध है जो पाप कर्म करवाता है ।

गीता  – 16.21

काम , क्रोध एवं लोभ नर्क के द्वार हैं और ये तीनों तत्त्व राजस गुण से हैं ।

गीता – 3.27

अहंकार कर्ता भाव की सोच पैदा करता है ।

गीता – 14.12

काम एवं क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं ।

गीता – 5.23

काम – क्रोध रहित व्यक्ति ही दुखी व्यक्ति होता है।

गीता  – 5.19

समभाव ब्रह्म में बसेरा बना लेता है ।

~~ ॐ ~~ 


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